शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

वे कौन लोग हैं जो एसपी को याद करते हैं

पुण्य प्रसून बाजपेयी


वे कौन लोग है जो एसपी को याद करते हैं। वे कौन लोग है जो खुद को ब्रांड बनाने पर उतारु हैं, लेकिन एसपी को याद करते हैं।  वे कौन लोग है जो पत्रकारिता को मुनाफे के खेल का प्यादा बनाते हैं लेकिन एसपी को याद करते हैं। वे कौन है जो एसपी की पत्रकारीय साख में डुबकी लगाकर अतीत और मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को बांट देते हैं। वे कौन है जो समाज को कुंद करती राजनीति के पटल पर बैठकर पत्राकरिता करते हुये एसपी की धारदार पत्रकारिता का गुणगान करने से नहीं कतराते। वे कौन है जो एसपी को याद कर नयी पीढी को ग्लैमर और धंधे का पत्रकारिता का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते। वे कौन है जो पदों पर बैठकर खुद को इतना ताकतवर मान लेते हैं कि एसपी की पत्रकारिता का माखौल बनाया जा सके और मौका आने पर नमन किया जा सके। इतने चेहरों को एक साथ जीने वाले पत्रकारीय वक्त में एसपी यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह को याद करना किसी त्रासदी से कम नहीं है। मौजूदा पत्रकारों की टोली में जिन युवाओ की उम्र एसपी की मौत के वक्त दस से पन्द्रह बरस रही होगी आज की तारिख में वैसे युवा पत्रकार की टोली कमोवेश हर मीडिया संस्थान में है। खासकर न्यूज चैनलों में भागते-दौड़ते युवा कामगार पत्रकारों की उम्र पच्चीस से पैंतीस के बीच ही है। जिन्हें २७ मई १९९७ में यह एहसास भी ना होगा कि उनके बीच अब एक ऐसा पत्रकार नहीं रहा जो २०१४ में जब वह किसी मीडिया कंपनी में काम कर रहे होंगे तो पत्रकरीय ककहरा पढने में वह शख्स मदद कर सकता है। वाकई सबकुछ तो बदल गया फिर एसपी की याद में डुबकी लगाकर किसे क्या मिलने वाला है। कही यह पत्रकरीय पापों को ढोते हुये पुण्य पाने की आकांक्षा तो नहीं है। हो सकता है। क्योंकि पाप से मुक्त होने के लिये कोई दरवाजा तो नहीं बना लेकिन भागवान को याद कर सबकुछ तिरोहित तो किया ही जाता रहा है और यही परंपरा पत्रकारिय जीवन में भी आ गयी है तो फिर गलत क्या है। हर क्षण पत्रकारिय पाप कीजिये और अपने अपने भगवन के सामने नतमस्तक हो जाइये। लेकिन पत्रकारीय रीत है ही उल्टी। यहा भगवन याद तो आते है लेकिन खुद को घोखा दे कर खुद को मौजूदा वक्त में खुद को सही ठहरा कर याद किये जाते हैं। सिर्फ एसपी ही नहीं राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा को भी तो हर बरस इसी तरह याद किया जाता है। यानी जो हो रहा है उसके लिये मै जिम्मेदार नहीं। जो नहीं होना चाहिये वह रोकना मेरे हाथ में नहीं। कमोवेश हर संपादक के हाथ हर दायरे में बंधे है इसका एहसास वह अपने मातहत काम करने वाले वालो को कुछ इस तरह कराता है जैसे उसकी जगह कोई दूसरा आ जाये या फिर परेशान और प्रताड़ित महसूस करती युवा पीढी को ही पद संभालना पड जाये तो वह ज्यादा अमानवीय, ज्यादा असंवेदनशील और कही ज्यादा बडा धंधेबाज हो जायेगा । क्योंकि मौजूदा वक्त की फितरत ही यही है। तो क्या एसपी को याद करना आज की तारीख में मौत पर जश्न मनाना है । हिम्मत चाहिये कहने के लिये । लेकिन आइये जरा हिम्मत से मौजूदा हालात से दो दो हाथ कर लें। मौजूदा वक्त में देश को नागरिको की नहीं उपभोक्ताओं की जरुरत है । साख पर ब्रांड भारी है। या कहे जो ब्रांड है साख उसी की है । नेहरु से लेकर इंदिरा तक साख वाले नेता थे। मोदी ब्रांड वाले नेता हैं। यानी देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो जिस भी उत्पाद को हाथ में लें ले या जुबान पर ले आये उसकी कमाई बढ़ सकती है। एसपी की पत्रकारिता ने इंदिरा की साख का उजाला भी देखा और अंधेरा भी भोगा। एसपी की पत्रकारिता ने जेपी के संघर्ष में तप कर निकले नेताओ का सत्ता मिलने पर पिघलना भी देखा । और जोड़तोड़ या मौका परस्त के दायरे में पीवी नरसिंह राव से लेकर गुजराल और देवेगौडा को भी देखा । बाबरी मस्जिद और मंडल कमीशन तले देश को करवट लेते हुये भी एसपी की पत्रकारिता ने देखा। और संयोग ऐसा है कि देश की सियासत एसपी की मौत के बाद कुछ ऐसी बदली कि जीने के तरीके से लेकर देश को समझने के तौर तरीके ही बदल गये । बीते पन्द्रह बरस स्वयंसेवक के नाम रहे । या तो संघ का स्वयंसेवक या फिर विश्व बैंक का स्वयंसेवक । देश की परिभाषा बदलनी ही थी । पत्रकारिता की जगह मीडिया को लेनी ही थी।

