गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.
मोदी सरकार को क्या कोई ‘हनीमून पीरियड’ मिलना चाहिए? उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की बातें कीं उनसे लगता था कि वे आते ही सब कुछ ठीक कर देंगे? पर यह तो चुनाव प्रचार की बात थी. दावे कांग्रेस के भी इसी प्रकार के थे. पर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के वक्तव्यों में व्यावहारिकता है. राष्ट्रपति के अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के जवाब में मोदी ने कहा कि हम पिछली सरकारों के अच्छे काम-काम को आगे बढ़ाने और इस सदी को भारत की सदी साबित करेंगे. उन्होंने विपक्ष की ओर देखते हुए कहा कि हमें आपका समर्थन भी चाहिए. हमसे पहले की सरकारों ने भी अच्छा काम किया है. हम उसमें कुछ नया जोड़ने की कोशिश करेंगे.
नीति और दिशा के स्तर पर यूपीए और एनडीए की सरकार में कोई बड़ा फर्क नहीं है. अंतर केवल राजनीतिक स्तर पर है. मोदी सरकार के ऊपर कोई 10 जनपथ नहीं है और न कोई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद है. नयापन है तो विपक्ष में. पहले सरकार कमजोर थी और विपक्ष मुखर था. अब सरकार ताकतवर है और विपक्ष खामोश. कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर हैं. इधर एके एंटनी ने कांग्रेस के अति अल्पसंख्यक-मुखी होने को लेकर जो टिप्पणी की है वह एक नई बहस को जन्म देने वाली है. दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी के गैर-सत्ताधारी मिजाज को लेकर जो कुछ कहा है उसके गूढ़ अर्थ निकाले जा रहे हैं.
अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सीधा हस्तक्षेप भी सरकारी काम-काज में दिखाई नहीं पड़ा है. चुनाव के ठीक पहले तक मुखर भाजपा की भीतरी गुटबाज़ी फिलहाल छिप गई है. अभी मंत्रिमंडल का एक महत्वपूर्ण विस्तार बाकी है, इसलिए उम्मीद लगाए बैठे नेता कामोश हैं. सत्ता की राजनीति में कार्यकर्ताओं को इनाम-इकराम की जरूरत होती है. मोदी सरकार ने जनता से ‘कड़वी गोली’ की बात कहने के बाद कुछ कड़वे फैसले भी करके दिखा दिए. राजनीतिक सतह पर सरकार जोखिम उठाने को तैयार है. सरकार फैसले करती नजर आती है.
रेलवे के किराए-भाड़े में हुई वृद्धि से जनता नाराज जरूर है, पर उसने सरकार को खारिज नहीं किया है. उसे बजट से उम्मीदें हैं. सच यह है कि तीन चौथाई साल गुजर चुका है. तमाम व्यवस्थाएं पहले से हो चुकी हैं. बजट से लोगों को तीन-चार उम्मीदें हैं. पहली है आयकर सीमा बढ़ने की. अरुण जेटली खुद कह चुके हैं कि आयकर की सीमा दो लाख से बढ़ाकर पाँच लाख रुपए सालाना होनी चाहिए. क्या वे ऐसा कर पाएंगे? यह बेहद मुश्किल काम है. ऐसा होने का मतलब है तकरीबन तीन करोड़ लोग टैक्स के दायरे से बाहर हो जाएंगे. सरकार के सामने राजकोषीय घाटे को पाँच फीसदी से नीचे लाने की चुनौती है. एक लाख करोड़ से ऊपर की सब्सिडी को घटाने पर अलोकप्रिय होने का खतरा है.
अर्थ-व्यवस्था धीमी गति से बढ़ रही है. सम्भावना है कि सरकार गरीबों के स्वास्थ्य की गारंटी की कोई योजना लेकर आएगी. गुजरात में मोदी सरकार की दो स्वास्थ्य योजनाएं खासतौर से लोकप्रिय हुईं. एक चिरंजीवी योजना, जिसके तहत बाल मृत्युदर को कम करने की कोशिश की गई. दूसरी है मुख्यमंत्री अमृतम योजना, जिसके तहत गरीबों के इलाज के लिए दो लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा किया जाता है. गुजरात में तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में 108 ऐम्बुलेंस योजना सफल हुई है. सम्भवतः उसे पूरे देश में लागू करने की कोई घोषणा हो. हरेक राज्य में एम्स बनाने, ‘मच्छर मुक्त भारत’बनाने, ब्रॉडबैंड हाइवे, 100 नए शहर, चौबीस घंटे बिजली-पानी जैसे वादे करती रही है. ऐसे वादे अगले कुछ महीनों में पूरे होने से रहे. पर उस दिशा में कुछ बढ़ सके तो मोदी सरकार की उपलब्धि होगी.
इस हफ्ते की खबर है कि महंगाई की दो कड़वी खुराक देने के बाद सरकार और झटके देने के मूड में नहीं है. सरकार रसोई गैस और मिट्टी के तेल पर अंडर रिकवरी को कम करने के लिए डीजल फॉर्मूले को अपनाने पर विचार कर रही है. यानी रसोई गैस और मिट्टी तेल पर दी जा रही भारी भरकम सब्सिडी का बोझ धीरे-धीरे कम किया जाएगा. यह रास्ता पिछली सरकार ने ही निकाला था. पिछले साल जनवरी में तेल विपणन कंपनियों को डीजल की अंडर रिकवरी कम करने के लिए हर माह 50 पैसे प्रति लीटर तक बढ़ोतरी करने की छूट दी थी. सितम्बर में डीज़ल पर 14.50रूपए की सब्सिडी थी, जो अब घटती हुई1.62रूपए प्रति लीटर ही रह गई है. पेट्रोल पहले ही नियंत्रण से मुक्त है. पर रसोई गैस के सिलेंडर पर अंडर रिकवरी 433 रूपए है. इसे कम करने या खत्म करने के लिए बाजीगरी जैसे कौशल की जरूरत है. ईधन की कुल एक लाख 15 हजार 548 करोड़ रूपए की सब्सिडी में से आधी रसोई गैस पर है. एक बाज़ीगरी सरकारी उपक्रमों के विनिवेश में देखने को मिलेगी. स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) से इसकी शुरुआत होने जा रही है. यूपीए सरकार ने पिछले वित्त वर्ष में सेल में 10.82 फीसदी हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया था. शेयर बाजार की खराब हालत के कारण वह मार्च 2013 में 5.82 फीसदी शेयर ही बेच पाई. इससे सरकार को 1,516करोड़ रुपए मिले थे. बाकी बचे 5 फीसदी अब बेचे जाएंगे. संयोग से शेयर बजार खुश है.
जनता की खुशी और नाराजगी बड़ी बातों को लेकर नहीं होती. उसका मसला है महंगाई और रोज़गार. सबसे बड़ी चुनौती खाद्य सामग्री की कीमतों को लेकर है. इसमें सब्जियों, फलों और दूध की कीमतें शामिल हैं, जो मॉनसून के अच्छे या बुरे होने पर बढ़ती-घटती हैं. अच्छे या बुरे दिनों का मुहावरा अनाज की कीमतों से जुड़ा है. इनसे पार पा लिया तो विनिवेश, पूँजी निवेश, रक्षा खरीद, नाभिकीय ऊर्जा और इनफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े दूसरे काम संभव हैं. ये काम बड़े हैं और उनके सहारे ही अर्थ-व्यवस्था की प्रगति सम्भव है. पर पहली जरूरत है जनता की दिल जीतने की. इंतज़ार करें अगले सोमवार का, जब सरकार की पहली परीक्षा होगी.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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