रविवार, 16 नवंबर 2014

….जहाँ सभ्यता नंगी खड़ी है

कतरा-कतरा आबरू

भंवर मेघवंशी
 ‘‘दोपहर होते-होते नीचे हथाई पर पंच और गाँव के मर्द लोग इकट्ठा होने लगे। उनकी आक्रोशित आवाजें ऊपर मेरे कमरे तक पहुँच रही थी, सबक सिखाने की बातें हो रही थी। आज सुबह से ही हमारे परिवार को हत्यारा समझकर गाँव से भाग जाने की अफवाह जान-बूझकर फैला दी गयी थी, जबकि हम निकटवर्ती नाथेला उप स्वास्थ्य केन्द्र पर अपनी गर्भवती बेटी लीला को प्रसव पीड़ा उठने पर नर्स के पास लेकर गये थे। जब अफवाहों की खबर हमें लगी तो बेटी को वहीं छोड़कर घर लौटे। तब तक 50-60 लोग आ चुके थे। धीरे-धीरे और लोग भी आ रहे थे। हम अपने घर में ही थे। नीचे आवाजें तेज होने लगी। ‘बुलाओ नीचे’ की एक साथ कई आवाजें। तब धड़धड़ाते हुए कई नौजवान मर्द सीढि़याँ चढ़कर मेरे घर में घुस आए। पहले मुझे चोटी से पकड़ा, फिर पाँवों की ओर से पकड़कर घसीटते हुए नीचे ले गये, जहाँ पर सैंकड़ों पंच, ग्रामीण अन्य तमाशबीन खड़े थे। मैं सोच रही थी ये मर्द भी अजीब होते हैं, कभी ‘कालीमाई’ कहकर पाँव पड़ते है तो कभी ‘कलमुँही’ कहकर पैर पकड़ कर घसीटते है। मर्द कभी औरत को महज इंसान के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। उसे या तो पूजनीय देवी बना देते है या दासी, या तो अतिमानवीय मान कर सिर पर बिठाल देते हैं या अमानवीय बनाकर पाँव की जूती समझते हैं।
वे मुझे घसीटकर नीचे हथाई पर ले आए। उन्होंने मेरे दोनों हाथों में तीन-तीन ईंटें रखी और सिर पर भारी वजन का पत्थर रख दिया। मेरा सिर बोझ सहने की स्थिति में नहीं था। पत्थर नीचे गिर पड़ा, हाथों में भी दर्द हो रहा था, उन्होंने मेरी कोहनियों में लकड़ी के वार किए, वे मुझसे पूछ रहे थे- सच बता। मैं क्या सच बताती? जाने कौन सा सच वे जानना चाहते थे। मैंने कहा-‘‘म्है नहीं जाणूं (मैं नहीं जानती), म्हूं कठऊं कहूँ (मैं कहाँ से कहूँ)।’’
एक अकेली औरत और वह भी हत्या जैसे संगीन आरोप के शक में पंचों की आसान शिकार बनी हुई, अगर निर्भीकता से बोले तो पुरुषों का संसार चुनौती महसूस करने लगता है। लोगों को उसका निडर होकर बोलना पसंद नहीं आया। आखिर तो वह अभी तक औरत ही थी ना। क्या वह अरावली की इन पहाड़ियों के बीच बसे इलाके के प्राचीन कायदों को नहीं जानती थी? क्या वह भूल गयी थी, पिछले ही साल तो राजस्थान के राजसमंद जिले के इसी चारभुजा थाना क्षेत्र में बुरे चाल-चलन के सवाल पर एक बाप ने अपनी ही बेटी का सर तलवार से कलम कर डाला था और फिर लहू झरते उस सिर को बालों से पकड़े, बाप उसे थाने में लेकर पहुँच गया था।
इज्जत के नाम पर, ऐसा तालिबानी कृत्य करते हुए यहाँ के मर्द तनिक भी नहीं झिझकते हैं तो भी इसकी यह बिसात, अरे यह तो सिर्फ औरत जात है यहाँ तो किसी मर्द पर भी हत्या का शक मात्र हो जाए तो उसे गधे पर बिठाकर घुमाते है पंच। फिर यह औरत है ही क्या?
बस फिर देर किस बात की थी। इस छिनाल को नंगा करो…। एक साथ सैकड़ों आवाजें! एक महिला को निर्वस्त्र देखने को लपलपाती आँखों वाले कथित सभ्य मर्द चिल्ला पड़े। ‘उसे नंगा करो।’ उसके कपड़े जबरन उतार लिए गये। वह जो आज तक रिवाजों से, कायदों से, संस्कृति और कथित संस्कारों के वशीभूत हुई मुँह से घूँघट तक नहीं उघाड़ती थी। आज उसकी इज्जत तार-तार हो रही थी, इस बीच 2 नवम्बर 2014 को आत्महत्या करने वाले वरदी सिंह की बेवा सुंदर बाई चप्पलों से उसे मारने लगी। एक महिला पर दूसरी महिला का प्रहार, मर्द आनंद ले रहे थे।
जमाने भर की नफरत की शिकार अपनी पत्नी की हालत उसके पति उदयसिंह से देखी नहीं गयी। वह अपने बेटों पृथ्वी और भैरों के साथ बचाव के लिए आगे आया। उसके दुस्साहस को जाति पंचायत ने बर्दाश्त नहीं किया। सब उस पर टूट पड़े। मार-मार कर अधमरा कर डाला तीनों बाप-बेटों को और उनको उनके ही घर में बंद कर दिया गया। ‘‘अब तुझे कौन बचाएगा छिनाल। बोल, अब भी वक्त है, सच बोल जा, तेरी जान बख्श देंगे। स्वीकार कर ले कि तेने ही मारा है वरदी सिंह को, तू उसकी बेवा सुंदर को नाते देना चाहती है, तेरा कोई स्वार्थ जरूर है, तूने ही मारा है उसे।’’
पीड़िता ने मन ही मन सोचा, यह कैसा गाँव है, अभी जिस दिन वरदी सिंह ने आत्महत्या की तो पुलिस को इत्तला देने की बात आई थीं तब सारा गाँव एकजुट हो गया कि पुलिस को बताने की कोई जरूरत नहीं है। फिर बिना एफआईआर करवाए, बिना पोस्टमार्टम करवाए ही चुपचाप मृतक वरदी सिंह की लाश को इन्हीं लोगों ने जला दिया था तथा उसकी आत्महत्या को सामान्य मौत बना डाला था… और आज उसकी हत्या का आरोप उस पर लगाकर उसकी जान के दुश्मन बन गये हैं।
‘‘अच्छा… ये ऐसे नहीं बोलेगी। इसके मुँह पर कालिख पोतो, बाल काटो इस रण्… के! और गधे पर बिठाओ कलमुँही को।’’ जाति पंचायत का फरमान जारी हुआ। फिर यह सब अकल्पनीय घटा- शर्म के मारे नग्न अवस्था में गठरी सी बनी हुई पीड़िता का काला मुँह किया गयाबाल काटे गयेजूतों की माला पहनाई गयी और गधे पर बिठा कर उसे पूरे गाँव में घुमाया गया। इतना ही नहीं उसे 2 किलोमीटर दूर स्थित थुरावड़ के मुख्य चौराहे तक ले गये। यह कथा पौराणिक नहीं है और ना ही सदियों पुरानी। यह घटना 9 नवम्बर 2014 को घटी।
पीड़िता रो रही थी, मदद के लिए चिल्ला रही थी, उसके आँसू चेहरे पर पुती कालिख में छिप गये थे और रुदन मर्दों के ठहाकों में। औरतें भी देख रही थी, वे भी मदद के लिए आगे नहीं आई। थुरावड़ चौराहे पर तो एक औरत ने उसके सिर पर किसी ठोस वस्तु का वार भी किया था। पढ़े-लिखे, अनपढ़, नौजवान, प्रौढ़, बुजुर्ग तमाम मर्द इंसान नहीं हैवान बन गये थे। लगभग पाँच घंटे तक हैवानियत और दरिंदगी का एक खौफनाक खेल खेला गया मगर किसी की इंसानियत नहीं जागी। जो लोग इस शर्मनाक तमाशे में शरीक थे, उनके मोबाइल तो पंचों ने पहले ही रखवा लिए थे ताकि कोई फोटो या विडियो क्लिपिंग नहीं बनाई जा सके, मगर राहगीरों व थुरावड़ के लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया।
