मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब का एक लेख है विज्ञान के युग में क़ुरबानी पर ऐतराज़ क्यों? । आपने विभिन्न तर्क लगाके पशुबलि को वैज्ञानिक तथ्य प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।
वस्तुत: हिंसा या हत्या को व्यवहार स्थापित करना विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है और न हिंसा में कोई वैज्ञानिक तथ्य हो सकता है। भला विज्ञान कैसे 'प्रतीक' को 'यथार्थ' के समकक्ष खडा कर सकता है? किन्तु प्रस्तुत लेख में इस प्रतिकात्मक रूढ़ि से पडने वाली प्रभावशीलता को वैज्ञानिक सत्य के नाम पर अनुकरणीय प्रतिपादित किया जा रहा है। आईए, इन तथ्यों की समीक्षा करते है। विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ? में वे लिखते है-
Killing a sensation is sin and vice versa .
"यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।"
सच्चाई तो यह है कि मात्र इन दो अख्तियार (Option) तक सीमित होने की सोच ही बेबुनियाद है। मात्र दो विकल्प पेश करते हुए, तीसरे सुगम विकल्प का सर्वथा गोपन किया जा रहा है। जबकि वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक व्यवहार्य है। वह विकल्प है- जहाँ तक सम्भव हो अनावश्यक हिंसा से बचना। सम्भावित पाप-कर्म को भरसक परिहार्य समझना। जहाँ तक बस में हो, ऐसे गैरजरूरी पाप/हिंसा से इंसानी रुह को पूर्णतया महरूम रखा जाय। अपनी आत्मा को मजबूरन अनर्थदँड (गैरजरूरी सजा न्योतने) का भागी न बनाया जाय।
इस तरह जिस सहज विकल्प का उल्लेख ही नहीं किया जा रहा, वस्तुतः वह तीसरा विकल्प ही सर्वाधिक सहज, सरल और व्यवहारिक विकल्प है। साधारण सी बात है, क्यों अनावश्यक जीवहिंसा में फंसना चाहिए। व्यवहार अधिक से अधिक पाप से सुरक्षित रहने में है। यही विवेक है और विवेकपूर्वक कर्म करना ही सद्कर्म है। "मरूँ या मारूँ" ऐसे दो विकल्प तो सरासर आदिम जँगली और मूर्खता भरे है। मौजूदा दुनिया तो सभ्य है, सुसंस्कृत है। आधुनिक विकास मॉडल तो विकृति से विकास की ओर सुचारू सुधार गति का है। यह पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें मानव ने जंगली नियमो के विकारों को दूर कर सभ्य नई दुनिया बनाई ही है। इसलिए चाहे सूक्ष्म जीव, कीट आदि का गैरजरूरी विनाश करने से आज का मानव बचता ही है, जितना भी और जिस किसी उपाय से, अनावश्यक हिंसा से बचा जा सकता है, हिंसा से बचने की मनोवृति होनी चाहिए।
It is an external manifestation of internal spirit .
"आदमी के अंदर पांच क़िस्म की इंद्रियां ; (senses) पाई जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आये जिसमें इनसान की तमाम इंद्रियां शामिल हों तो वह बात इनसान के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा गहराई के साथ बैठ जाती है। कुरबानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ अमूर्त रूप में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नक्श नहीं होगी। कुरबानी इसी कमी को पूरा करती है। जब आदमी अपने आपको वक्फ़ करने के तहत जानवर की कुरबानी करता है तो उसमें अमली तौर पर उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह दिमाग़ से सोचता है, वह आंख से देखता है, वह कान से सुनता है, वह हाथ से छूता है, वह कुरबानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजर्बा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसकी सारी इंद्रियां शामिल हो जाती हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ कुरबानी की भावना को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि कुरबानी की स्पिरिट उसके अन्दर भरपूर तौर पर दाखि़ल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके खून का हिस्सा बन जाए।"
बिलकुल मनुष्य के सोचने, समझने, धारणा बनाने व संकल्प करने में इन पांचो इन्द्रियों का योगदान होता है। क्योंकि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों अथवा पांचों ही विषय के अधीन है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मन पांचों ज्ञानेंद्रियों से प्रभावित और पोषित होता है। यह यथार्थ है पांचो इन्द्रिय विषयों के कारण मन उसी दिशा में सक्रिय रहता है। इसलिए कृत्य अगर क्रूरता भरा है तो सभी इन्द्रियों के वशीभूत मानस भी क्रूरता भरा ही बनेगा। जब मानसिकता और वर्तन क्रूर होगा तो मनोवृति भी निश्चित ही क्रूर ही होगी। निसंदेह हिंसा के कृत्य से क्रूर भाव ही दृढ होंगे, समर्पण के भाव नहीं। इन्ही कृत्यों में अन्न की लाक्षणिकता देकर कहा जाता है- “जैसा अन्न वैसा मन”। ‘जैसा अन्न’ में उसके उपादान, उत्पादन सहित कृत्य विधि भी समाहित होती है।
