बुधवार, 18 जून 2014

क्या संघ की बिसात को मोदी ने बदल दिया ?

पुण्य प्रसून बाजपेयी


मोदी की हर रैली उफान पर है। चाहे मेरठ हो या कोलकाता या फिर असम या इंफाल की रैली। भीड़ हर जगह है। मोदी की आवाज गूंज रही है और कांग्रेस की सत्ता को चेताते हुये मोदी लगातार बीजेपी का सेंसेक्स ऊपर उठा रहे हैं। बीजेपी का हर कार्यकर्ता गदगद है कि मोदी का कद लगातार बढ़ भी रहा है और लोकप्रियता के नये पैमाने नापे भी जा रहे हैं। लेकिन मोदी के इस हंगामे में आरएसएस की विचारधारा और उसकी मूलभूत राजनीति के तौर तरीके गायब होते जा रहे हैं। मोदी जिस तरह से विकास का खांचा रख रहे हैं। जिस तरह कांग्रेस की अर्थनीति पर सवाल दाग रहे हैं।

मोदी जिस तरह कांग्रेस को गांधी परिवार में सिमटा रहे हैं। मोदी चीन की विस्तार नीति के बदले सीमा पर दखल और पाकिस्तान के सीमा पर दखल के बदले पड़ोसी से संबंधों पर जोर दे रहे हैं, उससे अब संघ के भीतर भी सवाल उठने लगे हैं। जानकारी के मुताबिक आरएसएस के साथ अलग अलग क्षेत्रों में संघ की विचारधारा के साथ काम कर रहे दर्जन भर से संगठनों को लगने लगा है कि जिस तरह मोदी देश भर में राजनीतिक रैली के जरीये चुनावी गणित बैठा रहे हैं, उसमें संघ के मुद्दे हाशिये पर चले गये हैं। और किसान संघ से लेकर आदिवासियों के बीच काम रकने वाले स्वयंसेवक और स्वदेशी के सवाल से लेकर से लेकर सामाजिक शुद्दीकरण की सोच कही मायने रख ही नहीं रही। यहां तक ही संघ की समूची विचारधारा का ही राजनीतिकरण चुनाव की जीत -हार पर जा टिका है।

और पहली बार ऐसा लगने लगा हा कि मोदी के लिये देश भर में बनते वातावरण में आरएसएस के 89 बरस कोई मायने ही नहीं रखते हैं। यानी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक तौर पर संघ की जिस सोच का पाठ बीते 89 बरस से स्वयंसेवक पढ़ रहे हैं और हेडगेवार से लेकर मोहन भागवत तक के दौर में जो भी स्वयसेवकों ने सीखा वह सब मोदी की जीत हार तले जा पहुंचा है। यह सवाल इसलिये बड़ा होते जा रहे हैं क्योंकि गुजरात में मोदी के गवर्नेंस को लेकर पहला विरोध कांग्रेस ने नहीं किया बल्कि विश्व हिन्दु परिषद से लेकर स्वदेशी विचार मंच ने किया। किसान संघ से लेकर आदिवासी कल्याण आश्रम चलाने वाले स्वयंसेवको के सामने मोदी को लेकर मुश्किल आयी। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की आधुनिक सोच या कहे विकास की अर्थवयवस्था का पूरा खांचा ही उसी बाजार अर्थव्यवस्ता पर टिका हुआ है जिसका विरोध एक वक्त दत्तोपंत ठेंगडी ने वाजपेयी सरकार के दौर में खुलकर किया था। और तब संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो गया था कि दिल्ली की सत्ता पर बैठ कर कोई स्वयंसेवक अगर संघ की विचारधारा को ही भूल जाये तो उसे रोका कैसे जाये। लेकिन इस बार तो सत्ता में पहुंचने के लिये संघ के स्वयंसेवक मोदी ने उसी चादर को लपेट लिया है जो संघ की सोच से मेल ही नहीं खाती। हालाकि संघ ने 2014 के चुनाव को लेकर मोदी की इस उड़ान पर ब्रेक लगाने के लिये कई रास्ते अपनाने शुरु कर दिये हैं।