थुरावड़ पंचायत मुख्यालय है। वहाँ पर पटवारी, सचिव, प्रधानाध्यापक, आशा सहयोगिनी, रोजगार सहायक, सरपंच, वार्ड पंच, नर्स, कृषि पर्यवेक्षक इत्यादि सरकारी कर्मचारियों का अमला विराजता है। इनमें से भी किसी ने भी घटना के बारे में अपने उच्चाधिकारियों को सूचित नहीं किया और ना ही विरोध किया। वह अभागिन उत्पीड़ित होती रही। अपनी गरिमा, लाज, इज्जत के लिए रोती रही। चीखती-चिल्लाती, रोती-कलपती जब उसकी आंखें पथरा गयीं और निरंतर मार सहना उसके वश की बात नहीं रही तो वह गधे पर ही बेहोश होकर धरती पर गिरने लगी। मगर दरिंदे अभी उसको कहाँ छोड़ने वाले थे। वे उसे जीप में डालकर वापस उसके गाँव थाली का तालाब की ओर ले चले, रास्ते में जब होश आया तो फिर वही सवाल-‘सांच बोल, कुणी मारियो’ (सच बोल, किसने मारा)। उसने कहा ‘‘मेरा कोई दोष नहीं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैं क्या बोलूं।’’ तब उसकी फिर पिटाई की गयी, तभी अचानक रिछेड़ चौकी और चारभुजा थाना पुलिस की गाड़ियाँ वहाँ पहुँच गयी। बकौल पीड़िता-‘‘पुलिस उसके लिए भगवान बनकर आई, उन दरिंदों से पुलिस ने ही छुड़वाया वरना वे मुझे मार कर ही छोड़ते।’’
बाद में पुलिस पीड़िता, उसके पति व बच्चों सहित पूरे परिवार को चारभुजा थाने में ले गयी, ढाढ़स बंधाया और मामला दर्ज किया, उसे अस्पताल ले गये, डॉक्टरों को दिखाया, इलाज करवाया और रात में वहीं रखा।
अब पुलिस के सामने चुनौती थी, आरोपियों की गिरफ्तारी की। सुबह पुलिस ने गाँव में शिकंजा कसा, जो पंच मिले उन्हें पकड़ा और थाने में ले गयी। थाने तक पहुँचने तक भी इन पंचों को अपने किए पर कोई शर्मिन्दगी नहीं थी। वे कह रहे थे-‘‘इसमें क्या हो गया? वो औरत गलत है, उसने गलती की, जिसकी सजा दी गयी।’’ वे कानून-वानून पर भरोसा नहीं करते, अपने हाथों से तुरंत न्याय और फटाफट सजा देने में यकीन करते है। उनका मानना है कि- ‘‘हमने कुछ भी गलत नहीं किया, हम निर्दोष है।’’ यहाँ इसी प्रकार के पाषाणयुगीन न्याय किए जाते हैं, जो कि अक्सर औरतों तथा गरीबों व कमजारों के विरुद्ध होते हैं। यहाँ खाप पंचायत के पंचों का शासन है, वे कुछ भी कर सकते हैं, इसलिए यह शर्मनाक कृत्य उन्होंने बेधड़क किया।
पंचों को घटना की गंभीरता का अहसास ही तब हुआ, जब उन्हें शाम को घर के बजाय जेल जाना पड़ा और पिछले कई दिनों से करीब 30 लोग जेल में पड़े हैं, अब उन्हें अहसास हो रहा है कि – शायद उनसे कहीं कोई छोटी-मोटी गलती हो गयी है।
घटना के दूसरे दिन जिला कलक्टर राजसमंद कैलाश चंद्र वर्मा तथा पुलिस अधीक्षक श्वेता धनखड़ मौके पर पहुँचे, महिला आयोग की अध्यक्ष लाडकुमारी जैन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के प्रवक्ता फरहान हक एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन व स्कूल फॉर डेमोक्रेसी और महिला मंच के दलों ने भी पीड़िता से मुलाकात की है। मगर आश्चर्य की बात यह है कि इसी समुदाय के एक पूर्व जनप्रतिनिधि गणेश सिंह परमार यहाँ नहीं पहुँचेना कोई वार्ड पंच आया और ना ही सरपंचस्थानीय विधायक एवं पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह राठौड़ भी नहीं आएइसी जिले की कद्दावर नेता और सूबे की काबीना मंत्री किरण माहेश्वरी भी घटना के पांच दिन बाद आई और मुख्यमंत्री की ओर से राहत राशि देकर वापस चली गयीं।
गृहमंत्री हो अथवा मुख्यमंत्री किसी के पास इस पीड़िता के आंसू पोछने का वक्त नहीं है। कुछ मानवाधिकार संगठन, मीडिया और पुलिस के अलावा सबने इस शर्मनाक घटना से दूरी बना ली है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर तो आरोपियों को बचाने के प्रयास के आरोप भी लग रहे है, वहीं राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित इस कांड के विरूद्ध मुख्य विपक्षी दल ने तो बोलने की जहमत तक नहीं उठाई है।
जब मामला मीडिया के मार्फत थाली का तालाब गाँव से निकलकर देश, प्रदेश और विदेश तक पहुँचा और चारों ओर थू-थू होने लगी, तब राज्य की नौकरशाही चेती और पटवारी, स्थानीय थानेदार, नर्स, प्रधानाध्यापक, वार्ड पंच, उप सरपंच और सरपंच आदि को निलंबित किया। राशन डीलर तो इस जघन्य कांड में खुद ही शामिल हो गया था। उसका प्राधिकार पत्र खत्म करने की कार्यवाही भी अमल में लाई गयी है, मगर प्रश्न यह है कि सांप के निकल जाने पर ही लकीर क्यों पीटता है प्रशासन? क्या उसे नहीं मालूम कुंभलगढ़ का यह क्षेत्र महिला उत्पीड़न की नरकगाह हैयहाँ डायन’ बताकर कई औरतें मारी गयी हैं। हत्या, जादू-टोने के शक में महिलाओं पर अत्याचार आम बात है, आज भी इस इलाके में जाति के नाम पर खौफनाक खाप पंचायतों के तालिबानी फरमान लागू होते है, सरकारी धन से बने सार्वजनिक चबूतरों पर बैठकर खाप पंच औरतों तथा गाँव के कमजोर वर्गों के विरुद्ध खुले आम फैसले करते है, सही ही कहा था संविधान निर्माता अंबेडकर ने कि गाँव अन्याय, अत्याचार तथा भेदभाव के मलकुण्ड है।
सबसे ज्वलंत सवाल अभी भी पीड़िता व उसके परिवार की सुरक्षा का है, उसके पुनर्वास तथा इलाज का है। न्याय देने और उसे क्षतिपूर्ति देने का है। सरकार से किसी प्रकार की मदद के सवाल पर पीड़िता ने कहा-‘‘ पुलिस ने मुझे बचाकर मदद की है, बाकी मेरे हाथों की पाँचों अंगुलियाँ सलामत है तो मैं मेहनत मजदूरी करके जी लूँगी।’’
मुझे पीड़ितों की इस बात को सुनकर पंजाब के संघर्षशील दलित कवि और गायक कामरेड बंत सिंह की याद हो आईजिनको अपनी बेटी के साथ दबंगों द्वारा किए गये बलात्कार का विरोध करने की सजा उनके हाथ-पाँव काट कर दी गयी। जब बंत सिंह होश में आए तब उन्होंने कहा-‘‘जालिमों ने भले ही मेरे दोनों हाथ व दोनों पाँव काट डाले है मगर मेरी जबान अभी भी सलामत है और मैं अत्याचार के खिलाफ बोलूँगा।’’
सही है, इस पीड़िता ने भी अपनी अंगुलियों की सलामती और बाजुओं की ताकत पर भरोसा किया है तथा उसे लगता है कि उसकी अंगुलियाँ सलामत है तो वह संघर्ष करते हुए मेहनत-मजूरी से जीवन जी लेगी।पीड़िता की तो अंगुलियाँ सलामत है मगर हमारे इस पितृसत्तात्मक घटिया समाज का क्या सलामत है, जो उसे जिंदा रखेगा? पीड़िता के पास तो अपना सच है और पीड़ा की यादें है, ये यादें उसके जीने के संघर्ष का मकसद बनेगी, मगर हम निरे मृतप्रायः लोगों के पास अब क्या है जो सलामत है ? अगर अब भी हम सड़कों पर नहीं उतरते हैं, अन्याय और अत्याचार की खिलाफत नहीं करते है तो हमारा कुछ भी सलामत नहीं है। हम पर लाख-लाख लानतें और करोड़ों-करोड़ धिक्कार!

