सोमवार, 1 दिसंबर 2014

‘बौद्धिक आतंक’ का साया प्रसार भारती में

प्रसार भारती की एक एंकर की अयोग्यता पर बहस हो रही है। माना कि लड़की से भूल हुई या वह अयोग्य ही है, तो इसका क्या मतलब कि उसकी सोशल मीडिया पर धज्जियां उडाई जाएं? और अवसाद में उसे डाला जाए ?

प्रसार भारती जाय भाड़ में। इससे ज्यादा मूल्यवान उस महिला एंकर का जीवन है। बहुत विद्वान प्रसार भारती में घुस भी जायेंगे तो देश और समाज के लिए क्या उखाड़ कर दे देंगे, यह हमें भी पता है ?

उस एंकर का भी भविष्य है। सपने और संघर्ष हैं। ’गवर्नर ऑफ़ इंडिया‘ बोल देने पर एक पंक्ति का खेद प्रसारित किया जा सकता था। इसके लिए उस लड़की के अस्तित्व से खेलना ठीक नहीं। सदियों बाद ये वंचित चहक और चमक रही है। अरे भाई करने दो इन्हें भूल ? उनकी भूल हमारी ही धूर्तई का नतीजा है।

प्रसार भारती में व्याप्त अराजकता पर आपको बोलने का हक़ है। इसके गुण – धर्म में सुधार हो, यह कौन नहीं चाहेगा ?

उस एंकर को अपराध के अनुपात में ही सजा मिलनी चाहिए। उनके साथ अब जो हो रहा है वह अपराध के करीब का मामला है।

यह एक बौद्धिक आतंकवाद है। बुद्धि के बल पर आतंक फ़ैलाने वाले कम बुद्धि वाले को ऐसे ही जीने नहीं देना चाहते ? कितनों के प्रयोग असफल होते हैं ? रॉकेट उड़ते के साथ ही फुस्स हो जाता है तो क्या वैज्ञानिक को मारने काटने दौड़ जाते हैं ?

इस बौद्धिक आतंक के खेल में हमारे भी परिजन शामिल हैं। यह हमारे लिए दुखद है। प्रसार भारती अयोग्य को भी योग्य बनाये। फिटेस्ट नहीं वीकेस्ट की सोचें। उन्हें सहयोग दें। मार्गदर्शन दें ताकि अयोग्यतम की भी जीत हो सके।

O- बाबा विजयेंद्र
About The Author बाबा विजयेंद्र, लेखक स्वराज्य खबर के संपादक हैं।

आदिमजनजाति बिरहोर कम होता शिक्षा का स्तर-जिम्मेदार सरकार और गैरसरकारी संस्थाएं

झारखण्ड अनुसूचित राज्य है। 24 जिले वाला यह राज्य के हर जिले में अनुसूचित जनजाति के शिक्षा के लिए मध्य विद्यालय, उच्च विद्यालय बालिका विद्यालय की स्थापना की गयी है। जिसमें लगभग 24 जिले में यह विद्यालय संचालित है वहाँ आदिवासी बच्चों के अलावा बिरहोर समुदाय के बच्चों भी पड़ते है। जिसमें सबसे सुदूर गांव के बच्चों के लिए यह व्यवस्था है। इस शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करने के लिए सरकार और गैर सरकारी संस्था ने कभी प्राथमिकता की सूची में नहीं रखा

बदलती शिक्षा व्यवस्था में झारखण्ड में शिक्षा और शिक्षित होने के लिए बिरहोर समुदाय को प्रेरित कर दिया है। जंगल का वह भाग जहाँ कभी सूरज के रौशनी के अलावे और कुछ नहीं पहुंचता था, आज वहाँ बच्चे अपने को शिक्षित करने के लिए गांव से बाहर अनुसूचित जनजाति विद्यालय में जा रहे हैं। जंगल का घनापन खत्म हो रहा है। जंगल के अन्दर और जंगल पर निर्भर लोगों के पास संकट आया है। उनके जीवन स्तर में भी परिवर्तन आ चुका है। इन समुदाय के बीच अब संसाधन का अभाव दिखने लगा है। इनके जीवन में पूंजी का महत्व बढ़ा है। आर्थिक सबलता बनने के लिए लिखना पढ़ना और डिग्री लेने के प्रति रूचि जग गयी है। 60 साल पहले की स्थिति अब बिरहोर के गांव में नहीं रही। उनके मूल स्वरूप में परिवर्तन आने लगा है। उनके हिस्से का वन और वनप्राणी अब जंगल के समाप्त होने से उनके उपर संकट आ गया। संकट से उबरने के लिए उन्होंने शिक्षा को भी एक रास्ता को चुना।

24 जिले वाला झारखण्ड में बिरहोर शिक्षा का स्तर में अक्षर ज्ञान के अलावा नन मैट्रिक और इंटर तक की शिक्षा लिए हुए लोगों की संख्या 2 प्रतिशत तक आ गयी है। छोटी आबादी अपने को बचाने के लिए मुख्यधारा के साथ जुड़ रहे हैं, वे बाहरी समाज के साथ अपने के बीच मेल मिलाप बढ़ा रहे हैं। नौकरी और की ओर बढ़ रहे हैं। जिससे उनके रहन-सहन में परिवर्तन होता जा रहा है अब वह शिक्षित हो कर परिवार और समाज के बीच रहना ज्यादा पंसद करने लगे हैं।

अनुसूचित जन जाति के विद्यालय-सरकार ने अनके लिए अवासीय विद्यालय की व्यवस्था कर दिया है, पर उनके शिक्षा का स्तर दर अब भी कम है दो स्कूल उदाहरण के रूप में हम देखते हैं, एक तो रांची की राजधानी से 150 कि0मी0 दूर गुमला के विशूनपुर के आदिमजनजाति आवासिय विद्यालय दूसरा रांची के राजधानी के मुख्यालय से 23 कि0मी0 के बुण्डू ब्लॉक के स्थित आवासिय विद्यालय की स्थिति जिसमें जिसमें गुमला के विशूनपुर के विद्यालय में बंद पड़े हैं, उस विद्यालय को बिहार की संस्था को संचालित करने के लिए दे दिया गया है जहाँ एक भी स्थानिय यानि कि जहनगुटूआ के एक भी बच्चे नहीं जाते हैं। वहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक भी बिहार के हैं। लम्बे समय से विद्यालय बंद रहता है। बाहर से देखने से लगा इसकी स्थिति खंडहर जैसे हैं वहाँ कभी विद्यालय खुलता ही नहीं है। आसपास के लोगों से जानकारी लेने पर बच्चों ने बताया कि यह विद्यालय में स्थानीय लोग पढ़ने नही जाते हैं। गांव के क्षत्रपति ने बताया कि गांव में लोग शिक्षित हैं पर सरकार इनको शिक्षा के काम में नहीं लगाती है। और न गांव में शिक्षा समिति का गठन किया गया है।

विजय बिरहोर ने बताया कि गांव के बच्चे बाहर के स्कूल में जाते हैं। इस लिए कि यहाँ शिक्षा के लिए शिक्षक की कमी है और सही तरीके से पढ़ाई नहीं हो पाती है। हमारे गांव में आंगनबाड़ी केन्द्र है यहाँ की स्थानीय महिला द्वारा संचालित है जिसमें 40 बच्चे जाते हैं। लेकिन आवासीय विद्यालय में हमारे गांव का एक भी बच्चा नहीं जाता है।

वही बुण्डू के अमनबुरू मे 6 स्कूल बिल्डिंग हैं। जिसमें 5 में स्कूल और एक में आवासीय विद्यालय है जिसमें 88 बच्चे है। 7 शिक्षक हैं, जिसमें पहला क्लास से लेकर 6 क्लास तक की पढ़ाई होती है। विद्यालय बनने के बाद कभी मरम्मत नहीं किया गया। आधे से अधिक क्लास रूम टूट चुके हैं। पीने के पानी का संकट हर वक्त बना रहता है। सरकार रहने के लिए उचित व्यवस्था करने में असमर्थ है। स्कूल में तमाम संसाधन हैं, पर वह इन बच्चों को नहीं मिलता है। रमेश शंकर मुण्डा ने बताया कि हमारे यहाँ 6वी तक क्लास होती है इससे 12 तक क्लास करने की मांग 2007 से लगातार किया गया। जब रांची के डीसी के. के. सोन रहे थे, तो उन्होंने कहा था इसे उच्च विद्यालय बना कर रहेंगे लेकिन सोन बदल गये। नये डीसी आये जिसने कभी हमारी सुनी तक नहीं। न हमारे पास कभी आये। सुमन मुण्डा जो स्कूल के प्रधानमंत्री हैं, ने बताया की हम दूसरे स्कूल के बारे नहीं जानते हैं, पर हमें तमाम विषय पर शिक्षा मिलनी चाहिए जिसके लिए शिक्षक नहीं है। शिक्षक के अभाव में हम अच्छी शिक्षा से वंचित रह रहे हैं।

वहीं सुनील बिरहोर ने बताया कि हमारा घर अमनबुरू में है। हम बीच-बीच में घर जाते हैं, रहते हैं चार कलास में पढ़ते हैं। यहां तो सब टूटा हुआ है मास्टर हमें पढ़ाते हैं, पर क्लास रूम का अभाव है। महेश्वर लोहरा ने बताया कि हम 6वी कलास में पढ़ रहे हैं, इसके बाद हम कहां पढ़ने जाएंगे यह हमारे लिए चिंता का विषय है।

बच्चों ने रखा प्रस्ताव – कहा हमारे स्कूल में कम्प्यूटर की शिक्षा शुरू किया जाए। फुटबॉल की व्यवस्था की जाए। खेलने के लिए सरकार की ओर से जूते दिये जाएं। खेल और कला संस्कृति के शिक्षकों की नियुक्ति हो। स्कूल में 12वीं तक की पढ़ाई शुरू किया जाना चाहिए यदि सरकार हमारे यह प्रस्ताव को मान लेगी तो हमारा विद्यालय अन्य विद्यालय से अच्छा हो जाएगा।

बिरहोर शिक्षित बेरोजगार- अमनबुरू में हर घर में शिक्षित व्यक्ति है 8 कलास तक के शिक्षा सब के पास है वे अब अपने को मानते हैं शिक्षित बेरोजगार दुबराज बिरहोर नन मैट्रिक हैं। उन्हें पता है सरकार ने उनके लिए विशेष नौकरी की व्यवस्था की है पर वह नहीं जानते हैं कि वह कहां जाकर नौकरी की मांग करें। उनकी पत्नी हजारीबाग में आंगनबाड़ी सेविका है। वहीं सुरेश बिरहोर सिल्ली में पलायन कर गये हैं। वहाँ बिरहोर समुदाय के बीच काम करते हैं। बीच-बीच में अपने गांव आते हैं। अमनबुरू और ढीपा टोली से 12 लड़के स्कूल जाते हैं, 04 लडकियां कस्तूरबा गांधी स्कूल में रह कर पढ़ाई करती हैं। गांव में शिक्षित बहु लाने की प्रथा, हर घर में बहु मैट्रिक या 8वीं तक की पढ़ाई कर चुकी है।

अमन बूरू आवासीय विद्यालय के शिक्षक प्रमेश्वर लोहरा ने बताया कि बुण्डू के गांव में बिरहोर अब धीरे- धीरे शिक्षत हो रहे हैं, रोजगार से जुड़ रहे हैं, पलायन कर दूसरे स्थानों में रोजगार खोज रहे हैं, बच्चे स्कूल में रहते हैं। स्कूल में शिक्षक की कमी है। सरकार व्यवस्था करेगी तभी संभव हो पाएगा। शिक्षा के प्रति बच्चों को काफी इच्छा है। 6ठी तक की पढ़ाई के बाद बच्चे भटक जाते हैं। इसका विकल्प नहीं खोज पा रहे हैं, अन्य स्कूल काफी दूर हैं जहाँ बच्चों के रहने की व्यवस्था नहीं है, इस लिए उच्च शिक्षा के प्रति थोड़ी उदासीनता है। गांव के ग्राम प्रधान ने बताया कि हम हर रविवार को गांव सभा की बैठक करते हैं, उसमें शिक्षा के सवाल को उठाते हैं। सरकार हमारी नहीं सुनती है। हम चाहते हैं तकनीकी शिक्षा के साथ अन्य शिक्षा के साथ बच्चों को जोड़ा जाए जो हमारे गांव में नहीं है। समय परिवर्तन हो चुका है। शिक्षा में भी परिवर्तन आ रहा है। लेकिन हमारे गांव में पुराने नियम कायदे से शिक्षा चल रही है इसमें परिवर्तन लाने की जरूरत है।

आदिम जनजाति के स्कूल बेहाल- : झारखण्ड में सरकार आदिम जनजाति के लिए उच्च विद्यालय 248 और मध्य विद्यालय 88 विद्यालय की स्थापना कर संचालित तो कर रही है पर इसकी बदहाली और गरीबी से उबारने के लिए कभी प्रयास नहीं किया है। शिक्षा अधिकार कानून के तहत इन स्कूलों में वो तमाम व्यवस्था बच्चों को नहीं मिल पा रही हैं, जिसके वे हकदार हैं। तकनीकी युग में हर स्कूल कम्प्यूटर से जहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, वहीं आदिम जनजाति बिरहोर के बच्चे आज भी पुरानी पद्धति से शिक्षा लेने के लिए मजबूर हैं। सरकार की शिक्षा की व्यवस्था ने लड़के और लड़कियों के बीच दूरी बना दी है। कस्तूरबा गांधी स्कूल में लड़कियों के लिए शिक्षा की जो व्यवस्था है वह व्यवस्था आदिम जनजाति विद्यालय में लड़कों को नहीं मिल पा रही है। ऐसी स्थिति में समाज में बराबरी की शिक्षा के सवाल पर प्रश्न चिन्ह लगता है।

