रविवार, 23 मार्च 2014

दंगों की राजनीति पर आतंकवाद का तड़का

मसीहुद्दीन संजरी

मुज़फ्फरनगर, शामली बाग़पत और मेरठ के दंगे जो आमतौर पर मुज़फ्फरनगर दंगा के नाम से मशहूर हैं, के बाद हुए विस्थापन और दंगा पीड़ित कैम्पों की स्थिति की चर्चा तथा राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर अभी चल ही रहा था कि अचानक अक्तूबर महीने में राजस्थान में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए राहुल गांधी ने आईएसआई के दंगा पीड़ितों के सम्पर्क में होने की बात कह कर सबको चौंका दिया। राहुल गांधी का यह कहना था कि दंगा पीड़ित 10-12 युवकों से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई सम्पर्क साधने का प्रयास कर रही थी। इसकी जानकारी उन्हें खुफिया एजेंसी आईबी के एक अधिकारी से मिली थी। यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आईबी अधिकारी ने यह जानकारी राहुल गांधी को क्यों और किस हैसियत में दीउससे अहम बात यह है कि क्या यह जानकारी तथ्यों पर आधारित थी या फर्जी एनकाउंटरोंजाली गिरफतारियों और गढ़ी गई आतंकी वारदातों की कहानियों की तरह एक राजनीतिक खेल जैसा कि आतंकवाद के मामले में बार बार देखा गया है और जिनकी कई अदालती फैसलों से भी पुष्टि हो चुकी है। राहुल गांधी के मुँह से यह बात कहलवा कर आईबी दंगा भड़काने के आरोपी उन साम्प्रदायिक तत्वों को जिसमें कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेता भी शामिल थे, बचाना चाहती थी। राहुल गांधी ने इसके निहितार्थ को समझते हुए यह बात कही थी या खुफिया एजेंसी ने यह सब उनकी अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए दंगे की गम्भीरता की पूर्व सूचना दे पाने में अपनी नाकामी से माथे पर लगे दाग को दर्पण की गंदगी बता कर बच निकलने के प्रयास के तौर पर किया था। क्या उस समय राहुल के आरोप को खारिज करने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाद में खुफिया एजेंसी की इस मुहिम को अपना मूक समर्थन दिया था जिससे दंगा पीड़ितों, कैम्प संचालकों और पीड़ितों की मदद करने वालों को भयभीत कर कैम्पों को बन्द करने की राह हमवार की जाए ताकि इस नाम पर सरकार की बदनामी का सिलसिला बन्द हो?
राहुल गांधी के बयान के बाद दंगा भड़काने वाली साम्प्रदायिक ताकतों ने आईएसआई को इसका ज़िम्मेदार ठहराने के लिए ज़ोर लगाना शुरू कर दिया था। इस आशय के समाचार भी मीडिया में छपे। दंगे के दौरान फुगाना गांव के 13 लोगों की सामूहिक हत्या कर उनकी लाशें भी गायब कर दी गई थीं। वह लाशें पहले मिमला के जंगल में देखी गईं परन्तु बाद में उनमें से दो शव गंग नहर के पास से बरामद हुए। शव न मिल पाने के कारण उन मृतकों में से 11 को सरकारी तौर मरा हुआ नहीं माना गया था। समाचार पत्रों में उनके लापता होने की खबरें प्रकाशित हुईं जिसमें इस बात की आशंका ज़ाहिर की गई थी कि जो लोग आईएसआई से सम्पर्क मे हैं उनमें यह 11 लोग भी शामिल हो सकते हैं। यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि कुछ लोग दंगा पीड़ितों की मदद करने के लिए रात के अंधेरे में कैम्पों में आए थे। उन्होंने वहां पांच सौ और हज़ार के नोट बांटे थे। इशरा यह था कि वह आईएसआई के ही लोग थे। आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने की इस उधेड़ बुन में ऊंट किसी करवट नहीं बैठ पा रहा था कि अचानक एक दिन खबर आई कि रोज़ुद्दीन नामक एक युवक आईएसआई के सम्पर्क में है। कैम्प में रहने वाले एक मुश्ताक के हवाले से समाचारों में यह कहा गया कि वह पिछले दो महीने से लापता है। जब राजीव यादव के नेतृत्व में रिहाई मंच के जांच दल ने इसकी जांच की तो पता चला कि रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प में मौजूद है और वह कभी भी कैम्प छोड़ कर कहीं नहीं गया। तहकीकात के दौरान जांच दल को पता चला कि रोज़ुद्दीन और सीलमु़द्दीन ग्राम फुगाना निवासी दो भाई हैं और दंगे के बाद जान बचा कर भागने में वह दोनो बिछड़ गए थे। रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प आ गया और उसके भाई सलीमुद्दीन को लोई कैम्प में पनाह मिल गई। जब मुश्ताक से दल ने सम्पर्क किया तो उसने बताया कि एक दिन एक पत्रकार कुछ लोगों के साथ उसके पास आया था और सलीमुद्दीन तथा राज़ुद्दीन के बारे में पूछताछ की थी। उसने यह भी बताया कि सलीमुद्दीन के लोई कैम्प में होने की बात उसने पत्रकार से बताई थी और यह भी कहा था कि उसका भाई किसी अन्य कैम्प में है। पत्रकार के भेस में खुफिया एजेंसी के अहलकारों ने किसी और जांच पड़ताल की आवश्यक्ता नहीं महसूस की और रोज़ुद्दीन का नाम आईएसआई से सम्पर्ककर्ता के बतौर खबरों में आ गया। इस पूरी कसरत से तो यही साबित होता है कि खुफिया एजेंसी के लोग किसी ऐसे दंगा पीड़ित व्यक्ति की तलाश में थे जिसे वह अपनी सविधानुसार पहले से तैयार आईएसआई से सम्पर्क वाली पटकथा में खाली पड़ी नाम की जगह भर सकें और स्क्रिप्ट पूरी हो जाए। परन्तु इस पर मचने वाले बवाल और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले को लेकर पहले से घिरी उत्तर प्रदेश सरकार व मुज़फ्फनगर प्रशासन ने ऐसी कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया। केन्द्र सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने भी कहा कि गृह मंत्रालय के पास ऐसी सूचना नहीं है। राहुल गांधी के बयान की पुष्टि करने की यह कोशिश तो नाकाम हो गई। लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आईबी की सबसे विश्वास पात्र दिल्ली स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मुज़फ्फरनगर दंगों का बदला लेने के लिए दिल्ली व आसपास के इलाकों में आतंकी हमला करने की योजना बना रहे एक युवक को मेवातहरियाणा से गिरफतार कर लिया है और उसके एक अन्य सहयोगी की तलाश की जा रही है। यह दोनों मुज़फ्फरनगर के दो अन्य युवकों के सम्पर्क में थे। हालांकि पूर्व सूचनाओं से उलट इस बार यह कहा गया कि जिन लोगों से इन कथित लश्कर-ए-तोएबा के संदिग्धों ने सम्पर्क किया था उनका सम्बंध न तो राहत शिविरों से है और न ही वह दंगा पीड़ित हैं।
    मेवात के गा्रम बज़ीदपुर निवासी 28,वर्षीय मौलाना शाहिद जो अपने गांव से 20 किलोमीटर दूर ग्राम छोटी मेवली की एक मस्जिद का इमाम था, 7, दिसम्बर 2014 को गिरफतार किया गया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि अखबारों में यह खबर छपी की पुलिस को उसके सहयोगी राशिद की तलाश है। राशिद के घर वालों को दिल्ली पुलिस की तरफ से एक नोटिस भी प्राप्त हुआ था जिसके बाद 16,दिसम्बर को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नूहपुर (मेवात का मुख्यालय) की अदालत में राशिद ने समर्पण कर दिया। राशिद खान वाली मस्जिद घघास में इमाम था और वहां से 25 किलोमीटर दूर तैन गांव का रहने वाला था। इन दोनों पर आरोप है कि इनका सम्बंध पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोएबा से है। इन दोनों ने मुज़फ्फरनगर के लियाकत और ज़मीरुलइस्लाम से मुलाकात की थी। लियाकत सरकारी स्कूल में अध्यापक और ज़मीर छोटा मोटा अपराधी है। मौलाना शाहिद और राशिद इन दोनों से मिले थे और मुलाकात में अपहरण की योजना बनाने और इस प्रकार प्राप्त होने वाले फिरौती के पैसे का इस्तेमाल मस्जिद बनवाने के लिए करने की बात उक्त दोनों ने की थी। बाद में उन्हें बताया गया कि फिरौती की रकम को मस्जिद बनाने के लिए नहीं बल्कि आतंकी वारदात को अंजाम देने लिए हथियार की खरीदारी पर खर्च किया जाएगा तो दोनों ने इनकार कर दिया। दिल्ली स्पेशल सेल का यह दावा समझ से परे है क्योंकि एक साधारण मुसलमान भी जानता है कि मस्जिद बनाने के लिए नाजायज़ तरीके से कमाए गए धन का इस्तेमाल इस्लाम में वर्जित है। ऐसी किसी मस्जिद में नमाज़ नहीं अदा की जा सकती। ऐसी सूरत में पहले प्रस्ताव पर ही इनकार हो जाना चाहिए था। यह समझ पाना भी आसान नहीं है कि एक दो मुलाकात में ही कोई किसी से अपहरण जैसे अपराध की बात कैसे कर सकता है।