About The Author

भंवर मेघवंशी, 
लेखक राजस्थान में कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।

लापता पिता की खोज में एक कैमरा तोपची का करिश्मा

पलाश विश्वास
मैंने लिखा है कि दस साल पहले एक दिन अचानक हमारे मित्र  कमल जोशी के कोटद्वार के घर से उनके पिता गायब हो गये। फिर वे लौटकर घर आये नहीं। हिमालय के उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों में कही हमेशा के लिए खो गये विस्मृति के शिकार पिता और कमल की एक अनंत यात्रा जारी है उस खोये हुए पिता की तलाश में जो दरअसल उसकी फोटोग्राफी है।
कमल हो सकता है कि ऐसा न सोचता हो, लेकिन मेरा मानना यही है। उसकी यायावर जीवन यात्रा को मैं इसी तरह देखता हूँ जिसमें उनके पिता, मेरे पिता और सुंदरलाल बहुगुणा एकाकार हो गये हैं। इसमें एकाकर हैं इसे देश के सारे जनपद और हर वह आदमी और औरत जिसकी धड़कनें प्रकृति और पर्यावरण में रची बसी हों।
नई पीढ़ी के लोग जिनके लिए पिता एक अमूर्त पहेली हो, उनके लिए यह वक्तव्य समझ में भले न आये, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए समझना उतना मुश्किल भी नहीं, अगर पिता की कोई तस्वीर उनकी आंखों में बसती हो जो मुक्त बाजार में बेदखल हैं जैसी हमारी नई पीढ़ियाँ और हमारे पुरखों की सारी विरासत और यह सारी कायनात।
मुझे फोटोग्राफी आती नहीं है और बेहद खूबसूरत अंतरंग पलों को हमेशा के लिए खो देने का अपराधी भी मैं हूँ। जैसे इस बार सुंदरलाल बहुगुणा जी की कोई तस्वीर मैं न निकाल सका और न उनसे हुई बातचीत रिकॉर्ड कर सका। यह जो आलाप प्रलाप का सिलसिला है, वह दरअसल उन खोये हुए पलो को जीने का अभ्यास ही है।
कमल की तस्वीरें देखते हुए मैं खूबसूरती और फोकस के सौंदर्यबोध से मंत्रमुग्ध होता हूँ लेकिन बारीकियाँ समझ नहीं पाता। जैसे चित्रकला के बारे में या संगीत के बारे में मैं निरा गधा हूँ।
वैसे भाषा, विधाओं, माध्यमों, साहित्य,  संस्कृति के संदर्भ में जिनमें मेरी रुचि ज्यादा है, जिन्हें साधने में मैंने पूरी की पूरी एक जिंदगी बिना मोल खर्च कर दी है, मेरा गधापन कितना कम बेशी है, उसका भी मुझे कोई अंदाजा नहीं है।
कमल के हर फ्रेम में मुझे एक तड़प महसूस होती हैजो सत्यजीत रे के कैमरे में महसूस नहीं करता,लेकिन ऋत्विक घटक की हर फिल्म के फ्रेम दर फ्रेम महसूस करता हूँ।
फ्रेम दर फ्रेम जिंदगी से लबालब यह कला है, जिसे मैं विश्लेषित तो कर नहीं सकता, लेकिन महसूस कर सकता हूँ। जैस कत्थक का तोड़।
जैसे संगीत को कोई पाथर यकीनन नहीं समझ सकता, लेकिन सारी कायनात संगीतबद्ध है और सुर ताल लय में छंदबद्ध है मसलन जैसे दिन रात, धूप छांव, पहाड़ समुंदर अरण्य और रेगिस्तान, रण,  तमाम नदियाँ और जलस्रोत तमाम, जलवायु, मौसम, सूर्योदय सूर्यास्त, वगैरह वगैरह। संगीत प्रेमी होने के लिए सुर ताल लय की विशेषज्ञता लता मंगेशकर, गिरिजा देवी, कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी की तरह हो, ऐसा भी नहीं है।
कमल की खींची तस्वीरें और उसकी अथक यायावरी को देखकर मुझे पता नहीं हर वक्त क्यों लगता है लगता है कि प्यासी लेंस एक पिता की खोज में है और उस खोज में इस पृथ्वी और पर्यावरण की भारी चिंता है। सरोकार भी है। दृष्टि तो है ही।
उसकी यायावरी से तो कभी कभी उसके चेहरे पर मेरे पिता का चेहरा भी चस्पां हो जाता है, लेकिन मेरे पिता कमल की तरह इतने खूबसूरत कभी न थे। लेकिन मेरे पिता और उसके लापता पिता हर बिंदु पर जब एकाकार हो जाते हैं।
इसलिए इस महाविध्वंस के मध्य अब भी मुझे लगता है कि इस कायनात में नवनाजी महाविनाश के कारपोरेट उपक्रमों के बावजूद अभी मनुष्यता बची रहनी है जब तक कि हमारे रगों में खून बहना है और दिलों में धड़कनों का होना है
मैं कमल के कैमरे को गिरदा के मशहूर हुड़के से जोड़कर देखता हूँ तो सारे हिमालय का भूगोल हमारे सामने होता है, जहाँ से कमल और हमारी दोनों की यात्रा शुरु होती है और खत्म भी वहीं होनी चाहिए। जिसके कितने आसार हैं, हैं भी नहीं, कह नहीं सकते।
 खासकर तब जब महानगर कोलकाता में बैठकर भी मैं उसी तरह भूस्खलन के मध्य हूँ जैसे हम पहाड़ों में होते हैं। पहाड़ जैसे खिसकते हैं, टूटते बगते गायब होते हैं, वैसे ही सारे महानगर, नगर और जनपद गायब होने को हैं। अनंत भूस्खलन है अनंत भूमिगत आग की तरह अनवरत, अविराम और हमें अहसास तलक नहीं।
जैसे सुंदर लाल बहुगुणा बार-बार कहते हैं कि कृषि केंद्रित भूमि इस्तेमाल के बदले कारपोरेट भूमि उपयोग उपाय मनुष्यता के सर्वनाश का चाक चौबंद इंतजाम है। यह विकास के नाम पर चप्पे चप्पे पर अंधाधुंध निर्माण विनर्माण, यह सर्वग्रासी हीरक चतुर्भुज मनुष्यता, सभ्यता, प्रकृति पर्यावरण मौसम और जलवायु के विरुद्ध है।
रोज इस महानगर कोलकाता के अंतःस्थल से तमाम जलस्रोतों के अपहरण और अनंत माफिया बिल्डर सिंडिकेट राज के तहत जमीन नीचे खिसक रही है।  जलस्तर सूख रहा है। रोज-रोज। पल-छिन पल-छिन। उत्सवों महोत्सवों कार्निवाल के मध्य।
रोज महानगर के सीने में राजमार्ग में जमील धंसने से सारा महामनगर स्तब्ध सा हो रहा है, लेकिन होश किसी को नहीं है।
सियालदह तक फैला मैंग्रोव फारेस्ट अब अभयारण्य में भी कब तक बचा रहेगा, कहना मुश्किल है क्योंकि कोलकाता और उपनगरों की क्या कहें नगरों, गांवो, कस्बों तक में विकास के नाम पर प्रोमोटरी की ऐसी गवर्नेंस है, जहाँ खेती सिरे से खत्म है और जमीन में पेयजल के अलावा किसी को किसी जलाशय, नदी, झील, पोखर की सेहत की कोई फिक्र ही नहीं है। न सेहत की परवाह है, न मनुष्यता की, न प्रकृति और पर्यावरण की।
यह फिक्र भी नहीं कि खरीदे जाने वाला मिनरल वाटर और शीतल पेय भी आखिर किसी न किसी जलस्रोत से निकलना है।
पहाड़ों में तो इंच दर इंच जमीन बेदखल है और कृषि कहीं है ही नहीं।
कारपोरेट कारोबार है।
कारपोरेट धर्म है।
कारपोरेट राजनीति है।
नतीजा फिर वही केदार जलप्रलय है।
नतीजा फिर वहीं भूंकप, बाढ़ और भूस्खलन है।
नतीजा फिर वही ग्लेशियरों का मरुस्थल बन जाना है।
खतरे की बात तो यह है कि ऐसा सिर्फ हिमालय में नहीं हो रहा है।
समुंदरों और बादलों में भी, पाताल में भी घनघोर जलसंकट के आसार है इस कारपोरेट केसरिया दुस्समय में जहाँ धर्म के नाम पर अधर्म ही राष्ट्रीयता का जनविरोधी,  प्रकृति विरोधी, पर्यावरण विरोधीआफसा है, सलवाजुड़ुम है, गृहयुद्ध है, आतंक के खिलाफ अमेरिका और इजरायल के साथ ग्लोबल हिंदुत्व का महायुद्ध है। जनविरुद्धे कुरुक्षेत्र है।
इसीलिए कमल जोशी जैसे कैमरातोपचियों की जरूरत है। ऐसे माध्यमों की जरुरत है जिनके जरिये हम विचारों, सपनों और विमर्श संवाद का सिलिसिला जारी रख सकें।
यही कमल जोशी होने का मतलब भी है।
हमारे जानेजिगर खासमखास दोस्त कमल जोशी का कैमरा कमाल पेश करते हुए भाई शिरीष अनुनाद ने क्या खूब लिखा हैः
तस्वीर खींचना तकनीकी कुशलता से ज़्यादा एक कलाकार मन का काम है – वह मन अपने जन पहचानता है,  अपनी प्रकृति जानता है,  उसे मालूम है कि दृश्य किस पल में सबसे ज़्यादा अर्थवान होगा – कब उसके आशय चमकेंगे।  मेरे लिए कोई भी कला अपने जन-सरोकारों में निवास करती है,  वही उसका उजाला होते हैं। फोटोग्राफी में बरसों से यह उजाला हमारे आसपास Kamal Joshi के रूप में मौजूद है – जब हम बच्चे थे तब से अब प्रौढ़ेपन की कगार पर खड़े होने तक कमल दा उसी ऊर्जा से हमारे साथ बने हुए हैं – हमें हमारा संसार दिखाते।  2008 मैं मैंने ख़ुद देखा है हिंदी के ज़िद भरे मद भरे अदबी चेहरों के बीच हाथ में कैमरा संभाले एक मनुष्य इस तरह हड़बड़ाता हुआ गुज़रता है कि उस बज़्म में उस क्षण मनुष्यता के नाम पर वही भर दिपता है।
वो जो दुनिया की हर कमीनगी को शर्मिन्दा करता अच्छाई और भोलेपन का महान आख्यान हैं आज भी – दिल उनके लिए सलामो-आदाब से हमेशा भरा है।

