नीचे कुछ पैराग्राफ अभय कुमार दुबे की किताब बाल ठाकरे से लिए हैं। यह किताब 1999 में प्रकाशित हुई थी। सात किताबों की सीरीज़ का यह हिस्सा थी। सीरीज़ का नाम था आज के नेता/आलोचनात्मक अध्ययनमाला। यह वह दौर था, जब भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय नेताओं का उठान शुरू हुआ था। इसकी प्रस्तावना में कहा गया था, 'ये लोग आज के नेता तो हां लेकिन आज़ादी के आंदोलन से निकले नेताओं की तरह सभी भारतीयों के नेता नहीं हैं। वे कुछ तबकों, जाति समूहों या किसी एक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि नज़र आते हैं।...इनमें से अधिकांश नेताओं का आगमन साठ के दशक के आसपास हुआ था और इसी किस्म के जो नेता सत्तर और अस्सी के दशक में उभरे उनके लिए अनुकूल इतिहास बनाने की शुरूआत भी साठ के ज़माने ने ही कर दी थी।...निश्चय ही ये नेता ज़मीन के जिस टुकड़े से जुड़े हुए हैं उसमें उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं।...इनका सौन्दर्यबोध, राजनीति से इतर विषयों की जानकारी और दिलचस्पी नेहरू युग के नेताओं के मुकाबले हीन प्रतीत होती है।...यही नेता हमारी राजनीति के वर्तमान हैं और ये भविष्य का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व नहीं करते, तो भी भविष्य इन्हीं के बीच से निकलने वाला है।' इस सीरीज़ में जिन नेताओं को कवर किया गया था वे थे मुलायम सिंह, ज्योति बसु, लालू यादव, कांसीराम, कल्याण सिंह, बाल ठाकरे और मेधा पाटकर। यह सीरीज़ आगे बढ़ी या नहीं, मेरे लिए कहना मुश्किल है। बहरहाल बाल ठाकरे का संदर्भ शुरू हुआ है, तो उनसे जुड़ी किताब के कुछ अंश पढ़ें--
"बाल ठाकरे ने साठ के दशक में जब अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया तो उनके पास कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी, केवल एक मराठी साप्ताहिक मार्मिक था और थोड़े से विचार थे। उनका साप्ताहिक मूलतः कार्टून छापता था और उसके नियमित लेखकों में स्वयं ठाकरे के पिता प्रबोधंकर ठाकरे ही प्रमुख थे। ठाकरे के विचार भी उस ज़माने की कसौटियों के मुताबिक कुछ अजीब से ही थे। उन्हें न तो वामपंथी खांचे में रखा जा सकता था और न ही दक्षिणपंथी खांचे में। उन्हें न तो राष्ट्रीय कहा जा सकता था और न हीक्षेत्रीय। ठाकरे जातिवाद का विरोध करते थे और इस तरह उनके चिंतन पर महाराष्ट्र के ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन का असर झलक आता था।...वे मराठीभाषियों के हितों के नाम पर उपराष्ट्रीयता की राजनीति करते नज़र आते थे लेकिन साथ ही वे अपने मराठीपन और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के द्रविड़पन के बीच तीखे विरोध को उभारने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते थे। उनका दावा होता कि द्रविड़ राष्ट्रीयता भारतीयता की विरोधी है पर मराठी राष्ट्रीयता पहले राष्ट्र फिर महाराष्ट्र के सिद्धांत को मानती है।...उनके साथ फ्री प्रेस जर्नल में काम कर चुके पत्रकारों ने भी स्वभावतः 'झगड़ालू और मुँहफट' बाल ठाकरे के मार्मिक में व्यक्त किए जाने वाले कभी गंभीर निगाह नहीं डाली। लेकिन इस उपेक्षा की परवाह किए बिना ठाकरे ने विज्ञापनों के संकट के बावज़ूद मार्मिक का प्रकाशन ज़ारी रखा। उसकी बिक्री बढ़ाने के चक्कर में उन्हें मराठीभाषी युवकों के लिए रोज़गार के मौके कम से कम होते चले जाने के मुद्दे को उछालने की तरकीब सूझी।...