शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

कथनी और करनी की परीक्षा

इस हफ्ते पेश होने वाले रेल बजट और फिर आम बजट पर केवल भारत के लोगों की निगाहें नहीं हैं। सारी दुनिया की निगाहें है। एक दशक बाद ऐसी सरकार आई है जो वैश्वीकरण, तकनीकी विकास, शहरीकरण और आर्थिक संवृद्धि के पक्ष में खुलकर बोल रही है। भारत के बाहर यूरोप, अमेरिका से लेकर चीन और जापान जैसे देशों तक की इन दोनों बजटों पर निगाहें हैं। इसकी वजह है भरत में बड़े स्तर पर इनफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश का समय आ रहा है। मोदी सरकार ने रक्षा और रेलवे में भारी निवेश का संकेत तो दिया है साथ ही विदेशी पूँजी निवेश पर लगी बंदिय़ों को हटाने का इरादा भी ज़ाहिर किया है। देश में आर्थिक उदारीकरण का श्रेय अभी तक सन 1991 की कांग्रेस सरकार को और खासतौर से मनमोहन सिंह को दिया जा रहा था। संयोग है कि वही मनमोहन सरकार इसबार आर्थिक और प्रशासनिक सवालों को लेकर ढेर हो गई और मोदी सरकार उन्हीं सूत्रों को लेकर आगे बढ़ रही है, जिसका दावा मनमोहन सिंह करते रहे, पर उन्हें पूरा करके नहीं दिखा पाए।

देश के सामने तीन बड़े सवाल हैं। क्या महंगाई घटेगी? मई 2014 में थोक मूल्य सूचकांक मई 2013 की तुलना में 6.5 प्रतिशत बढ़ गया। यह चिंता की बात था, पर इससे ज्यादा चिंता की बात यह थी कि इन मूल्यों के महत्वपूर्ण तत्व खाद्य सामग्री की कीमतों में यह बढ़ोत्तरी 9.5 फीसदी थी। गरीब जनता को खाद्य वस्तुओं की कीमतें सबसे ज्यादा चोट पहुँचाती हैं। मुद्रास्फीति घटेगी तो जनता को राहत तो मिलेगी ही, ब्याज की दरें घटेंगी जिससे आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी तो रोजगार तैयार होंगे। इससे जनता की क्रयशक्ति बढ़ेगी जिससे उपभोग बढ़ेगा और विकास का पहिया आगे बढ़ेगा। देश को अगले 20 साल में 30 करोड़ नौकरियां पैदा करनी हैं। यानी पूरे दो अमेरिका। महंगाई के बाद दूसरी चुनौती है अर्थव्यवस्था को उस दलदल से बाहर लाना जिसमें वह फंसकर रह गई है। राजकोषीय घाटे को न्यूनतम स्तर पर लाना। राजस्व बढ़ाना। तीसरा मसला है सुशासन का, जिसपर सवार होकर मोदी सरकार आई है। चारों ओर फैले भ्रष्टाचार का क्या होगा? और यह कैसे दूर होगा?

मॉनसून की आसन्न विफलता और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की राजनीति के कारण आलू और प्याज की बढ़ती कीमतों की खबर से सरकार घबरा गई है। उसने जल्दबाजी में फैसले करने शुरू कर दिए हैं। सरकार ने पिछले हफ्ते प्याज और आलू को आवश्यक वस्तु अधिनियम की लिस्ट में शामिल कर लिया। इस फैसले के बाद अब राज्य सरकारें तय कर सकेंगी कि कारोबारी स्टॉक में कितना आलू-प्याज रखें। सरकार ने जमाखोरी रोकने के लिए राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ा दी है। सम्भव है यह कदम कारगर हो, पर लगता है कि सरकार जल्दी कर रही है। इन दिनों इन चीजों के दाम बढ़ते ही हैं। इनकी लम्बे अरसे तक जमाखोरी भी सम्भव नहीं। बेहतर होगा कि सप्लाई बढ़ाने की कोशिश की जाए। इसके लिए आयात का सहारा लेना चाहिए। खाद्य वस्तुओं की डिब्बाबंदी के उद्योग को बढ़ावा देने की जरूरत भी है। हालांकि उनका खरीदार आमतौर पर मध्यवर्ग है, पर डिब्बाबंद खाद्य वस्तुएं अंततः फौरी तौर पर होने वाली मूल्यवृद्धि को रोक सकती हैं। पर अभी हमारा यह उद्योग विकसित नहीं है। सब्जी और फलों का प्रभाव तात्कालिक होता है। अनाज और दालों का प्रभाव हमारे देश में दीर्घकालिक है। दिल्ली सरकार ने अलग-अलग जगहों पर सस्ता प्याज बेचना भी शुरू कर दिया है। पर यह सब मानसिक रूप से जनता को तैयार करने के लिए है। 

