गुरुवार, 1 जनवरी 2015

किसके अच्छे दिन! जिसके अच्छे दिन, वह मनायें जश्न!

नीला आसमान से बहता लावा कि पकी हुई जमीन दहकने लगी, प्लीज हमसे ना कहें नया साल मुबारक!

भारत में अब अबाध विदेशी पूंजी के लिए, अबाध बिल्डर प्रोमोटर राज के लिए अब फिर वही 1884 के भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधान लागू करने का इंतजाम हो गया है।

नया साल शुरु होने से दो दिन पहले भारत में फिर ईस्ट इंडिया कंपनी का राजकाज शुरु हो गया है, एक मुश्त हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों की अरबों डालर के वर्चस्व मध्ये हवाओं, पानियों में भोपाल गैस त्रासदी दुहराया जाने लगा है।

और अब इसे अध्यादेश राज कहा जायेगा। कि नरसंहार जारी रहेगा।

कि मनुस्मृति का गीता महोत्सव और शत प्रतिशत हिंदुत्व का दुस्समय है यह अपना समय कि नया साल मुबारक कहने का मतलब हुआ, आपके चौतरफा सर्वनाश के लिए शुभकामनाएं।

कृपया किसी से न कहें नया साल मुबारक।

खत्म हो रही इंसानियत की कयामत है

खत्म होने को कायनात की कयामत है

फिजां में मौत की खुशबुओं

की बहार है कि कयामत है

लहूलुहान है जिस्म न सही

लहूलुहान है रुह हमारी

हमसे जिस्मानी मोहब्बत

की उम्मीद मत रख

कि हमारी मर्दानगी

मर्दों के राजकाज में

कत्लगाहों की मौज है

और खूबसूरतियां तमाम

बर्बर कातिलों के कब्जे में

दम तोड़ रही है

हम जी नहीं रहे हैं हरगिज

हमारी मुकम्मल खामोशी

हमारे जनाजे के इंतजार में है

बेहया वक्त के ताबूत में कैद हैं हम

नये कंपनी बंदोबस्त के अध्यादेश में खासोआम को खबर हो कि मुलाहिजा फरमाये हुक्म है शाही हिंदू साम्राज्यवादी केसरिया कहर का, जमीन डकैती के लिए किसी की न सुनवाई होगी न नियमागिरि के आदिवासियों को तरह किसी को राय बताने की छूट होगी।

कि जो है धर्मराज्य के हक में, उसका भी काम तमाम है

कि जो इस महाभारत में गीतोपदेश के मुताबिक निमित्तमात्र भारतीय धर्मोन्मादी जनगण है, उसका भी काम तमाम है

हर गैरनस्ली हिंदू कि गैर हिंदू, सवर्ण कि अछूत, बूझै हैं कि न बूझै,

सगरे मुलुक के लिए प्रजाजनों, मौत का पैगाम है

अश्वमेध के घोड़े हुए बेलगाम, सांढ़ों का राज है

त्वाडे नाल राज के वास्ते जिंदा जला देने का पैगाम है कि धर्म और धर्मस्थलकि मजहब और जात पांत नस्ल कातिल के बहाने हैं

त्वाड्डा साड्डा काम तमाम है

मुआवजा जरूर सरकारी हिसाब के मुताबिक दे दिया जायेगा। मुआवजा हर वक्त बांटा जाता है। हर विस्थापन का वायदा फिर मुआवजा है। कि हर बलात्कार का जश्न अब मुआवजा है और हर कत्ल का मुआवजा अब माफीनामा है।

कि अपने अपने घर खाली कर दो, दोस्तों

कि कातिलों को बसेरा चाहिए।

सीमेंट के जंगल में

अपना ठिकाना तलाशों दोस्तों

कि खेतों खलिहानों

रोजी रोटी की मौत का

चाकचौबंद बंदोबस्त है

कि मनुस्मृति राज बहाल है।

लूट के माल का हिस्सा उम्मीद है तो

बेशक खामोशी अख्तियार करो, दोस्तों

वरना चीख सको तो चीखो गला फाड़कर

कि फिर चीखने का मौका मिल न मिले

कयामत मुंह बाँए खड़ी है कि

अबकी तो मुलाकाते हैं

जश्न है, जलवा भी है

रोजी भी है, रोटी भी है

फिर अपना गांव रहे न रहे


फिर मुलाकात हो न हो

हो सके तो मिल लो गले

शायद आखिरी बार

कि किन हादसों के मंजर से

गुजरना पड़े, न जिंदगी का ठौर ठिकाना है

न हम अस्मत किसी की बचाने काबिल

न हमारा कोई फसाना है

उम्मीद फिर वही हरजाना है

खालिस हरजाना है

जीने का फिर वही बहाना है

मजहबी अंधे जो करें, न करें कम है

कब किस इमारत पर टोंके दावा

किसे फिर तबाह कर दे

कब किसे बांटे रेवड़ियां

और कब किस शहर में आग लगा दें

यह देश अब मजहबी आग के हवाले हैं

और हम सारे लोग जनाजे में शामिल है

मोहर्रम पर ईद मुबारक न कहें

भारत में भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन से मुख्यमंत्री बनीं एकमात्र राजनेता ममता बनर्जी ने इसके खिलाफ मोर्चा जरूर जमाया है और सुधारों की महागंगा कांग्रेस भी अब सुधार विरोधी उल्टी दिशा में बहने का दिखावा कर रही है। लेकिन जब तक धर्मोन्माद का यह तिलिस्म खत्म नहीं होता, लगता नहीं कि यह कायमत रुकने वाली है।

