डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
राजस्थान के करौली जिले के सपोटरा उपखण्ड के गॉंव बालोती (जिसे आम बोलचाल में बाड़ौती बोला जाता है) के पप्पू शर्मा के दोनों हाथ बड़ी बेरहमी से काट डाले गये हैं। पप्पू शर्मा अपने मॉं-बाप को इकलौता बेटा और वह अपने बच्चों का इकलौता पिता और एक निर्दोष पत्नी का इकलौता पति है। जिसके चलते उस पर निर्भर सभी परिजन एक प्रकार से अनाथ ही हो गये हैं। बल्कि वर्तमान और कड़वी सच्चाई तो यह है कि अब तो स्वयं पप्पू शर्मा जो अपने जिन परिजनों का सहारा था, खुद उन्ही लोगों पर जीवनभर के लिए निर्भर हो गया है! अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपने मुंह रोटी का निवाला नहीं डाल सकेगा। अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपनी आँखों के आँसू नहीं पौंछ सकेगा। अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपना मल-मूत्र तक साफ नहीं कर सकेगा। निश्चय ही पप्पू शर्मा के लिये यह मौत से बदतर जिन्दगी होगी। पप्पू शर्मा के आलावा इसकी असली सजा मिलेगी पप्पू शर्मा की धर्मपत्नी को, क्योंकि समाज की नज़रों में अब उसे अपने पति परमेश्वर की सच्ची सेविका बनकर सिद्ध करना होगा। यही तो स्त्रियों की नियति है!
पप्पू शर्मा के हाथ क्यों काटे गये? इस बारे में घटना के सभी पहलुओं को देखने से लगता है कि हमलावरों ने जानबूझकर पप्पू शर्मा की हत्या नहीं की और उसे जीवनभर पल-पल मरते रहने को जिन्दा छोड़ दिया है!इस सन्दर्भ में अपराध मनोविज्ञान पर नजर डालें तो पायेंगे कि कोई भी अपराधी ऐसा तब ही करता है, जबकि वह किसी आततायी के अत्याचार या अन्याय से भयंकर रूप से परेशान हो गया हो। अत्याचारी का अन्याय हद पार कर गया हो। और इस सब के साथ-साथ उत्पीड़ित का समाज और कानून से भी विश्वास उठ गया हो। ऐसे में ऐसा पीड़ित और शोषित व्यक्ति अन्यायी या अपराधी की हत्या करने के बजाय, उसे मौत से भी बड़ी सजा देने को विवश हो जाता है।
जिस क्षेत्र में यह घटना घटी है,वहॉं पर अनेक जातियों का अपने-अपने क्षेत्र में दबदबा है। अनेक जातियों के बाहुल्य वाले इस क्षेत्र में जातीय पंचायतों का खौफ आज भी ज्यों का त्यों कायम है। यहॉं पर जातीय पंचायतों में पुरातनपंथी मनमानी परम्पराओं के आधार पर गॉंवों में वंशानुगत आधार पर सम्मान प्राप्त परिवारों के वंशज 'पटेल' और ‘पंच-परमेश्वर’ कहलाते हैं। बताया जाता है कि इन पटेलों के पूर्वजों के निर्णय कोई 100 वर्ष पहले अधिकतर निष्पक्ष हुआ करते थे, यद्यपि तब भी पटेल लोग ताकतवर और अपने लोगों का पक्ष लेकर निर्णयों को प्रभावित करते थे,ऐसे अनेक उदाहरण बजुर्गों की जुबानी सुने जा सकते हैं।
आज जब देश में अपना लोकतान्त्रिक संविधान लागू है। अन्य क्षेत्रों की भांति पूर्वी राजस्थान में भी ‘जातीय पटेलों’ की ‘संविधानेत्तर शामंती सत्ता’ बाकायदा कायम है, जिनको छोटे-मोटे विवादों से लेकर के बड़े-बड़े मामलों में भी कथित रूप से न्याय करने का जन्मजात हक प्राप्त है। जातीय पटेलों के निर्णयों को नहीं मानने वालों को और,या जातीय पटेलों के निर्णयों में हस्तक्षेप करने वालों को जातीय पटेलों की असंवैधानिक और तालिबानी ताकत का शिकार होना पड़ता है। ऐसे लोगों को जाती समाज से बाहर कर दिया जाता है! और कानून मूक दर्शक बना रहता है!
