बुधवार, 1 जुलाई 2015

टाइट जींस तथा पश्चिमी सभ्यता के कपङों के नुकसान


लेखक परिचय

प्रवक्‍ता ब्यूरो

प्रवक्‍ता ब्यूरो


ड्रेसेज के मामले में युवाओं की पहली पसंद है जींस। जींस में इतनी वैरायटी आ गयी हैं कि युवाओं का ध्यान किसी और तरफ जाता ही नहीं। लेकिन ज्यादा टाइट जींस पहनने से आप बीमारियों के भी शिकार हो सकते हैं।
टाइट कपड़ों से नुकसान-
टाइट फिटिंग वाली जींस, स्कटर्स और अन्य ड्रेसेज आपको आकर्षक लुक तो देते हैं, परेशानी हो सकती है। इस तरह की ड्रेस से न सिर्फ चलने-फिरने में परेशानी होती है, बल्कि इनसे आपका पाश्चर भी बिगड़ने की आशंका रहती है। इतना ही नहीं रीढ़ की हड्डियों में भी इस तरह की ड्रेसेज की वजह से परेशानी हो सकती है और आपको उठने-बैठने में भी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। फैशन एक्सपर्ट की माने तो टाइट कपड़ों शरीर की बनावट पर तो असर डालते ही हैं, दिनभर ऐसे कपड़े पहनने से आप असहज भी महसूस करने लगते हैं। इससे आपको सिर दर्द, शरीर दर्द जैसी समस्याओं का सामना भी करना पड़ सकता है। एक सर्वे के अनुसार आफिस में शर्ट और जींस पहनने वाली महिलाओं की संख्या लगभग सात फीसदी है। टाइट जींस के फैशन को लेकर डा. शर्मिली राज का कहना है कि लोग फैशन के इस कदर दीवाने हैं कि कई बार उससे होने वाली समस्याओं को नजरअंदाज करने लगते हैं। इससे उनकी समस्याएं बाद में काफी बढ़ जाती है, कई बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं।
tight jeansटाइट जींस से होने वाली समस्याएं –
* टाइट जींस तथा पश्चिमी सभ्यता के अन्य कपङे पहनने से हमारी कार्यक्षमता पर बहुत विपरीत प्रभात पङता है। अर्थात् हम बहुत जल्दी थकान का अनुभव करते है। किसी भी कार्य करने में नीरसता रहती है। अगर आपमें भी यह लक्षण है तो कुछ दिन खादी का ढीला कुर्ता और पजामा पहन कर देखें पहले दिन से परिवर्तन महसूस करेंगे और पूरे दिन ऊर्जा से भरे रहेगें।
* टाइट जींस की सबसे बड़ा नुकसान है नपुंसकता |
शरीर से हमेशा चिपके रहने के कारण त्वचा , मांसपेशियो और नाड़ीयो की तापमान लगातार बढ़ता है | जिससे शुक्राणु की कमी होने लगती है क्योकी यह जांघ के आस पास ज्यादा दबाव व ताप बढ़ाता है तथा आवश्यक रक्त संचार में व्यवधान उत्पन्न करता है|
जो लोग पारिवारिक जीवन में अपने जीवनसाथी से संतुष्ट नहीं है उसका भी एक बङा कारण पश्चिमी सभ्यता के कपङे है।अगर आप चहाते है की आपके बच्चे इस दौर से ना गुजरे तो आज से ही अपने बच्चों को भारतीय परिधान पहनाये।

* स्किनी और फिटेड जींस का आजकल खूब प्रचलन है। लेकिन इस तरह की जींस से स्किन प्रॉब्लम हो सकती है। टाइट जींस से ब्लड सर्कुलेशन और नर्वस सिस्टम भी प्रभावित होता है। दरअसल स्किनी जींस बहुत लंबे समय तक स्किन से चिपकी होती है, जिस कारण पसीना पूरी तरह से सूख नहीं पाता। इससे स्किन इरिटेशन और फंगस इंफेक्शन की आशंका काफी बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, ऐसे में चर्म रोग होने का खतरा भी बढ़ जाता है।
* टाइट जींस पहनने से त्वचा संक्रमण बढ़ जाता है, जिससे छाले और घाव पड़ने की आशंका रहती है।
* स्किनी जींस और टाइट जींस जैसे कपड़े त्वचा की नमी को छीन लेते हैं। इस कारण खुजली, रैशेस पड़ने लगते हैं। इससे कई बार छोटे-छोटे लाल दाग हो जाते हैं और कारण त्वचा संक्रमण भी हो जाता है।
सावधानियां-
हम तो आपको सुझाव देंगें की पश्चिमी सभ्यता के कपङे किसी आपातकाल में ही पहने। फिर भी इनसे होने वाली सम्स्याओं को कुछ सीमा तक ही कम कर सकते है अगर कुछ यह सुझाव माने।

* यदि आपको बहुत ज्यादा भाग दौड़ करनी है तो टाइट जींस का प्रयोग न करें।
* जींस को धोते समय अच्छी तरह से साबून-सर्फ निकाल दें, जिससे त्वचा संक्रमण का शिकार न हो और परेशानी से बच सकें।
* प्रतिदिन टाइट जींस का प्रयोग करने से बचें।
* ऐसी जींस पहने जो कंफर्टेबल हो और उसमें आपका दम न घुट रहा हो। यानी आप सहज महसूस करें और आराम से उठ-बैठ सकें, चल पाएं।
* कुछ खास मौकों पर ही टाइट जींस पहने तो बेहतर होगा।
* गर्मी के मौसम में खासतौर पर टाइट जींस के बजाए लूज कपड़े या लूज जींस पहने।
* एलर्जी होने पर जींस पर मेटल बटन के बजाए प्लास्टिक के बटन लगाएं या फिर बटन पर नेल पालिश लगाएं।
* एक जींस को बिना धोएं दो-तीन बार से अधिक न पहनें।
* जरूरत न हो तो टाइट जींस पर बेल्ट का प्रयोग न करें।

खतरे में खबरनवीसों की आजादी

Posted On June 29, 2015 by &filed under मीडिया.

हर लोकतान्त्रिक देश की तरह भारत भी देश के तमाम पत्रकारों के पूर्ण रूप से आजाद होकर ख़बरें लिखने व छापने का दम्भ भरता है। लेकिन बीते कुछेक हफ़्तों से चल रहे भारतीय खबरनवीसों पर हमलों से इस दम्भ पर सवालिया निशान खड़े होने लगे हैं। विगत एक महीनें में कई भारतीय पत्रकारों पर हुए हमले से पूरे विश्व में भारतीय पत्रकारों की आजादी के साथ-साथ सुरक्षा पर भी चर्चाओं के साथ ऊँगली उठने लगी है। इसके साथ ही भारत के तमाम स्वतंत्र रूप से काम करने वाले पत्रकारों की सुरक्षा पर भी सवाल खड़े किये जाने लगे हैं।

जून माह की पहली तारीख को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में बतौर स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करने वाले जगेंद्र सिंह की जलाकर हत्या कर दी गयी थी। ठीक इसके कुछ दिनों बाद ही ऐसी ही घटना मध्य प्रदेश के स्वतंत्र पत्रकार संदीप कोठारी के साथ भी घटी। स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करने वाले दोनों ही पत्रकारों की हत्याओं में दो समानता पहली ही नज़र में दिखाई पड़ती है। जहाँ एक ओर दोनों ही पत्रकारों की हत्याएं प्रदेश के माफियाओं के खिलाफ खबर लिखने व उससे समबन्धित सच को उजागर करने पर हुई थी तो वहीँ संदीप व जगेंद्र दोनों को जला कर बेहद बेदर्दी से से मार डाला।