कारपोरेट वकील वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अधिनियम में बदलाव लाने के सरकार के फैसले को जायज ठहराते हुए कहा, इस तरह की परियोजनाएं रक्षा के लिए तैयारी एवं रक्षा निर्माण सहित भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। सहमति संबंधी उपधारा के बारे में पूछे जाने पर जेटली ने कहा, अगर भूमि अधिग्रहण पांच उद्देश्यों के लिए किया जाता है तो सहमति की उपधारा से छूट मिल जाएगी। संप्रग के कार्यकाल में अमल में आए कानून के मुताबिक पीपीपी परियोजनाओं के लिए जिन लोगों की भूमि अधिग्रहित की जा रही है, उनमें 70 फीसदी लोगों की सहमति जरूरी है।

इस फैसले के साथ पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन तथा उचित मुआवजे का अधिकार और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम-2013 में पारदर्शिता 13 मौजूदा केंद्रीय कानूनों के लिए भी लागू होगी। सरकार ने कहा कि जिन मुश्किलों की बात आ रही थी, उनको देखते हुए कैबिनेट ने कुछ संशोधनों को मंजूरी दी है।

जब मौत सर पर मंडरा रही हो तो कातिलों के लिए जश्न का मौका होता है, मारे जाने वालों की चीखें तक निषिद्ध हो जाती हैं।

अब इस केसरिया हिंदू साम्राज्य में चीखने, रोने और पुकारने की भी आजादी नहीं है।

नया साल इसके बावजूद मुबारक हो तो मनाइये जश्न बाशौक।

कृपया हमें न कहें, या हमरी दीवाल पर हरगिज न टांगें नया साल मुबारक।

किसके अच्छे दिन!

जिसके अच्छे दिन, वह मनायें जश्न!

बाकी देश के लिए तो मंजर कयामत है।

फिजां कयामत है।

जिंदगी का दूसरा नाम कयामत है।

नया साल फिर फिर कयामत का इंतहा है।

नीला आसमान से बहता लावा कि पकी हुई जमीन दहकने लगी, हमसे कोई न कहें नया साल मुबारक!

नये साल से ठीक दो दिन पहले आर्डिनेंस राज बहाल हो गया है। यह कोई मुझ जैसे नाचीज का मंतव्य नहीं है।

तमाम विशेषज्ञ जिस इकोनामिक टाइम्स के पन्नों पर भारतीय अर्थव्यवश्ता में दौड़ते सांढ़ों की नब्ज टटोलते रहते हैं, उस अखबार की चीखती हुई सुर्खियां बता रही हैं कि दरअसल नया साल किस तबके के लिए बेहद बेहद मुबारक होने वाला है।

Ordinance Raj Begins, 2 Days Ahead of 2015

केंद्र सरकार ने आज भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को मंजूरी दे दी। इस अध्यादेश के तहत सरकार ने ज़मीन अधिग्रहण की मौजूदा शर्तों में ढील देते हुए काफी आसान बना दिया है।

हमारे पाठकों को याद होगा कि भूमि अधिग्हण की इन तैयारियों के बारे में हमने पूरा ब्यौरा हस्तक्षेप पर कई दिनों पहले लगाया है, ईटी ने हमारी आशंकाओं पर मुहर ठोंक दिया है। हमने वह आलेख अंग्रेजी में लिखा था।

बहराहाल, वित्त मंत्री अरूण जेटली ने बता दिया है कि सरकार ने बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल बनाने के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का अध्यादेश लाने का फैसला किया है।

वित्मंत्री गरीब गुरबों और बेगर लोगों को सब्जबाग यह दिखा रहें है कि जैसे लाकों करोड़ों के प्लैटों की खैरात बंटने वाली है। उनके कहे मुताबिक इस निर्णय से दिल्ली में रहने वाले 60 लाख से अधिक लोगों को फायदा होगा। सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में अनधिकृत कालोनियों में सीलिंग पर तीन साल के लिए रोक लगाने से जुडे विधेयक को भी पारित कराया था। उन्होंने कहा कि किसानों को मुआवजे से जुडे प्रावधानों में कोई संशोधन नहीं किया जा रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई बैठक में केंद्रीय कैबिनेट ने अधिनियम के दायरे में 13 केंद्रीय कानूनों को लाने के लिए संशोधन का फैसला किया है। जिन कानूनों में बदलाव की बात की गई, उनमें रक्षा एवं राष्ट्रीय सुरक्षा, किसानों को अधिक मुआवजा प्रदान करना और पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन से संबंधित कानून शामिल हैं।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि सरकार ने समाज की विकास संबंधी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अधिनियम के कुछ प्रावधानों में रियायत देने और कानून में धारा 10ए को शामिल करने का फैसला किया है।

बहरहाल, इन उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण करने की स्थिति में नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत मुआवजा और पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन पैकेज लागू होगा। अध्यादेश में जो बदलाव शामिल किए जाने हैं, उनके मुताबिक बहुफसली सिंचाई की भूमि भी इन उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित की जा सकती है।

आज भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस से जो मेरे दिलोदिमाग में रक्तपात हो रहा है, उसमें मतुआ आंदोलन के जख्मी लहूलुहान हो जाने का अहसास जितना है, उससे ज्यादा तकलीफ हमारे आदिवासी परिजनों और पुरखों की हजारों साल की लड़ाइयां बेकार हो जाने की वजह से है। तमाम किसान आंदोलनों को गैरप्रासंगिक बना दिये जाने की वजह से है। 1956 और 1958 की तराई की लड़ाइयां, ढठे और सातवें दशक के सारे जनांदोलनों के बेमतलब हो जाने का मातम मना रहा हूं मैं।