दूसरी ओर आज की स्थिति यह है की जातीय पटेल भी गॉंव के आधुनिक ताकतबर लोगों, राजनैतिक लोगों और धनाढ्य लोगों के खिलाफ फैंसला सुनाने से पहले सौ बार सोचते हैं। आम तौर पर पूर्वी राजस्थान की जातीय पंचायतें, (जिन्हें हरियाणा में खाप पंचायतें कहा जाता है) अब न्याय के बजाय राजनीति करने और प्रतिशोध लेने का अखाड़ा बन गयी हैं। जिनके बहाने पटेलों के तालिबानी निर्णयों को नहीं मानने वालों को येनकेन प्रकारेण निपटाने के नये-नये तरीके आजमाये और खोजे जाते रहते हैं। मुश्किल से एक-दो फीसदी मामलों में ही ये जातीय पंचायतें न्याय करती दिखती हैं। आजकल तो जातीय पंचायतों द्वारा इतनी मनमानी और तानाशाही की जाने लगी है कि वे जिस भी बड़े से बड़े मामले को चाहें, उसे दबा देती हैं। पुलिस में रिपोर्ट तक नहीं करने देती हैं और जिस भी छोटे से छोटे मामले को चाहें उसे दबाने के बजाय उछाल देती हैं और अनेक बार तो खुद ही पहल करके पुलिस में रिपोर्ट तक दर्ज करवाती देखी जा सकती हैं।
इस प्रकार यहॉं की जातीय पंजायतें अपराधियों का और राजनेतिक प्रतिशोध का आपराधिक अड्डा और गठजोड़ बन चुकी हैं। जिन्हें स्थानीय जन प्रतिनिधियों की मूक और अनेक बार खुली सहमति प्राप्त होती है। क्योंकि जातीय पंचायतों पर काबिज जातीय पटेल और उनके समर्थक चुनाव के समय कमजोर लोगों को जैसे चाहें वैसे अपनी इच्छानुसार मतदान करने को विवश करते हैं। यही लोग बूथों पर कब्जा करते हैं। ऐसे में राजनेताओं के लिये ऐसे लोगों का समाज में ताकतबर बने रहना या ये कहो कि ऐसे जातीय पटेलों और उनके गुर्गों का आम मतदाताओं के बीच खौफ बने रहना राजनीतिक रूप से लाभ का बड़ा सौदा है। इस कारण जातीय पंचायतें असंवैधानिक होकर भी अपनी ताकत का लोहा मनवाती रहती हैं।
पूर्वी राजस्थान में जातीय पंचायतों की जब कभी नींव रखी गयी होगी, उस समय की प्रारंभिक सोच बहुत पवित्र रही होगी। इसलिये मूल रूप से जातीय पंचायतों में ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि गॉंव में कोई भी विवाद हो तो गॉंव की सभी जाति के लोगों के जातीय पटेल मिल-बैठकर उस मामले में आमराय ये निर्णय लें और हर कीमत पर समाज में सौहार्द बनायें रखें। जातीय पंचायतों में सभी जातियों के प्रतिनिधियों (पटेलों) को शामिल करने की और सभी जाति के लोगों के मामलों में निर्णय करने की परम्परा तो आज भी ज्यों की त्यों कायम है,लेकिन अब जातीय पंचायतों के फैसलों का मूल मकसद समाज में हर कीमत पर सौहार्द कायम रखने के बजाय हर कीमत पर जातीय पंचायतों का खौफ कायम रखना हो गया है। जिसके लिये जातीय पंचायत में किसी भी जाति का बहुमत होते हुए,किसी भी जाति के अपराधी को निर्दोष घोषित किया जा सकता है और किसी भी जाति के निर्दोष व्यक्ति को जबरन दोषी घोषित किया जा सकता है। जातीय पंचायतों से आजकल आमराय या सर्व-सम्मति जैसे शब्द पूरी तरह से गायब हो चुकें हैं।
प्रारम्भिक तौर पर कुछ-कुछ इसी प्रकार की सामाजिक और मानसिक पृष्ठभूमि के संकेत इस मामले में भी मिल रहे हैं। पप्पू शर्मा के मामले में शुरू में जो बात सामने आयी थी, उसे अब जानबूझकर दबाया जा रहा है और बाद वाली जमीन की और लेनदेन की बनावटी कहानी को मीडिया और कुछ अन्य लोगों द्वारा प्रमुखता से बार-बार सामने लाया जा रहा है। ताकि सच्ची बात को दबाया जा सके।