बेहद बेदर्दी से की गयी दोनों पत्रकारों की हत्याओं के बाद देश के भीतर कई जगह इसका विरोध भी शुरू हो गया है। पत्रकार समूह के साथ-साथ देश के तमाम नेता, आम जनता आदि पत्रकारों पर हो रहे हमले के खिलाफ कमोबेश खड़े होते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। बहरहाल, संदीप की हत्या पर काफी बवाल मचने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जगेंद्र सिंह के परिवार वालों को तीस लाख रुपये, दोनों बेटों को भविष्य में सरकारी नौकरी के साथ साथ जांच को पूर्णतः निष्पक्षता के साथ कराने का आश्वासन देकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। दोनों पत्रकारों के परिवारों को सरकारों की तरफ से मिले आश्वासन के बाद अब भी देश के तमाम पत्रकारों की सुरक्षा के लिए किसी भी सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।

अगर हम मौजूदा वक़्त में हो रहे पत्रकारों पर हमले की संख्या के बारे में बात करें तो बीते कुछेक वर्षों में पत्रकारों की हत्याओं के मामले में काफी तेज़ी आई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, जगेंद्र सिंह व संदीप कोठारी को मिलाकर बीते 22 सालों में 58 भारतीय खबरनवीसों की जान जा चुकी है। सौम्या विश्वनाथन, जे. डे. आदि जैसे कुछेक नाम हैं जिनकी हत्या के बाद भारतीय पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर नए तरीके से बात शुरू हुई लेकिन कई सालों के बीत जाने के बाद भी अभी तक सुरक्षा से सम्बंधित किसी भी प्रकार का कोई निर्णय केंद्र सरकार के द्वारा नहीं लिया गया है।

निष्पक्ष पत्रकारिता के के लिए भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में कई पत्रकारों पर भी हत्याओं के द्वारा रोक लगायी जा चुकी है। पूरे विश्व में हाल ही में हुए पत्रकारों की हत्यों पर एक नज़र डाले तो पाएंगे कि पिछले दो वर्ष में लगभग 150 खबरनवीसों की आजादी पर हत्या के जरिये रोक लगाई गयी है। इस आंकड़े में एक दिलचस्प व् अचंभित करने वाला सच यह है कि मारे गए इन लगभग 150 पत्रकारों में से लगभग 60 के आस पास ऐसे खबरनवीस हैं जिनकी हत्या आतंकी गढ़ में रिपोर्टिंग करते हुए की गयी है। सच को उजागर करने व जनता से सीधे सरोकार की भावना की ही वजह से अब कहीं न कहीं देश, विदेश के तमाम पत्रकारों के ऊपर अपनी जान से हाथ धोने का संकट मंडराता हुआ प्रतीत हो रहा है।

मौजूदा वक़्त में महज सीरिया, इराक, अफगानिस्तान जैसे पश्चिम एशियाई देशों के साथ-साथ सूडान, सोमालिया जैसे अफ्रीकी देश भी युद्ध के दौर से गुजर रहे हैं। इसी कारणवश वहां पत्रकारिता करने गए खबरनवीसों की कई बार हत्या की जा चुकी है। इसके अतिरिक्त एशिया के प्रमुख देशों में आने वाले पाकिस्तान में भी पत्रकारों के लिए हालात बदतर हैं। ऐसे में मौजूदा दौर में निष्पक्ष एवं विश्वसनीय पत्रकारिता के मूल्यों का निर्वहन करने वाले खबरनवीसों के लिए खतरे पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गए हैं।

निष्पक्षता पत्रकारिता का पहला नियम होने की वजह से तमाम पत्रकारों को न सिर्फ खबरों के प्रति निष्पक्षता बनाए रखनी होती है बल्कि जनता के समक्ष सच को उजागर करने की नीति भी कई बार उनकी जान जोखिम में डाल देती है। इसी कारणवश यह आवश्यक हो गया है कि सभी देशों की सरकारें मिलकर पत्रकारों के हित में ऐसे नियम व् कानून बनाये जिससे खबरनवीसों की जान को किसी प्रकार का कोई जोखिम न हो और वे खुलकर पाठकों तथा जनता के प्रति अपने कर्तव्य का सही रूप से निर्वहन कर सकें।

सवाल देशवासियों के स्वास्थ्य व जान की क़ीमत का ?

लेखक परिचय

तनवीर जाफरी

तनवीर जाफरी

पत्र-पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में बहुत ही सक्रिय लेखन,

Posted On  by & filed under खान-पान, विविधा.