दूसरी तरफ पटियाला हाउस कोर्ट में रिमांड प्रार्थना पत्र में स्पेशल सेल ने कहा है कि इमामों की गिरफतारी पिछले वर्ष नवम्बर में प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर की गई है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शाहिद सीधे और सरल स्वभाव का है। वह मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद दंगा पीड़ितों के लिए फंड इकट्ठा कर रहा था और उसके वितरण के लिए किसी गैर सरकारी संगठन एंव मुज़फ्फरनगर के स्थानीय लोगों के सम्पर्क किया था। तहलका के 25 जनवरी के अंक में छपी एक रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि लियाकत और ज़मीर दिल्ली व उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते थे। आतंकवाद के मामले में अबरार अहमद और मुहम्मद नकी जैसी कई मिसालें मौजूद हैं जब मुखबिरों को आतंकवादी घटनाओं से जोड़ कर मासूम युवकों को उनके बयान के आधार पर फंसाया जा चुका है। राहुल गांधी का आईबी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर दिया गया वक्तव्य, कैम्पों में खुफिया एजेंसी के अहलकारों द्वारा पूछताछ, रोज़ुद्दीन के आईएसआई से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास और अन्त में मौलाना शाहिद और राशिद की खुफिया सूचना के आधार पर गिरफतारी और लियाकत तथा ज़मीर की पृष्ठिभूमि और भूमिका को मिला कर देखा जाए तो चीज़ों को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। साम्प्रदायिक शक्तियों ने खुफिया एंव जांच एजेंसियों में अपने सहयोगियों की सहायता से मुसलमानों को आतंकवाद और आतंकवादियों से जोड़ने का कोई मौका नहीं चूकते चाहे कोई बेगुनाह ही क्यों न हो। गुनहगार होने के बावजूद अगर वह मुसलमान नहीं है तो उसे बचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती।
 पांच बड़ी आतंकी वारदातों का अभियुक्त असीमानन्द अंग्रेज़ी पत्रिका दि कारवां‘ को जेल मे साक्षात्कार देता है और आतंकवादी वारदातों के सम्बन्ध में संघ के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार और संघ प्रमुख मोहन भगवत का नाम लेता है तो उसे न तो कोई कान सुनने को तैयार है और न कोई आंख देखने को। किसी ऐजेंसी ने उस साक्षात्कार के नौ घंटे की आडिओ की सत्यता जानने का कोई प्रयास तक नहीं किया। चुनी गई सरकारों से लेकर खुफिया और सुरक्षा एवं जांच ऐजेंसियां सब मूक हैं। मीडिया में साक्षात्कार के झूठे होने की खबरें हिन्दुत्वादियांे की तरफ सें लगातार की जा रही हैं परन्तु उसके सम्पादक ने इस तरह की बातों को खारिज किया है और कहा है कि उसके पास प्रमाण है। देश का एक आम नागरिक भी यह महसूस कर सकता है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में न तो इच्छा है और न ही इतनी इच्छा शक्ति कि इस तरह की चुनौतियों का सामना कर सके। यही कारण है कि आतंक और साम्प्रदायिक हिंसा का समूल नाश कभी हो पाएगा इसे लेकर हर नागरिक आशंकित है
मुज़फ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा को लेकर एक और सनसनखेज़ खुलासा सीपीआई (माले) ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है। दंगे के मूल में किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ नहीं है यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था। 27,अगस्त को शहनवाज़ कुरैशी और सचिन व गौरव की हत्याओं के मामले में दर्ज एफआईआर में झगड़े का कारण मोटर साइकिल और साइकिल टक्कर बताया गया था। परन्तु सीपीआई (माले) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि मोटर साइकिल टक्कर भी सचिन और गौरव की तरफ से शहनवाज़ की हत्या के लिए त्वरित कारण गढ़ने की नीयत से की गई थी। इस पूरी घटना के तार एक बड़े सामूहिक अपराध से जुड़े हुए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार शहनवाज़ कुरैशी और सचिन की बहन के बीच प्रेम सम्बन्ध था। जब इसकी जानकारी घर और समाज के लोगों को हुई तो मामला पंचायत तक पहुंच गया और उन्होंने सचिन और गौरव को शहनवाज़ को कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उक्त लड़की उसके बाद से ही गायब है और इस बात की प्रबल आशंका है कि उसकी भी हत्या हो चुकी है। इस तरह से यह आनर किलिंग का मामला है जो एक गम्भीर सामाजिक और कानूनी अपराध है। एक घिनौने अपराध के दोषियों और उनके समर्थकों ने उसे छुपाने के लिए नफरत के सौदागरों के साथ मिलकर इतनी व्यापक तबाही की पृष्ठिभूमि तैयार कर दी और हमारे तंत्र को उसकी भनक तक नहीं लगी। कुछ दिखाई दे भी कैसे जब आंखों पर साम्प्रदायिक्ता की ऐनक लगी हो।
मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीड़ितों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास किया गया उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वंय दंगा पीड़ितों पर लगाने का षड़यंत्र रचा गया था आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोले ने खुफिया और सुरक्षा एंव जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था। देश में होने वाली कुछ बड़ी आतंकी वारदातों में मुम्बई एटीएस प्रमुख स्व0 हेमन्त करकरे ने अपनी विवेचना में इस साजिश का परदा फाश कर दिया था। गुजरात में वंजारा एंड कम्पनी द्वारा आईबी अधिकारियों के सहयोग से आतंकवाद के नाम पर किए जाने वाले फर्ज़ी इनकाउन्टरों का भेद भी खुल चुका है। शायद यही वजह है कि बाद में होने वाले कथित फर्जी इनकाउन्टरों में मारे गए युवकों और आतंकी वारदातों में फंसाए गए निर्दोशों के मामले में सामप्रदायिक ताकतों के दबाव के चलते जांच की मांग को खारिज किया जाता रहा है। मुज़फ्फरनगर दंगों की सीबीआई जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ऐसी किसी जांच की मुखालफत की है।
सच्चाई यह है कि किसी निष्पक्ष जांच में जो खुलासे हो सकते हैं वह न तो दंगाइयों मे हित में होंगे और न ही सरकार के और दोनों हितों की राजनीति का पाठ एक ही गुरू ‘अमरीका‘ से सीखा है। करे कोई और भुगते कोई की राजनीति यदि मुज़फ्फरनगर दंगों के मामले में भी सफल हो जाती तो इसका सीधा अर्थ यह होता कि किसी भी राहत कैम्प को चलाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता, दंगा पीड़ितों की मदद करने वाले हाथ रुक जाते या उन्हें आतंकवादियों के लिए धन देने के आरोप में आसानी से दबोच लिया जाता और पीड़ितो की कानूनी मदद करने का साहस कर पाना आसान नहीं होता। शायद साम्प्रदायिक शक्तियों ऐसा ही लोकतंत्र चाहती हैं जहां पूरी व्यवस्था उनकी मर्जी की मुहताज हो। हमें तय करना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र चाहते हैं और हर स्तर पर उसके लिए अपेक्षित प्रयास की भी करना होगा।