प्रारम्भ में जो बात सामने आयी, उसके अनुसार कहानी इस प्रकार से बनती है कि बालोती गॉंव की जातीय पंचायत में मीणा जाति के पटेलों का दबदबा रहा है। पप्पू शर्मा जैसे अनेक लोग मीणा जाती के पटेलों के जातीय पंचायती फरमानों को लागू करवाने में पटेलों की हर तरह से प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद करते रहे हैं। जिसके एवज में पप्पू शर्मा जैसे लोगों को पटेलों की ताकत का पूरा समर्थन हासिल हो जाता है और इसी ताकत के नशे में ऐसे लोग गॉंव में मनमानी करने लगते हैं।
प्रस्तुत मामले में भी कथित रूप से पप्पू शर्मा को जातीय पंचायत के मीणा पटेलों का पूरा बरदहस्त प्राप्त था, जिसके चलते वह गॉंव के गरीब लोगों की लड़कियों की अस्मत से खेलने में नहीं हिचकता था। यदाकदा मामला खुल जाने पर जातीय पंचायत में पटेलों द्वारा मामले को दबा दिया जाता। जिसके चलते पप्पू शर्मा का हौंसला बढता गया। उसने मीणा जाति की लड़कियों के साथ भी वही सब करना शुरू कर दिया जो वह सामाजिक रूप से कमजोर समझी जाने वाली जाति की लड़कियों के साथ किया करता था। इस बार जब मामला मीणा बहुल जातीय पंचायत के समक्ष गया तो मीणा पटेलों ने पीड़ित लड़की और उसके गरीब परिवार के साथ न्याय करने के बजाय फिर से तकतबर हो चुके पप्पू शर्मा का साथ दिया।
यह निर्णय पीड़िता और उसके गरीब किन्तु सम्मानित मीणा परिवार को नागवार गुजरा। मीणा जाति के लोग इस क्षेत्र में सामाजिक तौर पर आन-बान पर मर मिटने के लिये जाने जाते हैं, उनको जातीय पटेलों का निर्णय स्वीकार नहीं था,लेकिन पटेलों के निर्णयों को मानना उनकी सामाजिक बाध्यता रही। इस कारण वे पंचायत का विरोध नहीं कर सके!बताया जाता है कि पंचायत के मनमाने निर्णय और पप्पू शर्मा की मनमानियों पर हमेशा-हमेशा के लिये पूर्ण विराम लगाने के सुनियोजित इरादे से पीड़िता के परिजनों ने और पप्पू शर्मा के अन्याय से पीड़ित रहे कुछ अन्य लोगों ने साथ मिलकर ऐसा कदम उठाने का निर्णय लिया कि आगे से गॉंव में कोई दूसरा पप्पू शर्मा पैदा ही नहीं हो सके और उन्होंने मिलकर पप्पू शर्मा के दोनों हाथ काट डाले।
इस प्रकार यह एक ऐसा मामला है,जिसमें पप्पू शर्मा के मामले में कानून की नजर में घोषित अपराधियों ने कानून व न्याय व्यवस्था और सामाजिक मनमानी से तंग आकर खुद-ब-खुद कानून को अपने हाथ में लिया या ये कहो कि समाज और कानून ने उन्हें ऐसा करने को विवश कर दिया। कुछ भी हो लेकिन आज के युग में किसी को भी,किसी भी कीमत पर कानून को हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती।यद्यपि यहॉं इस बात पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना बेहद जरूरी है कि पप्पू शर्मा के हाथ काटने वालों को सजा दिये जाने का तब तक कोई सुधारात्मक अर्थ नहीं है, जब तक पप्पू शर्मा जैसों को पालने वाले जातीय पटेलों और जातीय पंचायतों के असंवैधानिक और तालीबानी वजदू को नेस्तनाबूद नहीं कर दिया जाये!अन्यथा तो जब तक जातीय पटेलों और जातीय पंचायतों का तालीबानी बर्चस्व कायम रहेगा,अनेक पप्पू शर्मा पैदा होते रहेंगे और कानून को हाथ में लेने वाले भी पैदा होते रहेंगे!
