गुरुवार, 12 जून 2014

जनतंत्र पर हावी जुगाड़तंत्र

अब्दुल रशीद

आजादी के 6 दशक बाद भी न तो गरीबी मिट सका और न ही राजनीति इतना परिपक्व हो सकी जो यह सोंच सके कि आम जनता का विकास कैसे किया जाए। आज भी राजनैतिक पार्टियां नैतिक मुल्यों को दरकिनार कर जुगाड़तंत्र के सहारे सत्ता पर काबिज़ होने में लगे हुए हैं। यह इस देश की राजनैतिक त्रासदी नहीं तो क्या के मौजूदा हालात में राष्ट्रीय सर्वमान्य नेता किसी भी पार्टी में दिखाई नहीं दे रहा। 

भाजपा और कांग्रेस देश कि दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के रुप में जानी जाती है। मौजूदा वक्त में एक सत्ता में है तो दूसरा विपक्ष में। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी पर घोटाले और भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगे हैं कि जनता का मोह लगभग खत्म हो चुका है। भाजपा की छवि भी ऐसी नहीं के वह जनता का विकल्प बन सके कारण भाजपा का अन्दरूनी कलह और भाजपा शासित राज्यों में भ्रष्टाचार का चरम पर पहुंचना। भाजपा के केन्द्रीय टीम व टीम के अध्यक्ष में इतनी शक्ति भी नहीं के वो अपने भ्रष्ट नेताओं को रास्ता दिखा कर अपने दामन पर लगे दाग को धोकर जनता के सामने अपनी बेहतरीन छवि पेश कर विकल्प बनने कि ईमानदार कोशिश कर सके। उल्टे भाजपा के वरिष्ठ नेता भी जिनकी आवाज़ की गूंज पार्टी में जान फूंका करती थी और जिससे जनता के मन में आशा जगती थी आज वह आवाज़ खुद घिघियाती नजर आ रही है। मानो वरिष्ठ नेता अब अपनी मान सम्मान बचाने के जुगाड़ में जुटे हों। ऐसे में यह सवाल सबसे अहम हो जाता है की सत्ता पा लेने के बाद क्या क्षत्रप नेताओं का कद पार्टी से बड़ा हो जाता है? सुरजकुण्ड अधिवेशन में जिन दो नामों को मीडिया नें प्रमुखता से उठाया वह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम था। दोनों नामों पर न तो पार्टी सहमत दिख रही और न ही एनडीए गठबंधन। भले ही नरेन्द्र मोदी भाजपा और संघ के मापदण्ड पर सबसे सबसे योग्य दावेदार हों प्रधानमंत्री पद के लिए लेकिन मोदी का काला इतिहास न तो देश की आम जनता को स्वीकार्य है और न ही एनडीए गठबंधन के अधिकांशतः घटकों को ऐसे हालात में जैसे ही पार्टी मोदी का नाम आगे करेगी गठबंधन का टूटना तय है और बिना गठबंधन के सहयोग के सत्ता अब भी कोसो दूर नजर आरही है। दूसरा नाम मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का है जिनकी छवि मीडिया के तालमेल से विकास पुरुष और जनप्रेमी नेता के रुप में भले ही हो लेकिन यह छवि केवल सतही हकीक़त है पूर्ण सत्य नहीं। हां मध्य प्रदेश में विपक्ष की भूमिका निभा रहे कांग्रेस इतने धरों में बंटी हुई है के चुनाव में मजबूत टक्कर देना तो दूर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्त्व वाली भाजपा को प्रदेश में हैट्रीक लागाने से रोक पाना असंभव सा लग रहा है। अत:इस बात में तो कोई संदेह ही नहीं के शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के चुनाव के लिए तो रामबाण हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि ऐसी नहीं जो उनको प्रधानमंत्री पद के दावेदारी को सर्वमान्य बना सके। कांग्रेस के युवराज को भी उत्तर प्रदेश के चुनाव में अंदाजा तो हो ही गया है कि जनता पर उनका कितना जादू चलता है। देश के प्रमुख दोनो राष्ट्रीय पार्टी में अभी तक प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। जबकि आम चुनाव बेहद करीब है। कांग्रेस-भाजपा दोनो ही पार्टी फूंक फूंक कर कदम बढा रही है कारण भ्रष्टाचार के दाग से दोनों का दामन दागदार है। भाजपा के लिए तो कोई ठोस निर्णय लेना और भी कठिन है क्योंकि भाजपा के महत्वपूर्ण निर्णय पर संघ का ज्यादा प्रभाव रहता है और संघ के तेवर आजकल पार्टी के पक्ष में नजर नहीं आ रहे है।

कांग्रेस में सोनिया के सामने कांग्रेस के जमीनी हकीक़त पहुंच ही नहीं पाती वजह जो जमीनी नेता हैं उनकी पहुंच सोनिया तक है ही नहीं और जिनकी सोनिया तक है उनका आम आदमी से कोसो दूर का रिश्ता नहीं ऐसे नेता अपनी वाह वाही के लिए केवल सब्ज बाग ही प्रस्तुत करते हैं हकीक़त नहीं। मौजूदा हालात को देख कर ऐसा ही लगता है के दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी को सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय पार्टी के समर्थन की जरुरत होगी इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। यानी गठबंधन की सरकार और जिनके घटक अपनी अपनी सुविधा के अनुसार सरकार का दोहन करेगी और आम जनता हाशिए पर खड़ा विकास की बाट जोहता रह जाएगा और कब तक जनतंत्र के सहारे राजनीति में जुगाड़ तंत्र का खेल चलता रहेगा?
सबसे अहम सवाल यह उठता है की आम जनता के गाढी कमाई को चुनाव पर पानी कि तरह बहाने के बाद आखिर आम जनता को मिलेगा क्या? क्या राष्ट्रीय पार्टी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने के बजाय कभी इस बात पर गंभीर हो कर विचार करेगी के आखिर वे राष्ट्रीय होने का कर्तव्य निभाने में विफल क्यों हो रहें हैं?

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