अब भूमि अधिग्रहण अबाध है।

अब विदेशी पूंजी और कालाधन अबाध है। यही है गीता महोत्सव।

यही है नये साल के जश्न का मतलब।

किसी की सुनवाई, किसी की सम्मति की कोई जरूरत नहीं है।

नियमागिरि की आदिवासी पंचायतों की राय अब बेमतलब है।

बेमतलब है, संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियां, वनाधिकार कानून, पंचायती राज कानून , पर्यावरण कानून, समुद्र तट सुरक्षा कानून वगेैरह वगैरह।

1956 के बाद पुनर्वास के बावजूद बेदखल जमीन का दखल हासिल करने की मेरे गांव के लोगों, मेरे पिता, बसंतीपुर में मेरे दोस्त कृष्णो के पिता गांव के शाश्वत प्रेसीडेंट मांदार बाबू, शाश्वत सेक्रेटरी अतुल शील और शाश्वत कैशियर शिशुवर मंडल की लड़ाई के बेमतलब हो जाने का दर्द है।

- पलाश विश्वास

आम चुनाव में लोग वोट क्‍यों देते हैं?

सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति हत्‍याकांड में अमित शाह बरी हो गए। तो? जब बरी नहीं हुए थे, अभियुक्‍त थे, तब भी कौन सी कीमत उन्‍होंने चुकायी थी? वे तो उलटे सियासी सीढि़यां चढ़ते गए, साहेब के साथ-साथ। यही दोनों क्‍यों, कुल 186 लोकसभा सांसदों के खिलाफ क्रिमिनल मुकदमे चल रहे हैं। अमित शाह भले जनप्रतिनिधि न हों, साहेब के मैनेजर हों, लेकिन बीजेपी के कुल सांसदों में से एक-तिहाई के खिलाफ़ तो आपराधिक मुकदमा दर्ज ही है। तो क्‍या हुआ? जनता ने उन्‍हें चुनकर भेजा है, अब चाहे जै फीसदी जनता हो। मतलब कि हत्‍या, लूट, सेंधमारी, बलात्‍कार, छिनैती, डकैती, दंगा, नरसंहार, धोखाधड़ी आदि से लोग अपने उम्‍मीदवार को नहीं तौलते।

ठीक है। अपना काम-वाम करवाने के मामले में पार्षद-विधायक को चुनने तक तो बात समझ में आती है, लेकिन आम चुनाव में लोग वोट क्‍यों देते हैं? एक अपराधी को सांसद बनने से रोककर लोग अपराधबोध से आसानी से बच सकते थे, खासकर इसलिए भी कि सांसद लोगों का काम सीधे नहीं करवाता। जिसकी कोई उपयोगिता ही नहीं, तिस पर वो अपराधी भी है, उसे वोट देकर अपने हाथ गंदे क्‍यों करना। लोकसभा चुनाव में लोगों ने मोदी को चुना, तभी तो बिना चुना हुआ शाह नाम का आदमी नत्‍थी होकर यहां तक आ गया और बरी हो गया!

मेरा सवाल है: आम चुनाव में लोग वोट क्‍यों देते हैं? क्‍या जनता का काम करने/करवाने के लिए वास्‍तव में किसी राष्‍ट्रीय सरकार की ज़रूरत है? इस पर कम से कम दो बार सोचिएगा।
O- अभिषेक श्रीवास्तव

भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दुत्व की राजनीति का पहला बड़ा हमला था गांधी की हत्या

  • पुनरूत्थान गोडसे के महिमामंडन का
समय बदल रहा है और इस परिवर्तन की गति काफी तीव्र है। पिछले कुछ दशकों में अधिकांश हिन्दू राष्ट्रवादियों को अपने नायक नाथूराम गोडसे के प्रति अपने प्रशंसाभाव को दबा-छिपाकर रखने की आदत-सी पड़ गई थी। कभी कभार, कुछ कार्यक्रमों में उसका गुणगान किया जाता था परंतु ऐसे कार्यक्रम बहुत छोटे पैमाने पर आयोजित होते थे और उनका अधिक प्रचार नहीं किया जाता था। पिछले कुछ सालों में, प्रदीप दलवी के मराठी नाटक ‘मी नाथूराम बोलतोए‘ (मैं नाथूराम बोल रहा हूं), जिसमें गांधी पर कटु हमला और गोडसे की तारीफ की गई है, का मंचन महाराष्ट्र में कई स्थानों पर हुआ और नाटक देखने के लिए भारी भीड़ भी उमड़ी। इस नाटक का अलग-अलग लोगों द्वारा समय-समय पर विरोध भी किया जाता रहा है।

मई 2014 में दिल्ली में नई सरकार आने के बाद से साम्प्रदायिक भाषणबाजी, टिप्पणियों और कार्यकलापों में तेजी से वृद्धि हुई है। ऐसा लगता है कि सत्ताधारी वर्ग इन हरकतों का मूकदर्शक बना रहना चाहता है। यह निष्कर्ष इसलिए तार्किक प्रतीत होता है क्योंकि अब तक गोडसे प्रशंसकों को न तो किसी सत्ताधारी ने फटकार लगाई है और ना ही उनका विरोध किया है। सरकार में रहने की मजबूरी के चलते वे गोडसे प्रशंसक क्लब के सदस्य तो नहीं बन सकते परंतु वे उसकी निंदा भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे स्वयं भी हिन्दू राष्ट्रवाद की गोडसे विचारधारा में आस्था रखते हैं। इस हिन्दू राष्ट्रवाद को ‘राष्ट्रवाद‘ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। हिन्दू शब्द का उच्चारण इतने धीमे स्वर में किया जाता है कि वह सुनाई ही नहीं देता।

गोडसे प्रशंसक क्लब की सबसे ताजा गतिविधि है मेरठ में 25 दिसम्बर 2014 को हिन्दू महासभा द्वारागोडसे के मंदिर के निर्माण के लिए भूमिपूजन । अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मेरठ में देश का पहला मंदिर बनाने जा रहे हैं। हिन्दू महासभा के कई कार्यालयों में गोडसे की मूर्ति स्थापित करने की तैयारी चल रही है। हिन्दू महासभा ने केन्द्र सरकार से मांग की है कि दिल्ली में गोडसे की मूर्ति स्थापित करने के लिए उसे भूमि आवंटित की जाए। गोडसे की किताब का द्वितीय पुनर्मुद्रित संस्करण बाजार में आ चुका है।

भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कुछ समय पहले गोडसे को राष्ट्रवादी बताया था। बाद में वे अपने बयान से पीछे हट गए ताकि सत्ताधारी भाजपा परेशानी में न फंस जाए। भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस ने आतंरिक वितरण के लिए दो नई पुस्तकें जारी की हैं। इन पुस्तकों का उद्धेश्य है संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों को उसकी विचारधारा से परिचित करवाना। इन पुस्तकों के शीर्षक हैं, ‘आरएसएस-एक परिचय‘ व ‘आरएसएस-एक सरल परिचय‘। इनमें से दूसरी पुस्तक के लेखक आरएसएस के वरिष्ठ सदस्य एम. जी. वैद्य हैं। वैद्य का कहना है कि ‘आरएसएस के चारों ओर आरोपों का घेरा बना दिया गया है‘। इस पुस्तक का उद्धेश्य, आरोपों के इस घेरे से आरएसएस को बाहर निकालना है।

जहां प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर मौन धारण किए हुए हैं वहीं विपक्षी नेताओं ने हिन्दू महासभा व अन्यों द्वारा गोडसे के कृत्य का महिमामंडन करने के प्रयास की कड़ी आलोचना की है।

गोडसे और आरएसएस का क्या रिश्ता था? क्या वह आरएसएस का सदस्य था और क्या उसने बाद में संघ छोड़ दिया था या फिर उसने संघ का सदस्य रहते हुए, सन् 1930 के मध्य में, हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली थी? आधिकारिक रूप से आरएसएस हमेशा यह कहता आया है कि उसका गोडसे से कोई लेनादेना नहीं है और गोडसे ने जब महात्मा गांधी की हत्या की थी, उस समय वह संघ का सदस्य नहीं था। इस बहाने, आरएसएस हमेशा से गोडसे से अपना पल्ला झाड़ता रहा है। यहां यह याद करना मुनासिब होगा कि सन् 1998 में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख प्रो. राजेन्द्र सिंह ने कहा था कि ‘गोडसे अखंड भारत की परिकल्पना से प्रेरित था। उसका उद्धेश्य पवित्र था परंतु उसने गलत साधनों का इस्तेमाल किया‘ (‘आउटलुक‘, अप्रैल 27, 1998)।

हम इस पूरे मुद्दे को कैसे देखें? इसे समझने के लिए सबसे पहले हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को समझना आवश्यक है-उस राजनीति को, जिसके कर्ताधर्ता हिन्दू महासभा और आरएसएस थे। ये दोनों संगठन स्वाधीनता संग्राम से दूर रहे। हिन्दू महासभा की रूचि हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार बतौर राजनीति में प्रवेश करने में थी। आरएसएस, अपने कार्यकर्ताओं का जाल खड़ा करना चाहता था और अलग-अलग संगठन बनाकर शिक्षा, संस्कृति व राज्यतंत्र में घुसपैठ करने का इच्छुक था। इन दोनों संगठनों के एजेन्डा में अनेक समानताएं थीं क्योंकि दोनों, मूलतः हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए काम कर रहे थे। नाथूराम गोडसे इन दोनों संगठनों की विचारधारा के ‘अद्भुत मिलन‘ का प्रतीक था।

आरएसएस, गोडसे को स्वयं से इसलिए अलग कर सका क्योंकि संघ के सदस्यों का कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं रखा जाता था और इसलिए कानूनी दृष्टि से संघ को गोडसे से जोड़ना संभव नहीं था। गोडसे ने सन् 1930 में आरएसएस की सदस्यता ली और जल्दी ही वह उसका बौद्धिक प्रचारक बन गया। हिन्दू महासभा और आरएसएस की तरह, वह भी अखंड भारत – अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यानमार का संयुक्त भूभाग – की परिकल्पना का जबरदस्त समर्थक था।

कट्टर हिंदुत्ववादी होने के नाते, वह गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत और उनके नेतृत्व में चलाए गए ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन का कटु आलोचक था। गोडसे, स्वाधीनता संग्राम में गांधी की भूमिका में कुछ भी अच्छा नहीं देखता था। आरएसएस और हिन्दू महासभा, गांधी की लगातार इस बात के लिए आलोचना करते थे कि उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में सभी धार्मिक समुदायों को भागीदार बनाया। गांधी की मान्यता यह थी कि धर्म एक व्यक्तिगत मसला है और उनका प्रयास था कि सभी देशवासी, धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर, भारतीय के रूप में अपनी पहचान स्थापित करें। हिन्दू महासभा और आरएसएस को यह बर्दाश्त नहीं था क्योंकि वे चाहते थे कि केवल हिन्दुओं को ही भारतीय के रूप में स्वीकार किया जाए। गांधी के राष्ट्रवाद का मूल्यांकन, गोडसे, हिन्दू राजाओं के राष्ट्रवाद की कसौटी पर करता था। गांधीजी का मूल्यांकन करने के लिए वह बहुत अजीब मानकों का इस्तेमाल करता था। ‘उनके (गांधी) समर्थक वह नहीं देख पा रहे हैं जो किसी अंधे को भी साफ-साफ दिखाई दे सकता है और वह यह कि शिवाजी, राणाप्रताप और गुरू गोविंद सिंह के सामने गांधी एकदम बौने हैं‘ (वाय आई एसेसिनेटिड गांधी, 1993, पृष्ठ 40) व ‘जहां तक स्वराज और स्वाधीनता प्राप्त करने का सवाल है, उसमें महात्मा का योगदान नगण्य था‘ (पूर्वोक्त, पृष्ठ 87)।