शिक्षा के अधिकार को लेकर चल रहीं हजार संस्था- इंटरनेट में शिक्षा के लिए काम करने वाली संस्थाओं के लम्बी कतार मौजूद है। कई फंडिग एजेन्सी भी शिक्षा के लिए झारखण्ड में काम करने के लिए फंड दे चुकी हैं। ऐसी हजार संस्थाएं हैं जो बच्चों की शिक्षा के लिए काम तो कर रही हैं, पर आदिम जनजाति के अन्तर्गत अति पिछड़ा वर्ग पीटीजी के लिए किसी संस्था ने काम करना शुरू नहीं किया है। शिक्षा के अधिकार के लिए नये नारे के बीच यह समुदाय कॉलेज की शिक्षा से बेखबर हैं। रांची में कल्याण विभाग छोड़ आदिम जनजाति के बच्चों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। राज्य सरकार और गैरसरकारी संस्थान ने आदिम जनजाति के शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण तरीके से काम नहीं किया जिससेआदिम जनजाति के बिरहोर समुदाय को शिक्षा के माध्यम से उच्च स्थान प्राप्त नहीं हो पा रहा है।

अनुसूचित जनजाति सरकार की उपयोजना में शिक्षा पर बजट कम

झारखण्ड में अनुसचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति उपयोजना की स्थितिवर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 26 प्रतिशत है। वहीं पीटीजी की आबादी सबसे कम होती जा रही है इसी जनगण्ना के अनुसार इस वर्ष 2014- 15 के बजट में राज्य सरकार द्वारा अनुसूचित जाति के विकास के लिए योजना बजट में से 26 प्रतिशत राशि आदिवासी समुदाय के लिए आंबटित की जानी चाहिए

अनुसूचित जनजाति उपयोजना की बजट 2014-15 राशि

स्रोत राज्य प्लान 2014 – 15 झारखण्ड सरकार

वितीय वर्ष 2014-15 का झारखण्ड सरकार द्वारा अनुमानित कुल प्लान बजट रू0 26754.97 करोड़ है। जिसके अंतर्गत अनुसूचित जनजाति उपयोजना के लिए रू0 7965.010 करोड आंबटित किये गए हैं, जो कि जनसंख्या अनुपात के अनुसार से कहीं अधिक हैं। विश्लेषण के अनुसार यह बात सामने आती है कि वैसे तो आबंटन कहीं अधिक किया जाता है परन्तु इस आबंटन का सीधा लाभ जन समुदाय को नहीं मिलता

शिक्षा विभाग में आंबटित बजट

1. झारखण्ड सरकार ने प्राथमिक शिक्षा विभाग में टीएसपी तथा एस सी एस पी के अन्तर्गत सबसे बड़ा आबंटन बच्चों के लिए पोषक आहार योजना में किया है। जिसकी राशि टीएसपी में रू 82.56 करोड़ है तथा एस सी एस पी में रू0 32.64 है। यह योजना एक जरूरी एवं महत्वकांक्षी योजना है। जिसमें यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इसका सीधा लाभ आदिवासी और आदिम जनजाति के बच्चे तक पहुंचे।

2. इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा विभाग में भी सामान्य श्रेणी की लड़कियों के लिए मुफ्त साईकिल वितरण करने हेतु उपयोजना के रू0 1.6 करोड़ आबंटित किये गए हैं।

3. उच्च शिक्षा विभाग में भी सरकार ने उपयोजना के अंतर्गत रांची विश्वविद्यालय को रू0 आठ करोड़ का अनुदान, दुमका विश्वद्यिालय को आठ करोड़ का अनुदान, कोल्हान को 7 करोड़ का अनुदान दिया गया, जिसका सीधा लाभ आदिम जनजाति समुदाय को नहीं हो पा रहा है।

कल्याण विभाग में झारखण्ड सरकार ने आदिवासी क्षत्रों में शिक्षा हेतु रू0 130 करोड़ का अनुदान और धारा 275 ए एडिसनल टी एस पी के अंतर्गत टीएसपी से रू0 100 करोड़ का अनुदान दिया है, जो सराहनीय है।

टीएसपी से ही रू0 30 करोड की पोस्ट एंटैस छात्रवृति तथा रू0 30 करोड़ की प्राथमिकशाला छात्रवृति रू0 20 करोड़ की माध्यमिकशाला छात्रवृति रू0 15 करोड़ की उच्चशाला छात्रवृति का भी प्रावधान किया है। यह सारी योजनाएं छा़त्र- छात्राओं को सीधा लाभ पहुंचाती हैं और नियमों के अनुसार हैं तथा उनके शिक्षा विकास में भी सहायक हैं, इसलिए इस प्रकार की योजनाओं में राशि बढ़ाई जानी चाहिए। और सरकार चाहती तो यह पैसा का उपयोग आदिमजनजाति के बिरहोर बच्चों के उच्च शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा के लिए उपयोग कर सकती थी।

इसके बाद भी आदिम जनजाति बिरहोर के बच्चे के शिक्षा का स्तर उठ नहीं पा रहा है कही न कही सरकार और गैरसरकारी संस्था से चुक हो रहीं है।

O- आलोका
(सीएसडीएस/ यूएनडीपी फेलोशिप के तहत)
About The Authorआलोका। लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। कई फेलोशिप एवं झारखण्ड सरकार द्वारा शोध में प्राप्त एवार्ड साथ ही भारत के महिला आंदोलन से जुड़ी जूडाव, झारखण्ड में विस्थापन आंदोलन के साथ जुड़ाव

मुजफ्फरनगर में आजमायी गयी साम्प्रदायिक राजनीति को अखिल भारतीय स्तर ले जाने की शातिराना कोशिश

मुजफ्फरनगर के बाद अलीगढ़ पर हमला कार्पोरेट फासीवादी राज्य के निर्माण का अगला चरण है।

कॉमरेड राजा महेंद्र प्रताप ने हाथरस से 1957 में लोकसभा- चुनाव में जनसंघ के प्रत्याशी श्री अटल बिहारी वाजपेयी को पराजित किया था। दरअसल श्री वाजपेयी की जमानत जब्त हो गयी थी।क्रांतिकारी राजा महेंद्र प्रताप को 01 दिसम्बर 1915 को काबुल में भारत की पहली प्रवासी प्रांतीय सरकार कायम करने का श्रेय हासिल है। इस सरकार में राष्ट्रपति महेन्द्र प्रताप के प्रधानमंत्री उनके निकट सहयोगी मौलवी बरकतुल्ला साहब थे। दोनों ने अपने साथियों के साथ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ‘जिहाद’ की घोषणा की थी। ( देखिये -विकीपीडिया )

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में महेंद्र प्रताप के योगदान को याद किया जाता है। सर सय्यद भवन में उनकी तस्वीर मौजूद है, जिस पर सर सय्यद से उनकी आत्मीयता की जानकारी भी दर्ज है। वे यहाँ छात्र भी रहे और विश्विद्यालय के निर्माण में सर सय्यद के सहयोगी भी।

उनके जीवन काल में संघ-परिवार उनका प्रमुख राजनीतिक विरोधी बना रहा। क्रांतिकारी होने के नाते आज़ादी के बाद वे कांग्रेस की राजनीति से दूर रहे , इसलिए कांग्रेस ने भी उनके योगदान को उचित सम्मान नहीं दिया।

अब अचानक एएमयू कैम्पस में घुस कर बीजेपी एक हिन्दू जाट राजा के रूप में उन्हें याद करना चाहती है, जो उनकी क्रांतिकारी जनवादी सेक्युलर विरासत की खुली अवमानना है।

यह असल में मुजफ्फरनगर में आजमायी गयी साम्प्रदायिक राजनीति को अखिल भारतीय स्तर ले जाने की शातिराना कोशिश है। अगर मुजफ्फरनगर हिन्दू मुस्लिम एकता का क्षेत्रीय नाड़ीविंदु रहा है तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय राष्ट्रीय केंद्र है। मुजफ्फरनगर के बाद अलीगढ़ पर हमला कार्पोरेट फासीवादी राज्य के निर्माण का अगला चरण है।

एकजुट हो कर राष्ट्रीय विरासत के साम्प्रदायीकरण की कोशिशों की मुखालिफत कीजिये।

O- आशुतोष कुमार
About The Authorआशुतोष कुमार, लेखक प्रख्यात साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

आधार कार्ड से किसे लाभ?

29 सितम्बर, 2010 को महाराष्ट्र के नन्दूरबार जिले के तमभली गांव में सोनिया गांधी द्वारा एक महिला को भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी 12 अंकों का पहचान पत्र आधार कार्ड देकर इस योजना का आरंभ किया गया। आधार कॉर्ड योजना को लागू करते समय नीलकेणी ने जोर देते हुए कहा था कि यह स्वैच्छिक योजना होगी, लेकिन जिस तरह से इसका प्रचार-प्रसार किया गया, उससे यही लग रहा है कि यह अनिवार्य हो गयी है। यह योजना शुरूआती दिनों से ही विवादों में रही है। यह योजना सीधे-सीधे लोगों की निजता (व्यक्तिगत जानकारी) से जुड़ा हुआ है। इस विशिष्ट पहचान को लेकर ब्रिटेन जैसे देश में चुनावी मुद्दा बना है और सरकार का हार की एक मुख्य कारण रहा है। चुनाव जीतने के बाद सरकार ने न केवल योजना को रद्द कर दिया बल्कि जो डाटा इकट्ठा हुआ था, उसे भी सुरक्षित तरीके से नष्ट किया। कहा गया कि स्टेट यानी राज्य को हर नागरिक के निजता के अधिकार का सम्मान करना चाहिए।
इसी तरह भारत में भी इसका विरोध हुआ और इसे लोगों की निजता पर कुठाराघात माना गया। उस समय की विपक्षी पार्टी (भाजपाजो अब सत्ता में है) ने भी विरोध जताया था। इस पर मीडिया में बहस चली और अनेकों लेखों में लिखा गया कि यह योजना गैरकानूनी है, लोगों की निजता पर प्रहार है, मेहनतकश जनता के साथ धोखा है। संसद की स्थायी समिति ने भी सवाल उठाये। स्थायी समिति की रिपोर्ट (सिफारिशों वाले खंड में) में कहा गया है कि ‘बायोमेट्रिक सूचना संग्रहण के काम कोनागरिकता कानून 1955 तथा नागरिकता नियम 2003 में संशोधन के बगैर कोई अन्य विधेयक बनाकर सही ठहराने की गुंजाइश नहीं बनती, और इसकी संसद को विस्तार से पड़ताल करनी होगी।’ समिति की रिपोर्ट को भी उस समय की कांग्रेस सरकार ने अनदेखा कर आधार कार्ड बनाने का काम जारी रखी।
इस योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 21 सितम्बर, 2013 को आदेश दिया कि आधार कार्ड की अनिवार्यता खत्म की जाए। ‘‘किसी भी सरकारी सुविधा हासिल करने के लिए आधार कार्ड जरूरी नहीं है। किसी भी व्यक्ति का आधार डिटेल पुलिस या सीबीआई को कार्ड होल्डर की अनुमति के बिना नहीं दिया जाएगा। साथ में यह भी ध्यान रखा जाए कि किसी भी अवैध नागरिक का आधार कार्ड न बने।’’ इस पर भाजपा के अनंत कुमार ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि बीजेपी पहले ही कह चुकी है कि आधार कार्ड निराधार है। कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस सरकार के व्यवहार में नरमी आई और लोगों के अन्दर आधार कार्ड बनाने का खौफ खत्म होने लगा था।
एनडीए सरकार बनने के बाद आधार कार्ड के विरोध कर रहे सिविल सोसाईटी और आम जन निश्चिंत थे कि आधार कार्ड की अब जरूरत नहीं है, क्योंकि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने इस योजना का विरोध किया था। लेकिन सत्ता में आते ही उसने यू टर्न लिया और हर कल्याणकारी योजना को आधार कार्ड से जोड़ने का ऐलान कर दिया। इस योजना के लिए 1200 करोड़ रुपये भी आवंटित कर दिया गया। इसके बाद फिर से यह बहस का विषय बना हुआ है। लोग सवाल कर रहे है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या होगालोगों की निजता कैसे बचेगी….? इन सब चिंताओं के बीच में आधार कार्ड बनाने वाली कम्पनियों में खुशी है, क्योंकि वे आम नागरिकों से इसके लिए 20 से 100 रुपये तक की वसूली कर रही हैं। निःशुल्क फार्मों को बेचा जा रहा है। लोगों से पैसा वसूलने के लिए जानबूझ कर आधार केन्द्रों पर एक से अधिक बार बुलाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ-साफ कहा है कि कार्ड होल्डर की अनुमति के बिना उनकी जानकारी किसी भी एजेंसी को नहीं दी जा सकती, जबकि पंजीयन के दौरान ही घोषणापत्र भरवाया जाता है कि आवेदक द्वारा दी गई सूचना को प्राधिकरण उपयोग में ला सकता है। इस तरह कार्ड होल्डर की जानकारी हर विभाग के साथ साझा किया जायेगा। कार्ड होल्डर की पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी।
आधार कार्ड बनाने में धांधली को लेकर कानपुर के सिकंदरा तहसील में लोगों ने पैसा देने से मना किया तो उनको आधार कार्ड बनाने से मना कर दिया गया। इसी तरह बलिया जिले के बासडीह तहसील के बकवा गांव में एक 72 साल के बुर्जुग द्वारा पैसा देने से मना करने पर उनका आधार कार्ड नहीं बनाया गया और धक्का दे कर उन्हें भगा दिया गया। इस घटना की लिखित शिकायत बांसडीह तहसीलदार और थाने को दी गई। ईमेल के द्वारा आधार कार्ड निदेशक, बलिया के जिलाधिकारी, गृह सचिव, उ.प्र. सरकार व भारत सरकार के गृह सचिव को देने के बावजूद उस कम्पनी पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि ये सभी यह भी नहीं बता पाये कि उस क्षेत्र में कौन सी कम्पनी आधार कॉर्ड बना रही है। थाने में पुलिस अधिकारी यह समझा रहे हैं कि हमने भी पैसा देकर बनवाया है, आप भी दे दीजिये। इसी तरह की शिकायत पर फिरोजाबाद में नियम बनाये गये हैं कि आधार कार्ड बनाने वाली कम्पनियां एक सप्ताह पहले अपना ब्यौरा देगी कि किस क्षेत्र में वह आधार कार्ड बना रही है। आधार कार्ड नामांकन शिविर सार्वजनिक स्थलों (स्कूल, पंचायत भवन एवं अन्य सरकारी भवनों) में ही लगने चाहिए, जबकि वे गांव, कस्बों के दबंग व्यक्यिों के घरों पर लगाये जा रहे हैं।
दिल्ली जैसे इलाके में फॉर्म नहीं दिये जा रहे हैं, फॉर्म फोटो स्टेट की दुकान से 5 रु. में खरीद कर लानी पड़ रही है। दिल्ली जैसे शहरों में लाखों लोग किराये के मकान में रहते हैं जिसका पता बदलता रहता है और पता बदलवाने के लिए 100 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं।
इस तरह से इस योजना के कार्यान्वयन में हजारों करोड़का भ्रष्टाचार छुपा हुआ है। आपके डाटा को किस तरह से सुरक्षित रखा गया है और उस डाटा के चोरी होने पर क्या इस्तेमाल होगाकहा नहीं जा सकता। सरकार डाटा सुरक्षा का आश्वासन देती है, लेकिन उसकी कार्यप्रणाली से ऐसा नहीं लगता, जब सरकार यह नहीं पता कर पा रही है कि किस इलाके में कौन सी कम्पनी आधार कार्ड बना रही है तो वह कैसे पता लगा पायेगी कि किस का डाटा किस रूप में प्रयोग हो रहा है। आधार कार्ड जब पैसे लेकर बनाये जा रहे हैं तो इसे कोई भी अवैध व्यक्ति पैसा देकर बनवा सकता है। इस योजना से आम आदमी को कितना लाभ होगा यह अनिश्चित है, लेकिन कम्पनियों को कितना लाभ होगा यह निश्चित है। आधार कार्ड को कल्याणकारी योजनाओं से क्यों जोड़ा जा रहा है, क्या गरीब लोगों का डाटा सरकार को चाहिए? इस योजना को स्वैच्छिक कह कर स्वीस बैंक में पैसा रखने वालों को छूट दी जा रही है। क्या भविष्य में आधार कार्ड के पहचान पर एक धर्म विशेष व पूंजीवादी विचारधारा के खिलाफ काम कर रहे लोगों को निशाना बनाया जायेगा?
O- सुनील कुमार About The Author
सुनील कुमार, लेखक राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

इतना क्यों लिखते हो और लिखने से क्या होता है

आज अरसे बाद सब्जी बाजार जाना हुआ। हाट फिर भी नहीं जा सकें। जहां देहात के लोग अपने खेतों की पैदावर लेकर आते हैं सीमावर्ती गांवों से। खासकर सौ सौ मील की दूरी के दूर दराज के गांवों से आने वाली मेहनतकश महिलाओं के जीने के संघर्ष और परिवार और समाज को बचाये रखने की उनकी संवेदनाओं से भींजता रहा हूं।

बहुतों के गांव घर बच्चों के बारे में जानता हूँ जैसे मछलियाँ काटने कूटने वाली महिलाएं अपनी दिहाड़ी से अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला रही हैं, उसे हर रोज सलाम करने का मन होता है।

मैं फिर भी लिखने के लिए कहीं जा नहीं पाता। लिखकर अगर उनकी कोई मदद कर पाया तो जीवन धन्य हो जाये।

मेरे लिखने का असली मकसद भी वही है अपनी मेहनतकश भारतमाताओं के हक हकूक के हक में खड़ा होने की कोशिश है यह, जो जबतक सांसे जारी हैं, जारी रहेगी यकीनन। लेकिन इसी वजह से मैं उन लोगों के बीच जा नहीं पाता जब जाता हूँ तो उनके बेइंतहा प्यार में मुझे देशभर में बसंतीपुर का ही विस्तार मिलता है और इसी बसंतीपुर की जमीन में, कीचड़ में, गोबर में धंसकर मुक्तबाजारी नस्ली विध्वंसक सत्तावर्चस्व मोर्चाबंदी में हम आपके मन की खिड़कियों और दिमाग के दरवाज्जे पर दस्तक देते रहने की बदतमीजियाँ करता रहता हूँ।

लोग सवाल करते हैं कि इतना क्यों लिखते हो और लिखने से क्या होता है। मेरे लिए इससे बड़ा सवाल है कि मैं लिखने के अलावा कर ही क्या सकता हूँ। इसी बेहद बुरी आदत के लिए मैं अपने स्वजनों से कभी ठीक-ठाक मिल नहीं पाता और कोई माफीनामा इसके लिए काफी नहीं है।

हमें इन्हीं लोगों की परवाह है। आज भी उन लोगों ने घेर लिया और सवालों से घिरे हम जवाब खोजते रहे लेकिन फिर भी यह खुलासा यकीनन नहीं कर सकें कि दरअसल माजरा क्या है।

संकट यही है कि आम जनता के सवालों का जवाब जाहिर है कि राजनीति और सत्ता से नहीं मिलने वाला है। मीडिया को उन सवालों की परवाह नहीं है वह तो रोज अपनी सुविधा और कारपोरेट दिशा निर्देशन में सवाल और मुद्दे गढ़कर असली सवालों को हाशिये पर फेंकने का ही काम करता है।

जनता के सवालों के मुखातिब होकर उन सवालों का जवाब खोजने वाले लोगों की तलाश में भटक रहा हूँ।

हम दस साल से अलग-अलग सेक्टर में जाकर कर्मचारियों का प्रोजेक्शन के साथ कारपोरेट एजेंडा समझाते रहे हैं और बजट का भी विश्लेषण करते रहे हैं और हम कुछ भी नहीं कर सके। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी में निरंतर लिखते रहे चौबीसों घंटे और हम कुछ भी कर नहीं सके। हमारे लोगों ने हमारी चीखों को सुनने की कोशिश ही नहीं की और नतीजा कितना भयावह है, इसका अंदाजा भी उन्हें नहीं है।

विडंबना यह है कि अस्मिताओं में खंड-खंड भारत माता के लिए आत्मरक्षा का कोई उपाय नहीं है जैसे फेसबुक पर चांदनी अपने को बेचने की पेशकश की, तो खलबली मची हुई है और इस देश की राजनीति जो देश को ही बेच रही है, उससे हमें कोई फर्क पड़ता नहीं है। हम लोग राष्ट्रद्रोही करोड़पति अरबपति तबके के सत्ता वर्चस्व के खिलाफ खड़े होने का जोखिम उठाने के बजाये उनके फेंके टुकड़े बीनने में लगे हुए हैं।

विडंबना यह है कि बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने बिना आरक्षण, बिना कोटा, बिना मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पढ़े लिखे बहुजनों की बेइंतहा फौज के प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता के जो अधिकार सुनिश्चित किये, उसके वारिसान हम अपनी विरासत के बारे में सिरे से अनजान हैं और जयभीम, जयमूलनिवासी, नमोबुद्धाय कहकर अपने को बाबा के सबसे बड़े भक्त साबित करने में लगे हैं।

और हमें मालूम ही नहीं चल रहा है कि सत्तापक्ष की जनसंहारी कारपोरेट राजकाज और नीतियों की वजह से न सिर्फ कृषि जीवी जनता, पूरी की पूरी महनताकश जमात के साथ-साथ कारोबार में खपे हमारी सबसे बड़ी आबादी का खातमा ही केसरिया कारपोरेट एजंडा है।

बहर हाल लोकसभा ने आज श्रम कानूनों को सरल बनाने वाले विधेयक को मंजूरी दे दी। इस विधेयक राज्यसभा में इस सप्ताह की शुरुआत में ही पास किया गया था, जिसमें 40 तक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को रिटर्न दाखिल करने और दस्तावेजों का रखरखाव करने से छूट दी गई है। वर्तमान में यह सीमा 19 कर्मचारियों की है।

तृणमूल कांग्रेस की अगुआई में आम आदमी पार्टी, माकपा जैसे विपक्षी दलों ने विधेयक का विरोध किया और इसे मजदूर विरोध बताया। तृणमूल कांग्रेस के सौगत राय द्वारा प्रस्तावित संशोधनों के खारिज होने के बाद सदन ने विधेयक को पास कर दिया।

आधी दुनिया की हुंकार

पंचायत चुनावों को भयमुक्त एवं हिंसामुक्त बनाने के लिए आगे आई  महिला जन-प्रतिनिधि
राजसमंद। महिलाओं की राजनैतिक क्षमता बढ़ाने, आगामी पंचायत चुनावों को भयमुक्त एवं हिंसामुक्त बनाने, आरक्षित एवं अनारक्षित सीटों  पर वंचित वर्ग की महिलाओं को अधिक  लड़ने हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से द  हंगर प्रोजेक्ट, जयपुर के निर्देशन एवं दक्षिणीं राजस्थान की सहयोगी स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से राज्य-स्तरीय महिला सम्मेलन का आयोजन स्थानीय तुलसी साधना शिखर पर  आयोजित किया गया।
कार्यक्रम अधिकारी वीरेंद्र श्रीमाली ने बताया कि आगामी चुनावों में  अधिकाधिक संख्या में चुनाव लड़ने हेतु प्रेरित करने तथा उनके चुनकर आने हेतु रणनीति निर्माण तथा ग्राम स्तर पर चुनावों में अधिक मतदान   के लिए चेतना निर्माण हेतु स्वीप अभियान का आगाज़ इस सम्मेलन में किया गया। सम्मेलन में 400  से अधिक वर्तमान महिला जन-प्रतिनिधियों भागीदारी निभाई। श्रीमाली ने बताया कि विगत चुनावों में 55  प्रतिशत महिलाएं चुनकर आई थी जबकि इस बार इस से अधिक  महिलाओं की भागीदारी द्वारा स्थानीय स्वशासन में क्षेत्र को मजबूती देना कार्यक्रम का उद्देश्य था।
महिलाओं ने अपने हाथ उठाकर आगामी चुनावों में खड़े होने, प्रस्तावक बनने आदि हेतु हुंकार भरी। घर से लेकर  पंचायत चलाने तक के अपने सामर्थ्य  और भ्रष्टाचार मुक्त विकास सपने को परवाज़ दिया। सम्मेलन में महिलाओं के नेतृत्व को बढ़ावा देने के लिए स्वीप अभियान के तहत प्रेरणा गीत, फिल्म आदि का भी विमोचन ग्रामीण महिलाओं द्वारा किया गया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए रेलमगरा प्रधान रेखा अहीर ने महिलाओं से मुखातिब होते हुए कहा कि  अगर महिलाएं चुनावों में चुनकर आती हैं  तो वे स्थानीय मुद्दों को अच्छे से समझ सकती हैं। स्वीप अभियान  द्वारा महिलाओं को  जागरूक करने की भी प्रशंसा की.
आस्था संस्थान के अश्विनी पालीवाल ने कार्यक्रम में इतनी अधिक महिलाओं की भागीदारी पर सबका धन्यवाद  प्रकट करते हुए कहा कि पांच साल पहले जब महिलाएं किसी कार्यक्रम में आती थीं तो उनके घर के पुरुष सदस्य  साथ होते थे, किन्तु आज कार्यक्रम  में महिलाओं का अकेले आना एक बड़ी उपलब्धि रहा।  उन्होंने कहा कि  यह साबित करता है  कि  महिलाएं  समाज  को  नेतृत्व  देने  में  सक्षम है, बशर्ते पुरुष उन्हें आगे आने हेतु स्पेस दे। थुरावड प्रकरण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि भविष्य में पंचायत चुनावों  महिलाएं अधिक संख्या में जीतकर आएँगी तो  जाति-पंचों के फरमानों को ख़त्म करने में उल्लेखनीय सफलता मिल सकेगी.
जतन संस्थान के गोवर्धन सिंह ने कई महिला जन प्रतिनिधियों के उदाहरण देते हुए कहा कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों में अधिक विकास हुआ है।
सम्मेलन को बिछीवाड़ा, सीमलवाडा, रेवदर, आबू रोड, राजसमन्द, रेलमगरा, कुम्भलगढ़ तथा  खमनोर ब्लॉक से आई विभिन्न महिला जन-प्रतिनिधियों ने अपने अनुभव सुनाये। केलवाड़ा पंचायत से आई वार्ड पंच पार्वती बाई मेघवाल ने बताया कि उनके क्षेत्र में एक प्रभावी व्यक्ति के अतिक्रमण हटाने को लेकर उन्हें धमकियां तक मिली।  किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और अतिक्रमण हटा कर ही दम लिया ।
क्यारियाँ (आबू रोड) की युवा सरपंच नवली गरासिया ने अपनी पंचायत  को आदर्श बनाने और उसके कार्यों को बताने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाने की बात बताइ. वर्धनी पुरोहित (ओडा रेलमगरा ), मांगी बाई (पछमता रेलमगरा), चुन्नी बाई (गुंजोल राजसमन्द )  ने भी अपने अनुभव सुनाये। कार्यक्रम में मंजू खटीक, सुमित्रा मेनारिया, धनिष्ठा, तारा बेगम, ओमप्रकाश आदि ने भी सम्बोधित किया।
सम्मेलन में जतनआस्थाजनशिक्षा एवं विकास संगठनजन चेतनासारद संस्थान आदि संगठनों की भागीदारी रही।

