आम आदमी पार्टी (आप) के आर्थिक दर्शन और नीतियों से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा है। हालांकि पार्टी ने वायदे के बावजूद अब तक अपने आर्थिक दर्शन और अर्थनीति संबंधी दस्तावेज पेश नहीं किया है, लेकिन उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल और मुख्य विचारक- रणनीतिकार योगेन्द्र यादव के हालिया भाषणों और बयानों से पार्टी की अर्थ नीति की दिशा साफ होने लगी है। केजरीवाल ने उद्योगपतियों के लॉबी संगठन- सीआईआई की सभा में यह कह कर पार्टी के आर्थिक दर्शन की दिशा स्पष्ट कर दी कि पार्टी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है और वह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का विरोध करती है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और बिजनेस पूरी तरह से निजी क्षेत्र और उद्यमियों का काम है। इसके लिए लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज खत्म होना चाहिए। दूसरी ओर, ‘आप’ के मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने मुंबई में निवेशकों की एक सभा में कहा कि खाद्य सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि सीधे खाद्यान्न देना गरीबों की मदद का सबसे निष्प्रभावी और महंगा तरीका है। उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं, बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बना कर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है, ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके। यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए विनि यमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है।
अर्थ नीति कोई नई तो नहीं चौंक गए? ये बातें पहले भी सुनी हुई लग रही हैं? आपका चौंकना स्वाभाविक है क्योंकि आम आदमी पार्टी के नेताओं के अर्थ नीति संबंधी इन बयानों में नया कुछ नहीं है। न भाषा में और न लहजे में। कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक दर्शन और अर्थ नीति की दिशा यही है। केजरीवाल और योगेन्द्र यादव कमोबेश वही बोल रहे हैं, जिसे देश पिछले दो दशकों से अहर्निश मनमोहन सिंह-पी चिदंबरम-मोंटेक सिंह अहलुवालिया से सुनता रहा है और इन दिनों नरेन्द्र मोदी से सुन रहा है। अगर ‘आप’ की अर्थ नीति की दिशा के बारे में केजरीवाल और यादव के ताजा बयानों और भाषणों को उसकी भविष्य में घोषित होने वाली आर्थिक नीति की पूर्व पीठिका मानें तो सच यह है कि अर्थ नीति के बुनियादी उसूलों और दिशा के बारे में मनमोहन सिंह, नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल की सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। संभव है कि योगेन्द्र यादव इसे स्वीकार न करें लेकिन संकेत यही है कि वे जिस अर्थ नीति की वकालत कर रहे हैं, वह उसी नव उदारवादी अर्थ नीति की बगलगीर दिखाई पड़ रही है, जिसका समर्थन कांग्रेस और भाजपा करती रही हैं और जो पिछले दो दशकों से केंद्र में सरकारों में बदलाव के बावजूद बिना किसी रु कावट के जारी हैं। आम आदमी पार्टी की अर्थ नीति-नव उदारवादी अर्थ नीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थ नीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थ नीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरु ण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थ नीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल कर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थ नीति तय करने के लिए सात सदस्यीय नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं।
निश्चय ही, आम आदमी पार्टी के नव उदारवादी अर्थ नीति को गले लगाने के साफ संकेतों के कारण उनके बहुतेरे समर्थकों और शुभचिंतकों को निराशा हुई है, जो उससे अर्थ नीति के मामले में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और दर्शन की अपेक्षा कर रहे थे। हालांकि पार्टी के विचारक और मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र का कहना है कि आप 20वीं सदी की विचारधाराओं और वैचारिक खेमों-वाम और दक्षिण में विास नहीं करती है और उन्हें भारत के लिए प्रासंगिक नहीं मानती है। यह भी कि ‘आप’ किसी भी पूर्व निर्धारित आर्थिक नीति के पैकेज से सहमत नहीं है और देश की जरूरतों के मुताबिक हर आर्थिक समस्या का घरेलू समाधान ढूंढने की कोशिश करेगी। केजरीवाल भी कह चुके हैं कि वह वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों में यकीन नहीं करते हैं और समस्याओं का जहां से भी समाधान मिलेगा, उसे लेने में उन्हें परहेज नहीं होगा। इन दावों और बयानों से ऐसा भ्रम होता है कि ‘आप’
वाम और दक्षिण से अलग एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक वैचारिकी की वकालत कर रही है। लेकिन सच यह है कि वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों और नीतिगत पैकेजों को खारिज करने का जुबानी दावा करते हुए भी आम आदमी पार्टी वास्तव में एक दक्षिणपंथी आर्थिक एजेंडे यानी मुक्त बाजार की नव उदारवादी अर्थ नीति को ही नए पैकेज में पेश करने की कोशिश कर रही है। लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने- पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है। वैसे ‘आप’ इसे छुपाना भी नहीं चाहती है। इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है। इस मायने में कांग्रेस, भाजपा और ‘आप’ यानी तीनों पार्टयिां नव उदारवादी अर्थ नीति के साथ खड़ी हैं और फर्क सिर्फ कुछ मामलों में जोर और प्रस्तुति भर का है। उदाहरण के लिए, कांग्रेस नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को गरीबों को कुछ मामूली राहतों (जैसे मनरेगा, भोजन के अधिकार आदि) के साथ लागू करने के पक्ष में है, जबकि भाजपा-नरेन्द्र मोदी उसे बिना किसी बाधा और गरीबों को राहत देने जैसे सब्सिडी बोझ के बगैर लागू करना चाहते हैं। वहीं, ‘आप’ का दावा है कि वह इसे बिना याराना (क्रोनी) पूंजीवाद के लागू करना चाहती है। यही नहीं, नव उदारवादी अर्थ नीति को लागू करने के मामले में ‘आप’ वास्तव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के ज्यादा करीब खड़ी है। असल में, आम आदमी पार्टी के नेताओं और रणनीतिकारों को लगता है कि शासन की पार्टी (पार्टी ऑफ गवन्रेस) बनने के लिए बड़ी पूंजी और कॉरपोरेट्स का भरोसा जीतना जरूरी है। इसके बिना सत्ता में पहुंचना और खास कर सरकार चला पाना मुश्किल है। यही कारण है कि आप के नेता सीआईआई से लेकर मुंबई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं। यही नहीं, खुदरा व्यापार में एफडीआई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सीएजी से ऑडिट कराने और केजी बेसिन गैस मामले में एफआईआर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कॉरपोरेट जगत को आास्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं, बल्कि चुनिंदा मामलों में किए गए फैसले भर हैं।
नव उदारवादी अर्थ नीति और याराना पूंजीवाद लेकिन सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी अर्थ नीति से याराना पूंजीवाद या भ्रष्टाचार को अलग किया जा सकता है? बिल्कुल नहीं, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म का सीधा संबंध नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से है। सच यह है कि इन सुधारों के साथ भ्रष्टाचार का भी पूरी तरह से उदारीकरण हो गया है। इसका सुबूत यह है कि आजादी के बाद से भारत से जो कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर गया, उसका 68 प्रतिशत अकेले 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से गया है। ग्लोबल फिनान्सियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) रिपोर्ट-2013 के मुताबिक, 1948 से 2008 के बीच अवैध तरीके से भारत से लगभग 213 अरब डॉलर की रकम विदेशों में खास कर ऑफशोर बैंकों में चली गई। अगर इस रकम को मुद्रास्फीति के साथ एडजस्ट करें तो भ्रष्ट और घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों और माफिया ने इन साठ वर्षो में कोई 462 अरब डॉलर की रकम लूट कर विदेशों में भेज दी। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका 68 प्रतिशत यानी 314 अरब डॉलर आर्थिक सुधारों के शुरू होने के बाद गए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन 9.1 प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरु आत के बाद उछल कर सीधे 16.4 प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा। यही नहीं, रिपोर्ट के अनुसार, 2002 से 2008 के बीच औसतन हर साल 16 अरब डॉलर यानी 736 अरब रपए का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया। असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है। पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है। लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है, जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस- कोटा-परमिट है। अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है। दूसरे, उदारीकरण के इस दौर में कम्पनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है। खास कर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोल-तोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है। यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ाने वाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटाने वाला बना दिया गया। नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी- विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है, जिसने राज्य को कॉरपोरेट्स की सेवा में लगा दिया है। राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खास कर दुलर्भ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है।
आनंद प्रधान
आर्थिक मामलों के जानकार
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