किन्तु, जो कोई भी, पशु को बंधनो से जकड़कर, उसकी हत्या करते हुए, उसके अंगभंग करते हुए, टुकड़े टुकडे करके फिर उसे आहार बनाते हुए, भला त्याग और समर्पण का चिंतन कर भी कैसे सकता है? ऐसी क्रूर क्रिया में गहराई से 'कुरबानी'(समर्पण) की भावना कैसे महसूस करेगा? कानों से वह पशु का मरणांतक आक्रन्द सुनेगा, आंखों से वह भयंकर और जीवंत प्राणांत होते देखेगा, मरण क्रिया की तड़प व रक्तमांस के लोथडे देखेगा। नाक से वह रक्त-मांस, मल-मूत्र की दुर्गन्ध पाएगा। स्वाद लेते हुए भी उसे तड़पता पशु ही याद आएगा। स्पर्श से भी जिजीविषा के लिए आर्तनाद भरी धड़कन महसुस करेगा। उसमें 'कुरबानी'(समर्पण) की स्पिरिट कहाँ से आएगी? उलट हत्या करने से पहले, उसे अपनी संवेदनाओं की ही हत्या करनी पडेगी। क्रूर मनस्थिति पैदा किए बिना वह इस हिंसक कृत्य में प्रवृत ही नहीं हो सकता। और यह सब कुछ करते हुए उसमें कसाई भाव स्थापित होंगे, करूण भाव नहीं। इस क्रिया से दूसरे जीव की तड़प के प्रति निष्ठुर तो बना जा सकता है किन्तु अपने मन-मस्तिष्क में बलिदान और समर्पण के भाव तो कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि वह अपने स्वयं के साथ ऐसी ही क़ुरबानी की कल्पना करे तब भी समर्पण की जगह भयक्रांत हो दहल उठेगा। इस पूरी हिंसा कार्यविधि में त्याग नहीं, हिंसा की भावनाएं ही प्रबल बनती है।
मात्र प्रतीक से आचरण के समान निष्ठापूर्ण समर्पण सम्भव नहीं है। जब बलिदान में त्याग का यथार्थ आचरण ही नदारद हो तो कैसा त्याग? प्रतीक मायावी मूर्त छाया है, दिखावे से कहीं कर्तत्व निभता है। त्याग आचरण की वस्तु है जानवर की जान त्याग को अपना त्याग बताना तो छल है, यह अपनी जान के बदले निरीह पशु की जान आगे करना तो यकिनन छलपूर्ण प्रदर्शन है। प्रतिकात्मकता में ये कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता?
यह सच है कि प्रत्येक कर्म का भावनात्मक प्रभाव (मनो)वैज्ञानिक कारण है। प्रभाव का होना विज्ञान सिद्ध है किन्तु प्रभाव भी तो वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक रीति-नीति से पडेगा। यह तथ्य विज्ञान सम्मत है कि नकारात्मक कृत्य का प्रभाव नकारात्मक परिणामी ही होता है। अब इस में कोई शक नहीं कि हत्या व हिंसा से त्याग बलिदान या समर्पण की भावनाएँ उत्पन्न नहीं होती। इस सत्य की अवैज्ञानिकता से उपेक्षा की जा रही है। यथार्थ तो यह है कि हत्या व हिंसा से क्रोध, अहंकार व द्वेष की ही भावनाएँ पैदा होती है।
सच्चा बलिदान अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। महज मनुष्य होने के कारण पैदा हुए इस दर्प में नहीं कि जानवर पर मेरा मालिकाना हक है, मै चाहुं वैसे उसका उपयोग कर सकता हूँ। और अपने बलिदान के एवज में उसकी जान धर सकने का अधिकार रखता हूँ। यह त्याग नहीं उलट अहंकार है। द्वेष, क्रोध, अहंकार, कपट ,लोभ आदि तो दुर्गुण है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय आचरण बना रखा है। यह सभी कषाय, तृष्णाएं और इन्द्रिय वासनाएं ही हमारी आसक्ति है। जो हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय तृष्णाओं का त्याग, सच्चे अर्थों में कुरबानी है। प्राथमिकता से यही दुर्गुण त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए, निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।
विज्ञान नें शताब्दियों संघर्ष के बाद सभ्यता युक्त सुख-सुविधा के उपाय जुटाए है और यह समस्त शोध- उपक्रम मानवजीवन में शान्ति और संतुष्टि लाने के महान उद्देश्य से हुआ है। यह बात अलग है कि इस बीच हिंसक मानसिकता द्वारा शस्त्रों के आविष्कार भी हुए, किन्तु कुल मिलाकर अधिकांश खोज शान्तियुक्त जीवन के प्रयोजन से ही हुई है। ऐसे विज्ञान-युग में जंगली, अशान्त और हिंसक अवधारणा की पुनः स्थापना रूप मंशा पर क्यों न एतराज़ किया जाय?
सम्बँधित आलेख सूत्र.......
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