मेहनतकश जनता का कत्लेआम, पर केसरिया कारपोरेट राष्ट्र के एजंडे सबसे टाप पर

श्रमसुधारों को संसद की मंजूरी

बाबासाहेब ने संविधान रचा है, बार-बार इस जुगाली के साथ जयभीम, नमोबुद्धाय और जयमूलनिवासी कहने वाले तबके के लोगों को मालूम है ही नहीं कि उस संविधान को कैसे खत्म किया जा रहा है और उसी संविधान को हमारी संसद और हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिये पूना समझौते की अवैध संतानें कैसे-कैसे मनुस्मृति में बदल लगी हैं।

विपक्ष के कड़े विरोध के बावजूद लोकसभा में शुक्रवार को श्रम विधि संशोधन विधेयक 2014 के पारित होने के साथ ही इसे संसद की मंजूरी मिल गई। अब सिर्फ राष्ट्रपति का दस्तखत नये कानून को अमल में लाने के लिए बाकी है, जो कहना न होगा, महज औपचारिकता मात्र है।

मेहनतकश जनता का कत्लेआम केसरिया कारपोरेट राष्ट्र के एजंडे पर सबसे टाप पर, इसीलिए लोकसभा में श्रम कानूनों में सशोधन को हरी झंडी! संगठित और असंगठित मजदूरों में इन संशोधनों के बाद भारी समानता हो जायेगी, अच्छी बात यह है। अब मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स अधिनियम 1961, अंतर राज्यीय प्रवासी मजदूर (रोजगार और सेवा शर्तों का विनियमन) अधिनियम 1976, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 आदि सहित सात नए कानून बन गए।

सरकार ने हाल ही में ‘श्रमेव जयते‘ का नारा देकर श्रम कानूनों को सरल बनाने और इंस्पेक्टर राज को खत्म करने की बात कही थी।

जाहिर है कि मालिकान जब बहीखाता रखने को मजबूर न होंगे और किसी को कोई लेखा जोखा रिकार्ड दिखाने को बाध्य नहीं किये जा सकेंगे, लेबर कमीशन और ट्रेड यूनियन के अधिकार भी खत्म हैं।

अयंकाली, नारायणराव लोखंडे और बाबासाहेब की विरासतें भी खत्म हैं और खत्म है शिकागो में खून से लिखी गयीं मजदूर दिवस की इबारतें।

पूरा देश अब आईटी उद्योग है और आउटसोर्सिंग है।

अमेरिका हो गये हैं हम।

न काम के घंटे तय हैं और न पगार तय है। भविष्य में न वेतनमान होंगे न होंगे भत्ते। न होंगे पीएफ और न ग्रेच्युटि। श्रम को भी संघ परिवार ने विनियंत्रित कर दिया जैसे कृषि को कर दिया है और कारोबार को कर रहे हैं एफडीआई और ईटेलिंग मार्फत।

न किसान गोलबंद है, न मेहनतकश जनता। न कारोबरी गोलबंद हैं और न कर्मचारी।

झंडे छोड़कर सभी मिलकर इस स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ खड़े होंगे, इसके आसार भी नहीं है।

बिना लड़े लड़ाई की खुशफहमी में जीते हुए अपने किले हार रहे हैं हम।

गौरतलब है कि राष्ट्रपति ने हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित तीन श्रम संबंधी केंद्रीय कानूनों में बदलाव को मंजूरी दे दी जिससे अब राज्य में संशोधित श्रम कानून लागू होंगे।

कारपोरेट खेमे की युक्ति है कि ऐसा लगता है मानो हम देश के किसी कोने में श्रम कानून में हुए मामूली से मामूली बदलाव पर भी खुशी मनाने को तैयार बैठे हैं जबकि जरूरत यह है कि इन कानूनों में देशव्यापी बदलाव हों।

संसद में श्रम कानूनों में संसोधन इसी कारपोरेट लाबिइंग की लहलहाती फसल है जिसक जहर अब हमारी जिंदगी है।

राजस्थान में जो बदलाव किए गए हैं उनमें सबसे अहम यह है कि अगर किसी कंपनी में 300 से कम कर्मचारी हैं तो उसे कर्मचारियों की छंटनी करने अथवा किसी उद्यम को बंद करने के लिए सरकारी अनुमति की जरूरत नहीं होगी।

पहले इसकी सीमा 100 कर्मचारियों की थी। हालांकि दिलासा यह दिलाया जा रहा है कि अगर किसी कंपनी को यह सुविधा हासिल हो कि वह जरूरत के मुताबिक छंटनी कर सकती है तो उसके नए लोगों को भर्ती करने की संभावना भी बढ़ जाती है। ताजा नौकरियों, नियुक्तियों और भर्तियों का हाल क्या बयान करने की जरूरत है।

बाबासाहेब ने बाहैसियत ब्रिटिश सरकार के श्रम मंत्री और बाद में संविधान रचयिता बतौर मेहनतकश जनाते के लिए जो उत्पादन प्रणाली में जाति धर्म लिंग नस्ल भाषा क्षेत्र निर्विशेष जो श्रम कानून बना दिये, एक ओबीसी समुदाय के नेता को देश की बागडोर सौंपकर संघपरिवार उसे खत्म करते हुए विदेशी पूंजी का मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है। वैदिकी सभ्यता का पुनरूत्थान हो रहा है नवनाजी जायनी कायाकल्प के साथ, जिसमें वर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणों की भी शामत आने वाली है कारपोरेट निरंकुश आवारा पूंजी के राज के लिए,करोड़पति अरबपति के नये वर्ण श्रेष्ठ वर्ण के लिए, नये भूदेवताओं के लिए।

संघ परिवार की रणनीति के तहत अब बहुजन समाज एक दिवास्वप्न है क्योंकि बहुसंख्य ओबीसी समुदाय के लोग ही संघ परिवार के सबसे बड़े सिपाहसालार हैं केंद्र और राज्यों में और सारे क्षत्रप गरजते रहते हैं, बरसते कभी नहीं, कभी नहीं और किसी बंधुआ मजदूर से बेहतर न उनकी हैसियत है और न औकात है।

शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका, जल जंगल हवा जमीन पर्यावरण नागरिकता से लेकर खाद्य के अधिकार असंवैधानिक तौर तरीके से कारपरेट लाबिइंग के तहत खत्म किये जा रहे हैं एक के बाद एक। दुनिया भर में तेल की कीमतें कम हो रही हैं और भारत में सत्ता वर्ग ने तेल की कीमतें बाजार के हवाले कर दी हैं।

अब विदेशी पूंजी के हित में, विदेशी हित में निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेश, प्रत्यक्ष निवेश, छंटनी, लाक आउट, बिक्री के थोक अवसरों के लिए तमाम श्रम कानून बदले जा रहे हैं और खबरों में कानून बदले जाने के वक्त कभी सकारात्मक पक्ष को हाईलाइट करने के अलावा उसके ब्यौरे या उसके असली एजेंडे का खुलासा होता ही नहीं है।

हमारे लोगो को मालूम ही नहीं चला कि बाबासाहेब ने भारतीय महिलाओं और मेहनतकश जनता की सुरक्षा के लिए जो शर्म कानून बनाये उसे खत्म करने के लिए देश के सभी क्षेत्रों से चुने हुए करोड़पति अरबपति जनप्रतिनिधियों ने हरी झंडी दे दी है।

मेहनकशों के जो झंडेवरदार हैं जुबानी जमाखर्च के अलावा सड़क पर उतरकर विरोध तक दर्ज कराने की औकात तक उनकी नहीं है और जो अंबेडकरी एटीएम से हैसियतों के हाथीदांत महल के वाशिंदे अस्मिता दुकानदार हैं, उन्हें तो संविधान दिवस मनाने की भी हिम्मत नहीं होती।

बाबासाहेब ने संविधान रचा है, बार-बार इस जुगाली के साथ जयभीम, नमोबुद्धाय और जयमूलनिवासी कहने वाले तबके के लोगों को मालूम है ही नहीं कि उस संविधान को कैसे खत्म किया जा रहा है और उसी संविधान को हमारी संसद और हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिये पूना समझौते की अवैध संतानें कैसे-कैसे मनुस्मृति में बदल लगी हैं।

इसी वास्ते जनजागरण के लिए हमने देशभर में संविधान दिवस को लोकपर्व बनाने की अपील की थी। महाराष्ट्र में तो भाजपा सरकार ने ही संविधान दिवस का शासकीय आयोजन किया था, लेकिन भीमशक्ति को संविधान दिवस तक मनाने की फुरसत नहीं हुई तो बाबासाहेब की विरासत बचाने के लिए उनसे क्या अपेक्षा रखी जा सकती है।

रंग बिरंगे झंडो में बंटे हुए हैं इस देश के लोग और एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंद है इस देश के लोग। सड़क से संसद तक इसीलिए कत्लेआम के खिलाफ सन्नाटा है और मौत के सौदागरों की महफिल में तवायफ को रोल निभा रहे हैं हम लोग।

अपनी फिजां को कयामत बना रहे हैं हमी लोग ही।

गौर तलब है कि लोकसभा में शुक्रवार को श्रम कानून संशोधित बिल, 2011 पास कर दिया गया। यह बिल 1988 के वास्तविक श्रम कानून में कुछ बदलावों के साथ पास किया गया। नए संशोधित बिल में छोटी यूनिट्स को रिटर्न फाइल करने, रजिस्टर मेंटेन करने जैसे काम में छूट दी गई है। साथ ही 7 नए एक्ट भी शामिल किए गए हैं।

असली मामला इन नये सात कानूनों का है जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और निजीकरण का खुल्ला खेल फर्रुखाबादी है और जो परदे के पीछे खेला जा रहा है।

असली मजा तो यह है कि देशभक्त संघ परिवार अब भी स्वदेशी का अलख जगाकर विदेशी पूंजी और एफडीआई का कारपरेट राज चला रहा है और प्रचार यह दिखाने के लिए, हिंदुत्व की पैदल फौजों को काबू में रखने के लिए कि केंद्र की मोदी सरकार आर्थिक सुधारों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐतराज को दरकिनार कर आगे बढ़ने की तैयारी में है। श्रम कानून में सुधार संबंधी बिल संसद से पास कराकर सरकार ने अपना पहला कदम बढ़ा भी दिया है।

खेल यह है मनुस्मृति कारपोरेट राजकाज और राजकरण का कि आर्थिक सुधार के लगभग 6 मुद्दों पर अपनी आपत्ति जताने के बाद संघ ने निर्णय का अधिकार सरकार के विवेक पर छोड़ दिया है। मजा यह भी कि संघ के विभिन्न संगठनों ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने, श्रम कानून में सुधार, रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश, जीएम फसलों के ट्रायल जैसे मुद्दों पर अपनी आपत्ति जताई थी।

हालांकि सरकार ने आर्थिक सुधारों के मामले में तेजी से आगे बढ़ने का फैसला किया है।

O- पलाश विश्वास

विस्थापितों को पुनर्वास का इंतजार

पिछले दो दशकों से झेलम, सतलज, गंगा, घाघरा, शारदा, गोमती, गंडक एवं ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में होने वाले कटान हज़ारों गांवों पर कहर बरपा रही है, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों को अपना घर और नदी पर निर्भर आजीविका छोड़कर दूसरे गांव-शहर पलायन करना पड़ा. कटान की समस्या पिछले बीस-बाइस बरसों में और गंभीर हुई है. भारत ही नहीं, पाकिस्तान, नेपाल एवं बांग्लादेश में भी बड़ी संख्या में लोग नदियों के कटान से उपजी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. बड़े-बड़े बांध एवं चेक डैम के निर्माण ने कटान की समस्या बढ़ा दी है. बांधों के चलते नदियों की अविरल एवं निर्मल प्राकृतिक धारा के प्रवाह में रुकावट पैदा हुई है. कटान ने न स़िर्फ लोगों को विस्थापित किया, बल्कि उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आजीविका के परंपरागत साधनों से भी दूर किया. बड़े पैमाने पर विस्थापन ने न स़िर्फ उनके अस्तित्व, बल्कि उनकी नागरिकता की पहचान का भी संकट खड़ा किया. पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर के गांव सेमरा एवं शिवराय का पुरा के कटान पीड़ित 558 विस्थापित परिवारों के माध्यम से यहां लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, सीतापुर, गोंडा, बहराइच, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, पडरौना, महाराजगंज, बलिया, आजमगढ़, मऊ एवं संत कबीर नगर आदि ज़िलों और देश के अन्य राज्यों के कटान पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की समस्या समझने की कोशिश की जा रही है.

सेमरा एवं शिवराय का पुरा गांव के 558 परिवार पिछले ढाई वर्षों से सड़क के किनारे, मुहम्मदाबाद स्थित प्राथमिक-उच्च प्राथमिक विद्यालय एवं यूसुफपुर स्थित मंडी समिति में बंजारों जैसा जीवन गुज़ार रहे हैं. कटान की स्थिति का मौक़ा-मुआयना करने बड़े-बड़े नेता और अधिकारी सेमरा गांव आ चुके हैं. इनमें वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह, कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव राजीव राय, भाकपा (माले) के ईश्‍वरी प्रसाद कुशवाहा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सांसद एवं भारतीय खेत-मज़दूर यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विश्‍वनाथ शास्त्री, इंसाफ़वादी समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष फरीद अहमद ग़ाज़ी, कृषि भूमि बचाव मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष राघवेंद्र कुमार, पूर्व सांसद नीरज शेखर, वर्तमान सांसद भरत सिंह, पूर्व विधायक राजेंद्र यादव, वर्तमान रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा आदि शामिल हैं. इतने कद्दावर नेताओं के आश्‍वासनों के बावजूद कटान पीड़ितों की सुनवाई आज तक दूर की कौड़ी बनी हुई है.