राजस्थान के करौली जिले के सपोटरा उपखण्ड के गॉंव बालोती (जिसे आम बोलचाल में बाड़ौती बोला जाता है) के पप्पू शर्मा के दोनों हाथ बड़ी बेरहमी से काट डाले गये हैं। पप्पू शर्मा अपने मॉं-बाप को इकलौता बेटा और वह अपने बच्चों का इकलौता पिता और एक निर्दोष पत्नी का इकलौता पति है। जिसके चलते उस पर निर्भर सभी परिजन एक प्रकार से अनाथ ही हो गये हैं। बल्कि वर्तमान और कड़वी सच्चाई तो यह है कि अब तो स्वयं पप्पू शर्मा जो अपने जिन परिजनों का सहारा था, खुद उन्ही लोगों पर जीवनभर के लिए निर्भर हो गया है! अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपने मुंह रोटी का निवाला नहीं डाल सकेगा। अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपनी आँखों के आँसू नहीं पौंछ सकेगा। अब पप्पू शर्मा कभी भी अपने हाथों से अपना मल-मूत्र तक साफ नहीं कर सकेगा। निश्चय ही पप्पू शर्मा के लिये यह मौत से बदतर जिन्दगी होगी। पप्पू शर्मा के आलावा इसकी असली सजा मिलेगी पप्पू शर्मा की धर्मपत्नी को, क्योंकि समाज की नज़रों में अब उसे अपने पति परमेश्वर की सच्ची सेविका बनकर सिद्ध करना होगा। यही तो स्त्रियों की नियति है!
पप्पू शर्मा के हाथ क्यों काटे गये? इस बारे में घटना के सभी पहलुओं को देखने से लगता है कि हमलावरों ने जानबूझकर पप्पू शर्मा की हत्या नहीं की और उसे जीवनभर पल-पल मरते रहने को जिन्दा छोड़ दिया है!इस सन्दर्भ में अपराध मनोविज्ञान पर नजर डालें तो पायेंगे कि कोई भी अपराधी ऐसा तब ही करता है, जबकि वह किसी आततायी के अत्याचार या अन्याय से भयंकर रूप से परेशान हो गया हो। अत्याचारी का अन्याय हद पार कर गया हो। और इस सब के साथ-साथ उत्पीड़ित का समाज और कानून से भी विश्वास उठ गया हो। ऐसे में ऐसा पीड़ित और शोषित व्यक्ति अन्यायी या अपराधी की हत्या करने के बजाय, उसे मौत से भी बड़ी सजा देने को विवश हो जाता है।
जिस क्षेत्र में यह घटना घटी है,वहॉं पर अनेक जातियों का अपने-अपने क्षेत्र में दबदबा है। अनेक जातियों के बाहुल्य वाले इस क्षेत्र में जातीय पंचायतों का खौफ आज भी ज्यों का त्यों कायम है। यहॉं पर जातीय पंचायतों में पुरातनपंथी मनमानी परम्पराओं के आधार पर गॉंवों में वंशानुगत आधार पर सम्मान प्राप्त परिवारों के वंशज 'पटेल' और ‘पंच-परमेश्वर’ कहलाते हैं। बताया जाता है कि इन पटेलों के पूर्वजों के निर्णय कोई 100 वर्ष पहले अधिकतर निष्पक्ष हुआ करते थे, यद्यपि तब भी पटेल लोग ताकतवर और अपने लोगों का पक्ष लेकर निर्णयों को प्रभावित करते थे,ऐसे अनेक उदाहरण बजुर्गों की जुबानी सुने जा सकते हैं।
आज जब देश में अपना लोकतान्त्रिक संविधान लागू है। अन्य क्षेत्रों की भांति पूर्वी राजस्थान में भी ‘जातीय पटेलों’ की ‘संविधानेत्तर शामंती सत्ता’ बाकायदा कायम है, जिनको छोटे-मोटे विवादों से लेकर के बड़े-बड़े मामलों में भी कथित रूप से न्याय करने का जन्मजात हक प्राप्त है। जातीय पटेलों के निर्णयों को नहीं मानने वालों को और,या जातीय पटेलों के निर्णयों में हस्तक्षेप करने वालों को जातीय पटेलों की असंवैधानिक और तालिबानी ताकत का शिकार होना पड़ता है। ऐसे लोगों को जाती समाज से बाहर कर दिया जाता है! और कानून मूक दर्शक बना रहता है!