About The Author

मसीहुद्दीन संजरी, लेखक आज़मगढ़ स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।

मोदी के अकबर

प्रचार में फंसा मीडिया नायक मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर।

उसके बाद भी सरकार फासिस्टों की नहीं बनेगी

रणधीर सिंह सुमन
जब राजीव गांधी की तूती बोलती थी तो उनकी जय-जयकार होती थी… और जब मीडिया ने एक भ्रामक हिन्दुत्व की लहर भारतीय समाज में पैदा की तो उस भ्रम को फैलाने का कार्य करने वाले उसी भ्रम में एम जे अकबर साहब दिग्भ्रमित होकर फंस गये। उनका सारा इतिहास का ज्ञान सामर्थ्य नमो-नमो करने के लिए समर्पित हो गया है। उदारवादी नीतियों के चलते अपनी सुख सुविधाओं को बरक़रार रखने के लिए पतन की कोई सीमा रेखा इस घटना के बाद नहीं रह जाती है
यह ऐतिहासिक सत्य भी है कि अवसरवादी बुद्धिजीवी अपनी सुख सुविधाओं के लिए कुछ भी कर सकता है। जिसका प्रत्यक्ष उद्धरण यह हैं- एम जे अकबर। वे कांग्रेस से सांसद रह चुके हैं। बिहार के किशनगंज से दो बार सांसद रहे हैं, साथ ही वे राजीव गांधी के प्रवक्ता भी रहे हैं। वे इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटोरियल डॉयरेक्टर भी रहे हैं। अकबर ने कहा, ‘‘यह हमारा कर्तव्य है कि हम देश की आवाज के साथ आवाज मिलाएं और देश को फिर से पटरी पर लाने के मिशन में जुट जाएं। मैं भाजपा के साथ काम करने को तत्पर हूँ।’’
इसी तरह की बातें जब वह राजीव गांधी के प्रवक्ता थे तब कहा करते थे। असल में तथाकथित बड़े पत्रकार सत्ता के प्रतिष्ठानों और कॉर्पोरेट सेक्टर के बीच मीडिएटर का काम करते हैं और मीडिएट होने के बाद वह स्वयं भी देश की सेवा में सीधे- सीधे उतर पड़ते हैं। यह कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है।
भाजपा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अनुषांगिक संगठन है जो नागपुर मुख्यालय से संचालित होता है। जर्मन नाजीवादी विचारधारा से ओत प्रोत संगठन है। विश्व का कॉर्पोरेट सेक्टर अपनी पूरी ताकत के साथ भारत के ऊपर फासिस्ट वादी ताकतों का कब्ज़ा कराना चाहता है। जिससे यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर अकूत मुनाफा कमाया जा सके। भाजपा में बाराबंकी से लेकर बाड़मेर तक और नागपुर मुख्यालय से लेकर झंडे वालान तक कुर्सी के लिए मारपीट हो रही हैमान मनौव्वल हो रही है। चुनाव हुए नहीं हैं, प्रधानमंत्री ,उप प्रधानमंत्री, गृह मंत्री के पद बाटें जा रहे हैं। जगदम्बिका पाल से लेकर सत्यपाल  महाराज, रिटायर्ड जनरल-कर्नल से लेकर वरिष्ठ नौकरशाह पुलिस अधिकारी पत्रकार गिरोह बनाकर देश सेवा अर्थात लुटाई में हिस्सेदारी के लिए अपनी नीति, विचार त्याग सबको तिलांजलि देकर रातों रात अपनी निष्ठाएं और आस्थाएं बदल रहे हैं। उसके बाद भी सरकार फासिस्टों की नहीं बनेगी