कटान की पीड़ा झेल रहे परिवारों अगर कोई राहत पहुंचा रहा है, तो उस शख्स का नाम है, प्रेमनाथ गुप्ता. यह प्रेमनाथ के गांव बचाव आंदोलन का ही नतीजा है कि अब कटान विस्थापित धारा 52 के प्रकाशन की मांग कर रहे हैं. बीते 20 अक्टूबर को एसडीएम मुहम्मदाबाद की तरफ़ से एक बार फिर कहा गया है कि दहेंदु, बालापुर या जकरौली आदि गांवों में कहीं न कहीं ग्राम समाज की ज़मीन चिन्हित कर ली जाएगी, तभी विस्थापित परिवारों को आवासीय भूमि का आवंटन संभव हो सकेगा. दूसरी ओर गांव बचाव आंदोलन के कुछ सदस्य अपना भविष्य किसी दूसरे गांव की बजाय शेरपुर ग्राम पंचायत के किसी गांव में ही देख रहे हैं. उनका मानना है कि यदि धारा 52 का प्रकाशन हो जाए, तो उन्हें सेमरा या नज़दीकी किसी अन्य गांव में रहने को जगह ज़रूर मिल जाएगी. ऐसे में उन्हें अपने गांव से बिछड़ने का ग़म नहीं होगा और न सांस्कृतिक विक्षोभ और आजीविका छिन जाने का दु:ख. विस्थापित परिवारों का कहना है कि यदि शेरपुर ग्राम पंचायत के संपन्न लोग चाह लें, उन्हें (जिनमें ज़्यादातर दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं) गांव में बसने योग्य ज़मीन मा़ैके पर निकल आएगी.

कटान पीड़ितों में ऐसे भी लोग हैं, जो पुनर्वास की समस्या को भूमि के रूप में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन पर नियंत्रण के रूप में देखते-समझते हैं. शिवकुमार एवं श्रीनारायण सरीखे लोगों को लगता है कि यदि वे गांव में बस जाएंगे, तो वहां उपलब्ध ज़मीनों पर नियंत्रण में उनकी भी हिस्सेदारी सुनिश्‍चित होने लगेगी. अफ़सोस की बात यह है कि देश और समाज के ज़िम्मेदार लोगों के पास कटान पीड़ितों की पीड़ा पर विचार करने और उन्हें राहत पहुंचाने के लिए समय नहीं हैं. प्रेमनाथ का गांव बचाव आंदोलन हर दूसरे दिन अपनी गतिविधियों से अख़बारों की सुर्खियां बनता है. गांव बचाओ आंदोलन एवं मीडिया के माध्यम से वह ज़िला और मंडल स्तर की पैरवी के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री के साथ-साथ दर्जनों मंत्रियों को कटान पीड़ितों की समस्या से अवगत करा चुके हैं. वह केंद्रीय जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्री, रेल राज्य मंत्री के अलावा प्रधानमंत्री को भी पत्र लिख चुके हैं. उनके पत्रों के सहानुभूतिपूर्ण जवाब भी आए हैं.

कटान पीड़ितों के पुनर्वास के लिए मनोज कुमार राय, प्रेमनाथ गुप्ता एवं अन्य दो बनाम उत्तर प्रदेश राज्य नाम से एक पीआईएल (नं0-47610/2014) भी डाली गई, जिसकी सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिलीप गुप्ता एवं पीकेएस बघेल की खंडपीठ ने बीते 10 अक्टूबर को ज़िलाधिकारी ग़ाज़ीपुर को दो माह के अंदर कटान पीड़ितों की समस्याओं का निपटारा करने का निर्देश दिया है. गांव बचाओ आंदोलन का ध्यान इस समय पूरी तरह ग्राम पंचायत शेरपुर में धारा 52 के प्रकाशन पर केंद्रित है. क़ाबिले जिक्र है कि शेरपुर के ग्रामीणों ने 18 अगस्त, 1942 को गांधी जी के करो या मरो के नारे पर एक साथ 11 शहादतें दी थीं. इस ग्राम पंचायत के एक पुरवा शिवराय का पुरा का संपूर्ण और सेमरा का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा नदी के कटान में विलीन हो चुका है. शेष बचे गांव को बचाने एवं बेघर हुए परिवारों के पुनर्वास का अब तक कोई प्रयास सफल नहीं हुआ, जबकि विस्थापितों के पुनर्वास के लिए भूमि खरीद कर नि:शुल्क आवंटन कराए जाने के संबंध में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से सभी मंडलायुक्तों एवं ज़िलाधिकारियों को निर्देश दिए जा चुके हैं (देखें शासनादेश संख्या-2010/1-10-12-33(37)/12, टीसी).

प्रेमनाथ कहते हैं कि इस ऐतिहासिक गांव में आज भी ग्राम समाज की सैकड़ों एकड़ ज़मीन पड़ी हुई है, जिसे साधन संपन्न एवं दबंग लोगों ने कब्जा रखा है. उन्होंने उक्त ज़मीनों पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए धारा 52 का प्रकाशन बरसों से प्रभावित कर रखा है. भूमि सुधार एवं चकबंदी के विशेष जानकार लखनऊ निवासी जगत नारायण बताते हैं कि जब देश में भूमि सुधार लागू हुआ, तो जमींदारों ने अपनी ज़मीनें तकनीकी रूप न स़िर्फ अपने नाबालिग बच्चों, बल्कि गाय-भैंस और कुत्तों-बिल्लियों तक के नाम कर दीं, ताकि ज़मीनों पर उनका कब्जा बना रहे और वे उन पर होने वाली खेती का लाभ बदस्तूर उठाते रहें. किसी भी ग्राम सभा में भूमि के छोटे या बड़े टुकड़े यानी चक की उपलब्धता का प्रमाणन इस बात से होता है कि वहां धारा 52 का प्रकाशन हुआ है या नहीं. रा़ेजगार हक़ अभियान के अजय शर्मा कहते हैं कि देश में लगभग 90 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में धारा 52 का प्रकाशन हो चुका है, लेकिन उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में चकबंदी विभाग इस काम में बहुत पीछे है.

उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े ज़िले लखीमपुर खीरी के फूल बेहड़ ब्लॉक स्थित बेड़हा सुतिया गांव (जंगल नंबर एक) के सैकड़ों कटान पीड़ित परिवार पिछले बीस-बाइस वर्षों से नदी के पास सड़क के दोनों ओर झुग्गी-झोंपड़ी में रहने के लिए मजबूर हैं. उनके पुनर्वास की मांग आज तक पूरी नहीं हो सकी है. विडंबना देखिए, सरकार कॉरपोरेट घरानों के लिए विशेष आर्थिक जोन (सेज) को मूर्त रूप देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां बनाती हैं, लेकिन बाढ़ या कटान जैसी आपदा से होने वाला विस्थापन कम करने और विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए उसके पास कोई ठोस नीति नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि सेमरा जैसे तमाम गांव, जहां पर दैवीय आपदा एवं मानव हस्तक्षेप जनित विस्थापन की समस्या है, वहां के विस्थापितों के लिए सरकार एक ठोस राहत एवं पुनर्वास नीति बनाए. ऐसा नीतिगत क़दम उठाए, जिससे भूमि एवं नदी जल संसाधन के अमानवीय दोहन पर रोक लगे. तभी बाढ़ और कटान की समस्या का उचित समाधान हो सकेगा.
चौथी दुनिया

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टेरर कॉरिडोर बनाने की तैयारी..!


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उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, पश्‍चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच आतंकी गलियारा बनाने की कोशिशें चल रही हैं. उत्तर प्रदेश के बिजनौर और पश्‍चिम बंगाल के बर्धमान ज़िले में हुए विस्फोटों के तार किस तरह उत्तर प्रदेश, पश्‍चिम बंगाल एवं बांग्लादेश से जुड़े हुए थे, उसका जैसे-जैसे खुलासा हो रहा है, वैसे-वैसे चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं. जिस तरह दक्षिणी राज्यों से उत्तरी राज्यों और नेपाल को मिलाकर माओवादी-कॉरीडोर बनाने में नक्सली संगठन लगभग कामयाब हुए, ठीक उसी तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्‍चिम बंगाल और बांग्लादेश को मिलाकर कम्युनल-कॉरीडोर बनाने की कोशिश तेज गति से चल रही है. दो दशकों से भी अधिक समय से फरार कुख्यात आतंकी सलीम पतला के मुजफ्फरनगर में पकड़े जाने के बाद इस खुलासे पर आधिकारिक मुहर लग गई. राष्ट्रीय जांच एजेंसी के समक्ष अब यह साफ़ हो गया कि बिजनौर विस्फोट, बर्धमान विस्फोट और मध्य प्रदेश की खंडवा जेल से हुई आतंकियों की फरारी की कड़ियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं.
21 सालों से फरार चल रहे कुख्यात आतंकी सलीम पतला को पिछले दिनों मुजफ्फरनगर में खतौली पुलिस और एटीएस की टीम ने पकड़ा. सलीम पर 1992 में मेरठ के नौचंदी ग्राउंड और 1993 में हापुड़ रोड पर पशु चिकित्सालय के पास पीएसी कैंप पर बमों से हमला करने का आरोप है. सलीम देश भर में घूम-घूमकर इंडियन मुजाहिदीन के लिए काम कर रहा था और उसने मुरादाबाद को छिपने का अड्डा बना रखा था. पीएसी कैंप पर हमले के बाद सलीम के छह साथी तो गिरफ्तार हो गए थे, लेकिन वह पकड़ से बाहर था. पीएसी कैंप पर उक्त हमले में कई जवान शहीद हुए थे और कुछ गंभीर रूप से घायल हो गए थे. सलीम मेरठ के लिसाड़ी गेट का रहने वाला है. मुजफ्फर नगर दंगे के बाद उत्तर प्रदेश और खास तौर पर पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश आतंकियों की सक्रिय गतिविधियों का केंद्र बन गया है. लश्कर के आतंकी सुभान एवं उसके कुछ साथियों के पकड़े जाने के बाद सलीम की गिरफ्तारी बेहद महत्वपूर्ण मानी जा रही है. सुभान हरियाणा के मेवात मॉड्यूल के तहत काम करता था. उसी ने शामली और मुजफ्फर नगर के राहत शिविरों का दौरा करके दंगा पीड़ितों को भड़काने और बरगलाने की कोशिश की थी.
खुफिया एजेंसियों के समक्ष आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि हो चुकी है कि अलकायदा जैसे संगठन शामली, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर, मेरठ एवं मुरादाबाद के दंगों का हवाला देकर युवकों को आतंकी बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. सलीम की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हुआ कि वह उत्तर प्रदेश के क़रीब-क़रीब सभी संवेदनशील जनपदों में इंडियन मुजाहिदीन और सिमी का नेटवर्क खड़ा कर रहा था. उसके गुर्गे किसी भी शहर में दंगा कराने में माहिर हैं. सलीम बांग्लादेश के दुर्दांत आतंकी संगठन हूजी से गोला-बारूद लेता था. आतंकियों के लिए हथियारों का भी वह बड़ा सप्लायर रहा है. सलीम पतला, सलीम मोटा और जब्बार वे तीन नाम थे, जो 27 जनवरी, 1993 को मेरठ पीएसी बम कांड के बाद सामने आए थे. उनमें से सलीम पतला अब तक फरार था. खुफिया एजेंसियों को मिली जानकारी के मुताबिक, बांग्लादेश के दुर्दांत आतंकी संगठन हूजी से सलीम के गहरे रिश्ते हैं. हूजी ही सलीम को गोला-बारूद और असलहे उपलब्ध कराता था.
आतंकियों की मदद के लिए सलीम पतला चोरी की गाड़ियां कश्मीर सप्लाई करने का काम भी कर रहा था. उसने 25 से अधिक ऑडी, डस्टर, फॉर्च्यूनर एवं इनोवा जैसी गाड़ियां कश्मीर भेजी थीं. उसने जम्मू-कश्मीर में मोटर गैराज भी खोल रखा था. खुफिया एजेंसी बताती है कि सलीम पतला आतंकी संगठन अलबर्क तंजीम का भी सदस्य रहा है. पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के ही बिजनौर में क़रीब एक महीने पहले हुए धमाकों से भी सलीम के तार जुड़े हैं. बिजनौर धमाकों के बाद आतंकियों के कमरे से जो सिम बरामद हुए थे, उन्हीं के आधार पर जांच को आगे बढ़ाते हुए एटीएस सलीम पतला तक पहुंची. मध्य प्रदेश की खंडवा जेल से फरार हुए आतंकी बिजनौर में ही आकर छिपे थे. इन आतंकियों की कोशिश थी कि पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश आतंकी गतिविधियों का केंद्र बने. इसके लिए आतंकियों ने मेरठ को मुख्य संपर्क क्षेत्र बना रखा था. बिजनौर में रहकर सिलेंडर बम तैयार करने वाले चार आतंकी मेरठ में पीएल शर्मा रोड आकर लैपटॉप खरीद कर ले गए थे. बिजनौर में उपचुनाव के ऐन पहले सिलेंडर से ब्लास्ट हो गया और आतंकी फरार हो गए.
इसके बाद ही खुलासा हुआ कि वे मेरठ आए थे. मेरठ के पूर्वा फैय्याज अली मोहल्ले के निवासी आसिफ अली की आतंकी गतिविधियों के बारे में दिसंबर 2013 में ही खुफिया एजेंसियों को जानकारी मिल चुकी थी, लेकिन उसे इस साल 17 अगस्त को गिरफ्तार किया जा सका. उसकी गिरफ्तारी से पहले ही यह खुलासा हो गया था कि आसिफ इंडियन मुजाहिदीन के साथ-साथ पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए भी काम करता है. आईएसआई के लिए जासूसी करने में कोलकाता में पकड़े गए भारतीय सेना के पूर्व जूनियर कमीशंड अफसर मदन मोहन पाल और पीके पोद्दार के आसिफ से गहरे रिश्ते थे. आईएसआई इन गद्दारों के खाते में आसिफ के जरिये ही पैसे डलवाती थी. बिहार के बोधगया में हुए सिलसिलेवार धमाकों में इस्तेमाल हुए सिलेंडर बम भी मेरठ में बनाए गए थे.
बिजनौर, बर्धमान एवं बोधगया धमाकों के आपस में जुड़े हुए तार आतंकी कॉरीडोर की स्थापना के प्रयासों की पुष्टि करते हैं. इसमें बांग्लादेश को जोड़ने के लिए कड़ी का काम कर रहा था आतंकी संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेयूएम-बी) का कमांडर शेख रहमहतुल्ला उर्फ साजिद. बर्धमान ज़िले के खागरागढ़ में हुए विस्फोट मामले में कोलकाता पुलिस ने साजिद को गिरफ्तार किया है. एनआईए ने इस आतंकी पर 10 लाख रुपये का ईनाम रखा था. साजिद बांग्लादेश के एक रिटायर्ड सेनाधिकारी का बेटा है. साजिद के बांग्लादेशी आतंकी संगठन मजलिसे सूरा से भी संबंध हैं. साजिद ही बर्धमान मॉड्यूल चला रहा था. उसने धमाके में शामिल आतंकी कौशर को उत्तर प्रदेश के इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों से संपर्क रखने के लिए लाखों रुपये दिए थे. असम के बरपेटा में रहने वाला एक डॉक्टर भी आतंकी लिंक स्थापित करने के लिए फंडिंग की व्यवस्था करता था. डॉक्टर शाहनूर तो पकड़ा नहीं गया, पर उसकी पत्नी सुजाना बेगम को गिरफ्तार कर लिया गया है.
बिजनौर, बोधगया एवं बर्धमान धमाकों के लिंक खंगालने में लगी खुफिया एजेंसियों को यह पता लगा कि भारत में इंडियन मुजाहिदीन को सक्रिय करने में बांग्लादेशी संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेयूएम-बी) लगा हुआ है और उसका इरादा आईएसआई की मदद से कराची से दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्‍चिम बंगाल होते हुए ढाका तक एक ताकतवर आतंकी गलियारा स्थापित करना है. इस काम में राजनीतिज्ञों के अलावा मीडियाकर्मी भी आतंकियों का साथ दे रहे हैं और उन्हें संरक्षण देने का काम कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश और पश्‍चिम बंगाल के कुछ राजनीतिज्ञों एवं पत्रकारों के नाम खुफिया एजेंसियों के हाथ आ चुके हैं, जिन पर निगरानी रखी जा रही है और अंदरूनी तौर पर पूछताछ भी की जा रही है. अभी हाल में नेपाल सीमा पर एनआईए के हाथों पकड़े गए यूसुफ शेख से भी इन साजिशों का खुलासा हुआ है. यूसुफ शेख शिमुलिया मदरसा का संस्थापक है. इस मदरसे को एनआईए ने अपनी रिपोर्ट में जेहादी तैयार करने का कारखाना कहा है.
पश्‍चिम बंगाल के बर्धमान के जिस मकान में विस्फोट हुआ, वहां आईएम का स्लीपर सेल और जेयूएम-बी के सदस्य मिलकर देश भर में आतंकी गतिविधियां चलाने के लिए षड्यंत्र रच रहे थे. ठीक उसी तरह, जैसे उत्तर प्रदेश के बिजनौर में छिपकर बड़े पैमाने पर सिलेंडर बम बनाने का काम किया जा रहा था. बर्धमान में भी बम बनाते समय विस्फोट हो जाने से आतंकी शकील अहमद एवं शोभन मंडल की मौत हो गई थी और जख्मी हुए तीसरे आतंकी हसन साहब उर्फ अब्दुल हाकिम को अस्पताल में भर्ती कराया गया था. विस्फोट के बाद दो महिलाओं समेत तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया. इनमें विस्फोट में मारे गए शकील अहमद की पत्नी रजीरा बीबी और हसन साहब उर्फ अब्दुल हाकिम की पत्नी अमीना बीबी शामिल हैं. ठीक उसी तरह बिजनौर में भी बम बनाते समय धमाका हुआ था और उसमें जख्मी हुए आतंकी महबूब को उसके साथी स्थानीय डॉक्टर शमीम के पास ले गए थे, लेकिन 70 फ़ीसद से अधिक जले होने के कारण आतंकी उसे वापस लेकर चले गए.
सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि उस आतंकी की मौत हो गई, लेकिन उसकी लाश बरामद नहीं हो सकी. बिजनौर प्रकरण में भी एक महिला पकड़ी गई थी. बर्धमान विस्फोट कांड की तरह बिजनौर में भी धमाके के बाद मा़ैके से 9-एमएम की पिस्टल, लैपटॉप, कई छोटे सिलेंडर, मोबाइल सेट, सिम कार्ड, बम बनाने की सामग्री और तीन आईडी बरामद किए गए थे. बिजनौर में एक दर्जी की दुकान से भी बम बनाने का सामान और विस्फोटक बड़ी तादाद में बरामद हुआ था. बर्धमान, बिजनौर एवं बोधगया बम कांड को जोड़ते हुए एनआईए ने झारखंड के जमशेदपुर स्थित आज़ाद नगर के रोड नंबर 12 पर एक घर से शीश महमूद को गिरफ्तार किया था. वह जेयूएम-बी का एरिया कमांडर था. महमूद के नेतृत्व में जेयूएम-बी ने बांग्लादेश में तीन सौ स्थानों पर बम प्लांट किए थे, जिनमें से स़िर्फ एक स्थान पर वे बम विस्फोट करा पाए. शेष बम बांग्लादेश की सेना एवं पुलिस ने बरामद कर लिए थे. बांग्लादेश में दबाव बढ़ने पर महमूद अपने कई साथियों के साथ भारत भाग आया. बर्धमान, बिजनौर एवं बोधगया विस्फोट की जांच में ही पश्‍चिम बंगाल, बिहार एवं उत्तर प्रदेश समेत कई अन्य राज्यों में इनके नेटवर्क के फैलाव का खुलासा हुआ. असम, मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर एवं महाराष्ट्र में भी इनका तगड़ा नेटवर्क है. दक्षिण भारत में भी इंडियन मुजाहिदीन का नेटवर्क बेहद मजबूत है. एनआईए के एक अधिकारी ने कहा कि केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में इनके सदस्य बड़ी संख्या में हैं. केरल और कर्नाटक में इंडियन मुजाहिदीन का बड़ा आधार है.