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तनवीर जाफ़री 
गत् 21 जून को राजधानी नई दिल्ली का राजपथ उस समय योगपथ के रूप में परिवर्तित हो गया जबकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित हज़ारों लोगों ने एक साथ योगाभ्यास कर पहली बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया। ज़ाहिर है योग जैसी शारीरिक क्रियाओं का सीधा संबंध इंसान के शारीरिक व मानसिक विकास से है। इसलिए इसे नि:संदेह एक सराहनीय कदम ही माना जाएगा। परंतु क्या विश्व को योग की राह दिखाकर मनुष्य के स्वस्थ शरीर की कल्पना करने वाले भारतवर्ष के लोग वास्तव में स्वास्थय के प्रति जागरूक हैं? और इससे भी बड़ी बात यह है कि क्या भारत सरकार अथवा देश की दूसरी सभी राज्य सरकारें अपने नागरिकों के स्वास्थय के प्रति पहले कभी चिंतित रही भी हैं?
जहां तक भारतवासियों को स्वस्थ व निरोगी रखने का प्रश्र है तो दुनिया जानती है तथा स्वयं योग क्रिया के पैरोकार भी भलीभांति इस बात से भलीभांति वािकफ हैं कि भारतवर्ष इस समय एक ऐसा देश बन चुका है जो मिलावटखोरी तथा रासायनिक प्रक्रिया से तैयार की जाने वाली खाद्य सामग्रियों का विश्व का सबसे बड़ा व खतरनाक बाज़ार बन चुका है। फलों व सब्जि़यों को टोक्सिन जैसे ज़हरीले इंजेक्शन देकर महज़ शीघ्र धन अर्जित करने हेतु उसे बाज़ार में बेचने हेतु समय पूर्व तैयार किया जाता है। अप्राकृतिक उपाय अपनाकर इनके वज़न बढ़ाए जा रहे हैं। दूध,खोया,पनीर,देसी घी जैसे खाद्य पदार्थों को यूरिया व अन्य दूसरी कई रासायनिक प्रक्रियाओं से तैयार किया जाता है। कई फलों पर स्प्रे कर तथा उनपर ज़हरीली पॉलिश कर उनकी सुंदरता बढ़ाकर उन्हें बेचा जा रहा है। गंदे व बदबूदार नालों व नालियों के किनारे तमाम खाद्य सामग्रियां व पकवान बनाए व बेचे जा रहे हैं। तमाम खाने-पीने की वस्तुओं को बिना ढके बेचने का तो हमारे देश में आम प्रचलन हो चुका है। मजबूरीवश इस देश में करोड़ों लोग प्रदूषित जल पीने को मजबूर हैं। हद तो यह है कि हमारे देश में जीवन रक्षक दवाईयां तक नकली बेची जा रही हें। ऐसे और भी कई क्षेत्र हैं जो हमारे स्वास्थ्य को सीधे तौर पर दुष्प्रभावित कर रहे हैं। परंतु योग जैसी क्रिया को आम लोगों के जीवन में उतारने जैसी हास्यास्पद कल्पना करने वाले हमारे राजनेता इन सभी बातों की ओर से आंखें मूंदे बैठे हैं।
हमारे देश के लोग दीवाली,दशहरा व होली जैसे त्यौहार पूरी श्रद्धा व हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। परंतु हरामखोर व्यवसायिक मानसिकता रखने वाला एक बड़ा तबका हमारे इन त्यौहारों में भी अपने ज़हरीले उत्पाद बेचकर हमारे त्यौहारों के रंग में भंग डालने से बाज़ नहीं आता। कई-कई महीने पहले बनी सड़ी-गली व बदबूदार मिठाईयां जनता को बेची जाती हैं। प्राय: इन्हीं मिठाईयों में नकली व रासायनिक खोए व पनीर का इस्तेमाल किया जाता है। संबद्ध विभागों द्वारा अपनी फजऱ् अदायगी करते हुए इन त्यौहारों से पहले देश में कई स्थानों पर छापामारी किए जाने के समाचार भी सुनाई देते हैं। परंतु अपराधी पकड़े जाने के बावजूद कुछ ही दिनों में वे ज़मानत पर अथवा पूरी तरह से बरी हो जाते हैं और बरी होते ही पुन: मिलावटखोरी व बाज़ार में ज़हर बेचने जैसे अपने अमानवीय कार्य में लग जाते हैं। इन सब बातों के बावजूद हमारी सरकारें अपने इस प्रलाप से बाज़ नहीं आती कि वे जनता के स्वास्थय के प्रति कितनी जागरूक हैं। चीन योग जैसी स्वास्थय संबंधी जागरूकता का हालांकि ढोल नहीं पीटता और इस प्रकार के कोई दूसरे ढोंग करने में अपना समय नष्ट नहीं करता। परंतु दूध जैसी वस्तु में मिलावटखोरी करने वालों को मात्र 6 महीने की कार्रवाई के बाद फांसी के फंदे पर ज़रूर लटका देता है। और ऐसा कर चीन यह संदेश दे देता है कि वह भाषण,राजनीति अथवा लोकलुभावन नाटकबाज़ी करने के बजाए अपनी जनता के स्वास्थय के प्रति वास्तव में कितना गंभीर है।
यहां अभी हमने देश के उन नौनिहालों का जि़क्र तो किया ही नहीं जो ज़हरीले फल और सब्ज़ी तो क्या दो वक्त की पेट भर रोटी खा पाने तक का सामर्थय नहीं रख पाते। ग़रीबी और कुपोषण का शिकार करोड़ों देशवासी आज भी मुश्किल से एक समय का आधा पेट भोजन ग्रहण कर भूखे पेट सो जाते हैं। यहां यह सवाल बेहद ज़रूरी है कि देश के खाते-पीते समृद्ध व संपन्न लोगों की बढ़ती तोंद को कम करने व उन्हें निरोगी रखने की गरज़ से देशवासियों को योग करने हेतु प्रोत्साहित करना ज़रूरी है या बाज़ार में उपलब्ध खाद्य पदार्थों के माध्यम से 24 घंटे बेची जा रही बीमारियों पर नियंत्रण रखना व देश के लोगों को कुपोषण व भुखमरी से बचाना अधिक ज़रूरी है? हमारा देश तो ऐसे दोहरे मापदंड से ग्रसित है कि यहां स्वास्थ्य विभाग के लोग निजी नर्सिंग होम में जाकर उनके निर्धारित मानदंड का तो निरीक्षण करते हैं और उन्हें नर्सिंग होम के लिए सरकार द्वारा निर्धारित मापदंड अपनाए जाने के निर्देश देते हैं। परंतु देश के तमाम सरकारी अस्पताल स्वयं उन्हीं निर्धारित मापदंडों की अवहेलना करते हैं। यह सभी बातें इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारे देश में इंसान की जान की कोई कीमत नहीं न ही किसी को देश के लोगों के स्वास्थय की कोई परवाह है। देश में विभिन्न उपमार्गों पर बने सडक़ों के गड्ढे,तमाम खुले मेन होल,बिजली की लटकती तारें भी हमारे देश में इंसान की जान की क़ीमत का बोध कराती हैं। सडक़ों पर सरेआम घूमने व बैठे रहने वाले आवारा पशु जो आए दिन वाहनों के जानलेवा हादसे का कारण बनते हैं यह भी इस बात के गवाह हैं कि इस देश में आम लोगों की जान की कीमत क्या है?
और संभवत: विदेशी व्यापारियों ने भी इन बातों का भलीभांति अध्ययन करने के बाद ही भारतवर्ष में ऐसे ही सामानों की बिक्री भी शुरु कर दी है जो देश के स्वास्थय की परवाह तो कम कर रहे हैं और अपने भारी-भरकम मुनाफे की फ़िक्र ज़्यादा। पिछले दिनों देश में खाद्य सामग्री बनाने वाली विश्व की अग्रणी कंपनी नेस्ले द्वारा तैयार किए जा रहे मैगी उत्पाद को लेकर एक बड़ा खुलासा सामने आया। मैगी को लेकर हुए इस रहस्योदघाटन के पहले क्या देश का कोई व्यक्ति सोच भी सकता था कि चटपटी मैगी के साथ हम सीसा जैसा ज़हरीला पदार्थ भी खा रहे हैं? परंतु मैगी का उत्पाद बाज़ार में लाकर नेस्ले ने लाखों करोड़ रुपये हम भारतवासियों की जेबों से ऐंठ लिए और हमारे शरीर को ज़हरीला बना डाला। जिस समय मैगी की हकीकत का भंडाफोड़ हुआ उस समय भी कंपनी द्वारा अपने बचाव की पूरी कोशिश की गई। अखबारों में अपनी बेगुनाही के विज्ञापन कंपनी द्वारा प्रकाशित कराए गए तथा उनके लिए विज्ञापन करने वाले कई कलाकारों से उनका स्पष्टीकरण प्रसारित करवाया गया। परंतु इन सबके बावजूद मैगी ने बाज़ार से लगभग साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपये की मैगी वापस उठवा कर यह प्रमाणित कर दिया कि उसके उत्पाद में ज़हर था और यह उत्पाद बाज़ार में बिकने योग्य नहीं था।
लगभग यही हाल शीतल पेय बनाने वाली कंपनियों का भी है। वह भी अपने ग्राहक को ज़बरदस्ती डकार लेने हेतु कई शीतल पेय उत्पाद में ऐसे रसायन व गैस की मिलावट करती हैं जिनसे मुनष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। योग गुरु बाबा रामदेव तो कई ऐसे शीतल पेय को टॉयलेट की सफाई हेतु इस्तेमाल किए जाने की सलाह भी कई बार दे चुके हैं। परंतु ऐसे उत्पाद पूरे देश में धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। इन विषयों पर कोई चाहे जितना टिप्पणी करे,आलेख लिखे अथवा इनके विरुद्ध विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित कराए परंतु इन कंपनियों के स्वास्थय पर कोई असर नहीं पडऩे वाला। आखिर क्यों? क्या इनका संरक्षण व इनके हितों की रक्षा हमारे देशवासियों के स्वास्थय से ज़्यादा ज़रूरी है़ और यदि वास्तव में ऐसा ही है फिर योग के नाम पर लोगों को स्वस्थ रखे जाने के ढोंग की ज़रूरत ही क्या है? इन बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि योग के बहाने लोगों को स्वस्थ रहने हेतु प्रेरित करना झूठी लोकप्रियता अर्जित करने का महज़ एक तरीका है। अन्यथा वास्तव में देश के लोगों के स्वास्थय व उनकी जान की कीमत को लेकर देश की सरकारें कितना गंभीर हैं व रचनात्मक रूप से इसके लिए क्या कर रही हैं यह बात किसी से छुपी नहीं है

सत्ता का नया पाठ, राजनीति कीजिये नौकरी पाइए

पुण्य प्रसून बाजपेयी

75 के आंदोलन में छात्रों ने जेपी की पीछे खड़े होकर डिग्री गंवाई। नौकरी गंवाई। 89 के आंदोलन में वीपी के पीछे खड़े होकर छात्रों ने आरक्षण को डिग्री पर भारी पाया। सत्ता के गलियारे में जातिवाद की गूंज शुरु हुई। 2013 में सत्ता ने पहले अन्ना आंदोलन को हड़पा और फिर 2015 में सत्ता ने ही छात्रों को रोजगार का सियासी पाठ पढ़ाया। यानी पहली बार खुले तौर पर छात्रों को यह खुले संकेत दिये जा रहे है कि अगर वह राजनीतिक दलों से जुड़ते है तो सत्ता में आने के बाद छात्रो की डिग्री पर उनकी राजनीतिक सक्रियता भारी पड़ेगी। यानी जो छात्र राजनीति से दूर रहते है या सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देते हुये अच्छे नंबरो के लिये दिन रात एक किये होते है आने वाले वक्त में उसका कोई महत्व बचेगा नहीं। यह सवाल इसलिये डराने लगा है क्योंकि इससे पहले यूपी में समाजवादी पार्टी की सत्ता तले यादवों के भर्ती के किस्से खूब रहे हैं। संयोग से इतनी बडी तादाद में खुले तौर पर जातीय आधार पर नौकरी बांटी गई कि भर्ती घोटाला शब्द ही यूपी की सत्ता के साथ जुड़ गया। मध्यप्रदेश में शिवराज चौहाण सरकार के दौर में व्यापम ने नौकरी को पूंजी से जोड़ दिया। करोडों के वारे-न्यारे के खेल इतने खुले तौर पर हुये कि जब पोटली खुलनी शुरु हुई तो राजनेता, नौकरशाह, बिजनेसमैन और दलालों की नैक्सस भी सामने आ गया। लेकिन ताजा मिसाल तो उन दो नेताओं की सत्ता से जा टिका है, जिन्होंने सत्ता के लिये भावनात्मक तौर पर वोटरों के दिल-दिमाग को छुआ। अर्से बाद इन दो नेताओं के गुस्से से भरे भाषणों को सुनकर वोटरों में यह एहसास जागा कि बदलाव की घड़ी अब उनके दरवाजे पर दस्तक दे ही देगी। क्योंकि एक तरफ नरेन्द्र मोदी का लुटियन्स की दिल्ली की रईसी पर सीधी चोट करना था तो दूसरी तरफ अरविन्द केजरीवाल का सामाजिक ढांचे को ही बदलने का प्रण था। मोदी के भाषणों ने छात्रो को इस हदतक प्रभावित किया कि 26 मई 2014 के तुरंत बाद ही एडमिशन से लेकर नौकरी पाने के हकदार छात्रों के सामने जैसे ही नंबर होने के बावजूद कही आरक्षण तो कही डोमिसाइल के चक्कर में एडमिशन ना हो पाने का संकट उभरा तो हर किसी ने पीएम मोदी को ही याद किया। कइयों ने पीएमओ के नाम मेल किये तो कईयो ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। कुछ ऐसा ही नौकरी पाने का हकदार होने के बावजूद कही पैरवी तो कही राजनीतिक खेल की वजह से नौकरी ना मिल पाने वाले छात्रों ने भी अपने अपने तरीके से पीएम को ही याद किया। 

क्योंकि राजनीतिक सत्ता के भीतर के मवाद को निकालने की कसम मोदी ने पीएम पद के लिये चुनावी प्रचार के वक्त की थी। छात्रों को ऐसी ही आशा केजरीवाल से भी जागी। खासकर दिल्ली में पढने के लिये आने वाले छात्रो ने महसूस किया कि केजरीवाल पढे लिखे हैं । नौकरी छोड़कर नेता बने हैं। तो सत्ता मिलने के बाद दिल्ली में छात्रों को संकट से निजात मिलेगा। एडमिशन हो या पढाई के बाद नौकरी का सवाल दोनों दिशा में दिल्ली सरकार कदम जरुर उठायेगी। दोनों ही नेताओं को लेकर छात्रों में आस इस हद तक हुई कि प्रधानमंत्री मोदी के पद संभालते ही सारी मुश्किले छूमंतर हो जायेगी कुछ एसा ही 88 फीसदी नंबर पाने के बाद पूना में कहीं दाखिला ना होने पर य़श को लगा और उसने अगस्त-सितबंर 2014 में ही पीएमओ में मेल कर अपना गुस्सा निकाला। तो दिल्ली में जिस तरह राजस्थान छात्र को 92 फीसदी नेबर आने पर भी दिल्ली विश्वविघालय में नामांकन ना मिला उसने केजरीवाल और देश की शिक्षा मंत्री को मेल कर अपना गुस्सा निकला । मुश्किल गुस्सा निकालने भर की नहीं है । मुस्किल है कि राजनेताओं और राजनीति से गुस्से में आया युवा तबका ही तो 2011-12 में दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में जुटता था । और देखते देखते देश के शहर दर शहर में रामलीला मैदान ओऔर जंतर मंतर बनने लगे थे । जिससे पारंपरिक राजनीतिक सत्ता की चूले हिलेने लगी थी और उसी के बाद केजरीवाल हो या मोदी दोनों ने ही जनता के आक्रोष की इसी नब्ज को पकडा । पहली बार राजनीतिक भाषणो में बख्शा किसी को नहीं गया। मोदी ने गांधी परिवार से लेकर दामाद राबर्ट वाड्रा और किसान मजदूर से लेकर शिक्षा की खास्ता हालात पर जमकर अपनी जुबां से कोडे चलाये । अच्छा लगा । कोई नेता तो लग दिख रहा है । इसी तर्ज पर केजरीवाल ने भी बख्शा किसी को नहीं । जो भ्रष्ट थे । जो दागी थे। जो मालामाल थे । जो लूट का नैक्सेस बनाये हुये देश को खोखला कर रहे थे। सभी को निशाने पर लिया । युवा साथ कड़े हुये क्योंकि यह जुबां बदलाव वाले थे । लेकिन सत्ता संभालने के साथ ही सच जिस खौफनाक तरीके से दस्तक देने लगा उसने उन्ही छात्रों-युवाओं के सामने अंधेरा कर दिया जो आस लगाये बैठे थो कि उनकी काबिलियत को तो मौका मिलेगा ही । सत्ता केजरीवाल के हाथ आई तो पहली नजर कैडर को ही नौकरी देने या दिल्ली सरकार में काम पर ल गाने की शिरी हुई। चूंकि केजरीवाल का कैडर पारंपरिक राजनीतिक कैडर से अलग था। आम आदमी पार्टी को संभालने वाले या तो केजरीवाल के एनजीओ के साथी है या फिर प्रोपेशनल्स की कतार जो राजनीति की मार तले बदलाव के लिये केजरीवाल में अपना अक्स देखने लगी। 