सरकार को सामाजिक विज्ञान अनुसंधान में ज्यादा निवेश करने की जरूरत

सम्मेलन में समाज विज्ञान अनुसंधान के पहलुओं पर रोशनी डाली गई

दक्षिण एशियाई देशों की सरकारों को इस विषय पर अधिक निवेश करने को कहा

 सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषदों के संघ ने इस विषय पर चर्चा की

नई दिल्ली, 13 मार्च 2014ः सामाजिक विज्ञान अनुसंधान नीति निर्माण हेतु पर्याप्त साक्ष्य आधारित सहयोग दे सके, इसके लिए थिंक टैंकों (विचार समूहों) और विश्वविद्यालयों के पास मजबूत संस्थागत क्षमताएं होनी चाहिए, विशेषकर उत्तम मानव संसाधनों, पर्याप्त अनुसंधान अनुदान और स्वायत्तता व कड़ीे क्वालिटी मूल्यांकन प्रक्रियाओं के मामले में ताकि वे ज्ञान प्रदाता की अपनी भूमिका को अच्छी तरह निभा सकें। इस बात के मद्देनजर भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) और उसके सहयोगियों आह्वान किया कि जानकारीपूर्ण नीति निर्माण में अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए सामाजिक विज्ञान अनुसंधान के मोर्चों पर और आगे बढ़ें। उन्होंने भारत सरकार तथा अन्य दक्षिण एशियाई देशों से आग्रह किया कि पुख्ता व प्रगतिशील इंफ्रास्ट्रक्चर एवं ईकोसिस्टम की रचना के लिए सामाजिक विज्ञान अनुसंधान के क्षेत्र में और ज्यादा निवेश करें ताकि नीति निर्माण के काम में पर्याप्त सहयोग दिया जा सके।
भारत, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के विद्वानों व नीति निर्माताओं ने इस राय पर स्वीकृति जाहिर की। ये सभी, सामाजिक विज्ञान अनुसंधान पर हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में आए थे जिसे प्ब्ैैत् ने इंटरनैशनल डैवलपमेंट रिसर्च सेंटर (IDRC) तथा थिंक टैंक इनिशिएटिव (TTI) के साथ मिलकर आयोजित किया था। यहां आए प्रतिनिधियों ने कहा कि सामाजिक विज्ञान अनुसंधान इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने और शक्तिशाली व स्वतंत्र थिंक टैंक व विश्वविद्यालय बनाने की जरूरत है जो कि नीति निर्माण की प्रक्रिया के आधार का काम देंगे, इस तरह प्राप्त ज्ञान का उपयोग समाज की बेहतरी के लिए किया जाएगा। इस बात पर भी बल दिया गया कि दक्षिण एशियाई देशों के बीच तालमेल कायम करने की आवश्यकता है क्योंकि वे एक जैसी ही समस्याओं का सामना कर रहे हैं जैसेः गरीबी, सामाजिक व आर्थिक अवसरों तक पहुंच की कमी, विकास की विषमता और बेरोजगारी।
इस कार्यक्रम में उपस्थित विशिष्ट व्यक्तियों में शामिल थेः ICSSR के चेयरमैन प्रो सुखदेव थोराट, ICSSR के सदस्य सचिव प्रो रमेश दाधीच, प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन डॉ सी रंगराजन, इंटरनैशनल डैवलपमेंट रिसर्च सेंटर की उपाध्यक्ष सुश्री ऐनेट निकॉलसन और ICSSR की डॉ रीना मारवाह।
 ’एशिया में सामाजिक विज्ञान की स्थिति एवं भूमिकाः उभरती चुनौतियां और नीति के सबक’ शीर्षक से आयोजित इस तीन दिवसीय सम्मेलन को इसलिए तैयार किया गया है कि इस क्षेत्र की अनुसंधान हेतु अनुदान देने वाली संस्थाएं और थिंक टैंक अन्य पक्षों के साथ एक जगह पर आकर सामाजिक विज्ञान अनुसंधान की स्थिति पर चर्चा कर सकें। इस चर्चा में अनुसंधान की आपूर्ति, अनुसंधान इंफ्रास्ट्रक्चर की पर्याप्तता व प्रभावशीलता के संदर्भ को खास महत्व दिया गया और इस बात पर विचार किया गया कि सामाजिक मुद्दों व अनुसंधान की कमियों के प्रति समझ बढ़ाने में देश की मौजूदा व उभरती मांगों को यह किस हद तक पूरा कर पाते हैं। इस सम्मेलन में सार्क देशों की अनुसंधान हेतु अनुदान देने वाली 8 परिषदें, संस्थान व थिंक टैंक तथा IDRC द्वारा वित्तपोषित 25 अनुसंधान संस्थान शामिल हैं।
प्रो थोराट ने कहा, ’’मैं आशा करता हूं कि इस सम्मेलन से मजबूत व प्रगतिशील सामाजिक विज्ञान इंफ्रास्ट्रक्चर व ईकोसिस्टम की रचना का मार्ग प्रशस्त होगा जिससे हमारे क्षेत्र के उभरते व विकासशील देशों में नीति निर्माण के कार्य को मदद मिलेगी।’’ इस सम्मेलन में अनुदान एजेंसियों, समाजसेवियों और सरकारों को नीति संबंधी सिफारिशें भी दी जाएंगीं।