बस्ती में छिपा था बर्धमान कांड का षड्यंत्रकारीउत्तर प्रदेश से पश्‍चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश तक आतंकी गलियारा बनाने की कोशिशों की आधिकारिक सूचनाओं में एक और पुख्ता प्रमाण यह जुड़ गया कि पश्‍चिम बंगाल के बर्धमान में हुए धमाके में विस्फोटक एवं अन्य सामग्री मुहैया कराने वाला बांग्लादेशी आतंकी संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन (जेयूएम-बी) का कमांडर अमजद शेख उर्फ काजल फरारी के दौरान उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में छिपा था. शेख पर भी एनआईए ने दस लाख रुपये का ईनाम घोषित कर रखा था. एक और सनसनीखेज खुलासा यह हुआ कि सीमा सुरक्षा बल (एसएसबी) के एक जवान ने उसे बस्ती में छिपाकर रखा था. एनआईए ने उक्त एसएसबी जवान को हिरासत में ले लिया है. बर्धमान विस्फोट के बाद अमजद बीते आठ अक्टूबर को दिल्ली आ गया था. यहां से वह उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में पहुंचा और उसने एसएसबी के अपने उक्त पूर्व परिचित जवान से संपर्क किया तथा उसी जवान की मदद से वह बस्ती में छिपा रहा.

सलीम पतला से जुड़े थे कुछ नेता और मीडियाकर्मी पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश में दहशत का ख़तरनाक जाल बुनने में लगे रहे आतंकी सलीम पतला से मीडियाकर्मियों के घनिष्ठ संबंधों का खुलासा हुआ है. चार कद्दावर स्थानीय नेता भी सलीम के संरक्षक थे. आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने जो डायरी बरामद की है, उससे यह जानकारी सामने आई. सलीम के इससे पहले गिरफ्तार होने पर यही मीडियाकर्मी और नेता उसे पुलिस से छुड़ाकर ले गए थे. संदेह के घेरे में आए मीडियाकर्मियों एवं नेताओं पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है.
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दिल्ली का बाबू : दयनीय सतर्कता


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भारतीय वन सेवा अधिकारी संजीव चतुर्वेदी जहां जाते हैं, परेशानियां उनके पीछे-पीछे चली आती हैं. हरियाणा की तत्कालीन हुड्डा सरकार के दौरान उनके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी. इसके बाद वह दिल्ली आ गए थे. यहां आने के बाद ऐसा लगा था कि अब उनके जीवन में शांति आ जाएगी, लेकिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के प्रमुख सतर्कता अधिकारी के रूप में उनका कार्यकाल तूफानी रहा. इसके पहले एम्स में कभी स्थानांतरण विवादास्पद नहीं हुए थे और न ही सुर्खियां बने थे. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान बदलने के बाद एम्स में मुख्य सतर्कता अधिकारी की पदस्थापना एक बार फिर विवादों में पड़ गई है. विश्‍वास मेहता के अपने गृह राज्य लौट जाने के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बड़ी खामोशी के साथ पदभार संयुक्त सचिव मनोज जलानी को सौंप दिया. दुर्भाग्यवश इसकी सूचना केंद्रीय सूचना आयुक्त को भी नहीं दी गई. आश्‍चर्यजनक रूप से इसी आधार पर चतुर्वेदी को पद से हटाया गया था कि यूपीए सरकार के दौरान उनकी पदस्थापना केंद्रीय सूचना आयुक्त की स्वीकृति के बगैर कर दी गई थी. साफ़ है कि पदस्थापना की प्रक्रिया मंत्रालय या मंत्री की इच्छा पर निर्भर है या एक मनमाना फैसला है. वह जिसे चाहते हैं, उसे पद पर रखते हैं. फिलहाल लगता है कि चतुर्वेदी के कई शुभचिंतक मंत्रालय में हैं.


ज़िम्मेदारी का बोझ
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ओडिशा के ब्यूरोक्रेटिक ढांचे में बहुत से छेद हो गए हैं. ओडिशा कैडर के 37 वरिष्ठ आईएएस अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं और आईएएस अधिकारियों के कुल स्वीकृत 226 पदों में से 50 पद रिक्त हैं. जो अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर नहीं हैं, वे एक साथ कई महकमों की ज़िम्मेदारी निभाने को मजबूर हैं और ज़िम्मेदारियों के निर्वहन में संघर्ष कर रहे हैं. वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आरके शर्मा के कंधों पर वन एवं श्रम विभाग की ज़िम्मेदारी है. विकास आयुक्त एपी पद्ही मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर भी हैं. कृषि सचिव राजेश वर्मा सहकारिता विभाग भी देख रहे हैं. ओडिशा में आईएएस अधिकारियों की कमी होना कोई नई या अनोखी बात नहीं है. देश के कई अन्य राज्य भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. पटनायक सरकार ने पिछले पांच सालों में 50 से अधिक राज्य सेवा अधिकारियों को आईएएस के पद पर प्रोन्नत किया है. इससे साफ़ हो जाता है कि प्रशासनिक समस्याओं का सामना करने के लिए राज्य सरकार के पास आवश्यक अधिकारियों की बेहद कमी है. बेशक, किसी न किसी को राज्य सरकार से यह पूछना चाहिए कि इन रिक्त पदों को भरने के लिए वह आवश्यक क़दम तेजी से क्यों नहीं उठा रही है.


बाबुओं को आराम नहीं
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नौकरशाही को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रशासनिक स्तर पर किए गए परिवर्तनों का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. समय की पाबंदी और पारदर्शिता के साथ देश भर के नौकरशाह अच्छे दिनों के सही मतलब की तलाश में जुटे हुए हैं. राजधानी दिल्ली में नौकरशाह अब लंबे समय तक और सप्ताहांत में भी काम करने के आदी हो गए हैं. राज्यों में काम करने वाले अधिकारियों की भी कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव आ रहा है. जाहिर तौर पर केंद्र सरकार सरकारी कार्यालयों को छह दिन खोलने के मसले पर विचार कर रही है. उनका डर वास्तविक है, क्योंकि इस तरह का मॉडल गुजरात में पहले से ही कार्य कर रहा है. मोदी सरकार गुजरात प्रशासन के काम करने के कई तरीकों को केंद्र में लागू कर चुकी है. पांच दिवसीय कार्य सप्ताह की शुरुआत राजीव गांधी ने की थी और नौकरशाह इसके आदी हो चुके थे. सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री कार्यालय और वरिष्ठ नौकरशाह में पहले से ही कॉरपोरेट घंटे (और दिन) के आधार पर काम कर रहे हैं. इस नई कार्य संस्कृति, जिसमें नौकरशाहों को सप्ताह में छह दिन काम करना है, की औपचारिक घोषणा शीघ्र की जाएगी.