और तीसरी कतार दिल्ली हरियाण के उम मुफलिसी में खोये छात्रों की है जो केजरीवाल के विस्तार के साथ अपना विस्तार भी देख रहे थे। तो उनके लिये किसी परिक्षा की तैयारी के सामान ही राजनीतिक संघर्ष करना। तो सीएम बनते ही सबसे पहले उसी कैडर को नौकरी पर लगाना प्राथमिकता बनी। दिल्ली में ही करीब दो से तीन हजार कैडर महीने की तयशुदा रकम पा कर दिल्ली सरकार की राजनीतिक नौकरी कर रहा है। यानी जो काम प्रोफेशनल्स के हाथ में होना चाहिये या जिस काम के लिये सत्ता को पढ़े लिके छात्रों के बीच समानता के साथ नौकरी दी जानी चाहिये उसमें प्राथमिकता या कहे समूचा रोजगार ही अपने कैडर में बांट दिया गया। जबकि दिल्ली का सच बेरोजगारी को लेकर कम डराने वाला नहीं है । दिल्ली में दो लाख से ज्यादा बेरोजगार ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट हैं। औप पढ़े लिखे बेरोजगारो की तादाद तो 15 लाख के पार हैं। तो यह सवाल किसी भी जहन में आ सकता है कि सिर्फ अपने कैडर के काम के आसरे तो दिल्ली में राजनीति संघर्ष केजरीवाल ने खड़ा नहीं किया उसमे भ्रष्ट व्यवस्था की मार खाया युवा तबका भी होगा। तो उसका ख्याल कैन करेगा। या फिर सियासी आरक्षण तले अगर कैडर को ही सारी सुविधा मिलेगी तो फिर दूसरे नेता और पार्टी से केजरीवाल और आम आदमी पार्टी अलग कैसे हुई । यही सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के हालात से समझा जा सकता है। देश के अलग अलग विश्वविद्यालयों औररिसर्च इस्टटीयूट में बीजेपी के छात्र संगठन अखिल बारतीय विघार्थी परिषद  में रहे छात्रों को प्रथमिकता मिलने लगी। मसलन हाल में एबीवीपी के तीस छात्रो को अलग अलग जगहो पर एडहोक तरीके से निटुक्त कर दिया गया । बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी में भी पांच एबीवीपी छात्रो को लेक्चरर की नौकरी मिल गई। इसके अलावे में झटके में केन्द्र में सरकार बीजेपी की बनी तो संघ से जुडे तमाम इंसटीट्यूट को बजट से लेकर बाकी सुविधायें मानव संसाधन मंत्रालय से मिलने लगी। तो वहा भी संघ विचारधारा से जुडे छात्रों को रोजगार मिलने लगा। और नौकरी पाने के पायदान पर सबसे आगे खडा छात्र राजनीतिक कनेक्शन खोजने में भटकने लगा। जयपुर में तो बीजेपी का दफ्तर ही कैडर के रोजगार के लिये खुल गया। जो बीजेपी के साथ खड़ा है उसकी पर्ची पर रोर से लेकर उसके उम्मीदवार की ट्रांसफर पोस्टिग तक होने लगी। यानी छात्र हो या शिक्षक उसका राजनीतिकरण होना कितना जरुरी है यह केन्द्रीय विघालयों में गर्मी छुट्टियों के वक्त होने वाले ट्रांसफर-पोस्टिंग से भी समझा जा सकता है। हर शिक्षक को कम से कम दो या तीन बरस तो एक जगह गुजरना ही पता है। लेकिन बीजेपी के साथ जुड़े हैं। संघ के किसी स्वयंसेवक की चिट्टी है तो दो से तीम नहीने के भीतर ही इस बार मनमाफिक जगह पर ट्रांसफर कर दिया गया। बच्चों के एडमिशन का कोटा मानवसंसाधन मंत्रालय का साढे चार सौ छात्रो का है। लेकिन बीजेपी/संघ की सक्रियता का आलम यह है कि जून तक केन्द्रीय विद्यालयों को साढे चार हजार बच्चों के एडमिशन की पर्ची देश के हर स्कूल में जा चुकी है। 

यानी छात्र सिर्फ पढलिखकर आगे बढना चाहे तो उसका राजनीतिक अज्ञान उसके सामने रोड़ा बनेगा। और अगर इस दिशा में बचे तो सामने कंपटिशन की परिक्षाओं में करोडों के वारे न्यारे करने वाला नैक्सस आकर खड़ा हो जायेगा। और असर इसी का है कि इस बार देशभर के साढे तेरह लाख से ज्यादा छात्रों के सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि हर परीक्षा पेपर अगर लीक होगा तो फिर वे करेंगे क्या। क्योंकि सीबीएसई की एआईपीएमटी की परीक्षा तो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर फटाफट अगले हफ्ते कराया जा रहा है जिसमें साढे छह लाख छात्र परीक्षा देगें । लेकिन जरा कल्पना किजिये लेकिन एमयू की मेडिकल परीक्षा, इंजीनियरिंग परीक्षा, बीडीएस परीक्षा , यूपी की पीसीएस परीक्षा और पीएमटी परीक्षा  सभी तो इस बार रद्द होगई । क्योकि इसके पीछे का नैक्सेस बताता है कि जिनके पास पैसा है उनके लिये इन परिक्षाओ को पास करना कितना आसान बना दिया गया है । और हर रैकेट के तार उसी राजनीति से जा जुडते है जहा पैसो का लेन-देन नेताओं के कद को बढा करता है और उसके बाद राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिये शिक्षा में सुधार या शिक्षा माफिया पर नकेल कसने के वादे कर पढने लिखने वाले छात्रो की भावनाओ को अपने साथ करने के लिये ईमानदार दिखने काराजनीतिक प्रहसन खुले आम होता है। क्योंकि किसी सत्ता के पास ना तो शिक्षा का और ना ही समाज को आगे ले जाने का कोई ब्लू प्रिंट है। सिवाय पूंजी बनाने और ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता पैदा कर देश को बाजार में बदलने की सोच हर सत्ता के पास के जरुर है । और असर इसी का है कि बढती बेरोजगारी के बीच मलाईदार नौकरी का रास्ता जहा धंधे या कहे येन –केन प्रकारेण से हो जाये ओऔर वरदहस्त सत्ता का ही रहे तो फिर छात्रो का भविष्य ही नहीं बल्कि देश का भविष्य भी माफिया रैकेट में फंस रहा है इससे इंकार कौन कैसे करेगा ।

देश में विदेश !!!

