गुरुवार, 12 जून 2014

सील पर पड़त निशान


करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात से सील पर पड़त निशान। झारखंड के संथाल परगना से निकलने वाली एक आदिवासी पत्रिका में दोहे की इन्हीं पंक्तियों के जरीये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर प्रहार किया गया है । लेख में घोटाले और भ्रष्टाचार को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगते विपक्ष को दोहे की याद दिलाते हुये कहा गया है कि आप अपने काम में लगे रहें, कभी ना कभी तो प्रधानमंत्री पर असर पड़ेगा ही जैसे कुएं से पानी निकालते निकालते रस्सी के दाग पत्थर पर भी उभर आते हैं। आदिवासी बहुल इलाके झारखंड में "हम आदिवासी" नाम की यह पत्रिका खूब पढ़ी जाती है। महज 16 पन्नों की इस पत्रिका का मिजाज बताता है कि पहली बार मनमोहन सिंह का असर आदिवासी भी महसूस करने लगे हैं। यहां उन सवालों में खोने का वक्त नहीं है कि क्या एक वक्त सिर्फ कांग्रेस को ही भारत की एकमात्र पार्टी मानने वाले आदिवासी भी अब कांग्रेस को भुल रहे हैं।

सवाल यह है कि इसी दौर में पश्चमी मीडिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आर्थिक सुधार को लेकर ना सिर्फ सीधा निशाना साधा बल्कि इतिहास के पन्नो में असफल प्रधानमंत्री की दिशा में बढ़ते कदम की लकीर भी खींच दी। 8 जुलाई को टाइम मैग्जीन ने मनमोहन सिंह को कवर पर छाप कर अंडरएचीवर का तमगा दिया। हफ्ते भर बाद ही 16 जुलाई को ब्रिटेन के अखबार द इंडिपेन्टेंट ने आर्थिक सुधार के पुरोधा के तौर पर वित्त मंत्री के पद से शुरु हुये मनमोहन सिंह को एक कमजोर और बंधे हाथ के साथ पीएम की कुर्सी पर बैठे देखा। वहीं 5 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने तो मनमोहन सिंह की खामोशी में एक त्रासदीदायक पीएम की छवि देखी, जो दांत के डाक्टर के पास जाकर भी मुंह नहीं खोलते हैं। तो अब माना क्या जाये कि देश के सबसे पिछड़े इलाके संथाल परगना से लेकर दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका तक में जब मनमोहन सिंह ही मनमोहन सिंह है तो यह लोकप्रियता है या फिर त्रासदी। यह सवाल इसलिये क्योंकि मौजुदा वक्त में देश की मुख्यधारा की मीडिया में भी अस्सी फीसदी हिस्सा मनमोहन सिंह के ही इर्द-गिर्द रचा हुआ है। राष्ट्रीय पत्रिका इंडिया टुडे तो कवर पेज पर "सरकार का मुंह काला" तक लिखती है। लेकिन क्या कांग्रेस सरकार आह तक नहीं करती। आह करती है तो टाइम मैग्जीन या वाशिंगटन पोस्ट पर, उसकी रिपोर्ट को लेकर, जिसकी कुल जमा आठ हजार कापी ही भारत आती हैं। जबकि "हम आदिवासी" तीस हजार छपती-बंटती है। और देश भर में जितनी पत्र पत्रिकाओं में मनमोहन सिंह निशाने पर हैं, अगर उसका आंकड़ा जमा करे तो दस करोड़ पार कर जायेगा। तो क्या यह माना जा सकता है कि मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री होकर भी भारत के भीतर भारत से इतर एक नया समाज बनाने में लगे रहे। जिसकी जमीन आर्थिक सुधार पर खड़ी है। यह सवाल इसलिये क्योंकि टाइम, इंडिपेन्डेंट और वाशिंगटन पोस्ट के निशाने पर मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार को ना चला पाने को लेकर ही है। यह तमाम पत्रिकायें ही मनमोहन सिंह का सच यह कहकर बताती हैं कि 24 जुलाई 1991 में भारत के दरवाजे जिस तरह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने दुनिया के लिये खोले वह अपने आप में एक अद्भभूत कदम था। हर रिपोर्ट दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की मौजूदगी दर्ज कराने के लिये मनमोहन सिंह को ही तमगा देती है। चाहे न्यूक्लियर डील हो या एक दर्जन सरकारी सेक्टर का दरवाजा विदेशी निवेश के लिये खोलने की पहल। वाह-वाही मनमोहन सिंह की पश्चिमी मीडिया झूम झूम कर करता है। लेकिन झटके में 2009 के बाद जब राडिया टेप से कलाई खुलनी शुरु होती है कि असल में देश में सरकार बनी तो नागरिकों के वोट से है लेकिन सारी नीतियां कारपोरेट के लिये कारपोरेट ही अपने कैबिनेट मंत्रियों की जरीये बना रहा है, चला रहा है तो कई सवाल देश के भीतर भी खड़े होते है और कारपोरेट घरानों को भी समझ में आता है कि कौन सा घराना यूपीए-1 के दौरान लाभ पाकर बहुराष्ट्रीय कंपनी होने का तमगा पा गया और कौन सा कारपोरेट संघर्ष करते हुये मंत्रियों और नौकरशाही के जाल में ही उलझता रहा।