About The Author

पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

सिर्फ विचारों पर पहरा है | सपनों की हत्या सबसे जरूरी है

पलाश विश्वास
गूगल ने फिर मेरा एक एकाउंट डीएक्टीवेट कर दिया है।
मैंने रिइंस्टाल करने का आवेदन किया तो जवाब आया कि चूंकि आपने शर्तों का उल्लंघन किया है और हम ऐसी स्थिति में कभी भी किसी भी एकाउंट को खत्म कर सकते हैं, इस खाते को फिर खोला नहीं जा सकता।
मैंने फिर आवेदन किया कि अगर हमने शर्तों का उल्लंघन किया है तो कृपया आप हमें चेतावनी देते जैसा कानूनन किया जाता है। तब हम नहीं मानते तो आप बाशौक बंद कर देते हमारा खाता। हमारा सरोकार प्रकृति पर्यावरण और मनुष्यता से है। हम पेशेवर पत्रकार हैं कोई स्पैमर हैं नहीं। हम शुरु से गुगल के यूजर हैं और गूगल की महिमा से ही विश्वव्यापी मेरा नेटवर्क  है। और निवेदन किया कि फिर मेरा खाता चालू कर दिया जाये। इसका कोई जवाब नहीं आया।
मजबूरन मुझे कल रात एक और नया खाता खोलना पड़ा है।
ऐसा नहीं है कि हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों हो रहा है।
फेसबुक या ट्विटर पर फर्जी एकाउंट के मार्फते जो जबर्दस्त धर्मोन्माद, कारपोरेट ईटेलिंग,  पोर्नोग्राफी और नस्ली दुश्मनी फैलायी जा रहीं है, कानून उस पर कोई अंकुश नहीं लगाता। उसे बल्कि प्रोमोट किया जाता है रसीले अंदाज में। वीडियो बेरोकटोक।
डिजिटल देश के फ्री सेनस्कसी मुक्त बाजार में सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम, चुंबन और सहवास के अधिकार, रोटी, कपड़ा, रोजगार, सिंचाई, खाद्य सूचना, स्त्री मुक्ति, बचपन बचाओ, प्रकृति पर्यावरण बचाओ, जल जंगल बचाओ मुद्दों के बजाय खास मुद्दे हैं और मीडिया में उन्हीं की धमक गरज है।
हो न हो, गूगल एक प्लेटफार्म ऐसा है जहाँ विविध भाषाओं में विमर्श का, मुद्दों को संबोधित करने का और सारी दुनिया से संवाद का सबसे बेहतरीन इंतजाम है। 
बाकी भारतीय सर्वरों में तो संवाद का कोई इंतजाम है ही नहीं। याहू में तो अब मेलिंग भी असंभव है।
इसलिए हम गूगल के भरोसे हैं लेकिन उसे चुनिंदे खाते क्लोज करने के जो राजकीय आदेश भारत में कारोबार चलाने के लिए मानने होते हैं, उसके पीछे धर्मांध कारपोरेट वर्चस्ववाद है जो अभिव्यक्ति की आजादी देता नहीं है, छीनने का चाक चौबंद इतंजाम करता है। यही न्यूनतम राजकाज है। 
पोर्नोग्राफी मीडिया पेज का राजस्व है ईटेलिंग है और जो तेजी से जनांदोलन भी बनती जा रही है,मुक्तबाजारी संस्कृति तो वह है ही। अनंत बाजार है और सर्वशक्तिमान बाजार। बाकी सबकुछ नमित्तमात्र है। देश निमित्त है तो सरकारे, राजनीति भी निमित्तमात्र। निमित्तमात्र।
सिर्फ विचारों पर पहरा है।
कोई विचार वाइरल बनकर कारपोरेट राज की सेहत खराब न करेंइसकी फिक्र में सूचना प्रसारण और मानवसंसाधन मंत्रालय हैंभारत की सरकार है और अमेरिका की सरकार भी है।
सपनों पर पहरा है कि कोई सपना न देखें। सपनों की हत्या सबसे जरूरी है क्योंकि आखिरकार सपनों से भी जनमती है बदलाव की आग। पाश बहुत पहले लिख गये हैं, सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना।
हमारे न विचार हैं और न हमारे सपने हैं और न हमारी कोई स्मृति है और न हमारी कोई मातृभाषा है। हर हाथ में विकास कामसूत्र और हर कोई डिजिटल बायोमेट्रिक रोबोट नियंत्रित नागरिक।
पाठ से शायद हम ज्यादा दिनों तक शब्दों को जिंदा करने का खेल रच नहीं सकते। अब छपे हुए शब्दों से हम पूरी तरह बेदखल हो गये हैं और इलेक्ट्रानिक दुनिया तो बाजार के निमित्त, बाजार के लिॆए, बाजार द्वारा सर्वशक्तिमान सबसे बड़ा मुक्तबाजार है। बाकी जो इंटरनेट है, जो माइक्रोसाप्ट फ्री भी कर रहा है, जनता के पक्ष में उसके इस्तेमाल की इजाजत है नहीं। यही है हमारा डिजिटल देश महान केसरिया। 

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पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

सिख दंगा पीड़ितों को मुआवजा या भद्दा मजाक

-जाहिद खान

उन्नीस सौ चौरासी के सिख दंगा पीड़ितों को मुआवजा मामले में चुनाव आयोग ने गृह मंत्रालय के खिलाफ हाल ही में जो कड़ा रुख अपनाया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। आयोग, गृह मंत्रालय से इस कदर नाराज था कि उसने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसा आश्वासन दिया जाना चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं दोहरायी नहीं जाएंगी। चुनाव आयोग, गृह मंत्रालय की इस बात से खफा था कि दिल्ली में चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद उसने सिख दंगा पीड़ितों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा देने का ऐलान किया। यही नहीं आयोग ने जब नोटिस जारी कर सरकार से इस खबर पर स्पष्टीकरण देने को कहा, तब भी सरकार ने उसे गुमराह करने की कोशिश की। सरकार ने नोटिस के जवाब में गलतबयानी करते हुए कहा, मुआवजे के बारे में कोई निर्णय नहीं किया गया था। मुआवजे की बात, सिर्फ विचार के स्तर पर थी। इस संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया गया था। लिहाजा ये आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। यानी सरकार बड़े ही बेशर्मी से अपने ऐलान से साफ-साफ मुकर गई। उसे इस बात का जरा सा भी अफसोस नहीं हुआ कि वह जो झूठ बोल रही है, उससे दंगा पीड़ितों के जज्बात को कितना ठेस पहुंचेगी।

मोदी सरकार की नीयत पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि एक तरफ वह यह कह रही है कि मुआवजे के बारे में कोई निर्णय नहीं किया गया था, दूसरी ओर इस आशय की खबरें व्यापक रूप से समाचार पत्रों में प्रकाशित हुईं। न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इस तरह की खबरें लगातार छाई रहीं। टेलिविजन पर समाचार चैनल इस विषय पर परिचर्चाएं आयोजित करते रहे। इन परिचर्चाओं में बीजेपी प्रवक्ताओं ने अपनी सरकार की ‘दरियादिली’ का जमकर गुणगान किया। इसके अलावा दिल्ली की कई सड़कों और चौराहों पर इस तरह के होर्डिंग नजर आए, जिसमें दंगा पीडि़तों को मुआवजा दिए जाने के केन्द्र की बीजेपी सरकार के निर्णय की सराहना की गई थी। यह सब होता रहा और केंद्र सरकार ने न तो इन सब बातों का खंडन किया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया कि ये कोई ऐलान नहीं बल्कि महज एक प्रस्ताव है। जब इस मामले को विपक्ष, चुनाव आयोग के पास ले गया, तब जाकर सरकार अपने बचाव के लिए यह झूठा स्पष्टीकरण दे रही है। यदि चुनाव आयोग सख्त नहीं होता, तो वह उपचुनाव तक यह भ्रम बनाए रखती और दिल्ली के सिख मतदाता उसके झांसे में आ जाते। हालांकिदिल्ली विधानसभा भंग होने के चलते अब यह उपचुनाव रद्द कर दिए गए हैं, लेकिन फिर भी बीजेपी की इस हरकत को सही नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले में उसका रवैया बेहद शर्मनाक है। जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है।

उन्नीस सौ चौरासी के सिख विरोधी दंगे, भारतीय लोकतंत्र के माथे पर एक ऐसा दाग है, जो शायद ही कभी मिटे। इन वहशी दंगों में न सिर्फ सैंकड़ों सिखों ने देश में अपनी जान गंवाई, बल्कि हजारों सिखों के रोजगार और आशियाने उजड़ गए। दंगे का सबसे वीभत्स रूप राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में देखने को मिला। जहां अनेक सिखों को जिंदा जला दिया गया। उनकी दुकानें और प्रतिष्ठान लूट लिए गए। तीस साल का लंबा वक्फा हो गया, लेकिन दंगा पीडि़तों को आज तलक इंसाफ नहीं मिला है। इंसाफ के लिए आज भी वे दर-दर भटक रहे हैं। यदि बीजेपी सरकार के दिल में दंगा पीडि़तों के लिए जरा सा भी दर्द था, तो केन्द्र की सत्ता संभालते ही उसे दंगा पीडि़तों से सबसे पहले यह वादा करना चाहिए था कि वह उन्हें हर हाल में इंसाफ दिलवाएगी। लेकिन इस तरह का कोई ठोस वादा न करके, उसने दंगा पीडि़तों को मुआवजे का झूठा आश्वासन दिया। मुआवजे के नाम पर उनके साथ भद्दा मजाक किया। साम्प्रदायिक दंगों जैसे संवेदनशील और गंभीर मामले में भी वह राजनीति करने से नहीं चूकी।

सिख दंगा पीडि़तों के प्रति बीजेपी वास्तव में कितना संजीदा रही है, यह बात उन्नीस सौ चौरासी के भीषण दंगों के समय उसकी भूमिका को देखने से मालूम चलती है। नानाजी देशमुख जो आरएसएस के एक प्रमुख चिंतक, विचारक और नीति निर्देशक माने जाते हैं, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ दिन बाद, देश के प्रमुख राजनेताओं के बीच एक दस्तावेज बांटा था। यह दस्तावेज जार्ज फर्नांडीस द्वारा सम्पादित हिंदी साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के 25 नवम्बर 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस दस्तावेज के अध्ययन से यह बात मालूम चलती है कि आरएसएस और बीजेपी, सिखों की कितनी बड़ी खैरख्वाह है। दस्तावेज के मुताबिक सिखों का जनसंहार किसी ग्रुप या समाजविरोधी तत्वों का काम नहीं था, बल्कि वह क्रोध एवं रोष की सच्ची भावना का परिणाम था। सिखों ने स्वयं इन हमलों का न्यौता दिया। यही नहीं नानाजी देशमुख ने अपने इस दस्तावेज में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ को महिमामंडित किया और किसी तरह के उसके विरोध को राष्ट्रविरोधी बतलाया। दस्तावेज में सिखों को वे आगे यह सलाह भी देते हैं कि उन्हें अपनी आत्मरक्षा में कुछ भी नहीं करना चाहिए, बल्कि हत्यारी भीड़ के खिलाफ धैर्य एवं सहिष्णुता दिखानी चाहिए।

सबसे हैरानी की बात यह है कि इस दस्तावेज में केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार से सिख समुदाय के खिलाफ हिंसा को नियंत्रित करने के उपायों की मांग करते हुए एक भी वाक्य नहीं लिखा गया है। यह बात भी बतलानी लाजिमी होगी कि नानाजी देशमुख ने यह दस्तावेज 8 नवम्बर 1984 को प्रसारित किया। और यह वह भयानक दौर था, जब 31 अक्टूबर से 8 नवम्बर के बीच सिखों की अधिकतम हत्याएं हुईं। नानाजी देशमुख के दस्तावेज में न तो बेकसूर सिखों की हत्याओं के प्रति चिंता दिखाई देती है और न ही उन्हें बचाने के लिए कोई प्रयास। जबकि आरएसएस अपने आप को एक बड़ा सामाजिक संगठन बताते नहीं थकता। दस्तावेज में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा सिखों को बचाने का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता। कुल मिलाकर इस पूरे दस्तावेज में नानाजी देशमुख ने बड़ी ही धूर्तता से सिख समुदाय के जनसंहार को उचित ठहराया है। जाहिर है जो लोग आरएसएस और बीजेपी की सियासत को अच्छी तरह से जानते हैं, उन्हें मालूम है कि अल्पसंख्यकों के प्रति उनका क्या रवैया है ? वह लाख अपने आप को हिंदू-सिख एकता का पैरवीकार बतलाएं, लेकिन उनका असली चेहरा कुछ और है ? दंगा पीडि़त मुआवजा मामले में बीजेपी सरकार के हालिया रुख ने एक बार फिर इस बात की तस्दीक की है कि वह दंगा पीडि़तों के दुःख-दर्द के प्रति कतई संजीदा नहीं। सिख दंगा पीडि़तों के खैरख्वाह बनने की उसकी कोशिश, सिर्फ एक छलावा भर है। छलावा के सिवाय कुछ नहीं।

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जाहिद खान, 
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

आओ हम भी गोडसे को फांसी दें- एक पूर्व स्वयंसेवक का प्रायश्चित्

बापू हम शर्मिंदा हैं , तेरे कातिल जिन्दा हैं

बाबा विजयेंद्र

संघ के सपूत और स्वयंसेवकों के आदर्श नाथूराम गोडसे को आज ही के दिन फांसी दी गयी थी। इस कथित शहीद को सार्वजनिक तौर पर भले ही श्रद्धांजलि देने की हिम्मत संघ को न हो पर फांसी के खिलाफ भीतर-भीतर गुस्से का इजहार तो कर ही रहे होंगें।

मैं भी भूतपूर्व स्वयंसेवक रहा हूँ। हम भी गोडसे की याद में बौद्धिक पेला करते थे। गाँधी को घृणा का विषय बनाते थे। संघ के प्रचारकों के भीतर गोडसे की आत्मा विराजमान होती थी। प्रचारक तपोनिष्ठ थे, देश के लिए नहीं बल्कि अपने मनुवादी मूल्यों के प्रचार के लिए। ब्राह्मणवाद को बचाए रखने के लिए महाराष्ट्र से प्रचारकों की असंख्य टोलियाँ निकली। महाराष्ट्र के यही लोग वंचितों को सताने में आगे थे।

किसी प्रचारक से गाँधी की बड़ाई मैं नहीं सुन पाया। इसी मूल्य के लिए मैं भी अपने को तबाह किया।

मेरा प्रायश्चित जारी है क्योंकि मैं भी अपने संघ-जीवन में गाँधी को लगातार मारता ही रहा।

गोडसे को फांसी देने के बाद एक किताब आई-गाँधी वध और मैं और मी नाथूराम बोल्तय । ‘ वध ‘ शब्द का प्रयोग केवल कंस और रावण के लिए जाता रहा है। संघियों ने गाँधी को कंस और रावण के समतुल्य खड़ा किया। गाँधी के लिए किलिंग और मर्डर जैसे शब्दों का इश्तेमाल भी किया जा सकता था। गाँधी के प्रति संघ की घृणा कितनी थी वह आप बध जैसे शब्द से अंदाजा लगा सकते हैं।

विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण का कोई सम्बन्ध गाँधी से है ही नहीं। संघ जिस क्लास- पॉलिटिक्स का प्रवक्ता था उसका धनी मुसलमानों से गहरा रिश्ता था। इस क्लास ने अपने अपने हिस्से के हिंदुस्तान को लूट लिया जिसका देश की आजादी से कोई वास्ता ही नहीं था। वाजपेयी जेल जाने से बचने के लिए अंग्रेजों के सामने माफीनामा दिया और ककुआ जैसे मित्रों को सजा दिलबा दी। अनुशीलन समिति के सदस्य हेडगेवार थे कि नहीं इसकी चर्चा संघ साहित्य के अलावा और कही नहीं मिलता।

गाँधी ने कभी भी आडवाणी की तरह किसी मज़ार पर माथा नहीं टेका। कभी नमाज अदा नहीं किया। कभी इफ्तार पार्टी में शामिल नहीं हुये। गाँधी ने जीते जी मस्जिद की सीढ़ी पर पाँव तक नहीं रखा। गाँधी की प्रार्थना में राम, राज्य के रूप में राम और मरने के वक्त राम ! गाँधी के जीवन में राम ही राम था। तब राम नाम जपने वाले संघ को गाँधी से गुस्सा ही क्यों था ?

गाँधी जब अंतिम व्यक्ति के साथ खड़े हो रहे थे तो प्रथम पंक्ति के लोगों का नाराज होना स्वाभाविक ही था। दूसरी बात ब्रह्म सत्य के बदले सत्य को ईश्वर घोषित करना था। यह हिन्दू दर्शन के खिलाफ था। संघ समरसता की बात करता था। उसे समता में विश्वास ही नहीं था। गाँधी हमेशा यथास्थितिवाद के खिलाफ थे। बाबा साहेब के सन्दर्भ में गाँधी को घेरा जा सकता है। पर संघ तो कही टिक ही नहीं पाता है।

गोडसे को और मारा जाना जरूरी है। गोडसे जिन्दा है। साबरमती के संत के कमाल को गुजरात के गए-गुजरे मोदी और अमित जैसे विदूषक समाप्त करने पर तुले हैं।

गाँधी कहा करते थे कि उनका जीवन ही सन्देश है। यह पंक्ति अब अमित शाह अपने लिए यूज करने लग गए हैं। गाँधी का गाँव, गंगा और गीता भुला दिए गए हैं। दांडी में पांच सितारा होटल, गाँव के बदले स्मार्ट शहर ? स्वदेशी और स्वावलंबन से अब संघ का क्या लेना देना ? भारत माता अब भारत सरकार हो गयी। संघ को अपना अभीष्ट मिल गया है।

गोडसे गाँधी को पूरा नहीं मार पाया। अब बचे गाँधी को निपटा देने की जिम्मेवारी मोदी और अमित ने अपने जिम्मे ले ली है। कल हेडगेवार केंद्र थे और आज भागवत केंद्र बने हुये हैं।

मैंने गाँधी को नहीं मारा। झूठ ! बिल्कुल झूठ। अगर मान भी लें कि संघ ने गाँधी को नहीं मारा तो क्यों नहीं जिन्दा और मुर्दा गोडसे के खिलाफ संघ खड़ा होता है ? गोडसे से संघ का सम्बन्ध सिद्ध होना उतना मूल्यवान नहीं है जितना गाँधी से सम्बन्ध का है। मैं नाथूराम बोलता हूँ’ देश न केवल उनकी बात सुनने को मजबूर है वल्कि मोहित भी है। संघ न सही पर आज भी हमारा समाज साबरमती के संत के साथ खड़ा है। आओ हम भी गोडसे पर थूकें।


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बाबा विजयेंद्र, 
लेखक स्वराज्य खबर के संपादक हैं।