वह महात्मा को मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का दोषी और पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार मानता था। आरएसएस और हिन्दू महासभा से अपने जुड़ाव के बारे में वह लिखता है, ‘‘हिन्दुओं की बेहतरी के लिए काम करते हुए मुझे यह अहसास हुआ कि हिन्दुओं के न्यायपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना आवश्यक है। इसलिए मैंने संघ छोड़कर हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली‘‘ (पूर्वोक्त पृष्ठ 102)।

उस समय हिन्दू महासभा एकमात्र हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दल था। गोडसे, महासभा की पुणे शाखा का महासचिव बन गया। कुछ समय बाद उसने एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया जिसका वह संस्थापक संपादक था। अखबार का शीर्षक था ‘अग्रणी या हिन्दू राष्ट्र‘। यह साफ है कि गांधी की हत्या, उन कारणों

(देश का विभाजन और पाकिस्तान को उसके 55 करोड़ रूपये चुकाने पर गांधीजी का जोर), से नहीं की गई थी, जिनका ये संगठन प्रचार करते हैं। गांधी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों और गांधी की राजनीति में बुनियादी मतभेद थे। इन दोनों कारणों को तो केवल बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

जब गोडसे कहता है कि उसने आरएसएस छोड़ दिया था, तब उसका क्या अर्थ है? क्या यह सच है? गोडसे के आरएसएस छोड़ने के पीछे के सच का खुलासा उसके भाई गोपाल गोडसे ने ‘द टाईम्स ऑफ इंडिया‘ (25 जून 1998) को दिए गए एक साक्षात्कार में किया। गोपाल गोडसे, जो कि गांधी हत्या में सहआरोपी था, नाथूराम गोडसे के इस बयान कि ‘उसने आरएसएस छोड़ दिया था‘ के बारे में कहता है, ‘‘उनकी (गांधी) तुष्टिकरण की नीति-जो सभी कांग्रेस सरकारों पर लाद दी गई थी-ने मुस्लिम अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और इसका अंतिम नतीजा पाकिस्तान के निर्माण के तौर पर सामने आया…तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टि से वे (नाथूराम) सदस्य (आरएसएस के) थे परंतु उन्होंने बाद में उसके लिए काम करना बंद कर दिया था। उन्होंने अदालत में यह बयान कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दिया था इसलिए दिया था ताकि हत्या के बाद गिरफ्तार किए गए आरएसएस कार्यकर्ताओं की सुरक्षा हो सके। वे यह समझते थे कि उनके आरएसएस से स्वयं को अलग कर लेने से उन्हें (आरएसएस कार्यकर्ताओं) को लाभ होगा और इसलिए उन्होंने खुशी-खुशी यह किया‘‘।

गोडसे के आरएसएस छोड़ने का दावा करने का असली कारण यह था। गोडसे की दोहरी सदस्यता (आरएसएस व हिन्दू महासभा) से दोनों ही संगठनों को कोई परेशानी नहीं थी। इस तरह, यह स्पष्ट है कि गांधी की हत्या के पीछे हिन्दुत्व की राजनीति की दोनों धाराएं-आरएसएस व हिन्दू महासभा- थीं। गोडसे के संपादन में प्रकाशित समाचारपत्र का शीर्षक ‘हिन्दू राष्ट्र‘ भी इसी तथ्य को रेखांकित करता है। गांधी की हत्या को हिन्दू महासभा व आरएसएस दोनों की ही स्वीकृति प्राप्त थी और उनके कार्यकर्ताओं ने हत्या के बाद, मिठाईयां बांटकर जश्न भी मनाया था। ‘उसके (आरएसएस) सभी नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से भरे रहते थे। इसका अंतिम नतीजा यह हुआ कि देश में ऐसा जहरीला वातावरण बन गया जिसके चलते इतनी भयावह त्रासदी संभव हो सकी। आरएसएस के लोगों ने इस पर अपनी खुशी का इजहार किया और गांधी की मृत्यु के बाद मिठाईयां बांटी‘ (सरदार पटेल के एम. एस. गोलवलकर और एस. पी. मुकर्जी को लिखे पत्रों से उद्वत)। गोडसे सनकी नहीं था। जो कुछ उसने किया, वह हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा गांधी के खिलाफ फैलाए जा रहे जहर का तार्किक परिणाम था। और गोडसे को तो आरएसएस व हिन्दू महासभा दोनों की शिक्षाओं का ‘लाभ‘ प्राप्त था। वे गांधी की हत्या के लिए ‘वध‘ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। सामान्यतः इस शब्द का इस्तेमाल उन राक्षसों की हत्या के लिए किया जाता है जो कि समाज के शत्रु हों। एक अर्थ में, गांधी की हत्या, भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दुत्व की राजनीति का पहला बड़ा हमला था। इसने उसके आगे की राह प्रशस्त की और पिछले कुछ दशकों में हिन्दुत्ववादी राजनीति कहां से कहां जा पहुंची है, हम सब इससे वाकिफ हैं।