चौथी दुनिया

श्रीनगर की बाढ़ मोदी के लिए वरदान


कश्मीर में आई बाढ़ ने घाटी में काफी कुछ बदल कर रख दिया है. इस बाढ़ ने तबाही तो खूब मचाई, जिसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर भी दिखाई देने लगा है. कश्मीर में एक बड़ा बदलाव आया है, वह है सोच का. इस बाढ़ में मुश्किलों का सामना कर बाहर निकले स्थानीय लोगों की सोच में दो तरह के महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए. पहला, लोगों के सेना विरोधी नज़रिये में बदलाव हुआ है और दूसरा, लोग राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा को तरजीह देने पर विचार करने लगे हैं. आम लोगों में यह विश्‍वास देखा जा रहा है कि विकास की बात करने वाले नरेंद्र मोदी बाढ़ के बाद बदसूरत हुई राज्य की तस्वीर को बदल सकने में सक्षम हैं. कश्मीर यानी दुनिया के स्वर्ग के विभिन्न इलाकों के दौरे के बाद तैयार हुई यह विशेष रिपोर्ट आपको कश्मीर की ताजा और वास्ततिक स्थिति से अवगत कराने की कोशिश कर रही है.
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कश्मीर में इन दिनों नरेंद्र मोदी की आवाज़ें गूंजनी शुरू हो गई हैं. कारण अलग-अलग हैं और पूरा कश्मीर इस समय नरेंद्र मोदी की तरफ़ आशा भरी निगाहों से देख रहा है. मुसलमानों के बारे में माना जाता था कि वे नरेंद्र मोदी का नाम सुनना भी पसंद नहीं करेंगे, लेकिन इस समय कश्मीर में, विशेषकर श्रीनगर में मुसलमान नरेंद्र मोदी का नाम सुन रहे हैं. और इन सबके पीछे जो कारण है, वह कारण देश के नेताओं के लिए एक सीख है. दो महीने पहले कश्मीर में आई बाढ़ ने नरेंद्र मोदी के लिए श्रीनगर घाटी में घुसने का मुहाना खोल दिया है. नरेंद्र मोदी को मिले इस अप्रत्याशित अवसर के बारे में बाद में बात करेंगे. पहले उस बाढ़ के बारे में बात करते हैं, जिसने पूरे श्रीनगर को डुबो दिया था और जो नरेंद्र मोदी के लिए विजय का घोड़ा साबित हो सकती है.
जो कश्मीर नहीं गया, उसने स्वर्ग नहीं देखा. और फारसी कहावत है, जिसे हमारे देश के अधिकांश लोग जानते हैं कि पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है यानी कश्मीर में है और कश्मीर में भी श्रीनगर में है. स़िर्फ लिखने से और तस्वीरों से कश्मीर के स्वर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती. आई हुई बाढ़ की तबाही बिना कश्मीर गए महसूस ही नहीं की जा सकती. अभी दो-ढाई महीने पहले देश ने टेलीविजन के ऊपर श्रीनगर की तबाही देखी. लेकिन उस तबाही के फौरन बाद हमने मनोरंजन के कार्यक्रम देखे, नेताओं के झगड़े देखे और वह दर्द जो श्रीनगर के लोगों ने भुगता, उसका हमें स्पर्श बहुत कम हो पाया. इसीलिए आज भी जब श्रीनगर जाते हैं, तो पता चलता है कि कश्मीरियों ने किस तरह से कयामत जैसे हालात का सामना किया और कैसे अपनी ज़िंदगी दोबारा जीने के लिए सारी परेशानियां भूल फिर से खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं.
झेलम नदी में बाढ़ आती है. झेलम नदी में बढ़े हुए पानी को निकालने के लिए फ्लड चैनल महाराजा हरि सिंह ने बनवाए थे और भी कई सारे चैनल थे, जो बाढ़ के पानी को दाएं-बाएं खेतों की तरफ़ फेंक देते थे. लेकिन, इन चैनलों के ऊपर, खासकर फ्लड चैनलों के ऊपर पिछले बीस सालों में काफी कब्ज़े हुए, जिसे इन्क्रोचमेंट कहते हैं. लोगों ने घर बनाए, चैनलों की सफ़ाई नहीं हुई और इस बार जब झेलम में पानी बढ़ा, तो जितना पानी झेलम में था, उतना ही पानी इस चैनलों में भी था. झेलम ने किनारे के बांध कुछ अपने आप तोड़ दिए, कुछ लोगों ने काट दिए. पूरे शहर में पानी इस तेजी से भरा कि लोग केवल किसी तरह से अपनी जान बचा पाए. जो श्रीनगर नहीं गया, वह कैसे अंदाज़ा लगा सकता है कि एक मंजिल और डेढ़ मंजिल पूरी तरह से पानी में डूब गई हो और घर का एक-एक सामान पानी में भीग गया हो. घरों में कुछ नहीं बचा और यह मीलों का किस्सा है. श्रीनगर का दिल और सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र लाल चौक, वहां भी नावें चल रही थीं. एक-एक दुकान में करोड़-करोड़ रुपये का सामान भरा होता है. सारे सामान भीग गए, बर्बाद हो गए. दुकानें जूतों की रही हों, कपड़ों की रही हों, जेवरों की रही हों, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं की रही हों, सारा सामान बर्बाद हो गया. जो लोग अपने घरों से निकलने में थोड़ा भी चूक गए, उनके घरों में पानी इस तेजी से गया कि उन्हें घर की ऊपरी मंजिल पर, फिर उसके बाद छत पर जाना पड़ा. मोटे तौर पर दो सौ से ढाई सौ के बीच मौतें आंकी जाती हैं. इसमें उन लोगों का आंकड़ा शामिल नहीं है, जो श्रीनगर शहर से बाहर गांव में रहते हैं.

बारिश ने अनंतनाग में तबाही मचा दी और लगभग छह से आठ फीट तक पानी पूरे अनंतनाग क्षेत्र में भर गया. और इस भरने का मतलब, वहां से वह पानी हाईवे को अपने नीचे डुबाता हुआ, घरों को तबाह करता हुआ श्रीनगर की तरफ़ बढ़ा. जितना पानी झेलम में जा सकता था, उतना झेलम में गया. झेलम उफन गई, उसने पानी लेने से इंकार कर दिया और वह पानी चारों ओर फैलने लगा. गांव के गांव साफ़ हो गए. लोग अपना सामान ऊपर नहीं ले जा पाए और यह पानी श्रीनगर की तरफ़ बढ़ने लगा. श्रीनगर में सरकार सोई रही और उसे शायद लगा कि यह पानी श्रीनगर में आने से पहले ही जज्ब हो जाएगा या सूख जाएगा.

श्रीनगर से अस्सी किलोमीटर दूर अनंतनाग है, जहां लगभग छह दिनों तक भारी बारिश हुई. कुछ लोग उसे क्लाउड बर्स्ट कहते हैं, कुछ लोग लगातार बारिश की बात कहते हैं. उस बारिश ने अनंतनाग में तबाही मचा दी और लगभग छह से आठ फीट तक पानी पूरे अनंतनाग क्षेत्र में भर गया. और इस भरने का मतलब, वहां से वह पानी हाईवे को अपने नीचे डुबाता हुआ, घरों को तबाह करता हुआ श्रीनगर की तरफ़ बढ़ा. जितना पानी झेलम में जा सकता था, उतना झेलम में गया. झेलम उफन गई, उसने पानी लेने से इंकार कर दिया और वह पानी चारों ओर फैलने लगा. गांव के गांव साफ़ हो गए. लोग अपना सामान ऊपर नहीं ले जा पाए और यह पानी श्रीनगर की तरफ़ बढ़ने लगा. श्रीनगर में सरकार सोई रही और उसे शायद लगा कि यह पानी श्रीनगर में आने से पहले ही जज्ब हो जाएगा या सूख जाएगा. अफ़वाहें थोड़ी-थोड़ी फैल रही थीं, लेकिन सरकार ने साधारण चेतावनी ही दी. उसने यह नहीं कहा कि लोग अपना सामान निकाल लें और श्रीनगर में ऊंची जगहों पर, सुरक्षित जगहों पर चले जाएं. इस चेतावनी के अभाव में लोग अपने घरों में और दुकानों पर बने रहे. और उन्हें लगा कि जिस तरह हर साल बाढ़ आती है, उसी तरीके से
थोड़ा-बहुत पानी रिसेगा, लेकिन वह झेलम एवं फ्लड चैनल के जरिये बह जाएगा.
यह पानी दो से तीन दिनों के भीतर श्रीनगर पहुंचा और सरकार की नातजुर्बेकारी की वजह से, लापरवाही की वजह से श्रीनगर इस पानी में डूब गया, क्योंकि झेलम ने तटबंध को काट दिया था. पानी का वेग इतना था कि मैंने अपनी आंखों से देखा कि मजबूत कंक्रीट की दीवारें ताश के पत्ते की तरह गिर पड़ीं. घरों के भीतर पानी ने जाकर हर चीज को तबाह कर दिया और डेढ़ मंजिल ऊंची खिड़कियों से पानी झरने की तरह बाहर आ रहा था. स्थानीय निवासी बताते हैं कि कारें कागज की नाव की तरह बह रही थीं. सैकड़ों कारें तबाह हो गईं, घरों का सामान तबाह हो गया, किताबें तबाह हो गईं. यानी जो कुछ भी डेढ़ मंजिल के नीचे था, वह सब तबाह हो गया. आप स़िर्फ यह अंदाज़ा कर सकते हैं. आप अपना घर ज़मीन से डेढ़ मंजिल जोड़ लीजिए और वह पानी ऐसा नहीं कि स़िर्फ एक घर में आता है. पानी का स्तर एक रहता है और कम से कम तीस-चालीस किलोमीटर तक वह पानी लोगों को तबाह करता हुआ कम से कम सात दिनों तक बना रहा. इसके बाद पानी थोड़ा कम हुआ, लेकिन इलाकों में भरा रहा. अमीर लोगों ने तो फिर भी अपने लिए ज़िंदगी को दोबारा पटरी पर लाने के लिए रास्ते निकाले, लेकिन ग़रीब लोगों की ज़िंदगी नर्क की तरह हो गई.