संपादक की जगह मैनेजर को लेनी ही थी। साख की जगह ब्रांड को छाना ही था । तो ब्रांड होकर साख की मौत पर जश्न मनाना ही था। असर इसी का है कि तीन बरस पहले एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने यमुना की सफाई अभियान को टीवी के पर्दे पर छेड़ा । बहुतेरे ब्रांडों के बहुतेरे विज्ञापन मिले। अच्छी कमाई हुई । तो टीवी से निकल कर यमुना किनारे ही जश्न की तैयारी हुई। गोधुली वेला से देर शाम तक यमुना की सफाई की गई। कुछ प्लास्टिक, कुछ कूडा जमा किया गया । उसे कैमरे में उतारा गया। जिसे न्यूज चैनल पर साफ मन से दिखाया गया । लेकिन देर शाम के बाद उसी यमुना किनारे जमकर हुल्लबाजी भी की। पोलेथिन पैक भोजन और मदिरापान तले खाली बोतलों को उसी यमुना में प्रवाहित कर दिया गया जिसकी सफाई के कार्यक्रम से न्यूज चैनल ने करोड़ों कमाये। तो ब्रांडिग और साख का पहला अंतर सरोकार का होता है। ब्रांड कमाई पर टिका होता है।
साख सरोकार पर टिका होता है । मौजूदा वक्त में देश के सबसे बडे ब्रांडप्रधानमंत्री ने मैली गंगा का जिक्र किया और हर संपादक इसमें डुबकी लगाने को तैयार हो गया। ऐसी ही डुबकी अयोद्या कांड के वक्त भी कई पत्रकारों- संपादकों ने लगायी थी। लेकिन एसपी ने उस वक्त सोमनाथ से अयोध्या तक के तार से देश के टूटते तार को बचाने की लिखनी की। एसपी होते तो आज पहला सवाल न्यूज रुम में यह दागते कि गंगा तो साफ है मैले तो यह राजनेता है । और फिर रिपोर्टरों को दौड़ाते की गोमुख से लेकर गंगा सागर तक जिन राजनेताओं के एशगाह है सभी का कच्चा चिट्टा देश को बताओ। किसी नेता की हवेली तो किसी नेता का फार्म हाउस। किसी नेता का होटल तो किसी नेता का गेस्ट हाउस गंगा किनारे क्यों अटखेलिया खेल रहा है। इतना ही नहीं अगर साप्ताहिक मैग्जिन रविवार की पत्रकारिता एसपी के साथ होती तो फिर गंगा में इंडस्ट्री का गिरता कचरा ही नही बल्कि शहर दर शहर कैसे शहरी विकास मंत्रालय ने निकासी  के नाम पर किससे कितना पैसा खाया और मंत्री से लेकर पार्षद तक इसमें कैसे जेब ठनकाते हुये निकल गये चोट वहा होती । और अगर ब्रांड पीएम के राजनीतिक मर्म से गंगा को जुडा देकर जनता के साथ सियासी वक्त धोखा घड़ी का जरा भी एहसास एसपी को होता तो स्वतंत्र लेखनी से वह गंगा मइया के असल भक्तों की कहानी कह देते । मुश्कल होता है सियासत को सूंड से पकडना । मौजूदा संपादक तो हाथी की पूंछ पकड कर ही खुश हो जाते है इसलिये उन्हें यह नजर नहीं आता कि क्यो देश भर में सीमेंट की सडक बनाने की बात शहरी विकास मंत्री करने लगे है । और गडकरी के इस एलान के साथ ही क्यों सीमेट के भाव चालीस रुपये से सौ रुपये तक प्रति बोरी बढ़ चुकी है । इन्फ्रास्ट्क्चर के नाम पर कस्ट्रक्सन का केल शुरु होने से पहले ही सरिया की कीमत में पन्द्रह फिसदी की बढोतरी क्यों हो गयी है । और आयरन ओर को लेकर देश-दुनिया भर में क्यो मारा मारी मची है । एसपी की रविवार की पत्रकारिता तो १० जुलाई के बजट से पहले ही बजट के उस खेल को खोल देती जो क्रोनी कैपटलिज्म का असल आईना होती । नाम के साथ कारपोरेट और औघोगिक घरानों की सूची भी छप जाती कि किसे कैसे बजटीय लाभ मिलने वाला है। वैसे एपसी का स्वतंत्र लेखन अक्सर उन सपनो की उडान को पकड़ने की कोसिश करता रहा जो राजनेता सत्ता में आने के लिये जनता को दिखाते है।