यद्यपि आधिकारिक रूप से संघ परिवार गोडसे के हाथों गांधी की हत्या से स्वयं को अलग रखता है परंतु निजी बातचीत में उसके सदस्य न केवल इस कायराना हरकत को उचित ठहराते हैं बल्कि महात्मा गांधी के महत्व और उनकी महानता को कम करके बताते हैं। उन्हें गोडसे से पूरी सहानुभूति है। यह चालबाजी, यह दोगलापन अब तक चला आ रहा था। मोदी सरकार के आने के बाद अब इस सच को छुपाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। और इसलिए गोडसे का महिमामंडन बिना किसी लागलपेट के, पूरे जोशोखरोश से किया जा रहा है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

Writer  -राम पुनियानी

दो तिहाई नजरबंद दलित-आदिवासी और मुस्लिम अकेले गुजरात और तमिलनाडु में- मोदी

  • गुजरात में 98 में भाजपा सरकार बनने के साथ ही हो गया था सिलसिला शुरू
नई दिल्ली। बिना किसी अपराध के, विभिन्न प्रतिबंधात्मक कानूनों में, दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय को जेल में नजरबंद रखने के मामले में आज भी ब्रिटिश सरकार वाला रवैया जारी है। जहाँ इस मामले में तमिलनाडु हमेशा से आगे रहा है, वहीं गुजरात में 1998 में भाजपा सरकार कायम होने के साथ इसमें बड़ी तेजी आई।

समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय सचिव अनुराग मोदी ने कहा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरोद्वारा जारी के आंकड़े यह बताते हैं कि, 2013 में देश की जेलों में नजरबंद कैदियों में मुस्लिम, दलित और आदिवासियों का प्रतिशत 67 है – 20% मुस्लिम; 31% दलित; 16% आदिवासी; वहीं देश की कुल आबादी में इनका प्रतिश्त मात्र 38.73 है। इन कैदियों में से 81% गुजरात और तमिलनाडु की जेलों में नजरबन्द है। जबकि गुजरात में इस वर्ग की हिस्सेदारी राष्ट्रीय अनुपात में 14% है तो तमिलनाडु की 11%। गुजरात में बंद कुल नज़रबंद में से 66% नजरबंद इस वर्ग से है, तो तमिलनाड में 72। जबकि राज्य की जनसँख्या के अनुपात में गुजरात में इस वर्ग की कुल जनसँख्या 31 प्रतिशत है, तो तमिलनाड में 27। कमाल की बात यह है कि, नक्सल प्रभावित छतीसगढ़ में कुल मिलाकर सिर्फ एक और झारखंड में कुल 10 नजरबंद थे, तो आतंकवाद प्रभावित जम्मू और काश्मीर में 72। यही नहीं, देश भर की जेल से रिहा 5826 कुल नज़रबन्दों में से 76% गुजरात (2209) और तमिलनाड (2211) जेलों में नजरबंद थे – प्रत्येक राज्य में 38%। यह आंकड़े जाति और धर्मवार नहीं है , लेकिन उपर दिए आंकड़े यह दर्शाते है कि इन रिहा कैदियों में भी मुस्लिम, दलित और आदिवासियों का प्रतिशत अमूमन वहीं होगा।

श्री मोदी ने कहा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की वेब साईट पर जेल में बंद विभिन्न श्रेणियों के कैदियों के आंकड़ें 1995 से उपलब्ध हैं| गुजरात दंगों में मुस्लिम, दलित और आदिवासी समुदायों का एक दूसरे के खिलाफ जमकर उपयोग हुआ था, इसलिए इन आंकड़ों का विश्लेषण यह बता सकता है कि किस तरह गुजरात में 2002 में हुए दंगों के पहले से ही- 1998 में भाजपा सरकार आने के साथ ही - प्रतिबंधात्मक धाराओं में में मुस्लिम, दलित और आदिवासियों को नजरबंद करने का सिलसिला जोर पकड़ गया था; जो आज तक जारी है। इसमें जहाँ गुजरात में 1995 एवं 1996 में कोई नजरबंद नहीं बताए गए हैं, वहीं 1997 में पहली बार 267 नजरबंद थे जो 1998 में दुगने होकर लगातर बढ़ते रहे और गुजरात में 1998 में 30% कैदी इस वर्ग के थे, जो 2002 में 68 पर पहुंचकर 2013 में भी 66 पर कायम है। तमिलनाड हमेशा से मुस्लिम, दलित और आदिवासीयों को नजरबंद करने के मामले में आगे रहा है: 1998 में प्रतिश्त 86 था; जो 2006 में बढकर 98 तक गया और 2013 में थोडा गिरकर 72 जरुर हो गया है। उन्होंने कहा तमिलनाडु में इन समुदायों के प्रति अति भेदभावपूर्ण है, इस बात में कोई शक नहीं है, लेकिन इस रवैये में किसी सरकार विशेष के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ा।

रायपुर में नये बीरबल की खोज

अकबर के साथ किसी एक आदमी का नाम जुड़ा है तो वह बीरबल है। उन्हीं के किस्से- कहानी लोक में मशहूर हैं। बीरबल न होता तो अकबर का कोई नामलेवा न होता। लोग तो अकबर से ज्यादा अक्लमंद बीरबल को मानते हैं। पता नहीं ये बीरबल उस जमाने चाय पीता था क्या ? जो हर समय उसे नई –नई तरकीबें सूझती रहती थीं।

भारत एक खोज की तर्ज पर आजकल बीरबल की खोज जारी है। जैसे चुनाव में जीत की गारंटी के लिए बाहुबली की तलाश हर दल के नेताओं को रहती है ,उसी तरह हर नेता अपने साथ एक बीरबल भी रखता है ,जिसका काम नेताजी की छवि को हर तरह से चमकाना होता है। एक तरह से यह बीरबल राजा और प्रजा के बीच सौहार्द और सम्बन्ध कायम करने का विश्वसनीय माध्यम होता है। राजतन्त्र में यह काम अक्सर अक्लमंद ,हंसोड़ विदूषकों के जिम्मे होता था। कई बार जब राजा उनके इशारों को समझ नहीं पाता था तो उन्हें आँखों में अंगुली डालकर समझाना पड़ता था। नबावी दौर में भी यह काम जारी रहा।

अंग्रेजों ने अपने इन वफादार बीरबलों को बड़ी –बड़ी जायदाद और इनाम –इकराम बख्शे थे। रायबहादुर –रायसाहब जैसे ख़िताब इन्हीं जैसों के लिए थे। आजादी की लड़ाई में यह काम कवियों और शायरों ने किया था। इसीलिए गांधीजी इन्हें बड़ी इज्जत देते थे। गुरुदेव और राष्ट्रकवि जैसी उपाधि तक उन्हें हासिल थी।

चाचा नेहरू जरा नजाकत –नफासत पसंद थे। बीरबलों की उन्हें जरूरत नहीं थी लेकिन राष्ट्रवादी एक- दो कवि उन्होंने भी पाल रखे थे। चीन युद्ध में इनका वीररस किसी काम नहीं आया था और देश की गरीब, साधनहीन सेना पिट गयी थी। तब बीरबल की जगह मेनन को बलि का बकरा बनना पड़ा था।

उसके बाद अनेक बीरबल हुए हैं जिनका नाम जनता जानती है ,इसलिए बताने की जरूरत नहीं। उनमें कई तो वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। आजकल की भाषा में चुनाव में जमानत जब्त हो जाना ही वीरगति को प्राप्त होना है। इसीलिए हर झंगा –पतंगा शहीद कहलवाना पसंद करता है। कई तो खुद ही अंगुली में आलपिन चुभाकर शहीद हो जाते हैं।

तो किस्सा –कोताह यह कि देश को नये बीरबल की जरूरत है। जो लोग खुद को इस पद के योग्य समझते हों आवेदन करें। वेतन ,बंगला। ..वगैरह योग्यतानुसार \

नोट-रायपुर महोत्सव में एक बार भाग ले चुके साहित्यकार कृपया दोबारा न आयें

About The Author
मूलचन्द्र गौतम, 
लेखक प्रख्यात आलोचक हैं।
 साहित्यिक पत्रिका “परिवेश” के संपादक हैं।

जो करेगा, सो भरेगा, तू काहे होत उदास

पीके फिल्म
 डा. अरविन्द कुमार सिंह

इस लेख को लिखने के पूर्व, मैं इस बात की उद्घोषणा करना जरूरी समझता हूॅ कि मैने पीके फिल्म देखी है। ऐसा इस लिये की लेख के बीच में आपके जेहन में ऐसा सवाल उठ सकता है। ठीक उस टीवी एंकर की तरह जिसके पास जब कोई सवाल नही बचता तो यही सवाल उसका सबसे किमती सवाल होता है। लेख प्रारम्भ करने के पूर्वएक छोटी घटना -
एक मुहल्ले में एक व्यक्ति ने एक बच्चे को एक फूल देकर कहा – यदि तुम यह फूल उस सामने वाली लडकी को ले जाकर दे दोगे तो मैं तुम्हे सौ रूपये दूॅगा।
इस घटनाक्रम से कुछ सवाल पैदा होते है -

क्या किसी लडकी को फूल देना गलत है?
क्या इस घटनाक्रम में छोटा लडका गलत है?
जिसने फूल भिजवाया क्या वह गलत है?
इन प्रश्नो का उत्तर देते हुये मैं लेख को आगे बढाउगा।

किसी को फूल देना गलत नही है, फूल देने के पीछे छिपी नियत ज्यादा महत्वपूर्ण है।
छोटा लडका गलत नही है। यदि वह फूल देने के पीछे छिपी नियत को यदि नही समझ पा रहा है तो।
जी हाॅ, वह गलत है। उसकी नियत गलत है। यदि उसकी नियत गलत नही थी तो उसने स्वंय क्यो नही फूल खुद उस लडकी को जाकर दिया।
कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे है फिल्म पीके पर। सबसे पहले हम उन प्रश्नो को जान ले जो इस फिल्म के बाबत आज चर्चा के मध्य में है। या दूसरे अर्थो में पहले यह समझ ले कि क्यो विरोध हो रहा है पीके फिल्म का।

धार्मिक अन्धविश्वास या पाखण्ड पर चोट है इस कारण?
अधिकांश हिस्सा हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास पर चोट है इस कारण?
ईश्वर के वजूद पर सवाल उठाया गया है इस कारण?
देवी देवताओ का उपहास उडाया गया है इस कारण?
मुस्लीम या ईसाइ धर्म के अन्धविश्वासो को फिल्म में विस्तार न देने के कारण?
फिल्म का उद्देश्य क्या है – मनोरंजन ? समाजसुधार या पैसा कमाना?
एक एक बिन्दुओ की चर्चा करते है बिन्दुवार -