दूसरी ओर आज की स्थिति यह है की जातीय पटेल भी गॉंव के आधुनिक ताकतबर लोगों, राजनैतिक लोगों और धनाढ्य लोगों के खिलाफ फैंसला सुनाने से पहले सौ बार सोचते हैं। आम तौर पर पूर्वी राजस्थान की जातीय पंचायतें, (जिन्हें हरियाणा में खाप पंचायतें कहा जाता है) अब न्याय के बजाय राजनीति करने और प्रतिशोध लेने का अखाड़ा बन गयी हैं। जिनके बहाने पटेलों के तालिबानी निर्णयों को नहीं मानने वालों को येनकेन प्रकारेण निपटाने के नये-नये तरीके आजमाये और खोजे जाते रहते हैं। मुश्किल से एक-दो फीसदी मामलों में ही ये जातीय पंचायतें न्याय करती दिखती हैं। आजकल तो जातीय पंचायतों द्वारा इतनी मनमानी और तानाशाही की जाने लगी है कि वे जिस भी बड़े से बड़े मामले को चाहें, उसे दबा देती हैं। पुलिस में रिपोर्ट तक नहीं करने देती हैं और जिस भी छोटे से छोटे मामले को चाहें उसे दबाने के बजाय उछाल देती हैं और अनेक बार तो खुद ही पहल करके पुलिस में रिपोर्ट तक दर्ज करवाती देखी जा सकती हैं।
इस प्रकार यहॉं की जातीय पंजायतें अपराधियों का और राजनेतिक प्रतिशोध का आपराधिक अड्डा और गठजोड़ बन चुकी हैं। जिन्हें स्थानीय जन प्रतिनिधियों की मूक और अनेक बार खुली सहमति प्राप्त होती है। क्योंकि जातीय पंचायतों पर काबिज जातीय पटेल और उनके समर्थक चुनाव के समय कमजोर लोगों को जैसे चाहें वैसे अपनी इच्छानुसार मतदान करने को विवश करते हैं। यही लोग बूथों पर कब्जा करते हैं। ऐसे में राजनेताओं के लिये ऐसे लोगों का समाज में ताकतबर बने रहना या ये कहो कि ऐसे जातीय पटेलों और उनके गुर्गों का आम मतदाताओं के बीच खौफ बने रहना राजनीतिक रूप से लाभ का बड़ा सौदा है। इस कारण जातीय पंचायतें असंवैधानिक होकर भी अपनी ताकत का लोहा मनवाती रहती हैं।
पूर्वी राजस्थान में जातीय पंचायतों की जब कभी नींव रखी गयी होगी, उस समय की प्रारंभिक सोच बहुत पवित्र रही होगी। इसलिये मूल रूप से जातीय पंचायतों में ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि गॉंव में कोई भी विवाद हो तो गॉंव की सभी जाति के लोगों के जातीय पटेल मिल-बैठकर उस मामले में आमराय ये निर्णय लें और हर कीमत पर समाज में सौहार्द बनायें रखें। जातीय पंचायतों में सभी जातियों के प्रतिनिधियों (पटेलों) को शामिल करने की और सभी जाति के लोगों के मामलों में निर्णय करने की परम्परा तो आज भी ज्यों की त्यों कायम है,लेकिन अब जातीय पंचायतों के फैसलों का मूल मकसद समाज में हर कीमत पर सौहार्द कायम रखने के बजाय हर कीमत पर जातीय पंचायतों का खौफ कायम रखना हो गया है। जिसके लिये जातीय पंचायत में किसी भी जाति का बहुमत होते हुए,किसी भी जाति के अपराधी को निर्दोष घोषित किया जा सकता है और किसी भी जाति के निर्दोष व्यक्ति को जबरन दोषी घोषित किया जा सकता है। जातीय पंचायतों से आजकल आमराय या सर्व-सम्मति जैसे शब्द पूरी तरह से गायब हो चुकें हैं।
प्रारम्भिक तौर पर कुछ-कुछ इसी प्रकार की सामाजिक और मानसिक पृष्ठभूमि के संकेत इस मामले में भी मिल रहे हैं। पप्पू शर्मा के मामले में शुरू में जो बात सामने आयी थी, उसे अब जानबूझकर दबाया जा रहा है और बाद वाली जमीन की और लेनदेन की बनावटी कहानी को मीडिया और कुछ अन्य लोगों द्वारा प्रमुखता से बार-बार सामने लाया जा रहा है। ताकि सच्ची बात को दबाया जा सके।