’’न सिर्फ भारत बल्कि इस क्षेत्र के कई अन्य एशियाई देशों में भी सामाजिक विज्ञान नीति निर्माण की प्रक्रिया से बाहर निकल कर हाशिए पर पहुंच चुका है,’’ प्रो थोराट ने कहा।
उन्होंने आगे कहा, ’’एक टास्क फोर्स गठित करने की आवश्यकता है जो सहभागी देशों के बीच तालमेल कायम करेगी और सामाजिक विज्ञान अनुसंधान को सही गति देने के लिए पारस्परिक समन्वय को भी सुगम करेगी।’’ इस सम्मेलन में सामाजिक विज्ञान परिषदों, विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों, दानदाताओं और थिंक टैंकों के संघ का लांच भी अपेक्षित है।
प्रो दाधीच ने कहा, ’’राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी शक्तिशाली नीतियों को काफी ज्यादा प्रतिक्रियाशील व उन्नतिशील बनाया जा सकता है, यदि सामाजिक विज्ञान के घटकों को इनके साथ एकीकृत कर दिया जाए; उदाहरण के लिए सामाजिक विज्ञान अनुसंधानकर्ताओं को इनके साथ-साथ मूल्यांकन करने दिया जाए। सामाजिक विज्ञान अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिए, अन्य चीजों के अलावा, यह अहम है कि इसे नीति रचना एवं नियमन में एक बड़ी भूमिका प्रदान की जाए।’’
IDRC के क्षेत्रीय निदेशक डॉ अनिंद्य चैटर्जी ने अनुसंधान को सहयोग देने के लिए एक पुख्ता इंफ्रास्ट्रक्चर के गठन की आवश्यकता को रेखांकित किया। प्क्त्ब् विकासशील देशों को स्थानीय समस्याओं के हल ढूंढने के लिए विज्ञान व टैक्नोलॉजी के उपयोग में मदद देता है। उन्होंने कहा, ’’ IDRC मुनासिब सवालों के जवाब खोजने के लिए अनुसंधान को सहयोग देता है; जैसेः निर्धन समुदाय स्वास्थ्यकर आहार कैसे उगा सकते हैं, वे अपनी सेहत की रक्षा तथा और ज्यादा रोजगार की तलाश कैसे कर सकते हैं। यह सेंटर इन जानकारी को दुनिया भर के नीति निर्माताओं, अन्य अनुसंधानकर्ताओं व समुदायों के साथ साझा करने को बढ़ावा देता है। फलस्वरूप अभिनव व दीर्घकालिक प्रभावकारी स्थानीय समाधान प्राप्त होते हैं जिनका लक्ष्य सबसे ज्यादा जरूरतमंद लोगों को विकल्प मुहैया कराना एवं उनके जीवन में बदलाव लाना है।
भारत में सामाजिक विज्ञान अनुसंधान को अधिकांश वित्तीय मदद भारत सरकार व IDRC तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से प्राप्त होती है। स्थापना के समय से ही IDRC की प्रधान भूमिका सामाजिक विज्ञान को प्रोत्साहन देने और अनुसंधान के उपयोग को सुगम करने की रही है। यह स्वायत्तशासी एजेंसी है जिसका प्रमुख कार्य सामाजिक विज्ञान के सभी विषयों में नए अनुसंधान को प्रारंभ करना है। हालांकि इसे भारत सरकार से वित्तीय मदद मिलती है, किंतु इसका प्रबंधन समाज विज्ञानियों द्वारा किया जाता है। IDRC 1970 में स्थापित एक कैनेडियन क्राउन कॉर्पोरेशन है।
TTI, IDRC का एक मल्टी डोनर प्रोग्राम है, जो विकासशील देशों में स्वतंत्र नीति अनुसंधान संस्थानों को मतबूत करने के लिए समर्पित है। उनका लक्ष्य और विचार थिंक टैंकों को पुख्ता अनुसंधान प्रदान करना है जो नीतियों के लिए सूचना दे और उन्हें प्रभावित करे तथा यह सुनिश्चित करे की सहभागी देशों के नीति निर्माता निरंतर वस्तुनिष्ठ, उच्च क्वालिटी अनुसंधान का उपयोग कर के ही नीतियों का विकास एवं अमल करें जो समाज को ज्यादा न्यायसंगत एवं समृद्ध बनाए। इस इरादे को पूरा करने के लिए वे विकासशील देशों के स्वतंत्र नीति अनुसंधान संगठनों के चयनित समूह को दृढ़ एवं स्वतंत्र अनुसंधान में सहयोग दे रहे हैं जिससे नीति निर्माण प्रक्रिया में बेहतरी आए।
इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देश हैंः भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, थाईलैंड, जापान, वियतनाम व अफगानिस्तान, युनाइटेड किंग्डम, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, दक्षिण कोरिया, कम्बोडिया, जर्मनी, इंडोनेशिया, फिलिपींस व फ्रांस।
यह जानकारी एक विज्ञप्ति में दी गई।

हो सकता है कि यह आखिरी कुरुक्षेत्र हो और आखिरी महाभारत भी…

उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह!
वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है
पलाश विश्वास
उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह।
पंतजलि के विज्ञापनी बहारमध्ये योग गुरु बाबा रामदेव प्रकट होकर अभयदान दे रहे हैं टीवी न्यूज में, इलेक्शन से पहले जनता ने सिलेक्शन कर लिया है। बाबा सच कह रहे होंगे। लेकिन योगगुरु के अनेक रंग बिरंगे अवतार मीडिया में सोशल मीडिया में फर्जी मोदी सुनामी रचने के खेल में रमे हुये हैं। बंगाल में वाम शासन के दरम्यान हर चुनाव से पहले परिवर्तन सुनामी का हश्र हमने देखा है। लेकिन जब परिवर्तन आया दरअसल, तब मीडिया ने उसे तूल नहीं दिया। फिर परिवर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार बनने के बाद लाल रंग को मिटा देने पर आमादा मीडिया ने तो नंदीग्राम सिंगुर भूमि आंदोलन के दौरान सरकारी भोंपू की भूमिका निभाते हुये वामदलों को आत्मघत के लिये मजबूर कर दिया। अमर्त्यसेन की अगुवाई में तमाम अर्थशास्त्री और बांग्ला सांस्कृतिक बाजारु आइकन सिविल सोसाइटी का पालाबदल भी तदनुसार हुआ और सितारों का जमावड़ा भी। मायावती, अखिलेश, जयललिता के असंख्य उदाहरण तो हैं ही, जिन्हें चुनावी बहसों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ा जब उन्होंने सत्ता शिखर को स्पर्श किया। और तो और पिछले लोकसभा चुनाव में भी हालात कांग्रेस के एकदम खिलाफ थे और मजा देखिये कठपुतली प्रधानमंत्री ने नेहरु गांधी वंश की वैशाखी के सहारे पूरे दस साल भारत पर राज कर लिया।
ध्यान देने योग्य बाते हैं कि शेयर सूचकांक सांढ़ों के जबर्दस्त हमले से छलांग मारकर ऊपर चढ़ तो रहा है, विदेशी निवेशकों की आस्था तो अटूट है, पर रुपये की गिरावट थमी नहीं है। मुनाफा वसूली के खेल में अक्सर ही बाजार डांवाडोल है। वैश्विक इशारों का हवाला देकर दलाली का धंधा जोरों पर है। लेकिन अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। अमेरिकी हित दांव पर हैं। रूस में भी पुनरूत्थान होने लगा है और एक ध्रुवीय कॉरपोरेट विश्व व्यवस्था मध्यपूर्व के तेल संसाधनों को फतह करने के बाद समूचे एशिया पर विजयध्वज फहराने के लिए मोदी वंदना में लगी है। ध्यान से सुने जो रामधुन है, उसमें संघी स्वर कम है, यांकी सुर ज्यादा मुखर है और जायनी तड़का तो लाजवाब है। फास्टफूड जंक है, दुनिया जानती है, जहरीला यह रसायन जायके में बुसंद है जरूर, लेकिन जुलाब बनकर कहर कब बरपायेगा ठिकाना नहीं है।
बाजार के दिग्गज बढ़-चढ़कर सांढ़ भाषा बोल रहे हैं कि सेनसेक्स में लंबी छलांग कि आस लगाइये। लगाइये बाजी और हो जाइये मालामाल क्योंकि मोदी तो आ ही गये हैं। दीपक पारेख जैसे बैंकिंग सुपर आइकन ऐलान कर रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सुधारों के ज्वार से अर्थव्यवस्था बम-बम होगी।
हर-हर महादेव अब हर हर मोदी है। हिंदुत्व तो गया तेल लेने। महादेव किनारे कर दिया गये, मटिया दिये गये तो अटल आडवाणी जोशी जसवंत हरिन की औकात क्या। भागवत जी भागवत पुराण की तरह मोदी पुराण रचने लगे हैं।चित्रकथा में नये ईश्वर अवतरित है और प्राचीन देवदेवी मंडल खारिज है। देव देवी भी अब विज्ञापनी माडल है।
2007 में हमने अपने ब्लाग में लिखा था जो आज उसका चरमोत्कर्ष है।
Monday, September 24, 2007 11:44 PM
Create Icons to Escalate Killingfields!Space is the Next Battlefield।Man made Calamities Play Havoc and Consumer Carnival Continues
http://breakingnewsstream।blogspot।in/2014/03/create-icons-to-escalate।html
विज्ञापनी सितारे सीधे अब आपके संसदीय प्रतिनिधि होंगे। इस चुनाव का कुल जमा नतीजा यह है। पार्टीबद्ध सितारों के जलवे को देखते रहिए, चकाचौंध होते रहिये, गला रेंते जाते वक्त जोर का झटका धीरे से लगेगा।
मंडल बनाम कमंडल महायुद्ध कुरुक्षेत्र का अंतिम विलाप है। इस शोकगाथा में आत्मधवंसी महाविनाश के बाद विधवाओं और संतानहारी माताओं की यंत्रणा के अथाह सागर के सिवाय कुछ हात नहीं लगेगा। महारथी के रथ के पहिये जमीन में धंस गये हैं। महाभारत और रामायण नये सिरे से रचे जा रहे हैं।
प्रक्षेपण प्रक्षेपित समय का सबसे बड़ा सच है।
इसके विपरीत, चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा की अनिवार्य जनादेश भविष्यवाणी के विपरीत, रोज-रोज के चूहादौड़ के परिदृश्य में आज रविवारी इकानामिक टाइम्स में साफ-साफ लिख दिया गया है कि भाजपा को बमुश्किल दो सौ सीटें मिल सकती हैं। बाकी बहत्तर कॉरपोरेट इंडिया के सरदर्द का सबब है। वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे। पूरे देश में गुजरात माडल के विकास की परिकल्पना को साकार करने में कितना सहयोग करेंगे और कितना अड़ंगा डालेंगे, उनकी चिंता यही है।
जिस तरह से संघी और भाजपाई मौलिक पात्रों को दरकिनार करके चित्र विचित्र किस्म के गैरसंघी सांसद भाजपाई टिकट पर चुनकर आयेंगे, हालांकि व्हिप भरोसे उनकी ईमानदारी पर कोई चिंता नहीं जतायी गयी है। मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर अभी दो महीने का वक्त बाकी है, अंतिम फैसला आने को। ख्याली पुलाव और गाजर के हलवा का सही वक्त है यह। दिल्ली में तो फलों के साथ साथ सब्जियों का रस भी खूब मिलता है। धूप बस आगे बहुत कड़ी होनी है। लू भी होगी भयानक। एसी गाड़ी से घना-घना चढ़ने उतरने वाले अपनी अपनी सेहत का ख्यल करें। मौसम की मार किस पर कितनी भारी होगी, ऐसी कुंडला बांचने वाला विशेषज्ञों का बाजार भी शायद गर्म हो जाये। हमारे क्रांति दर्शी मित्रों का इस क्षेत्र में भयानक भविष्य है।
कल देर रात हमें अपने भावुक मित्र एचएल दुसाध का फेसबुकिया लेख पढ़कर खूब संतोष हुआ। वे अब तक भाजपा के एजंडा में डायवर्सिटी पंच करने की लड़ाई घनघोर लड़ रहे थे। अब उन्होंने लिखा है कि पारो हो या चंद्रमुखी, कोई फर्क नहीं है यारो। उन्होंने बहुजनों को चेतावनी दी है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है। वैसे वे अकेले बहुजन होंगे शायद, जो ऐसा लिख पा रहे हैं।
अब वामपंथी हाशिये का एक गजब नतीजा निकल रहा है। देश भर में पढ़े लिखे मुसलमान और धर्मस्थलों से राजनीति करने वाले मुसलमान भी भयमुक्त होने के लिहाज से केसरिया बन रहे हैं। दरअसल भय की इतनी बेनजीर अभिव्यक्ति आजाद भारत में कभी देखी नहीं गयी है। धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील मोर्चे का नाकाम होने का यह ज्वलंत प्रमाण है। अस्पृश्यता मुक्त होने की कोशिश में अस्पृश्यता के सबसे बड़े कारोबारी शायद मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए राजा युधिष्ठिर की तरह सियासी शतरंज की बाजी पर अपनी द्रोपदी को दांव पर लगा बैठे हैं। अब इस द्रोपदी का कृष्ण कौन होगा, ओबामा, नेतान्याहु, अंबानी या कोई और, इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा।