धार्मिक अन्धविश्वास और पाखण्ड पर चोट पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी। संत कबीर और राजा राम मोहन राय उन व्यक्तियों के जामात में खडे है जिन्होने अन्धविश्वास और पाखण्ड पर जमकर चोट की। कबीर से बडा समाजसुधारक और हिम्मतवर व्यक्ति खोजना मुश्किल है। हम कबीर के नियत पर शक नही कर सकते । क्योकि कबीर की खुद की जिन्दगी पाखण्ड से कोसो दूर थी। अतः इस आधार पर फिल्म का विरोध कही से उचीत नही है। लेकिन इस बिन्दू पर क्या फिल्म निर्माता या आमिर खुद को पाते है? उनकी खुद की जिन्दगी क्या अन्धविश्वास या पाखण्ड से दूर है? यदि है तो पहला पत्थर उन्हे मारने का हक है। वरना पहला पत्थर वो मारे जो गुनहगार नही।
इस पूरी फिल्म का ज्यादातर फुटेज हिन्दु अन्धविश्वास पर चोट है। क्यो? क्या मुस्लीम अन्धविश्वासपर चोट करने पर फिल्म नही चलती इसका डर था? अगर इसाई धर्म के अन्धविश्वास को फिल्म के केन्द्रिय भाग में रखा जाता तो फिल्म के न चलने का या भारी विरोध की आशंका थी? आने वाले वक्त में क्या निर्माता इसाई या मुस्लीम धर्म के अन्धविश्वासो पर चोट करती फिल्म देश को देगें? और आमिर खाॅन उसमें एक कलाकार के तौर पर काम करेगें? यदि नहीं तो क्यो? इस आधार पर यदि फिल्म का विरोध है तो यह विल्कुल उचीत है। मनोरंजन की विषयवस्तु किसी व्यक्ति की धार्मिक आस्था नहीं हो सकती। आमिर या राजकुमार हिरानी उस छोटे बच्चे की भूमिका में नही है कि जिसे लडकी को फूल देने का अर्थ नही पता है।
इस फिल्म में एक जगह संवाद है – जो डरता है वो ईश्वर की पूजा करता है। आस्था डर नही श्रद्धा की विषयवस्तु है। आमिर 2012 में हज यात्रा पर गये थे। उन्हे स्पष्ट करना चाहिये, यह डर था या श्रद्धा?
फिल्म में शंकर भगवान का एक कलाकार के माध्यम से जो उपहास उडाया गया है। क्या यह भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी है? या भारतीय लोकतंत्र की सुविधा? यदि सुविधा है तो फिर इस सुविधा का फायदा मुस्लीम या अन्य धर्मो के लिये क्यो नही?
मुस्लीम या इसाई धर्म के अन्धविश्वासो पर चोट करती हुयी कोई फिल्म निर्माता क्यो नही बनाता? इस विषय पर किसी टीवी चैनल पर बहस क्यों नही? शायद इस लिये नही कि ये धर्म विरोध का माद्दा रखते है? या इन धर्मो में मनोरंजन का तत्व नही? या भारत में ये संगठित है, विरोध करने की क्षमता रखते है? हिन्दु समाज का संगठित न होना क्या उसके उपहास का कारण है? यह जुमला आखिर कबतक रटा जायेगा कि थोडे से उपहास करने से क्या हिन्दू समाज इतना कमजोर है कि वह टूट जायेगा? भारतीय लोकतंत्र की आड में किसी समाज से ऐसे मजाक की छूट क्यो?
कोई भी चीज बिना उद्देश्य की नही होती। आखिर इस फिल्म का उद्देश्य क्या है? मनोरंजन? समाजसुधार या पैसा कमाना? याद रखे किसी की धार्मिक आस्था मनोरंजन की विषयवस्तु नही होती। समाजसुधार, अपनी तिजोरी भरने का माध्यम नही होता? गाॅधी, कबीर या राजा राम मोहन राय ने समाजसुधार के माध्यम से अपनी तिजोरियाॅ नही भरी।
कितना हास्यास्पद है फिल्म निर्माता राजकुमार हिरानी कहते है हमने गाॅधी और कबीर के सिद्धांतो पर फिल्म बनायी है। क्या सिर्फ पैसा कमाने के लिये? यदि ऐसा है तो एक कलाकार का सच से यह एक अवैध गठबन्धन है। राग नम्बर है फिल्म के डायलाग के अनुसार। यदि पैसा कमाना इस फिल्म का उद्देश्य है तो यह गिरावट की निम्न सीमा है, जहाॅ अब कोई विषय पैसा कमाने के लिये नही मिल रहा है। चूकि राजकुमार हिरानी जी ने कबीर को याद किया है अतः कबीर के माध्यम से इस लेख का समापन करना चाहूॅगा -

कहते है कबीर बहुत परेशान रहा करते थे। कारण उनके घर के पास एक कसाई रहा करता था। कबीर जब भी शाम को घर वापस आते थे कसाई को देखकर उन्हे बहुत दुख होता था। वे सोचते थे, मैं दिन भर अच्छी बाते करता हूॅ और यह दिन भर बकरा काटता है। कहते है एक दिन कबीर को इलहाम हुआ। इलहाम का अर्थ, जिन प्रश्नो का उत्तर हम अपने बौद्धिक क्षमता से प्राप्त नही कर पाते है, उनका उत्तर हमे उस चेतन सत्ता से प्राप्त होता है। इसे हम इलहाम की संज्ञा देते है। कबीर ने उस इलहाम को शब्दो में व्यक्त किया।

कबीरा तेरी झोपडी, गलकटियन के पास । हे कबीर तेरी झोपडी गला काटने वाले के पास है। तू , न तो यह वातावरण बदल सकता और न ही यह परिस्थिति। अतः यह याद रख -

कबीरा तेेरी झोपडी, गलकटियन के पास ।
जो करेगा, सो भरेगा, तू काहे होत उदास।।

और याद रख, यदि तू गलत करेगा तो तू भी भरेगा। ईश्वरिय सत्ता की अनुभूति, स्व अनुभूति की बात है। सारी जिन्दगी दूसरो को ढूढने वाला यदि नही ढूढ पाता है तो सिर्फ अपने आप को। जिस दिन अपने को ढूढ लेगा उस दिन किसी और की आवश्यकता नही।