मार्मिक के ज़रिए उन्होंने कुछ ऐसा समां बांधा कि मराठीभाषियों को गैरमहाराष्ट्रीय अपने खिलाफ साज़िश करते लगे।...यही वह दौर था जब ठाकरे के दिमाग में एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन चलाने का ख्याल आया और अपने पिता से मशवरा करके उन्होंने शिव सेना के निर्माण की घोषणा की।उनका संगठन संभवतः दुनिया का अकेला संगठन था जो अपने अनुयायियों के लिए एक कार्टून साप्ताहिक के पाठकों पर निर्भर था और जो रोज़गारशुदा लोगों को संगठित करने से भी ज्यादा बेरोजगारों को संगठित करने में दिलचस्पी रखता था।"
"जब 1967 के संसदीय निर्वाचन में एक
प्रेशर गुट के रूप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी और 1968 के नगर निगम चुनाव में लगभग अकेली दम पर सबसे ज्यादा वोट पाकर दिखाए तो, उन लोगों की भी आँखें खुल गईं जो अभी तक ठाकरे को ध्यान देने योग्य भी नहीं मानते थे। फिर तो जॉर्ज फर्नांडिस, टीजेएस जॉर्ज, एसजी सरदेसाई, मैरी काट्जेंस्टीन, केके गंगाधरन और सुधा गोगटे सरीखे नेताओं, पत्रकारों और समाजशास्त्रियों ने शिवसेना पर लिखना शुरू कर दिया। इन लोगों के निष्कर्ष मोटे तौर पर इस प्रकार थे-
nशिवसेना मूलतः जज्बाती राजनीति की देन है और कांग्रेस के हाथों में एक राजनीतिक मोहरे के सिवा कुछ नहीं है।
n यह सामाजिक आंदोलन नहीं, बल्कि समाज विरोधी आंदोलन है।
nअगर मुंबई का बेतरतीब विकास न हुआ होताऔर इसमें बाहर से आने वाले लोगों पर रोक लगाई जा सकती तो इस आंदोलन को खड़े होने की गुंजाइश नहीं मिलती।
nशिवसेना स्वस्थ और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिए खतरा है।
nशिवसेना मजदूर वर्ग की एकता के लिए खतरा है।
...आज ध्यान से देखने पर लगता है कि ये सभी आलोचक
तर्क बुद्धि और
आधुनिकता के उदारतावादी तथा वामपंथी बौद्धिक प्रतिमानों से निर्देशित थे। इन सभी में घुमा-फिराकर एक बात थी कि आधुनिकता के उत्तरोत्तर प्रवेश के साथ ठाकरे और शिवसेना जैसे आंदोलनों की गुंजाइश खत्म हो जाएगी।...अध्येतागण जल्द ही इन समस्याओं को कुछ-कुछ समझ गए और सत्तर-अस्सी और नब्बे के दशक में शिवसेना के ज्यादा बेहतर और ज्यादा सम्पूर्ण अध्ययन सामने आए।
दीपांकर गुप्ता, जयंत लेले, और गेरार्ड ह्यूज़ ने ठाकरे की संगठन शैली, विचारधारा और समाज से रिश्तों की बारीक छानबीन पेश की। "
"वामपंथी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का समर्थक होने के नाते मेरे लिए बाल ठाकरे का चित्रण एक साम्प्रदायिक, संकीर्ण, फासिस्ट, हिंसक और असामाजिक नेता के रूप में कर देना आसान था। और अगर मैं ऐसा करता तो इसे तथ्यतः गलत भी नहीं ठहराया जा सकता था। लेकिन तब मुझे इस तर्क को मान्यता दे देनी पड़ती कि मुंबई की मराठी भाषी जनता पिछले तीस वर्षों से बाल ठाकरे को अपना मनोवैज्ञानिक शोषण करने दे रही है। जनोन्मुखता के नाम पर जनता के कथित 'पिछड़ेपन' पर सारी जिम्मेदारी थोप देने की इस बौद्धिक आत्मरति का अच्छा खासा पाठक वर्ग मौज़ूद है। मुझे उसकी शाबासी आसानी से मिल सकती थी। लेकिन यह तरीका अपना कर मैं अंतिम विश्लेषण में एक और बौद्धिक क्षोभ को निमंत्रण दे डालता। इसलिए मैने इस सच्ची कहानी में ठाकरे, उनके शिव सैनिकों, और उनका समर्थन करने वाली लाखों-लाख जनता को भारतीय लोकजीवन के एक तथ्य के रूप में देखने की चेष्टा की। ....।"