लेकिन मित्रों, जो तय हो गया है, वह यह है कि खिचड़ी भाजपा ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व के एजेंडे को अमली जामा पहनाने के लिए हिंदुत्व के एजेंडे को बनारसी के घाट पर गंगा आरती के साथ गंगा में ही विसर्जित कर दिया है। जैसे सत्ता की चाबी खोजने के चक्कर में अंबेडकर अनुयायियों ने अंबेडकर को ही मूर्ति बना दिया, उसी तरह मोदी ही गोवलकर हैं। मोदी ही हेडगेवार। मोदी ही शंकराचार्य और मोदी ही बाबा रामदेव। बीच के सारे लोग मध्यवर्ती हो गये। उन्हें क्या कहा जाये, लिख दें तो मानहानि हो जायेगी। आप ही समझ लें।
 वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है।
वामपंथ के अवसान पर जो बल्लियों पर लुंगी डांस कर रहे थे, वे तय करें कि अब मोदी की जीत का जश्न वे कैसे मनायेंगे। हमें तो राहत है कि अगर मोदी के प्रधानमंत्रित्व से इस देश को कमंडल से निष्कृति मिल जाये, तो अच्छा ही है। लेकिन मामला इतना आसान नहीं है।
हिंदू राष्ट्र भले ही अब नहीं बने लोकिन जो कारपोरेट अधर्म राज जनसंहारी बनने को तय है, उसका हश्र हिंदू राष्ट्र से भी भयानक होगा। जाहिर है कि उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह।
जाहिर है कि उठो, जमींदोज आम लोगों कब्रिस्तान और श्मशान में मृत आत्माओं का आवाहन करो।
जाहिर है कि उठो, मूक भारत के जनगण, इस खतरे का मुकाबलो करने के लिए गोलबंद हो जाओ तहस नहस हो जाने से पहले।
हो सकता है कि यह आखिरी कुरुक्षेत्र हो और आखिरी महाभारत भी।
शतरंज के खिलाड़ी में सत्यजीत राय ने टाम आल्टर का बखूब इस्तेमाल किया है। हिंदी फिल्मों के दर्शक इन टाम आल्टर से खूब परिचित है। लेकिन निर्देशक के तय दायरे से बाहर उनकी विशुद्ध हिंदुस्तानी जुबान में बुनियादी मसलो को संबोधित करने वाले एक मात्र टीवीशो का फैन हो गया हूं।
चांदनी चौक पर चुनावी चाय की चुस्की लेते हुये उन्हें देखकर कायल हो गया था। आज दोपहर जेएनयू में युवा छात्रों से बतियाते उनके तेवर से घायल भी हो गया हूं।
मुझे खुशी है कि विचारधाराओं के नाम इतनी धोखाधड़ी के बाद जेएनयू के छात्र जिन्हें विचारधारा जुगाली के दरम्यान रोटी की शक्ल के बारे में आकार प्रकार समेत सिलसिलेवार बताना पड़ता था, चुनावी चाय की चुस्की लेते हुये टामभी से रोटी रोजी के सवाल से ही जूझते रहे। उनका लगभग कोरस में कहना था कि रोटी का सवाल बुनियादी है। रोजगार के सवाल बुनियादी है। बेसिक जरुरतों के तमाम सवाल बुनियादी है। वे संबोधित होने ही चाहिए। वे संबोधित हों तो विचारधारा अपने आप साकार होने लगेगी।
वामपंथियों के पंरपरागत गढ़ में वे कह रहे थे जो सवाल वामपंथ को करने थे वे अरविंद केजरीवाल पूछ रहे हैं। इसके साथ ही वे कह रहे थे कि भारतीय जन गण के गुस्से को एकदम कारपोरेट तरीके से मैनेज किया है अरविंद केजरीवाल ने। वे बीस साल के सुधारों पर चर्चा कर रहे थे। चिंता जता रहे थे मुद्दों के हाशिये पर जाने का। लेकिन वे विचारधारा की अनिवार्यता की जुगाली करने से अब बाज आ रहे हैं और चाहते हैं कि मुद्दे फोकस हो और बात रोटी से शुरू हो।
क्या हमारे विद्वत जन इन लड़के लड़कियों की आवाज सुन रहे हैं?
उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह!
साथी सत्यनारायण जी ने इस पोस्टर के साथ लिखा है
हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’
हम सहमत तो हैं साथी सत्यनारायण जी, लेकिन इंक्लाब के लिए अस्मिताओं में खंडित विखंडित भारतीयबहुसंख्य जनगण को गोलबंद करने की रणनीति भी आपकी ओर से चाहते हैं।
कवि नीलाभ अरसे बाद हमारे टाइम लाइन में दाखिल हुये और लिखा गौरतलब। आज धूमिल की पंक्तियों से बात शुरु करने के बाद उनका लिखा शेयर कर रहा हूं कि जिस लोकगणराज्य की बात हम कर रहे हैं वहां गणतंत्र की मृत्युशय्या का जश्न हम लोग कैसे मनाने लगे हैं।
आज सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो बेसाख़्ता ग़ालिब का एक मिसरा याद हो आया –
हुये तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो
सुर्ख़ियों में सबसे बड़ी ख़बर यह थी कि नेता लोग धड़ा-धड़ भाजपा में शामिल हो रहे हैं। यानी मोदी की बहार हो-न हो दल-बदलुओं की बहार है। भाजपा सोचती है कि इस तरह वह जनता के सामने अपनी मक़बूलियत साबित कर सकेगी। नेता सोचते हैं कि इस तरह वे अपनी गोटी लाल कर लेंगे। यानी जनता को दोनों ही मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि इस तरह उनकी चालबाज़ी रंग ले आयेगी।
ऐसे में दो ख़याल आये। पहला ख़याल अपने एमए के सहपाठी और पुराने कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी का आया। जनार्दन बरसों पहले 1968-69 में कांग्रेस में शामिल हुआ था और चाहे कांग्रेस जिस भी हाल में रही, उसने कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा। कांग्रेस और जनार्दन से मतभेदों की बावजूद मैं जनार्दन की इस निष्ठा का एहतराम करता हूं। वह “इश्क़े-बुतां” में उम्र काटने के बाद “आख़िरी वक़्त मुसलमां होने” में यक़ीन नहीं रखता। जनार्दन जैसे लोग कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दलों में भी होंगे और हमें उनका भी अभिनन्दन करना चाहिये।
दूसरा ख़याल यह आया कि हो-न हो अरविन्द केजरीवाल ही की बात सही होती जान पड़ती है कि जो भी तब्दीली इन चुनावों के सबब से हो, वह साल-दो साल से ज़्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगी। और ऐन मुमकिन है कि फिर चुनाव हों।
तब क्या इन दल-बदलुओं की गति उस चमगादड़ जैसी नहीं होगी जो पंचतन्त्र की कथा में पक्षियों और पशुओं की लड़ाई में कभी अपने पंख दिखा कर पक्षियों में शामिल होता था और कभी स्तनपायी होने के नाते पशुओं की तरफ़। और बिल-आख़िर न पक्षियों में जगह पा सका, न पशुओं में। उसकी नियति में उलटा लटकना ही लिखा था।
क्या हमारी जनता इन दल-बदलुओं का हश्र वैसा ही नहीं करेगी ?
पत्रकार, कलाकार, रंगदार, सिपहसालार, सरमायेदार, इजारेदार, सलाहकार, वफादार, गद्दार, नम्बरदार, हो गए सब सेवादार, करके जय-जयकार।।।
क्या महंगाई-दंगाई दोनों की सरकार इस बार?
मोहन क्षोत्रिय जी के इशारे पर गौर करें कि कैसे अंध राष्ट्रवादी सुनामी रचने का बिंब संयोजन गढ़ा जा रही है किंवदंतियों के कारखानों में।
‪#‎किंवदंतियां बन रही हैं, प्रसारित की जा रही हैं।।।
… कि बड़ा मगरमच्छ बचपन में छोटे मगरमच्छों के साथ खेला करता था।
खेलता रहा होगा, भाई ! अपन किस आधार पर खंडन करें? कर ही नहीं सकते ! ठीक है न?