मसलन, चुनाव मैदान में बीजेपी टिकट पा कर उतरने वाले हर उम्मीदवार को तभी मंजूरी मिलेगी जब संघ की मुहर लग जाये। इसके लिये हर राज्य में टिकटधारियों की प्रोफाइल स्वयंसेवक तैयार कर रहे हैं। पुराने स्वयंसेवकों से मिलकर संघ की सोच के करीबी व्यक्तियों को संघ के वरिष्ठ हर प्रांत में टटोल रहे हैं। बीजेपी को संघ के तरफ से यह भी यह भी कहा गया है कि गैर राजनीतिक अच्छे लोगों के लिये भी जगह खाली रखी जाये। जो अपने अपने प्रोफेशन छोड़कर बीजेपी से टिकट लड़ने को तैयार हो। साथ ही 50 फीसदी टिकट संघ जारी करेगा। खासतौर से यूपी में दागी या उसके रिश्तेदारों को टिकट नहीं दी जानी चाहिये। तो चुनाव के लिये तमाम तैयारी के बाबजूद संघ की मुश्कल यह है कि 2014 के चुनाव को पहली बार सरसंघचालक मोहन भागवत हो या सरसंघचालक भैयाजी जोशी या फिर इस कतार में खडे सुरेश सोनी हो या दत्तत्रेय होसबोले। सभी ने चुनाव को संघ के विस्तार से जोड़ा है और बकायदा हर बैठक में इसका जिक्र किया कि बीजेपी की राजनीतिक जीत हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार के लिये क्यों जरुरी है। असर इसी का है कि पहली बार हर प्रांत में संघ का स्वयंसेवक चुनावी मशक्कत से जुड़ चुका है। लेकिन संघ की यही चुनावी मशक्कत को नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह अपनी जीत की बिसात मान ली है और संघ की ही बिसात पर खड़े होकर मोदी विकास का जो चेहरा देश को दिखा रहे है उसमें संघ की सोच कही नहीं है । बीजेपी से बडा कद बनाकर मोदी बीजेपी को भी अपने अनुसार गूंथ रहे हैं। संघ इससे भी परेशान है। और 2014 की चुनावी जीत हार को सिर्फ अपने इर्द-गिर्द ही मोदी ने जिस तरह समेट लिया है उससे भी संघ नाराज है कि सांगठनिक सोच गायब हो रही है। असर इसी का है कि आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को राज्यसभा में भेजने की बात मोदी की तिकड़ी के जरीये दिल्ली में उड़ायी गई। और नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली सरीखे नेताओं की पहल चुनाव से पहले संसदीय बोर्ड को भी खत्म कर कोर कमेटी बनाने की है। हालांकि संघ इसपर राजी नहीं है । लेकिन आसी पहल कई सवाल खडा कर रही है कि आखिर बीजेपी के भीतर वह सारे नेता अब कोई मायने नही रखते जिनकी अपनी पहचान है या फिर जो मोदी के सुर में सुर नहीं मिला सकते । ऐसे में संघ कैसे भविष्य में समाज को मथने या हर तबके को साथ लेकर चलने की बात भविष्य में कर सकता है । क्योकि मोदी की सियासत की बिसात चाहे आरएसएस की हो लेकिन मोदी के पांसे धीरे धीरे संघ को ही खारिज कर रहे है ।

और संघ के भीतर यह सवाल भी अब खडा होने लगा है संघ में कोकनस्थ ब्राह्मण के सामानातर बीजेपी की राजनीति के जरीये अब मोदी का ओबिसी कार्ड भी क्या महत्वपूर्ण हो चला है । और आने वाले वक्त में संघ की ब्राह्मणवादी सोच में भी मोदी की राजनीति हावी हो जायेगी । लेकिन संघ की मुस्किल यह है कि मोदी से बेहतर तरुप का पत्ता उसके पास कोई है नहीं । और संघ को भी लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई में अगर सत्ता मिल जाती है तो फिर संध की विचारधारा को विस्तार मिल सकता है ऐसे में मोदी को रोकना या मोदी से टकराना अभी सही नहीं है । लेकिन यह सारे सवाल जिस तरह संघ के भीतर गूंज रहे है और स्वयसेवको को परेसान किये हुये है उसमें हर किसी का इंतजार मार्च में होने वाली संघ के प्रतिनिधी सभा पर जा टिकी है जहां से मोदी के लिये या कहे 2014 के चुनाव को लेकर कोई आखिरी मंत्र जरुर निकलेगा। आस सभी को इसी की है ।

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