आप अपनी पॉलिटिक्‍स ठीक करिए, हम अपनी भाषा ठीक करते हैं

अभिषेक श्रीवास्तव

पिछले कई बरस से जनसत्‍ता में बिला नागा छप रहे ‘कभी-कभार’ में अशोक वाजपेयी का आज पहला स्‍तम्भ है ‘अनुपस्थित श्रोता’। वे चिन्तित हैं कि इस वर्ष SamanvaY: IHC Indian Languages’ Festival में हिंदी के श्रोता गायब रहे। वे लिखते हैं, ”सबसे अधिक दुख लगा बस्‍तर की बोलियों पर एक सत्र में बहुत कम उपस्थिति देखकर।” उनका दुख जायज़ है, हम सब ‘हिंदीवाले’ इस संकट से रोज़ दो-चार होते हैं, लेकिन जहाँ पर खड़े होकर वे अपने ‘दुख’ की वजहों का विश्‍लेषण कर रहे हैं, गड़बड़ी वहाँ है। इसी कारण उनके स्‍तम्भ में ”अंग्रेज़ी के नकली स्‍वर्ग और खाती-पीती-उड़ाती दुनिया के विश्‍व नागरिकों” का हिकारत भरा जि़क्र आता है और हिंदीवालों की अनुपस्थिति का ‘दुख’ अंग्रेज़ी वालों के सिर मढ़कर वे संतुष्‍ट हो जाते हैं। नतीजतन, अंग्रेज़ी की नागरिकता को वे हिंदी की नागरिकता के खिलाफ खड़ा कर देते हैं।

अशोकजी ज़रा सा सावधान रहते तो अपने स्‍तम्भ में ही अपने सवाल का जवाब खोज लेते। आइए देखें, यह गड़बड़ी कहा है। बस्‍तर के बारे में वे लिखते हैं, ”उसका इस समय नक्‍सली हिंसा का लगातार कुछ दशकों से ग्रस्‍त होना उसकी अपार सांस्‍कृतिक संपदा और भाषिक विपुलता को भी क्षति पहुँचा रहा है।’‘

वाक्‍य-संरचना की गड़बड़ी (संभवत: संपादन) और ‘कुछ दशकों’ की तथ्यात्‍मक ग़लती को छोड़ दें, तो अशोकजी की राजनीतिक लोकेशन इस वाक्‍य से आपको समझ आ सकती है। उनके कहने का मतलब यह है कि बस्‍तर की ‘नक्‍सली हिंसा‘ हवा में है। वे उन कम्पनियों का जि़क्र नहीं करते जो वहाँ के जल, जंगल और ज़मीन को निगल चुकी हैं। उन्‍हें उस राज्‍यतंत्र का ख़याल नहीं जिसने सलवा जुड़ुम के नाम पर भाई से भाई को लड़वाया। हिंसा मनुष्‍य का शौक़ नहीं है और नक्‍सली मंगल ग्रह से नहीं आए हैं। राज्‍य और कम्पनियों की मिलीभगत से बस्‍तर में मुसलसल चल रही प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ वहाँ का आदिवासी नाराज़ है। लिहाज़ा बस्‍तर आज एक युद्धक्षेत्र बन चुका है, जहाँ कई ताकतें काम कर रही हैं। इन अंतर्विरोधों की उपेक्षा कर के किसी एक के सिर पर भाषा-संस्‍कृति के नाश का दोष मढ़ देना आखिर आपको किसके पाले में खड़ा करता है?

प्रसंगवश, जिस दिन ‘समन्‍वय’ का उद्घाटन था, उसी शाम राजेंद्र भवन में अरुण फरेरा से उनके जेल संस्‍मरणों पर अशोक भौमिक, संजय काक और शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता का संवाद था। हिंदी के कई लेखक-पाठक समेत पंजाब, हरियाणा, दक्षिण भारत के करीब 200 श्रोता वहाँ मौजूद थे। आखिर क्‍यों? इसलिए क्‍योंकि भाषा-संस्‍कृति की बुनियाद राजनीति ही है। जनवादी राजनीति को अगर हिंदी के करीब आने की ज़रूरत है, तो हिंदी की चिंता करने वालों को भी अपनी राजनीतिक लोकेशन दुरुस्‍त करनी होगी। आप अपनी पॉलिटिक्‍स ठीक करिए, हम अपनी भाषा ठीक करते हैं। फिर देखिए, श्रोताओं का टोटा नहीं होगा। आप राजनीति के सवाल को अंग्रेज़ी बनाम हिंदी में उलझाएंगे और राज्‍य व कॉरपोरेट की ओर से आंखें मूंद कर बस्‍तर के नाम पर आह भी भरेंगे, तो इससे किसी का भला नहीं होगा अशोकजी।

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अभिषेक श्रीवास्तव, 
जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। 
हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

केवल हवाई अवधारणा है बहुजन की अवधारणा

दलित बनाम बहुजन

जाति और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है।

यह देखा गया है कि जब कभी भी मैं बसपा के बारे में कोई आलोचना करता हूँ तो बहुत से दोस्त मुझ से विकल्प के बारे में पूछते हैं। मैं उन की जानकारी के लिए अपना हाल का आलेख “दलित बनाम बहुजन” पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ
एस आर दारापुरी
पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। बहुजन अवधारणा के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की सख्या 85% है। उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए।
वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएँ भी लगती हैं। परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता में बाँधने का सूत्र क्या है। क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शुद्र होने का सूत्र है या कुछ और? अछूत और शुद्र असंख्य जातियों में बँटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं। वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त है जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं। उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं। पिछड़ी जातियाँ आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं। वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही किये जा रहे हैं। अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाढ्य जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है। इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियाँ दलितों पर अत्याचार करती हैं। ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव। अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता। यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में भी देखा गया है।
अब अगर दलित और पिछड़ा का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि दलितों के अन्दर भी सम्पन्न और गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है। पिछड़ों के अन्दर अगड़ा पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है। पिछले कुछ समय से दलित और पिछड़े वर्ग के सम्पन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही प्राप्त की है। इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। इसी विभाजन को लेकर अति- दलित और अति -पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है। इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है। इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अज्लाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा मुहाज (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है।
अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़े पिछड़े दो वर्ग हैं जिन के अलग-अलग आर्थिक और राजनीतिक हित हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी हैं। अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है उसे उठाया है। इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है। हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है। अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है। इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है। अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर। यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्यायें एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है। बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं।
अतः इन अति पिछड़े तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए। जाति और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है। इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीऍफ़) ने अपने एजेंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत: (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने। सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किए जाने; (2) अति पिछड़ी हिन्दू व मुस्लिम जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग के 27% कोटे में से में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) उ0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा (8) रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई किये जाने और आतंकवाद/ साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा किये जाने की मांग भी उठाई है। इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से पार्टी ने अपने संविधान में दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं। आइपीएफ, बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित राजनीति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है जैसा कि डॉ. आंबेडकर का भी निर्देश था।

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जाने-माने दलित चिंतक व मानवाधिकार कार्यकर्ता एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस (से.नि.) व् आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं

गंगा के सवाल पर निर्णायक लड़ाई


कुमार कृष्णन

‘‘ अब तक हमने लगातार लड़ाई लड़ी है, जंग जीती है, इस बार भी एक होकर गंगा के सवाल पर निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे और गंगा की अविरलता को नष्ट नहीं होने देंगे।’’

बिहार के भागलपुर जिले के कहलगांव स्थित कागजी टोला की फेकिया देवी का कहना है। वह पिछले दिनों भागलपुर जिला मुख्यालय में गंगा मुक्ति आंदोलन के गंगा पर बराज बनाने की साजिश के विरोध में प्रदर्षन में भाग लेने आयी थी। फेकिया देवी उस आंदोलन की गवाह है, जिसने दस वर्षो के अहिंसात्मक संघर्ष के फलस्वरूप गंगा को जलकर जमींदारी से मुक्त कराने में कामयावी हासिल की।

बिहार में आने वाले दिनों में गंगा के सवाल पर निर्णायक लड़ाई का आगाज एक साझा मंच बनाकर होने वाला है। इसकी एक दस्तक इस प्रदर्षन के माध्यम से दी गयी है। इस आंदोलन का केन्द्र भागलपुर बनेगा। इस प्रदर्षन के पूर्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जलपुरूष राजेन्द्र सिंह की बक्सर, आरा, छपरा, पटना, मुंगेर और भागलपुर में सभा, बेगूसराय के सिमरिया घाट में स्वामी चिदात्मन जी महराज द्वारा राष्ट्रीय पत्रकार समागम, गोमुख से गंगासागर तक तापस दास के नेतृत्व में साईकिल यात्रा का स्पष्ट संदेश है कि गंगा की अविरलता कायम रहने से ही गंगा पर आश्रित समुदाय का रिष्ता कायम रह सकेगा।

बिहार और झारखंड में सबसे अधिक लंबा प्रवाह मार्ग गंगा का ही है। शाहावाद के चौसा से संथालपरगना के राजमहल और वहां से आगे गुमानी तक गंगा के संगम तक गंगा का प्रवाह 552 किलोमीटर लंबा है। गंगा जब सर्वप्रथम बिहार प्रदेश की सीमा को छूती है तब बिहार और उत्तरप्रदेश के बलिया जिले की 72 किलोमीटर सीमा बनाकर चलती है। जब केवल बिहार से होते हुए बीच भाग से हटने लगती है तब बिहार-झारखंड में 64 किलोमीटर सीमा रेखा बनकर गुजरती है। 416 किलोमीटर तक तो गंगा बिल्कुल बिहार और झारखंड की भूमि में ही अपने प्रभूत जल को फैलाती है एवं इसकी भूमि को शस्य श्यामला करती हुई बहती है। इस स्थिति का आकलन करते हैं तो मछुआरे, किसानों, नाविकों और पंडितों की जीविका का आधार है गंगा।