लेखक परिचय

तारकेश कुमार ओझा

तारकेश कुमार ओझा

पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।
हास्य – व्यंग्य
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तारकेश कुमार ओझा
​किसी बीमार राजनेता व मशहूर शख्सियत के इलाज के लिए विदेश जाने की खबर सुन कर मुझे बचपन से ही हैरत होती रही है। ऐसी खबरें सुन कर मैं अक्सर सोच में पड़ जाता था कि आखिर जनाब को ऐसी क्या बीमारी है, जिसका इलाज देश में नहीं हो सकता। शायद विदेश के किसी पहाड़ में उनके मर्ज की संजीवनी बूटी छिपी हो। य द्यपि ज्यादातर राजनेता सत्ता से हटने के बाद ही इलाज के लिए विदेश जाते हैं। सत्तासीन राजनेताओं के बारे में कम ही सुना जाता है कि कोई इलाज के लिए विदेश जाए। देश के एक प्रदेश के चिर कुंवारे एक मुख्यमंत्री के साथ ऐसे ही गजब हो गया। बताते हैं कि अरसे बाद उस मुख्यमंत्री को विदेश  जाने की सूझी। लेकिन वे विदशी धरती पर पैर भी नहीं रख पाए थे कि उनके सूबे में उनके सर्वाधिक भरोसेमंद ने ही उन्हें कुर्सी से उतारने की पूरी व्यवस्था गुचपुच तरीके से कर डाली। गनीमत रही कि समय रहते मुख्यमंत्री को इसकी भनक लग गई और सूबे में लौटते ही उन्होंने पहला काम अपने उस भरोसेमंद को पार्टी से निकालने का किया। इसके बाद से उन्होंने विदेश की कौन कहे , देशी दौरे में भी भारी कटौती कर दी। पहले सत्ता से बेदखल राजनेताओं के इलाज के लिए ही विदेश जाने की खबरें  सुनी – पढ़ी  जाती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में  सिर्फ राजनेता ही नहीं बल्कि उनके बाल – बच्चों के भी किसी न किसी बहाने विदेश जाने की खबरें अक्सर सुनने – पढ़ने को मिला करती है। अब ऐसे ही विदेशी दौरे देश के कुछ राजनेताओं की गले की हड्डी साबित हो रहे हैं। लेकिन कायदे से देखा जाए तो विदेशी दौरों का मोह गांव – कस्बे के नेताओं में भी प्रेशर – सूगर की बीमारी की तरह फैल रही है। फ र्क सि र्फ इतना है कि देहाती या कस्बाई स्तर के जो नेता विदेशी दौरे नहीं कर पाते, उन्होंने देश में ही विदेश का प्रबंध कर लिया है। जैसे विदेशों में बसे भारतवंशी चाहे जहां रहे , वे अपने बीच एक छोटा हिंदुस्तान बनाए रखते हैं, वैसे ही अपने देश में इस वर्ग ने विदेश का प्रबंध कर लिया है। यह देशी विदेश उनके गांव – कस्बे से कुछ दूर स्थित जिला मुख्यालय भी हो सकता है तो प्रदेश की राजधानी भी।
राजनीति का ककहरा सीख रहे नेताओं की नई पौध ज्यादातर लोगों पर भौंकाल भरने के लिए  स्वयं के कार्यक्षेत्र से कुछ दूरी पर स्थित जिला मुख्यालय के कचहरी या कलेक्ट्रेट में होने की दलीलें देती है। मेरे शहर में कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने प्रदेश की राजधानी में डेरे का इंतजाम कर लिया है। जब जैसी सुविधा हो वे इस देश – विदेश के बीच चक्कर काटते रहते हैं।
जब कभी अपने क्षेत्र में कोई अप्रिय परिस्थिति उत्पन्न हुई  नेताजी झट बोरिया – बिस्तर बांध कर इस कृत्रिम विदेश की यात्रा पर निकल  पड़ते हैं। फिर अनुकूल परिस्थिति की सूचना पर लौट भी आते हैं। यह देशी – विदेश कई तरीके से उनके आड़े वक्त पर काम आता है। किसी झमेले से बचने के लिए नेताजी मोबाइल पर ही बहकने लगते हैं… अरे भाई, मैं तुम्हारी परेशानी समझ रहा हूं, लेकिन क्या करूं … मैं इन  दिनों बाहर हूं। लौट कर देखता हूं कि क्या कर सकता हूं।
किसी के पास न्यौता आया कि फलां कार्यक्रम में आपको विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहना ही है… लेकिन नेताजी इससे संतुष्ट नहीं है तो झट चल दिया इसी देशी – विदेश का दांव। अरे नहीं भाई …. फलां दिन तो मैं बाहर रहने वाला हूं.. बहुत जरूरी काम है… माफ करना।
मेरे शहर में नेताओं की एक नई पीढ़ी तैयार हुई है जिन्होंने देश के किसी सुदूर हिस्से में स्थित किसी प्रसिद्ध तीर्थ स्थली को ही अपना विदेश बना लिया है। जो राजनैतिक दांव – पेंच में उनके बड़े काम आता है। किसी भी प्रकार की असहज स्थिति उत्पन्न होते ही नेताजी झट वहां के लिए निकल जाते हैं। फिर करते रहिए मोबाइल पर रिंग पर रिंग। प्रत्युत्तर में बार – बार बस स्विच आफ की ध्वनि। किसी विश्वस्त सहयोगी से संप र्क करने पर पता लगता है कि भैया तो फलां दिन ही फलां तीर्थ पर निकल गए। हैरत की बात तो यह है कि परिस्थिति अनुकूल होते ही नेताओं की यह नई पौध शहर वापस भी लौट आती है। दांव – पेंच में मात के मामलों में यह उनके लिए ढाल साबित होती है। क्योंकि अपने बचाव में नेताजी फौरन दलील फेंकते हैं कि अरे मैं तो शहर में था नहीं… व र्ना  क्या मजाल उसकी कि ऐसा करने की जु र्रत करे। खैर अब निपटता हूं उनसे। बेशक विदेश यात्राओं के दौरान विवादास्पद से मुलाकात कर फंसे देश के नामचीन नेताओं के सामने भी निश्चय ही ऐसी कोई मजबूरी रही होगी। व र्ना जानते – बुझते अपना हाथ कौन जलाता है भला…।