सच यह है कि सरकार को कुछ अलोकप्रिय कदम उठाने ही होंगे। उस अलोकप्रियता का सामना राजनीतिक स्तर पर करना होगा। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संकेत दिया है कि वे लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। वस्तुतः फौरी लोकप्रियता लम्बे समय की अलोकप्रियता का कारण भी बनती है। सरकार ने गैस सिलेंडरों की कीमतों में वृद्धि टाल दी है, पर सब्सिडी का पहाड़ उसे पार करना ही है। शायद बजट में एलपीजी की कीमत 50 रुपए सिलेंडर तक बढ़े। या फिर एलपीजी सिलेंडर की कीमत हर महीने 10 रुपए बढ़ेगी। वहीं केरोसीन भी 2-3 रुपये प्रति लीटर महंगा हो सकता है। डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ सकती है वगैरह। खाद्य वस्तुओं की कीमतों का फौरी तौर पर समाधान हो भी जाए, पर अब हमें बड़े स्तर पर उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा जैसी योजनाओं और रोजगार के अन्य प्रयासों के कारण जनता की क्रय शक्ति बढ़ेगी। तब गुणात्मक रूप से खाद्य वस्तुओं की माँग और बढ़ेगी। दूध, फल, मांस, मछली, सब्जी और अंडों की माँग बढ़ेगी। इनके उत्पादन का रोजगार सृजन से भी रिश्ता है। इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही भंडारण व्यवस्था भी बेहतर बनानी होगी। रिटेल बाजार में विदेशी निवेश हो या न हो पर कोल्ड स्टोरेज वगैरह पर कहीं न कहीं से निवेश लाना ही होगा। 

उद्योग जगत मान रहा है कि सरकार का पहला बजट ग्रोथ और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने वाला होगा। प्रोजेक्ट मंजूरी के लिए सिंगल विंडो क्लियरेंस और प्रोजेक्ट के लिए आसान कर्ज की सुविधा होगी। देश में बिजनेस करना आसान बनेगा। पर्यावरणीय अड़ंगे दूर होंगे। बीमार पीएसयू के विनिवेश का ऐलान होगा। एक्सपोर्ट सेक्टर को रियायतें मिलेंगी वगैरह। आर्थिक उदारीकरण की दिशा में जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड का कोई ठोस रोडमैप सामने आएगा। भूमि अधिग्रहण बिल में बड़े बदलाव हो सकते हैं। कंपनी कानून में बदलाव के साथ एसईजेड पॉलिसी में बड़े बदलाव संभव हैं।

आम बजट की तरह रेल बजट भी लोकलुभावन बनाम वास्तविकता के विवाद से जुड़ा है। हाल में हुई मालभाड़ा वृद्धि टाली जाती तो रेल के भावी विकास के काम टलते। रेलवे को गाड़ियों की दशा सुधारने, सुरक्षा बढ़ाने, माल लदान बढ़ाने, नए ट्रैक तैयार करने और विद्युतीकरण बढ़ाने की जरूरत है। उधमपुर कटरा लाइन शुरू करते वक्त नरेंद्र मोदी ने कहा कि रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के प्रयास किए जाएंगे। रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश का प्रतिफल देर से मिलता है। निजी पूँजी निवेश का मतलब सरकारी उद्यमों का अहित नहीं है। इसके लिए सार्वजनिक उद्यमों को भी खुली प्रतियोगिता में आने की छूट मिलनी चाहिए। संसद का बजट सत्र मोदी सरकार के वादों-दावों और सपनों की पहली झलक दिखाएगा। इसलिए यह हफ्ता बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। केवल इसलिए नहीं कि इसके साथ भारत का भविष्य जुड़ा है। भारत की आर्थिक संवृद्धि वैश्विक संवृद्धि के लिए भी जरूरी है। भारत बदलेगा तो दुनिया की हालत सुधरेगी। 

हरिभूमि में प्रकाशित

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