श्रीनगर में बाढ़ का सबसे ज़्यादा असर शिवपुरा, सोनावार, कैंटोनमेंट एरिया, लाल चौक और राजबाग में दिखाई दिया. बेमिना ग़रीबों का इलाका है. बाढ़ ने यहां लोगों की ज़िंदगी ही तबाह कर दी. सोनावार मजबूत दीवार के अंदर सेना का पूरा शहर है. यहां पर सेना का अस्पताल, मॉल सभी कुछ मौजूद है. यह सब कुछ बाढ़ के पानी में डूब गया था, लेकिन सेना के जवान लोगों की ज़िंदगियां बचाने का प्रयास कर रहे थे. लाल चौक सहित सभी जगहों पर नावें चल रही थीं. इतिहास में पहली बार हुआ था कि श्रीनगर पानी के अंदर था. नाव वालों ने एक-एक परिवार से 20-20, 25-25 हज़ार रुपये लिए घरों से बाहर निकालने के लिए और उस समय सरकार कहीं नहीं थी. लगभग चार हज़ार नावें डल झील में हैं. सरकार ने उनको लेने की कोशिश नहीं की और शिकारे वालों या नाव वालों ने लोगों को जमकर लूटा. सरकार कहीं थी ही नहीं. खुद उमर अब्दुल्ला का संपर्क किसी से नहीं था. श्रीनगर की हर वह चीज, जो सत्ता का केंद्र होती है, पानी में डूबी हुई थी. रेडियो स्टेशन, दूरदर्शन, हाईकोर्ट, सचिवालय, पोस्ट ऑफिस, बैंक सब पानी में डूबे हुए थे. और मेरा ख्याल है कि जितने भी बैंक थे, उनके स्ट्रांग रूम जनरली ग्राउंड फ्लोर पर होते हैं, लॉकर्स होते हैं, तो जितने लोगों ने पैसे लॉकर में रखे थे, वे बर्बाद हो गए. बैंक का कैश, जो स्ट्रांग रूम में था, वह बर्बाद हो गया. स़िर्फ गहने बच गए. दवाइयां बर्बाद हो गईं. श्रीनगर में स्टोरेज में छह महीने के अन्न का स्टॉक रखा जाता है. वह सब कुछ बाढ़ के पानी में डूबकर बर्बाद हो गया. लगभग चालीस हज़ार टन चावल को बाढ़ का पानी लील गया. गैस, पेट्रोल सभी का स्टॉक बर्बाद हो गया. किसी का किसी से कोई संपर्क नहीं रहा.
मैं जब श्रीनगर की सड़कों पर घूमा, तो हर तरफ़ मलबे के बड़े-बड़े ढेर दिखाई दिए.
मोहल्लों में गया, तो लोग अपना सामान जलाते हुए दिखे, क्योंकि डॉक्टरों ने कहा कि किसी भी चीज का इस्तेमाल महामारी में घिर जाने की आशंका पैदा करेगा. इसलिए कपड़े, घर का फर्नीचर, अच्छे-अच्छे घरों में झाड़-फानूस ऐसे निकले हुए थे, जैसे पेड़ की छालें निकली हुई होती हैं, सब लोग अपने घर का सामान जलाते हुए दिखाई दिए. कारों के शोरूम में कारें दस दिनों से ज़्यादा समय तक डूबी रहीं. कितना नुक़सान हुआ, अभी इसका कोई आकलन नहीं है. पर मध्यम वर्ग एवं उच्च-मध्यम वर्ग इससे बचने की सलाहों पर अमल कर रहा है. जैसे, पढ़ने की किताबें जलाई जा रही हैं. स्कूल में इन किताबों का इस्तेमाल न हो, इसका ख्याल रखा जा रहा है, क्योंकि डॉक्टरों ने यह सलाह दी है. दुकानों में भीगे हुए सामान सड़कों पर दोबारा न बिकें, इसकी सलाह दी जा रही है, लेकिन इसके बावजूद श्रीनगर में सूखे हुए कपड़े कौड़ी के भाव बेचने की कोशिश हो रही है. एक दुकानदार ने बहुत खूबसूरत दीवार घड़ियों की नुमाइश लगा रखी थी और कहा कि दस रुपये में आज जो चाहें, वह घड़ी ले जाएं. और सारा माल उसने दस-दस रुपये में बेच दिया. बहुत सारे दुकानदारों ने जूतों को सुखाकर बेचने की कोशिश की. लेकिन, सरकार और स्वास्थ्य अधिकारी यही कह रहे हैं कि पानी में भीगा हुआ कोई भी सामान इस्तेमाल न हो. पढ़ने की किताबें जलाई जा रही हैं और धार्मिक किताबों को इज्जत के साथ दफन किया जा रहा है.
मैं शब्दों के जरिये आपको एक हल्की झलक दिखाने की कोशिश कर रहा हूं. आप देखिए कि जो ग़रीब लोग हैं, वे अपने कीचड़ से सने हुए सामानों को धोकर दोबारा से इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास नया खरीदने के लिए पैसा है ही नहीं और कश्मीर में ठंड शुरू हो चुकी है. घर तिनकों की तरह बर्बाद हो गए हैं. लोगों के पास अभी भी रहने की जगह नहीं है. लोग सेना और सरकार द्वारा मुहैया कराए गए टेंटों में रह रहे हैं. इन टेंटों की भी कमाल की कहानी है. सेना को लेकर कश्मीर में बने विरोधी वातावरण में कमी आई है, क्योंकि सेना ने बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने का अद्भुत काम किया है. पुलिस वाले तो हथियार छोड़कर भाग गए थे. श्रीनगर पांच दिनों तक लोगों के रहमोकरम पर था. सेना ने लोगों को बचाया. एक जगह सेना के जवानों से
अलगाववादियों का झगड़ा हुआ. इसमें सीआरपीएफ का एक जवान मारा गया. वहां पर फायरिंग हुई. पूरा कश्मीर इन लोगों के ख़िलाफ़ हो गया कि लोग इस समय मुसीबत में हैं और आप अपनी बात कर रहे हैं. आप कश्मीर में तनाव पैदा कर रहे हैं. परिणाम यह हुआ कि ऐसे सारे लोग खामोश हो गए, क्योंकि श्रीनगर के लोगों का पूरा समर्थन सेना को था. सेना ने लोगों को बचाया. लोगों के यहां खाना-पानी पहुंचाया. खासकर, पीने का पानी. और पहली बार श्रीनगर के लोगों में सेना को लेकर हमदर्दी दिखाई दी. लेकिन यहां यह भी कहना पड़ेगा कि जम्मू-कश्मीर में एक समानता दिखाई देती है. जब भी चुनाव आते हैं, लॉ इंफोर्समेंट एजेंसियों द्वारा गोलियां चल जाती हैं, लोग मारे जाते हैं और पूरा माहौल खराब हो जाता है.
सरकार गायब थी, लेकिन लोगों में जज्बा था. बहुत सारे लोग दूर के गांवों से आकर बाढ़ में फंसे हुए लोगों को बचाने का काम कर रहे थे. किसी ने दस को बचाया, किसी ने बीस को बचाया, तो किसी ने पच्चीस को. पीने के पानी की बोतलें अपने पूरे शरीर में बांधकर नौजवान तैरते हुए बाढ़ में फंसे हुए लोगों के बीच फेंक रहे थे, जिससे उन्हें बचे रहने का वक्त मिल सके. खाना तो नहीं दे सकते थे, लेकिन पीने का पानी तो दे सकते थे. विडंबना यह कि जिन्होंने लोगों को बचाया, वे खुद किसी न किसी हादसे का शिकार होकर शहीद हो गए. दूसरों को बचाते हुए कुछ लोगों की जानें चली गईं. पानी की बोतलें फेंकते हुए भार की वजह से वे पानी में डूब गए. जब पानी उतर गया, तो कुछ लोगों की मौत इसलिए हो गई, क्योंकि इतनी देर पानी में रहने की वजह से पानी से पैदा हुई बीमारियों ने उनकी जान ले ली. उन्हें इलाज मुहैया नहीं हो पाया. ऐसे लोगों के नाम नहीं पता. सरकार को चाहिए कि ऐसे लोगों के नाम पता करे और उनके परिवार को मदद करे, क्योंकि ऐसे लोगों के जज्बे को सलाम करना चाहिए और इज्जत भी देनी चाहिए, जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर लोगों को बचाया.
श्रीनगर अब स्वर्ग नहीं है. इसे स्वर्ग बनने में पांच से दस साल का समय लगेगा. यहीं पर लोगों को नरेंद्र मोदी का इंतजार है. लोगों को लगता है कि पिछले प्रधानमंत्री रस्म निभाने के लिए कश्मीर आते थे, पर नरेंद्र मोदी पिछले छह महीने में छह बार किसी ने किसी बहाने कश्मीर आ चुके हैं. और चूंकि नरेंद्र मोदी बाढ़ को देखने आए थे, इसलिए वह बचाव कार्य के लिए, पुनर्वास के लिए और इससे जुड़े विकास कार्यों के लिए एक अच्छी रकम देंगे. नरेंद्र मोदी ने एक हज़ार करोड़ रुपये का पहला पैकेज एनाउंस किया. और कश्मीर के लोगों को इस बात की खुशी है कि नरेंद्र मोदी ने यह पैसा जम्मू-कश्मीर सरकार को नहीं दिया, क्योंकि लोगों को लगता है कि राज्य सरकार भ्रष्टाचार में यह सारा पैसा बर्बाद कर देती. जिन लोगों के नाम चेक भी आ रहे हैं, कश्मीर में इस तरह की अफ़वाहें हैं या जानकारियां हैं कि वे सारे चेक दिल्ली से बनकर ही आ रहे हैं. उमर अब्दुल्ला सरकार पर रिलीफ की कोई ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार का पैसा बांटने के संबंध में नहीं डाली गई है. उमर अब्दुल्ला की सरकार अभी तक इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा पाई है कि कितना ऩुकसान हुआ है और लोगों को कितनी सहायता मिलनी चाहिए या नहीं मिलनी चाहिए. इसीलिए स्थानीय सरकार पर नाराज़गी और नरेंद्र मोदी पर विश्‍वास का यह नायाब काम इस बाढ़ ने कर दिखाया. बाढ़ से प्रभावित पूरा श्रीनगर बिना किसी संदेह के यह मान बैठा है कि चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी यहां के राहत, पुनर्वास और विकास के कार्यों में ज़्यादा दिलचस्पी लेंगे.


दूसरी तरफ़ भाजपा इन चुनावों को गंभीरता से लड़ रही है. पिछले 25-30 सालों में न तो केंद्र के कांग्रेसी नेताओं ने कश्मीर जाकर वहां के लोगों से कोई संपर्क बनाया और न ही समाजवादी एवं साम्यवादी नेताओं ने. जम्मू क्षेत्र में कांग्रेस की पैठ थी, लेकिन यह क्षेत्र अब भाजपा के साथ है. और घाटी में जहां भाजपा को उम्मीदवार नहीं मिलते थे, अब उसे उम्मीदवार मिलने शुरू हो गए हैं. भाजपा जोर-शोर से किसी भी क़ीमत पर हर सीट पर उम्मीदवार उतारना चाहती है. श्रीनगर में उसे लगता है कि लोग नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस से नाराज़ हैं. दूसरी तरफ़ गिलानी साहब और उनकी हुर्रियत कांफ्रेंस हर बार की तरह इस बार भी चुनाव बहिष्कार का नारा देंगे, जिससे उनका वोट प्रतिशत कम हो जाएगा और उस स्थिति में भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले वोट उन्हें जिताने में बड़ा योगदान दे सकते हैं. यहां पर हुर्रियत द्वारा चुनाव बहिष्कार का नारा सौ प्रतिशत भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जा सकता है.
अनंतनाग हो, कश्मीर घाटी हो, यहां पर पहली बार मुस्लिम उम्मीदवार भारतीय जनता पार्टी के चुनाव चिन्ह के ऊपर चुनाव लड़ रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी किस शिद्दत के साथ लोगों से संपर्क कर रही है, उसका एक उदाहरण मैं आपको बता सकता हूं. स्वयं वित्त मंत्री अरुण जेटली एक-एक घंटे आधे-आधे घंटे लोगों से बात करके चुनाव लड़ने की अपील कर रहे हैं. किसी भी व्यक्ति के बारे में पता चलता है कि वह चुनाव लड़ सकता है, तो सवाल जीतने-हारने का नहीं है, सवाल स़िर्फ चुनाव लड़ने का है. उसे पैसों की मदद, उसे साधनों की मदद का वादा दिल्ली से किया जा रहा है. और अगर किसी को अरुण जेटली खुद फोन करके कहें कि वह उनकी पार्टी से चुनाव लड़े, तो यह बखूबी समझा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी इस बार कश्मीर में अपने संपर्क और साधन के सहारे क्या नतीजा निकालना चाहती है.
मुझसे बहुत सारे लोगों ने कहा कि हुर्रियत कांफ्रेंस चोर है. जब मैंने गिलानी के बारे में पूछा, तो लोगों ने कहा कि गिलानी साहब खुद तो भारत का पैसा खाते हैं और हमसे कहते हैं कि वोट मत दो. जब मैंने पूछा, कौन जीत सकता है, तो दो ही जवाब आए. पहला, मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी को अच्छा समर्थन मिलेगा और दूसरा जवाब आया कि भारतीय जनता पार्टी को वहां सीटें मिल सकती हैं. भारतीय जनता पार्टी को ज़्यादा सीटें मिलने का सबसे बड़ा कारण कांगे्रस के समर्थक वर्ग का भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देना हो सकता है, पर पूरे कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद को लेकर बहुत ज़्यादा भरोसा है. लोगों को लगता है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद एक ऐसे शख्स हैं, जिन्हें अनुभव है, जिनके पास विजन है, जिनके पास पूरे कश्मीर का एक नक्शा है. और अगर वह जीतते हैं, मुख्यमंत्री बनते हैं, तो चाहे जम्मू हो, चाहे लेह हो या कश्मीर घाटी हो, हर जगह विकास का एक नया दौर आ सकता है तथा जो लोग बाढ़ के शिकार हुए हैं, उनकी ज़िंदगी में दोबारा रोशनी आ सकती है. मुफ्ती मोहम्मद सईद के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में किए हुए बहुत सारे काम लोगों को याद हैं. इसलिए संभावना इस बात की है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद या तो अकेले सरकार बना लें या फिर अगर कुछ कमी रहती है, तो वह दूसरे दल के साथ मिलकर सरकार बनाएं. लेकिन, शायद वह सरकार इसी शर्त पर बनाएंगे कि उनके काम में सहयोगी दल हस्तक्षेप न करें.

श्रीनगर की यह त्रासदी देश के नेताओं को संदेश देती है कि अब वह दिन गए, जब आप जनता को यूं ही बहलाने की कोशिश करते थे. यह भी संदेश देती है और हर सरकारों को देती है कि अब आपदा सिग्लन देकर नहीं आती. इसलिए आपदा तंत्र को बहुत सक्रिय बनाकर रखना चाहिए, अन्यथा सिवाय हाथ मलने और सिर पीटने के कुछ रह नहीं जाता.

श्रीनगर की यह त्रासदी देश के नेताओं को संदेश देती है कि अब वह दिन गए, जब आप जनता को यूं ही बहलाने की कोशिश करते थे. यह भी संदेश देती है और हर सरकारों को देती है कि अब आपदा सिग्लन देकर नहीं आती. इसलिए आपदा तंत्र को बहुत सक्रिय बनाकर रखना चाहिए, अन्यथा सिवाय हाथ मलने और सिर पीटने के कुछ रह नहीं जाता. श्रीनगर वैली में पानी निकालने के पंप ही नहीं हैं. जो कुछ पंप थे, वे पानी के नीचे डूबे हुए थे. कहीं से छोटे-छोटे पंप मंगाए गए, पर उनमें पानी निकालने की क्षमता ही नहीं थी. इसके बावजूद जो सबसे ख़तरनाक बात थी कि वहां का आपदा प्रबंधन तंत्र था ही नहीं. और जो बाहर से लोग आए थे, उन्हें यही नहीं मालूम था कि श्रीनगर शहर में कहां जाना है, क्या करना है और प्राथमिकताएं क्या तय करनी हैं. स्थानीय लोगों को उसमें शामिल ही नहीं किया गया. सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था, जिसका आकलन अरबों-खरबों रुपये के नुक़सान के रूप में सामने आया. शायद पूरी तरह कभी न पता चले कि श्रीनगर यानी दुनिया का स्वर्ग पानी में डूबा और जब उबरा, तो क्या खोकर उबरा.
पर इसके बावजूद कश्मीरी लोगों को सलाम करना चाहिए कि वे इस सबसे उबर चुके हैं. जब मैंने पूछा कि यह बाढ़ क्यों आई, तो ज़्यादातर लोगों ने कहा कि शायद हमारे बुरे कर्म थे, जिसकी वजह से अल्लाह हमें सबक देना चाहता था. बहुत सारे अपराध का काम करने वाले, बुरा काम करने वाले लोग सुधर गए हैं. उन्हें लग रहा कि अल्लाह ने उन्हें एक मौक़ा दिया है, अच्छी ज़िंदगी बिताने का. लेकिन, नए लोग अपराध के काम में जुट गए हैं, जैसे इंश्योरेंस कंपनियों को ग़लत जानकारी देना और यह सब वे कर रहे हैं, जो बड़े पैसे वाले हैं. इंश्योरेंस कंपनियों से लूट की योजना बनाना, बाहर से आई मदद के नाम पर फर्जी एनजीओज खड़े करना जैसे काम हो रहे हैं. स्वयंसेवी संस्थाओं की तो कश्मीर में बाढ़ आ गई है. बाहर के लोग भी बिना यह जाने कि उनकी सहायता प्रभावित लोगों तक पहुंच रही है या नहीं, इन संस्थाओं को पैसे भेज रहे हैं. इसके बावजूद कश्मीर के लोग खड़े हो रहे हैं और उसमें सबसे पहला सबक उनसे सीखना चाहिए, जिनके पास साधन नहीं हैं, जो ग़रीब हैं, जिनके सामने इस समय भी खराब सामान को इस्तेमाल कर महामारी में फंसने का ख़तरा है, लेकिन वे भी दोबारा ज़िंदा होने की कोशिश कर रहे हैं. कश्मीर देश के लिए आपदा प्रबंधन के मामले में तो सबक है ही, देश के राजनीतिक नेताओं के लिए भी एक सबक है. अब देखना यही है कि कौन इससे सबक सीखता है.

चौथी दुनिया