आपातकाल की पुरानी स्मृतियाँ

लेखक परिचय

डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री

डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री

यायावर प्रकृति के डॉ. अग्निहोत्री अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनकी लगभग 15 पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से शिक्षक, कर्म से समाजसेवी और उपक्रम से पत्रकार अग्निहोत्रीजी हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय में निदेशक भी रहे। आपातकाल में जेल में रहे। भारत-तिब्‍बत सहयोग मंच के राष्‍ट्रीय संयोजक के नाते तिब्‍बत समस्‍या का गंभीर अध्‍ययन। कुछ समय तक हिंदी दैनिक जनसत्‍ता से भी जुडे रहे। संप्रति देश की प्रसिद्ध संवाद समिति हिंदुस्‍थान समाचार से जुडे हुए हैं।

emergency
आपातकाल की घोषणा २५ जून १९७५ को हुई थी । रेडियो पर ख़बर आई होगी । मैंने तो नहीं सुनी थी लेकिन सतीश ने सुन ली थी । मैं उन दिनों भारतीय जनसंघ का ज़िला स्तर का अधिकारी था । सतीश के पास भी मंडल स्तर की कोई ज़िम्मेदारी थी । जयप्रकाश नारायण ने सरकार के ख़िलाफ़ देश भर में आन्दोलन छेड़ा हुआ था । उसमें उस समय के भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ही ज़बरदस्त भागीदारी थी । उसी समय इलाहाबाद उच्चन्यायालय ने उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी का चुनाव भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते रद्द कर दिया । इन्दिरा गान्धी ने उच्च न्यायालय के इस प्रश्न का जबाव देश में आपात स्थिति की घोषणा से दिया । ख़ैर सतीश ने ही मुझे आकर बताया कि आपात काल की घोषणा हो गई है । लेकिन इसका क्या अर्थ है , इसका आभास न मुझे हुआ और न ही उसे ।
बंगा के समीप मुकन्दपुर छोटा सा गाँव है । आपात स्थिति का विरोध करना जरुरी है , इसके लिये पार्टी के निर्देश की प्रतीक्षा की जरुरत नहीं थी । । विरोध करने का हमने अपने गाँव में एक तरीक़ा विकसित कर रखा था । गाँव में लाला हरिदेव केसर मंडल कांग्रेस के प्रधान थे । बाज़ार में उनकी कपड़े की दुकान थी । हम सब इक्कठे होकर उनकी दुकान के सामने कुछ समय के लिये प्रदर्शन और भाषणबाज़ी करते थे । मैंने २५ जून की रात्रि को ही कार्यकर्ताओं को बता दिया कि प्रदर्शन के बारे में गाँव की दीवारों पर चाक से नारे लिख दिये जायें । २६ जून को दस बजे प्रदर्शन निश्चित हो गया । लेकिन सुबह होते होते मुझे आपात स्थिति क्या है ,इसका कुछ कुछ अन्दाज़ा भी हो गया था । रेडियो ख़बरें दे रहा था कि जयप्रकाश समेत सभी प्रमुख विरोध नेता पकड़ लिये गये हैं । जयप्रकाश नारायण को भी कोई पकड़ कर जेल में डाल सकता है , ऐसा उस समय हम सोच भी नहीं सकते थे । लेकिन प्रदर्शन की घोषणा तो हो चुकी थी ।
हरिदेव की दुकान के आगे प्रदर्शन हुआ । मैंने भाषण दिया । आधे घंटे में रैली ख़त्म हो गई । शायद आपातकाल का क्या अर्थ है , इसका अन्दाज़ा हरिदेव केसर को भी नहीं था । लेकिन लगभग दो घंटे बाद हरिदेव ने मुझे संदेश भेजकर घर से बुलवाया और बताया कि बंगा थाना से संदेश आया है कि पुलिस मुझे गिरफ़्तार करने के लिये आ रही है । आपातकाल में सरकार के ख़िलाफ़ बोलना भी गुनाह की श्रेणी में आ गया था । मेरे सामने समस्या खड़ी हो गई कि मैं कहाँ जाऊँ ? हमारे गाँव का ही एक लड़का सुभाष पाराशर दिल्ली अपनी मासी के पास कुछ दिनों के लिये गया हुआ था । मैंने उनके घर से उसका पता लिया । लेकिन दिल्ली जाने के लिये पैसे भी तो चाहिये थे । मैंने हरिदेव केसर से ही दो सौ रुपया उधार लिया और पुलिस के आने से पहले ही दिल्ली के लिये रवाना हो गया ।
आपात स्थिति का क्या अर्थ है , यह सबसे पहले दिल्ली आकर ही पता चला । उनदिनों दिल्ली आना यानि साँप के मुँह में हाथ डालना था । सुभाष की मासी का घर शायद सरोजिनी नगर या ऐसे ही किसी स्थान के कूचों में था । दो तीन दिन बाद ही सुभाष को चिन्ता होने लगी । क्योंकि किसी घर में कौन नया मेहमान आया है , ऐसी सूचना पुलिस अपने माध्यमों से पता कर रही थी और फिर नये मेहमान की पूरी जन्मपत्री की छानबीन की जाती थी । गृहपति मेहमाननवाज़ी करता करता किसी संकट में न फँस जाये , यह सोच कर मैं और सुभाष दोनों ही वहाँ से रुखसत हो लिये । दिल्ली सचमुच एक बहुत बड़ी जेल में तब्दील हो चुका था । अलबत्ता इसका इतना असर जरुर हुआ था कि हमारे गाँव में भी चाय बेचने वाले ने चाय का कप आठ आने का कर दिया था ।
बाद की कहानी लम्बी है । जल्दी ही राष्ट्रीयस्वयं सेवक संघ ने आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह शुरु कर दिया था । मैं , हरीश कुमार और सतीश कुमार तीनों ही डी ए वी कालिज जालन्धर के आगे सत्याग्रह करते हुये गिरफ़्तार हो गये । पुलिस कोतवाली ले गई और थाने में हवालात का क्या अर्थ होता है , यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है । हमने सर्दियों में सत्याग्रह किया था और हवालात में गर्मी हो या सर्दी दरवाज़ा नहीं होता , खुली सलाखें होती हैं । कई दिन का मलमूत्र वहीं जमा रहता है । रात को सर्दी में क्या हालत होती होगी , अन्दाज़ा लगाया जा सकता है । उसके बाद जालन्धर जेल में और कुछ दिन बाद फ़िरोज़पुर जेल में रहे । फ़िरोज़पुर जेल में मित्रसेन भी थे । लुधियाना के प्रतिष्ठित उद्योगपति । पुलिस ने उन पर केस दर्ज किया था किसी की भैंस चुराने का । भैंस का पता लगाने के लिये पुलिस ने उनकी पैंट में चूहे छोड़ कर नीचे से पैंट को बाँध दिया था । हिमाचल में इससे भी ज़्यादा क्रूर व्यवहार भारतीय मज़दूर संघ के प्यारे लाल बेरी के साथ किया गया था । शान्ता कुमार , दौलतराम चौहान, कँवर दुर्गा चन्द , किशोरी लाल सब सलाखें में पहुँच गये थे ।
उधर फ़िरोज़पुर से जब पुलिस हमें पेशी के लिये जालन्धर लेकर आती थी तो एक बुज़ुर्ग सिपाही हमें समझाता रहता था कि इस उमर में हमें जेबकतरे का घटिया काम नहीं करना चाहिये , कोई और काम करना चाहिये । शायद पुलिस ने हम पर जेब कतरने का केस दर्ज किया होगा । हम उसको बहुत समझाते कि हम जेब क़तरे नहीं हैं बल्कि राजनैतिक क़ैदी हैं जो देश में लोकतंत्र की बहाली के लिये लड़ रहे हैं । लेकिन उसका मानना था कि सभी जेबकतरे ऐसी ही बातें करते हैं और मैं तो इस बिरादरी पर कभी विश्वास कर ही नहीं सकता । विश्वास न करने का कारण यह था कि जब वह अमृतसर में तैनात था और किसी जेब क़तरे को रंगे हाथों पकड़ लेता था तो थाने आकर वह जेबकतरे मिन्नतें करता था और पैर पकड़ता था और दूसरे दिन घंटाघर चौक में मिलने का वायदा करता था । दूसरे दिन यह सिपाही घंटाघर में उस जेबकतरे का लम्बा इन्तज़ार करता रहता लेकिन वह कम्बख़्त आता ही वहीं था । इसलिये इस सिपाही का जेबकतरों पर से विश्वास उठ गया था । मैंने सिपाही से पूछा कि आप जेबकतरे का घंटाघर पर इन्तज़ार करते क्यों थे ? दरअसल जेबकतरा सिपाही को बताता था कि इस समय तो उसके पास पैसे नहीं है लेकिन कल वह इतने बजे घंटाघर पर उसे पैसे दे देगा । सौदा पट जाता था और सिपाही जेबकतरे को छोड़ कर दूसरे दिन पैसा लेने घंटाघर पहुँच जाता था । इस प्रकार वह कई जेबकतरों से धोखा खा चुका था और अब जेबकतरों की किसी भी बात पर विश्वास नहीं करता था । ठीक भी है । दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँक कर पीता है । वह हमें बार बार यह तो कहता रहता था कि तुम मेरे बच्चों जैसे हो , इसलिये यह जेबकतरे का काम छोड़ दो । लेकिन इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं था कि हम राजनैतिक क़ैदी हैं । इसलिये हमने भी बार बार उसका भाषण सुनने के स्थान पर उससे यह वायदा करना ही ठीक समझा कि हम आगे से जेब कतरने का काम नहीं करेंगे । जेल जीवन कैसा था , इसकी चर्चा का न समय है और न ही अख़बार में स्पेस है । लेकिन मुझे अभी भी याद है जब इन्दिरा गान्धी हारीं तो पंजाब विश्वविद्यालय के होस्टलों में सारी रात ढोल बजते रहे थे । उनकी आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँज रही है ।