गंगा के किनारे बसे मछुआरों ने गंगा को प्रदूषित होते हुए देखा है, उसकी दुर्दशा देखी है और इसे बनते हुए देखा है। 1993 के पहले गंगा में जमींदारों की पानीदार थे, जो गंगा के मालिक बने हुए थे। सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकी पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमषः मुर्शिदाबाद, पष्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी। हैरत की बात तो यह थी कि जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है। सन् 1908 के आसपास दियारे के जमीन का काफी उलट-फेर हुआ. जमींदारों के जमीन पर आये लोगों द्वारा कब्जा किया गया. किसानों में आक्रोष फैला। संघर्ष की चेतना पूरे इलाके में फैले जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गये और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी -देवताओं के नाम कर दिया. जलकर जमींदारी खत्म करने के लिए 1961 में एक कोशिश की गयी भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बंदोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे आॅडर मिल गया। 1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फेसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरिज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न जमीन के प्रश्न से अलग है। क्योंकि जमीन की तरह यह अचल संपत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अंतर्गत नहीं आता है। बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फेसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया। जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया. 4 अप्रैल 1982 को अनिल प्रकाष के नेतृत्व में कहलगांव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और उसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी। साथ ही सामाजिक बुराइयों से भी लड़ने का संकल्प लिया गया। पूरे क्षेत्र में शराब बंदी लागू की गयी। धीरे-धीरे यह आवाज उन सवालों से जुड़ गयी जिनका संबंध पूरी तरह गंगा और उसके आसपास बसने वालों की जीविका, स्वास्थ्य व असंस्कृति से जुड़ गया. आरंभ में जमींदारों ने इसे मजाक समझा और आंदोलन को कुचलने के लिए कई हथकंडे अपनाये। लेकिन आंदोलनकारी अपने संकल्प ‘‘ हमला चाहे कैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा ’’ पर अडिग रहे और निरंतर आगे रहे। निरंतर संघर्ष का नतीजा यह हुआ 1988 में बिहार विधानसभा में मछुआरों के हितों की रक्षा के लिए जल संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का एक प्रस्ताव लाया गया। गंगा मुक्ति आंदोलन के साथ वे समझौते के बाद राज्य सरकार ने पूरे बिहार की नदियों-नालों के अलावे सारे कोल ढाबों को जलकर से मुक्त घोषित कर दिया। परंतु स्थिति यह है कि गंगा की मुख्य धार मुक्त हुई है लेकिन कोल ढाब अन्य नदी-नालों में अधिकांश की नीलामी जारी है और सारे पर भ्रष्ट अधिकारियों और सत्ता में बैठे राजनेताओं का वर्चस्व है। पूरे बिहार में दबंग जल माफिया और गरीब मछुआरों के बीच जगह-जगह संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। गंगा तथा कोशी में बाढ़ का पानी घट जाने के बाद कई जगह चैर बन जाते हैं ऐसे स्थानों को मछुआरे मुक्त मानते हैं और भू-स्वामी अपनी संपत्ति। सरकार की ओर से जिनकी जमीन जल में तब्दील हो गयी उन्हें मुआवजा नहीं दिया जाता। इस कारण भू-स्वामी इसका हर्जाना मछुआरों से वसूलना चाहते हैं। हालांकि जगह-जगह संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। इन स्थानों पर कब्जा करने के लिए अपराधी संगठित होते हैं। राज्य के कटिहार, नवगछिया, भागलपुर, मुंगेर तथा झारखंड के साहेबगंज में दो दर्जन से ज्यादा अपराधी गिरोह सक्रिय हैं और इन गिरोहों की हर साल करोड़ों में कमायी है। गंगा मुक्ति आंदोलन लगातार प्रशासन से दियारा क्षेत्र में नदी पुलिस की स्थापनाऔर मोटर वोट द्वारा पैट्रोलिंग की मांग करता रहा है लेकिन यह ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है।

विकास की गलत अवधारणा के कारण गंगा में बाढ़ और कटाव का संकट पैदा हो गया है। कल-कारखानों का कचरा नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है और पानी जहरीला होता जा रहा है। भागलपुर विष्वविद्यालय के दो प्राध्यापकों केएस बिलग्रामी जेएस दत्ता मुंशी के अध्ययन से पता चलता है कि बरौनी से लेकर फरक्का तक 256 किलोमीटर की दूरी में मोकामा पुल के पास गंगा नदी का प्रदूषण भयानक है। गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना। कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है। नदी में बहुत से सूक्ष्म वनस्पति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं, गंदगी को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करते हैं। इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तु भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्य नदियों में भी जगह-जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव-जन्तु या वनस्पति जीवित नहीं बचता। वहां बाटा शू फैक्टरी, मैकडेबल डिसलरी, तेल शोधक कारखाना, ताप बिजली घर और रासानिक अवषेष नदी में गिरते हैं। इसका सबसे बुरा असर मछुआरों के रोजी-रोजी एवं स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। कटैया, फोकिया, राजबम, थमैन, झमंड, स्वर्ण खरैका, खंगषी, कटाकी, डेंगरास, करसा गोधनी, देषारी जैसी 60 देषी मछलियों की प्रजातियां लुप्त हो गयी है।

गंगा मुक्ति आंदोलन से जुड़ी कहलगांव की मुन्नी देवी बताती है कि फरक्का बेराज बनने के बाद स्थिति यह है कि गंगा में समुद्र से मछलियां नहीं आ रही है. परिणाम स्वरूप गंगा में मछलियों की भारी कमी हो गयी है। मछुआरों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है। वहीं अनिल प्रकाष कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने गंगा पर 16 बराज बनाने के से पहले फरक्का बराज के दुष्परिणामों का मूल्यांकन क्यों नहीं किया? 1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्का बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्का बराज बना सिल्ट की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह-फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है। फरक्का बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू-मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्त हो गई। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए।

गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू की, तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक है, लेकिन बराजों की ऋंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना अव्यवहारिक है। फरक्का बराज बनने का हश्र यह हुआ कि उत्तर बिहार में गंगा किनारे दियारा इलाके में बाढ़ स्थायी हो गयी। गंगा से बाढ़ प्रभावित इलाके का रकवा फरक्का बांध बनने से पूर्व की तुलना में काफी बढ गया। पहले गंगा की बाढ़ से प्रभावित इलाके में गंगा का पानी कुछ ही दिनों में उतर जाता था लेकिन अब बरसात के बाद पूरे दियारा तथा टाल क्षेत्र में पानी जमा रहता है। बिहार में फतुहा से लेकर लखीसराय तक 100 किलोमीटर लंबाई एवं 10 किलोमीटर की चौड़ाई के क्षेत्र में जलजमाव की समस्या गंभीर है। फरक्का बांध बनने के कारण गंगा के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ोतरी का सबसे बुरा असर मुंगेर, नौवगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा तथा खगडि़या जिलों में पड़ा। इन जिलों में विनाषकारी बाढ़ के षिकार सैकड़ों गांव हो रहे हैं। फरक्का बराज की घटती जल निरस्सारण क्षमता के कारण गंगा तथा उनकी सहायक नदियों का पानी उलटी दिषा में लौट कर बाढ़ तथा जलजमाव क्षेत्र को बढा देता है। फरक्का का सबसे बुरा हश्र यह हुआ कि मालदा और मुर्षिदाबाद का लगभग 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ही उपजाऊ भूमि कटाव की चपेट में आ गयी और बड़ी आबादी का विस्थापन हुआ। दूसरी ओर बड़ी- बड़ी नाव द्वारा महाजाल, कपड़ा जाल लगाकर मछलियों और डॅाल्फिनों की आवाजाही को रोक देते हैं। इसके अलावा कोल, ढाव और नालों के मुंह पर जाल से बाड़ी बांध देते हैं। जहां बच्चा देने वाली मछलियों का वास होता है। बिहार सरकार ने अपने गजट में पूरी तरह से इसे गैरकानूनी घोषित किया है। बाड़ी बांध देने से मादा मछलियां और उनके बच्चे मुख्य धारा में जा नहीं सकते और उनका विकास नहीं हो पाता है। इसी कारण से गंगा में मछलियों का अकाल हो गया है। इसके खिलाफ सत्याग्रह चलाने का फैसला किया गया है और नमक सत्याग्रह की तर्ज पर सारी बाडि़यों को तोड़ा जाएगा।

अब जब 16 बराज हर 100 किलोमीटर बनाने की योजना है। इसके परिणामों को समझना होगा। जलपुरूष राजेन्द्र सिंह बताते हैं कि यह गंगा की अविरलता नष्ट करने की साजिष है। इसका सीधा असर गंगा पर आश्रित समुदायों पर पड़ेगा।

गोमुख से गंगासागर तक साइकिल यात्रा की बिहार मीडिया समन्वयक और पत्रकार अजाना घोष का कहना है कि सही नारा या अवधारणा यह होनी चाहिए कि ‘गंगा को गंदा मत करो’। थोड़ी बहुत शुद्धिकरण तो गंगा खुद ही करती है। उसके अंदर स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता है। वहीं सिमरिया में गंगा के सवाल पर राष्ट्रीय पत्रकार समागम के प्रतिभागी और वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत का कहना है कि यह समागम गंगा की अविरलता को लेकर था। इसमें अमर उजाला के संपादक उदय कुमार, नेशनल दुनिया के संपादक श्रीचंद, पांचजन्य के संपादक हितेष शंकर, दिल्ली विष्वविद्यालय के प्राघ्यापक पंकज मिश्र, सहारा समय के श्याम किशोर सहाय के साथ-साथ स्वामी चिदात्मानंद जी महराज के विचार से एक वातावरण बना है। स्वामी चिदात्मानंद जी महराज ने स्वयं गोमुख से गंगासागर तक की पैदल यात्रा कर असलियत को देखा है। आने वाले दिनों में यह स्पष्ट संकेत है कि गंगा के सवाल पर एक बड़ा आंदोलन बिहार से खड़ा होगा।

हमला नेहरू की विरासत पर?

राम पुनियानी
भारत का विभाजन, महात्मा गाँधी की हत्या और नेहरू की नीतियां, पिछले कई दशकों से अनवरत बहस का विषय बनी हुई हैं। हर राजनैतिक दल व विचारधारा के लोग, इन तीनों की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करते रहे हैं। एक तरह से, ये तीनों, आधुनिक भारतीय इतिहास में मील के पत्थर हैं। भारत का विभाजन और गाँधी की हत्या, इस अर्थ में आपस में जुड़े हुए हैं कि गोडसे ने गाँधी पर मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का आरोप लगाया था। गोडसे के विचार, तत्कालीन घटनाक्रम की उसकी अधकचरी समझ पर आधारित थे और उसने उसी समझ को गाँधीजी की हत्या का औचित्य बना लिया। गोडसे के विचारों से आज के कई हिंदू राष्ट्रवादीसहमत हैं। इनमें से अधिकांश या तो भाजपा-आरएसएस से जुड़े हुए हैं या उनके आसपास हैं। भाजपा के दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से उसके कई नेता, अधिक खुलकर इन मुद्दों की हिंदू राष्ट्रवादी व्याख्या को स्वर दे रहे हैं। परन्तु इसमें भी अब एक नया पेंच जोड़ दिया गया है। यह पेंच केरल के एक भाजपा नेता द्वारा आरएसएस के मुखपत्र केसरी’ में लिखे गए एक लेख से जाहिर है। यह लेख, अप्रत्यक्ष रूप से, कहता है कि नाथूराम गोडसे को महात्मा गाँधी की जगह जवाहरलाल नेहरू की हत्या करनी थी क्योंकि लेखक के विचार में, असली दोषी नेहरू थे, गाँधी नहीं।
जिन भाजपा नेता ने इस लेख को लिखा है, उनका नाम है बी. गोपालकृष्णन। वे लिखते हैं, ‘‘यदि इतिहास के विद्यार्थी यह महसूस करते हैं कि गोडसे ने गलत व्यक्ति पर निशाना साधा तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। देश के विभाजन के लिए केवल और केवल नेहरू जिम्मेदार थे।’’ इस लेख से हम क्या समझें? क्या यह आरएसएस की आधिकारिक राय है? हमेशा की तरह, आरएसएस प्रवक्ता मनमोहन वैद्य ने अपने ही नेता की राय से संघ को अलग कर लिया है। परन्तु यह समझना मुश्किल नहीं हैं कि आरएसएस के कुछ लोग नेहरू को गाँधी से भी बड़ा खलनायक क्यों मानते हैं। ‘केसरी’ में छपा लेख इसी विचार की अभिव्यक्ति है। इससे पहले कि हम देखें कि देश के विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था, आइए हम समझने की कोशिश करें कि महात्मा की जगह नेहरू को दोषी ठहराए जाने का उद्देश्य क्या है।
हाल में, नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि स्वरूप, उनके जन्मदिवस 2 अक्टूबर को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू किया। इसके पीछे दो धूर्ततापूर्ण लक्ष्य थे। पहला,  हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति के लिए गाँधी का इस्तेमाल करना और दूसरा, गाँधी के योगदान को मात्र साफ-सफाई तक सीमित कर देना।गाँधीजी निःसंदेह साफ-सफाई पर जोर देते थे परन्तु वे हिंदू-मुस्लिम एकताराष्ट्रीय एकीकरण, अहिंसा और सत्य के पैरोकार भी थे। साफ-सफाई के बारे में गाँधीजी की सोच को जरूरत से अधिक महत्व देने का उद्देश्य, उनके अन्य सिद्धांतों का महत्व कम करना है।
उसी तरह, नेहरू की भारतीय राष्ट्रवाद, बहुवाद, धर्मनिरपेक्षता व वैज्ञानिक सोच के प्रति जबरदस्त प्रतिबद्धता के कारण वे हिंदू राष्ट्रवादियों को पूरी तरह अस्वीकार्य हैं। हिंदू राष्ट्रवाद, इन सभी मूल्यों का धुर विरोधी है। इस लेख का उद्देश्य, नेहरू को विभाजन का दोषी बताकर, उस पर आम जनता और बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया जानना है।
भारत के साम्राज्यवाद-विरोधी स्वाधीनता संग्राम के तीन स्तंभ थे- गाँधी, नेहरू और पटेल। गाँधी का कद इनमें सबसे ऊँचा था। उन्होंने ही ब्रिटिश विरोधी, भारतीय राष्ट्रवादी जनांदोलन को खड़ा किया, उसे ठोस जमीन दी और उसके नैतिक पथप्रदर्षक बने। उन्होंने अपनी विरासत, नेहरू और पटेल को सौंपी। हिंदू राष्ट्रवादी, जिनमें हिंदू महासभा और आरएसएस शामिल हैं, हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के गाँधी के प्रयास के कटु आलोचक थे। मुस्लिम साम्प्रदायिक धारा की प्रतिनिधि मुस्लिम लीग, कांग्रेस को एक ऐसी पार्टी के रूप में देखती थी जो कि केवल हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है। सत्य यह है कि सभी धर्मों के बहुसंख्यक लोग, गाँधीजी के नेतृत्व में चल रहे भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ थे। हां, सन् 1940 के बाद सांप्रदायिकता में आए उछाल के कारण मुसलमान शनैः-शनैः मुस्लिम लीग की ओर झुकने लगे।
दोनों सांप्रदायिक धाराएं गाँधी की आलोचक थीं। हिंदू सांप्रदायिक तत्व उन्हें मुसलमानों के तुष्टीकरण का दोषी बतलाते थे तो मुस्लिम संप्रदायवादी उन्हें हिंदुओं का प्रतिनिधि कहते थे। विभाजन के पीछे कई कारक थे, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण था अंग्रेजों की ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीति, जिसने हिंदू और मुस्लिम, दोनों सांप्रदायिक धाराओं को मजबूती दी। ब्रिटेन का अपना साम्राज्यवादी एजेण्डा था। उसे मालूम था कि अगर भारत एक रहा तो वह एक बहुत बड़ा और शक्तिशाली देश होगा। ब्रिटेन को यह भी अंदाजा था कि आने वाली द्विधुर्वीय दुनिया में, भारत, सोवियत संघ के शिविर में रहेगा। उनकी इस सोच के पीछे कारण यह था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक शक्तिशाली वामपंथी गुट था, जिसका नेतृत्व स्वयं नेहरू करते थे।
विभाजन एक बहुस्तरीय त्रासदी था और उसे केवल एक घटना मानना भूल होगी। वह कई घटनाओं का मिला-जुला नतीजा थी। इसे समझने के लिए हमें एक ओर भारतीय और धार्मिक (मुस्लिम लीग-हिंदू महासभा) राष्ट्रवादियों के बीच के अंतर को समझना होगा तो दूसरी ओर हमें यह भी देखना होगा कि अंग्रेजों का कुटिल खेल क्या था। तभी हम इस प्रक्रिया को समझ सकेंगे। विभाजन के लिए केवल किसी व्यक्ति विशेष को दोषी ठहराने से काम चलने वाला नहीं है।
अब तक हिंदू सांप्रदायिक तत्व चिल्ला-चिल्लाकर यह कहते आए हैं कि भारत के विभाजन और मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए गाँधी जिम्मेदार थे। अब वे नेहरू को खलनायक बनाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें गाँधी की जरूरत है- परन्तु वह भी केवल ‘सफाई पसंद नेता के रूप में’ न कि सत्य और अहिंसा में अटूट विश्वास रखने वाले महान राष्ट्रपिता बतौर। हिंदू संप्रदायवादी चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करें वे नेहरू पर कब्जा नहीं कर सकते क्योंकि नेहरू ने स्वाधीनता के बाद लंबे समय तक भारतीय राष्ट्रवाद, बहुवाद, उदारवाद और विविधता के मूल्यों को मजबूती देने का काम किया। यही वे मूल्य हैं जो दुनिया के सबसे बड़े जनांदोलन, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, का आधार थे। आश्चर्य नहीं कि आरएसएस अपने ही मुखपत्र में प्रकाशित लेख से कन्नी काट रहा है। वैसे भी, यह लेख एक मुखौटा है, जिसका उद्देश्य संघ परिवार के असली इरादों और सोच को छुपाना है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

About The Author

Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.