देश के पांच टॉप मोस्ट कारपोरेट इस दौर में खुद को बहुराष्ट्रीय इसलिये बना गये क्योंकि उन्हें देश चलाने की छूट विकास के नाम पर नीतियों के आसरे मिली और उसकी कमाई से देसी कारपोरेट ने दुनिया के दर्जन भर देशों की कंपनियों को खरीद लिया। यह खरीदारी खनन से लेकर स्टील और उर्जा से लेकर कार की खरीद तक रही। यह सवाल बीते ढाई बरस में कही ज्यादा तीखे या त्रासदीदायक इसलिये भी हुये क्योंकि 2 जी स्पेक्ट्रम के साथ ही क्रिक्रेट के नाम पर आईपीएल के धंधे। कामनवेल्थ के सफल आयोजन से राष्ट्रीयता का टीका लगाने में लूट। और देश के खनिज संसधानों की लूट के लिये देश का दरवाजा ही नहीं सुरक्षा की दीवार भी गिराने का सच सामने आया। सुरक्षा का सवाल इसलिये क्योंकि खनिज संपदा की लूट में जुटी देसी कारपोरेट के कर्मचारी-अधिकारियों में विदेशी नागरिको की भरमार है। जापान, चीन, आस्ट्रेलिया, ब्रिट्रेन, कोरिया और अमेरिकी अधिकारी देश के उन पिछडे इलाको में खुले तौर पर देखे जा सकते हैं जहां खनन से लेकर पावर प्लांट का काम हो रहा है। जबकि देश में इंदिरा गांधी ने ही कोल इंडिया के राष्ट्रीयकरण के साथ यह कानून भी जोड़ा था कि कोई विदेशी नागरिक भारत के खनिज संपदा इलाको में किसी भी तरह की कोई नौकरी नहीं कर सकता। क्योंकि नेहरु के दौर से ही खनिज संपदा को देश की राष्ट्रीय सपंत्ति मानी गई। साथ ही यह माना गया कि देश की खनिज संपदा की जानकारी कभी विदेशियों को नहीं होनी चाहिये। यानी सुरक्षा के लिहाज से देश ने माना खनिज संपदा ही अपनी है और इस पर आंच आने नहीं दी जायेगी। लेकिन यह किसे पता था कि आर्थिक सुधार का मतलब खनिज संपदा को अंतराष्ट्रीय बाजार के लिये खोलना ही होगा। तो क्या इस दौर में मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था ने भारत को दुनिया का ऐसा केन्द्र बना दिया, जहां उपभोक्ता खुली मंडी के तौर पर भारत को देखे। कुछ हद तक यह माना जा सकता है क्योंकि मौजूदा वक्त में भारत के संचार, जहाज रानी, नागरिक उड्डयन, इन्फ्रास्ट्कचर, उर्जा, आईटी और खनन के क्षेत्र में दुनिया 135 निजी कंपनियां परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर काम कर रही हैं। और दुनिया के 100 से ज्यादा उघोग अलग अलग क्षेत्र में भारत को मशीन या तकनालाजी उपलब्ध करा रहे हैं। यानी समूची दुनिया में भारत अपनी तरह का पहला देश है, जहां सीरिया या इरान सरीखा सकंट नहीं है। बल्कि सरकार को अब भी जनता चुनती है।

लेकिन दुनिया की सबसे ज्यादा निजी कंपनियों की अर्थव्यवस्था या कहें मुनाफा भारत पर टिका है। सीरिया या ईरान का जिक्र इसलिये क्योंकि वाशिंगटन पोस्ट में पीएम की धुनाई के बाद पीएमओ में बैठे मीडिया सलाहकारो ने यही फैलाया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चूंकि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में ईरान के साथ खड़े हुये। सीरिया के सवाल को उठाया और दुनिया के निजाम को बदलने का वक्तव्य दिया तो मनमोहन सिंह पर अमेरिका अब निशाना साध रहा है। इसमें दो मत नहीं कि इरान या सीरिया को लेकर अमेरिका जैसा सोचता है, वैसा भारत ना सोच रहा है और ना ही अमेरिका के अनुकुल कदम उठा रहा है। यानी अमेरिका की नाखुशी जग-जाहिर है। लेकिन इस दौर में क्या मनमोहन सिंह भी सीरिया या ईरान के शासको की तरह बर्ताव कर पा रहे हैं। जहां पहले उनके अपने नागरिक उनका अपना देश हो। जाहिर है मनमोहन सिंह की साख देश में घटी भी इसलिये है क्योंकि वह बतौर इक्नॉमिस्ट कम पीएम जो लकीर खिंच रहे हैं, उसमें देश के अस्सी करोड नागरिक कहां-कैसे फिट बैठ रहे हैं, यह एक अबूझ पहली है। और जिन 20-30 करोड़ नागरिकों के जरीये भारत के भीतर एक अलग विकसित समाज बनाने का जो ताना बना बुना जा रहा है, उसका सच इतना त्रासदीदायक है कि पश्चिमी या देसी मीडिया की कोई भी हेडलाइन कमजोर पड़ जाये। मसलन जिस पहली दुनिया में मनमोहन सिंह को मान्यता है, उसी दुनिया की सूची [वर्ल्ड इक्नामिक फोरम] में भारत इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से विकास के पायदान पर 59 वें नंबर पर है । और देश के भीतर के हालात ऐसे है कि सिर्फ 35 करोड़ लोगों को ही आज की तारीख में 24 घंटे बिजली मिल सकती है। बाकियों को अंधेरे में रहना होगा। और उपलब्ध बिजली के बंटवारे के बाद किसानों के खाते में हर दिन सिर्फ 30 मिनट बिजली आयेगी। कोयला, बाक्साइड, गैस, पेट्रोल, डीजल, खाद, बीज और पानी तक की कीमत क्या होगी, यह चुनी हुई सरकार तय नहीं कर सकती। बल्कि जिन कंपनियों ने इनका ठेका लिया है या कहीं जो उनके उत्पादन से लेकर बांटने में लगी है, उन्हीं का मुनाफा तय करता है कि आम नागरिक को कितनी कीमत चुकानी है। इस घेरे में पढाई-लिखाई और इलाज को भी लाया जा चुका है। लेकिन इन सबसे जुड़े कंपनियों को सरकार कितना सब्सिडी जनता या देश के पैसे में से दे देती है, यह भी हैरतअंगेज सच है। सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को टैक्स देने में बीते तीन बरस में 2 लाख करोड से ज्यादा की छूट दे दी। यानी वह ना चुकाये। और इसी तरह एक्साइज में 423294 करोड़ और कस्टम में 621890 करोड की छूट दे दी। आप इसे कारपोरेट को मिलने वाली सब्सिडी भी कह सकते हैं। तो कौन सा भारत किस आर्थिक सुधार के जरिये खड़ा हो रहा है। और वाशिंगटन पोस्ट की नजर में खामोश मनमोहन सिंह की त्रासदी वाली रिपोर्ट सही है या फिर "हम आदिवासी" के ...सील पर पड़त निशान की रिपोर्ट।

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