इसका खामियाजा भी उन्हे मानहानी सरीखे मुकदमो से भुगतना पड़ा लेकिन लडने की क्षमता तो एसपी में गजब की थी । बेहद सरलता से चोट करना और सत्ता के वार को अपनी लेखनी तले निढाल कर देना। आप कह सकते है वक्त बदल गया है । अब तो सत्ता भी कारपोरेट की और मीडिया भी कारपोरेट का । तो फिर रास्ता बचा कहा । तो सोशल मीडिया ने तो एक रास्ता खोला है जो नब्बे के दशक में नही था । एसपी के दौर में सोशल मीडिया नहीं बव्कि सामानांतर पत्रकारिता या कहे लघु पत्रकारिता थी । जब कही लिखने कै मौका न मिला तो अति वाम संगठन इंडियन पीपुल्स प्रंट की पत्रिका जनमत में ही लिख दिया । बहस तो उसपर शुरु हुई है क्योकि साख एसपी के साथ जुडी थी । हो सकता है एसपी की साख भी मौजूदा वक्त में ब्रांड हो जाती। हो क्या जाती होती ही। क्योकि एसपी के नाम पर जो सभा हर बरस देश के किसी ना किसी हिस्से में होती है उसका प्रयोजक कोई ना कोई पैसेवाला तो होता ही है। महानगरों में तो बिल्डर और कारपोरेट भी अब पत्रकारिता पर चर्चा कराने से कतराते नहीं है क्योंकि उनके ब्रांड को भी साख चाहिये। असल में मौजूदा दौर मुश्किल दौर इसलिये हो चला है क्योंकि मीडिया में बैठे अधिकतर संपादक पत्रकारों की ताकत राजनेताओ के अंटी में जा बंधी है। ऐसा समूह अपनी ताकत पत्रकारिय लेखनी या पत्रकारिय रिपोर्ट से मिलनी वाली साख से नहीं नापता बल्कि ताकत को ब्रांड राजनेताओ के सहलाने तले देखता है । असर इसी का है कि प्रधानमंत्री मोदी सोशल मीडिया की पत्रकारिता को भी अपने तरीके से चला लेते है और वहा भी ब्रांड मोदी की घूम होती है और मीडिया हाउसो में कुछ भी उलेट-फेर होता है तो उसके पीछे पत्रकारिय वजहो तले असल खेल को पत्रकारिय पदों पर बैठे गैर-पत्रकार ही छुपा लेते है । और जैसे ही एसपी, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा या राजेन्द्र माथुर की पुण्य तिथि आती है वैसे ही पाप का घड़ा छुपाकर पुण्य बटोरने निकल पडते है ।

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