प्रारम्भ में जो बात सामने आयी, उसके अनुसार कहानी इस प्रकार से बनती है कि बालोती गॉंव की जातीय पंचायत में मीणा जाति के पटेलों का दबदबा रहा है। पप्पू शर्मा जैसे अनेक लोग मीणा जाती के पटेलों के जातीय पंचायती फरमानों को लागू करवाने में पटेलों की हर तरह से प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद करते रहे हैं। जिसके एवज में पप्पू शर्मा जैसे लोगों को पटेलों की ताकत का पूरा समर्थन हासिल हो जाता है और इसी ताकत के नशे में ऐसे लोग गॉंव में मनमानी करने लगते हैं।
प्रस्तुत मामले में भी कथित रूप से पप्पू शर्मा को जातीय पंचायत के मीणा पटेलों का पूरा बरदहस्त प्राप्त था, जिसके चलते वह गॉंव के गरीब लोगों की लड़कियों की अस्मत से खेलने में नहीं हिचकता था। यदाकदा मामला खुल जाने पर जातीय पंचायत में पटेलों द्वारा मामले को दबा दिया जाता। जिसके चलते पप्पू शर्मा का हौंसला बढता गया। उसने मीणा जाति की लड़कियों के साथ भी वही सब करना शुरू कर दिया जो वह सामाजिक रूप से कमजोर समझी जाने वाली जाति की लड़कियों के साथ किया करता था। इस बार जब मामला मीणा बहुल जातीय पंचायत के समक्ष गया तो मीणा पटेलों ने पीड़ित लड़की और उसके गरीब परिवार के साथ न्याय करने के बजाय फिर से तकतबर हो चुके पप्पू शर्मा का साथ दिया।
यह निर्णय पीड़िता और उसके गरीब किन्तु सम्मानित मीणा परिवार को नागवार गुजरा। मीणा जाति के लोग इस क्षेत्र में सामाजिक तौर पर आन-बान पर मर मिटने के लिये जाने जाते हैं, उनको जातीय पटेलों का निर्णय स्वीकार नहीं था,लेकिन पटेलों के निर्णयों को मानना उनकी सामाजिक बाध्यता रही। इस कारण वे पंचायत का विरोध नहीं कर सके!बताया जाता है कि पंचायत के मनमाने निर्णय और पप्पू शर्मा की मनमानियों पर हमेशा-हमेशा के लिये पूर्ण विराम लगाने के सुनियोजित इरादे से पीड़िता के परिजनों ने और पप्पू शर्मा के अन्याय से पीड़ित रहे कुछ अन्य लोगों ने साथ मिलकर ऐसा कदम उठाने का निर्णय लिया कि आगे से गॉंव में कोई दूसरा पप्पू शर्मा पैदा ही नहीं हो सके और उन्होंने मिलकर पप्पू शर्मा के दोनों हाथ काट डाले।
इस प्रकार यह एक ऐसा मामला है,जिसमें पप्पू शर्मा के मामले में कानून की नजर में घोषित अपराधियों ने कानून व न्याय व्यवस्था और सामाजिक मनमानी से तंग आकर खुद-ब-खुद कानून को अपने हाथ में लिया या ये कहो कि समाज और कानून ने उन्हें ऐसा करने को विवश कर दिया। कुछ भी हो लेकिन आज के युग में किसी को भी,किसी भी कीमत पर कानून को हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती।यद्यपि यहॉं इस बात पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना बेहद जरूरी है कि पप्पू शर्मा के हाथ काटने वालों को सजा दिये जाने का तब तक कोई सुधारात्मक अर्थ नहीं है, जब तक पप्पू शर्मा जैसों को पालने वाले जातीय पटेलों और जातीय पंचायतों के असंवैधानिक और तालीबानी वजदू को नेस्तनाबूद नहीं कर दिया जाये!अन्यथा तो जब तक जातीय पटेलों और जातीय पंचायतों का तालीबानी बर्चस्व कायम रहेगा,अनेक पप्पू शर्मा पैदा होते रहेंगे और कानून को हाथ में लेने वाले भी पैदा होते रहेंगे!
लेखक- जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं।
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