"पहले उनके दुश्मन गैरमहाराष्ट्रीय और खासतौर से दक्षिण भारतीय होते थे और उनका एलान था कि अगर कम्युनिस्टों और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम को भंग कर दिया जाए तो शिवसेना का उद्देश्य पूरा हो जाएगा और वे उसे भंग कर देंगे। अब उनका दुश्मन 'मुसलमान' हो गया है जिसकी वफादारी उनके मुताबिक पाकिस्तान के साथ है।...शिवसेना की स्थापना के पहले और बाद में
मार्मिक के जरिए ठाकरे बार-बार एक
परोपकारी हुक्मशाही(तानाशाही) की राष्ट्रीय ज़रूरत को रेखांकित करते रहे हैं। यह विकलांग लोकतंत्र इस देश के ऊपर भार है।...इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजंसी का ठाकरे ने यही कह कर समर्थन किया था।...ठाकरे ने गृहयुद्ध, फौज के हस्तेक्षेप और राजनीतिक प्रणाली की राख में से फीनिक्स पक्षी की तरह उभरने वाले नए भारत की भविष्य दृष्टि पहली बार महाराष्ट्र में अपनी सरकार बनने के बाद ही व्यक्त की।...फ्रांसीसी समाजशास्त्री गेरार्ड ह्यूज़ लिखते हैं, शिवसेना एकसाथ सम्पूर्ण क्रांति की बात भी करती है और फौजी शासन की भी। वह राजनीति में लिप्त है, लेकिन राजनेताओं से घृणा करने का दिखावा करती है।"
"...सुधा गोगटे का अध्ययन दिखाता है कि मुम्बई को महराष्ट्र में शामिल किए जाने की खुशी और समारोह अभी मंद नहीं पड़े थे कि मराठीभाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया। उस व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्कृति ौर भाषा के लिए कोई स्थान न था।"
"मुम्बई की दुनिया को ठीक से न समझने के कारण कम्युनिस्ट सिद्धांतकार लहराते हुए झंड़ों को देखकर ही संतुष्ट होते रहे। फैक्ट्री के दरवाजे के अंदर 'लाल झंडा जिन्दाबाद' करते मजदूर कैसे फैक्ट्री से बाहर शिवसैनिक हो जाते हैं-इस प्रक्रिया की उन्होने काफी हद तक अनदेखी की।...बाल ठाकरे ने तय किया कि क्यों न मजदूरों को फैक्ट्री के अंदर भी शिव सैनिक बना लिया जाए। इसी उद्देश्य के लिए 1968 में ही उन्होंने भारतीय कामगार सेना स्थापित की जिसका घोषित उद्देश्य कम्युनिस्टों को ट्रेड यूनियन मैदान से खदेड़ना था।...कम्युनिस्टों ने शिवसेना के खिलाफ कभी काम नहीं किया।...ठाकरे ने अपनी ट्रेड यूनियन गतिविधियों और मराठीभाषियों को रोजगार देने के मुद्दे को लगभग जोड़ दिया। उन्होंने शिवसेना का एक एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो खोला।...फैक्ट्री में हड़ताल होने पर शिवसेना शुरू में ही विरोधी रुख नहीं अपनाती थी। जब हड़ताल कुछ हफ्ते पुरानी हो जाती और समझौते की संभावना नहीं दीखती तो कामगार सेना के लोग मजदूरों को हड़ताल की व्यर्थता के बारे में समझाते। जब मजदूर काफी संख्या में उनके साथ चले जाते तो दत्ता साल्वे, दत्ता प्रधान या मनोहर जोशी में से कोई आकर प्रबंधन से बात करता। प्रबंधन कुछ माँगें मान लेता और शिवसेना को समझौते का श्रेय मिल जाता।...अपने निजी व्यक्तित्व और नेतृत्व को विशेष रूप से चमकदार बनाने के लिए ठाकरे ने शिवसेना की फिल्म जगत से सम्बंधित गतिविधियों को सीधे अपनी कमान में रखा। मार्च 1970 में उन्होंने चित्रपट शाखा खोली और अपने नजदीकी दोस्त और फिल्म निर्माता गजानन शिर्के को इसका इंचार्ज बनाया। इस काम में ठाकरे ने सम्भवतः जान-बूझकर गैरमहाराष्ट्रीयों को भी लगाया "
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