दुकालू का अंकीय भारत

 
अब आप यदि कन्फ़्यूज़ हो रहे हों, कि ये ‘अंकीय भारत’ क्या बला है, तो, केवल आपके लिए क्लीयर करे दे रहे हैं – दुकालूज़ डिजिटल इंडिया.
तो, किस्सा ये है कि जब दुकालू को पता चला कि उसका भारत, उसका अपना भारत, डिजिटल इंडिया बन गया है तो जाहिर है कि वो भी बड़ा खुश हुआ.
मारे खुशी के, उसने अपना स्मार्टफ़ोन उठाया और सोशल मीडिया में अपना खुशी वाला स्टेटस अपडेट करना चाहा. मगर ये क्या? उसके स्मार्टफ़ोन ने चेताया कि इंटरनेट अभी बंद है.
digital indiaहद है! ब्रॉडबैंड फिर से बंद. कल ही तो पिछले पंद्रह दिनों से बंद ब्रॉडबैंड ठीक हुआ था. कोई न कोई सरकारी महकमा कोई न कोई प्लान जब देखो तब ले आता है और सड़क को खोद डालता है, जिसके कारण केबल कट जाता है. इन अनवरत किस्म के कामों के चलते पिछले छः महीने में सड़क पर कोई पचासवीं बार खुदाई हुई थी, और कोई उतनी ही बार दुकालू का इंटरनेट ब्रॉडबैंड बंद रहा था. लगता है कि किसी महकमे को कोई नया फंड जारी हुआ है, और अब वो इस फंड को खपाने को इस सड़क का इक्यावनवीं बार पोस्टमार्टम करेगा. यानी अब अगले पंद्रह दिनों के लिए ब्रॉडबैंड फिर से बंद.
चलो, कोई बात नहीं. दुकालू ने सोचा, डिजिटल होना है तो बैकअप प्लान से काम करना ही होगा. उसने मोबाइल डेटा चालू किया. यहाँ पर भी सिग्नल के आइकन में प्रश्नवाचक चिह्न लगा हुआ था – याने सिग्नल नहीं था. पिछले सप्ताह उसका मोबाइल डेटा कोई दो दिन बंद रहा था. बाद में अखबारों में समाचार पढ़कर पता चला था कि उसके क्षेत्र के मोबाइल टावर को कुर्क कर लिया गया था क्योंकि वो बिना अनुमति के पिछले दस सालों से चल रहा था. उड़ती खबर ये थी कि टावर चलाने वालों ने स्थानीय प्रशासन को हफ़्ता-महीना नहीं चुकाया तो कुर्की हो गई थी. अबकी बार भी शायद इसी तरह का कोई दूसरा मसला हो जिसके कारण मोबाइल सिग्नल बंद है.
दुकालू ने शांति बनाए रखी. स्टेटस अपडेट की ही तो बात है. अपनी डिजिटल होने की खुशी वो बाद में भी किसी अच्छे दिनों में व्यक्त कर लेगा.
दुकालू को याद आया कि उसे तो आज एक ई-फ़ॉर्म जरूरी में भरना था. इंडिया डिजिटल हो गई थी, सो ऑफ़िसों में अब काग़ज़ी फ़ॉर्म भरना मना था. उसका नेट बंद था, सो उसने सोचा कि चलो किसी साइबर कैफ़े या डिजिटल इंडिया सर्टिफ़ाइड कियास्क से वो ई-फ़ॉर्म भर लिया जाए.
कियास्कों में लंबी लाइनें लगी हुई थीं. हर किसी को कोई न कोई ई-फ़ॉर्म भरना था. पता चला कि कई मुहल्लों के इंटरनेट बंद हैं और कियास्कों पर लोग टूटे पड़ रहे हैं. भीड़ के कारण अथवा अन्य किसी दीगर कारण के चलते कियास्कों पर इंटरनेट स्लो है, जिससे लाइन बढ़ती ही जा रही थी. दुकालू को लगा कि इस कियास्क वालों ने कॉन्सपीरेसी कर उनके जैसों का ब्रॉडबैंड बंद करवाया है ताकि इनका धंधा बढ़िया चले. वह इस बारे में सोच ही रहा था कि एक रहस्यमय किस्म का आदमी उसके पास पहुँचा, और धीरे से उसी रहस्यमयी अंदाज से दुकालू को समझाया कि यदि उसे इस लंबी लाइन से छुटकारा पाना है और जल्दी से ई-फ़ॉर्म भरना है तो उसका काम प्रायरिटी में करवा सकता है जिसके लिए अलग से पैसे लगेंगे.
दुकालू खुश हो गया. उसे लंबी लाइन से निजात मिल गई. उसने तयशुदा ऊपरी पैसे देकर सौदा किया और मिनटों में अपना ई-फ़ॉर्म जमा की रसीद लेकर घर आ गया. इंडिया डिजिटल हुआ तो क्या हुआ, काम करने करवाने के रास्ते तो अब भी बढ़िया ही हैं – एनॉलॉग किस्म के.
दुकालू वापस घर आया. नेट नहीं है तो क्या हुआ. आज वो दिन भर टीवी देखेगा.
उसने टीवी सेटटॉप बॉक्स का रिमोट उठाया. अपना पसंदीदा सूर्यटीवी लगाया. वह ब्लैंक था. और उस पर कोई सूचना आ रही थी.
अरे! यह क्या? इस पर तो सरकार ने बैन लगा दिया है!
डिजिटल इंडिया जिंदाबाद! दुकालू फ्रस्ट्रेट होकर चिल्लाया. इधर पड़ोसियों को गपशप का नया विषय मिल गया  – दुकालू पर फिर से देशभक्ति का दौरा पड़ा है.