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

सरदार कहाँ है इस युद्ध में…

गौरव अवस्थी
जिन्होंने देश पर दस साल राज किया। इन वर्षों में देश कहाँ से कहाँ (कांग्रेसी  कहते हैं उत्कर्ष पर, विरोधी कहते हैं रसातल में और जनता कहती है मुश्किल में) पहुँचा दिया। कहते हैं कि उनकी ही नीतियों से भारत दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था वाला देश बन चुका है।  दस वर्षों में जिन्होंने एक नहीं तमाम माइलस्टोन गाढ़े। मसलन-प्रति व्यक्ति आय 2004 के मुकाबले 24143 से बढ़कर वर्ष 2012-13 में 68747 पहुँच गई। जीडीपी(ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट ) बढ़कर 100. 28 लाख करोड़ गया। जो 2004-05 में सिर्फ 32. 42 लाख करोड़ ही था। इन्हीं दस वर्षों में 14 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया गया। सूचना, शिक्षा और चलते-चलते 70 करोड़ लोगों को भोजन का अधिकार भी इन्हीं सरदार ने दिया। सभी मील के पत्थर गिनाने या लिखने में एक पूरा ग्रन्थ तैयार होने की सम्भावना है इसलिए सबका जिक्र यहाँ रोक रहा हूँ। सुधी पाठक और जागरूक लोग सब देखते-सुनते और समझते चले ही आ रहे हैं।
इन सरदार के सर पर केवल विकास और गति तेज करने का ही सेहरा नहीं है। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बाद सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के रिकॉर्ड निर्माण का ताज भी उन्ही के माथे पर है। आप समझ ही गये होंगे कि यह सब किया धरा  एक ऐसे सरदार का है जिसे टीवी पर देखते समय एक चाबी वाले खिलौने का अहसास होता है। कभी-कभी वह टेडी बियर लगता है। उसने जितना किया उससे ज्यादा धोया लेकिन फिर भी ….
अब जब लोकतंत्र का चुनावी उत्सव दूसरे शब्दों में “युद्ध” बाकायदा शुरू है। देश को इतनी प्रगति पर ले जाने वाले सरदार को दूसरी सेनाओं (विरोधी पार्टियों ) से लड़ते-भिड़ते दिखना चाहिए था। मोर्चे पर डटा हुआ होना चाहिए था। आरोपों-प्रत्यारोपों का जवाब भी उन्हें ही देना चाहिए था लेकिन समय की बलिहारी देखिये कि क्रांति करने वाला वही सरदार युद्ध में कितना अ-सरदार हो गया है।  ना उसकी अपनी सेना ( पार्टी ) पूछ रही है और ना विरोधी दल। सारे हमले या तो कांग्रेस पर हैं या उनके सेनापति ( राहुल गांधी ) पर। यह सरदार तो लोकतंत्र के चुनावी युद्ध के परिदृश्य से गायब हैं। ना अपील मेंना सभाओं में ना विज्ञापनो में। आम चुनाव की अधिसूचना जारी होने के पहले भारत निर्माण के विज्ञापनों में इस सरदार के दर्शन हो जाते थे पर अब उन पर “ढूँढते रह जाओगे …” वाली विज्ञापनी उक्ति ही सटीक बैठ रही है। सरदार का कोई नाम लेवा तक नहीं है। हाँ, उनकी एक जगह है कांग्रेस की स्टार प्रचारक की लिस्ट में। अभी सभी प्रदेशों की लिस्ट तो चुनाव आयोग तक नहीं पहुँची हैं लेकिन असम की  लिस्ट में उनका नाम दूसरे नम्बर पर दर्ज है।  विश्वास है कि हर प्रदेश के स्टार प्रचारक की सूची में उनका नाम जरूर रहेगा लेकिन उनकी कही से कोई डिमांड नहीं है। उस प्रदेश में भी नहीं जहाँ से वे चोर दरवाजे से राज्य सभा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं यानी असम में।

लगता ही नहीं कि शोर-शराबे वाले चुनाव के इस दौर में भारतीय राजनीति में कोई सरदार भी है। मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ सच बताइयेगा कि राजनीति की मुख्य धारा ही नहीं प्रधानमंत्री पद पर रहते हुये क्या किसी नेता को आपने “था” की पोजीशन इस 67 वर्षीय लोकतंत्र में कभी देखी है। देश ने एक से एक कमजोर प्रधानमंत्री-देवेगौड़ा और गुजराल सरीखे- भी देखे, लेकिन इतने काठ के तो वो भी नहीं हुये जितने अपने यह सरदार जी। कोई कैसे सोच सकता है कि जिसने प्रधानमंत्री जैसे पद पर रहकर देश की इतनी अमूल्य सेवा की हो। देश को इतनी तरक्की दिलाई हो वह युद्ध ( चुनाव ) में इतना नकारा हो जाए कि लोग ( पक्ष-विपक्ष ) उसका  नाम तक ना लें।  ऐसे देश सेवक के बारे में आपका क्या नजरिया होगा आप ही जाने लेकिन हम तो व्यथित हैं। शर्मिंदा हुये जा रहे हैं सरदार का यह हश्र सोच-सोच कर। लोग पद और पॉवर मिलने पर कालजयी काम करते हैं ताकि नाम अजर-अमर हो जाये और अपने सरदार तो वर्त्तमान जयी भी ना बन पाये। ऐसे सरदार को अब क्या कहें।

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गौरव अवस्थी, वरिष्ठ पत्रकार हैं।