सोमवार, 18 अगस्त 2014

जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।

जीवो जीवितुमिच्छति। (योग-शास्त्र)
  ===  प्राणी मात्र जीने की इच्छा करते है।
 
सर्वो जीवितुमिच्छति। (योग-वशिष्ठ)
  ===   सभी जीना चाहते है।
 
अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता। (अनुशासन पर्व, महाभारत)
  ===   सभी प्राणियों की इस प्रकार रक्षा करें जैसे माता पिता की करते हैं।
 
जीवितं जीवरक्षात्। (बृहस्पति स्मृति)
  ===   जीवरक्षा से जीवन बढ़ता है।
 
धर्मस्य दया मूलम्। (प्रशम रति)
  ===   दया ही धर्म की जड़ है।
 
न दया सदृशं ज्ञानम्। (प्रशम रति)
  ===   दया सदृश कोई ज्ञान नहीं।
 
दया दानाद्विशिष्यते। (वशिष्ठ-स्मृति)
  ===   दान की अपेक्षा दया महिमावान है।
 
सर्वभूतदया तीर्थम्। (महाभारत)
  ===   प्राणी मात्र पर दया ही सर्वोत्तम तीर्थ है।
 
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्। (मनु स्मृति)
  ===   प्राणिवध किसी भी दशा में स्वर्ग नहीं दिला सकता अतः उसकी वर्जना करनी चाहिए।
 
घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोराम् ते यान्ति दुर्गतिम्। (योग शास्त्र, द्वितीय प्रकाश)
  ===   जो घृणा व खिन्नता रहित होकर जीव घात करते है वे निश्चय ही दुर्गति में जाते है।
 
दया च भूतेषु दिवं नयन्ति। (पद्म-पुराण)
  ===   जीवों पर की जाने वाली दया स्वर्ग ले जाती है।
 
वधको नैव शुद्धयति। (देवी भागवत)
  ===   प्राणी-वध करने वाले कभी पवित्र नहीं हो सकते।
 
शोधकौ तु दयादमौ। (शुभचन्द्राचार्य)
  ===   जीवदया व इन्द्रिय दमन से आत्म शुद्ध-पवित्र बनता है।
 
क्षीणा नरा निष्करूणा भवन्ति। (काव्य –रवि मंड़ल)
  ===   शक्तिहीन पुरूष दया-हीन होते है।
 
यस्य जीवदया नास्ति सर्वमेतन्निरर्थकम्। (शान्तिपर्व,महाभारत)
  ===   जिनके कार्य में जीवदया नहीं है उनकी सारी क्रियाएँ ही निर्थक है।
 
दया मांसाशिनः कुतः? (काव्य –रवि मंड़ल)
  ===   मांसभक्षी को दया कैसे उत्पन्न हो सकती है?
 
को धर्मः कृपया विना? (धर्म-बिन्दु)
  ===   जीवदया बिना कैसा धर्म? 
 
अधर्मश्च प्राणिनाम् वधः (शन्ति-पर्व महाभारत) 
  ===   जीवों की हत्या करना ही अधर्म है।
 
हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति। (पूर्व मीमांसा) 
  ===  “हिंसा को धर्म कहें?” ऐसा न कभी भूतकाल मेँ था न कभी भविष्य मेँ होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें