जिस 72 घंटे इंडिया गेट पर युवाओं के आक्रोश को थामने के लिये पुलिस धारा 144 की दुहाई देकर लाठी भांजती रही, आंसू गैस के गोले दागती रही और पानी की धारा छोड़ती रही, उसी 72 घंटों के दौरान देश में करीब डेढ़ सौ बलात्कार की घटनाएं हुईं। जिस 12 घंटे जंतर मंतर पर युवा जुट कर बिखरता रहा। व्यवस्था से निराश होकर सरकार के तौर तरीके पर अंगुली उठाकर न्याय के हक का सवाल उठाता रहा, उसी 12 घंटो के दौरान भी देश में दो दर्जन से ज्यादा लड़कियो के साथ बलात्कार हुये। यह सरकार के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर घंटे दो बलात्कार होते ही हैं। तो फिर सवाल सिर्फ एक बलात्कार के दोषियों को सजा दे दिलाने का है या फेल होते सिस्टम में सरकारी व्यवस्था की हुकूमत दिखाकर पांच बरस की सत्ता को ही लोकतंत्र बताकर राज करने का है। ऐसे मोड़ पर अगर देश के प्रधानमंत्री यह कहे कि वह भी तीन बेटियों के पिता हैं तो यह देश भर के उन पिताओ का मखौल उड़ाने से हटकर और क्या हो सकता है जो बेटियों की असुरक्षा को लेकर गुस्से में हैं। देश को तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चाहिये। लेकिन प्रधानमंत्री ही नही गृहमंत्री भी जब तीन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो पर बीस बीस मिनट के इंटरव्यूह में कई बार खुद को बेटियों का बाप बताते हुये युवाओं के आक्रोश के मर्म को अपनी निज भावनाओ के साथ जोड़कर समाधान करने लगे तो इससे ज्यादा बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है।
त्रासदी इसलिये क्योंकि रास्ता अंधेरे में ही गुम होने की दिशा में जा रहा है। सत्ता का सुकून व्यवस्था बनाने या चलाने के बदले खुद को सत्ता की मार तले पिता और परिवार की भावनाओ में तब्दील करने पर आमादा है। सत्ता के तौर तरीके सत्ता चलाने वालो से बड़े हो चुके हैं। इसलिये सत्ता पाने की होड़ में सत्ताधारियों की कतार आम आदमी के मन से ना जुड़ पा रही है और ना ही युवा के उस आक्रोश को समझ पा रही है जो बलात्कार की एक घटना के जरीये बिखरते देश की अनकही कहानी इंडिया गेट से लेकर जंतरमंतर और विश्वविद्यालयों के सेमिनार हाल से लेकर नुक्कड तक पर लगातार कह रहा है। प्रधानमंत्री को चकाचौंध भारत चाहिये। गृहमंत्री को चकाचौंध भारत के रास्ते की हर रुकावट गैरकानूनी हरकत लगती है। और दिल्ली की सीएम के लिये दिल्ली का मतलब रपटीली सड़क। दौड़ती भागती जिन्दगी। और मदहोश रंगीनी में खोया समाज है। यानी किसी भी स्तर पर उस युवा मन की कोई जगह नहीं जो भविष्य के भारत में अपनी जगह अपने हुनर से देखे। अपने हुनर को देश के लिये संवारते हुये सुरक्षा और मान्यता की गुहार लगाने के रास्ते में भी जब आवारा सत्ता की चकाचौंध ही है, तो फिर वह इंडियागेट या जंतर-मंतर छोड कर लौटे कहा। यह सवाल जेएनयू और आईआईटी के छात्रों के ही नहीं बल्कि हर उस युवा के है जो पत्थर फेंक कर, प्लेकार्ड लहरा कर, नारों से माहौल गर्मा कर न्याय और हक के सवाल को अपनी जिन्दगी से जोड़ रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित तक के लिये गद्दी के बरकरार रखने की जमीन अगर समाज की असमानता, मुनाफे के धंधे की नीतियों और उपभोक्ता की चकाचौंध में सबकुछ झोंकने से बनेगी तो इसे बदलने की हिम्मत दिखायेगा कौन। और गद्दी का मतलब ही अगर ऐसे समाज को बनाये रखना हो जाये तो फिर सत्ता की दौड़ में शरीक राजनेताओ की फौज में अलग रंग दिखायी किसका देगा।
शायद सबसे बडी मुश्किल यही है जो राजनीतिक शून्यता के जरीये पहली बार हर उस युवा को भी अंदर से खोखला बना रही है कि उसके आक्रोश का जवाब किसी सत्ता के पास है क्यों नहीं। 2009 में सत्ता में मनमोहन सिंह के लौटने के पीछे साढ़े चार लाख करोड के भारत निर्माण की योजना थी। और 2014 के लिये मनमोहन सिंह के पास तीन लाख बीस हजार करोड़ के नकद ट्रांसफर की योजना है। यही लकीर दिल्ली की सत्ता के लिये रपटीली रास्तों को भी तैयार कर रही है। क्योंकि शीला दीक्षित के लिये भी 2013 के चुनाव में सत्ता बरकरार रखने का मतलब पांच हजार करोड़ की वह सड़क और चकाचौंध योजना है, जिसके बाद दिल्ली चमकेगी और चौथी बार शीला सरकार की दीवानी दिल्ली की जनता होगी। इस रास्ते देश का निर्माण किसके लिये कैसे होगा यह कोई दूर की गोटी नहीं है। दस बरस पहले भी दिल्ली में बलात्कार की तादाद देश में सबसे ज्यादा थी और दस बरस बाद भी यानी 2012 में भी दिल्ली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले में टॉप पर है। 2003-04 में बलात्कार के 362 मामले दिल्ली में दर्ज किये गये और 2011-12 में 312 बलात्कार के मामले दिल्ली में दर्ज हुये। दिल्ली में प्रति लाख व्यक्तियो पर अपराध का ग्राफ अगर 385.8 है तो देश में यह महज 172.3 के औसत से है। दिल्ली में अगर 2001 में 143795 मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध के तौर पर दर्ज हुये तो 2011-12 तक आते आते इसमे 12 फीसदी की बढोतरी ही हुई है। लेकिन इन रास्तों को नापने या थामने के जरुरत सत्ताधारियो के लिये अगर सत्ता में बने रहने के लिये ही हो जाये तो कोई क्या कहेगा। यह सवाल इसलिये क्योंकि जिन रास्तो को देश और समाज की जरुरत सत्ता मानती है उसमें अपराध विकास की जायज जरुरत बना दी गई है। जरा इसकी बारीकी को समझे । दिल्ली में दस बरस पहले जितने मामले पुलिस थानों में पहुंचते थे उसको निपटाने के लिये औसतन 18 फीसदी मामलों में सत्ताधारी या पावरफुल लोगों की पैरवी आती थी। लेकिन 2012 में जितने मामले थानो में पहुंचते हैं, उसे निपटाने के लिये औसतन 65 फीसदी मामलों में किसी मंत्री, किसी नेता या किसी हुकूक वाले शख्स की पैरवी हर थाने में पहुंचती है। यानी सिर्फ 35 फीसदी मामले ही पुलिस अपने मुताबिक सुलझाती है। या यह कहें कि दिल्ली में अगर कोई अपराध किसी नेता, मंत्री या पैसे वाले के करीबी से हो जाता है तो न्याय पावरफुल पैरवी के आधार पर काम करता है। वहां कानून या ईमानदार पुलिस मायने नहीं रखती। यानी पुलिस अगर चाहे तो भी ईमानदारी से काम कर नहीं सकती क्योंकि पुलिस की सूंड और पूंछ दोनो सत्ता के गलियारे में गुलामी करती है। और इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जो दिल्ली पुलिस देश के गृह मंत्रालय के अधीन है और इंडिया गेट पर जिस पुलिसिया कार्रवाई को लेकर पुलिस आयुक्त के तबादले के कयास लगने लगे हैं। उस दिल्ली पुलिस में 29 फीसदी तबादले नेताओं या मंत्रियो की पैरवी के पक्ष या विरोध को लेकर होते हैं।
दिल्ली पुलिस पर गृह मंत्रालय के नौकरशाहों की फाइलें कहीं ज्यादा भारी है जो नेताओ के इशारे पर चिड़िया बैठाने का काम करती हैं। इस कतार में कास्टेबल से लेकर आईपीएस सभी नेताओ के इशारे पर कदमताल कैसे करते हैं यह पावरफुल पुलिसकर्मियों के मोबाइल काल्स की डिटेल भर से पता लग सकता है कि किसके पीछे कौन है। लेकिन युवाओं के आक्रोश की वजह सिर्फ लंगडी होती व्यवस्था भर नहीं है। बल्कि व्यवस्था के नाम पर विकास और चकाचौंध की आवारा इमारत को खड़ा करने की वह मानसिकता है, जिसमें जेब हर दिमाग पर भारी हो चला है। पास में पैसा है तो पढ़ाई से क्या होगा। साथ में पावरफुल लोगो की जमात है तो डिग्रियों से क्या होगा। और अगर सत्ता की हुकूक ही साथ खड़ी है तो फिर अपराध करने के बाद सजा कौन दिलायेगा। क्योंकि पिछले बरस ही दिल्ली के थानो में दर्ज महिलाओं से छेड़छाड़ से लेकर अपराध के 167 एफआईआर पर कार्रवाई के तरीके बताते हैं कि आरोपी इसलिये छूटे या मामला इसलिये रफा-दफा हो गया क्योंकि पैरवी वीवीआईपी की तरफ से हुई। और यह वीवीआईपी उसी कतार के लोग हैं, जिनकी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस जी जान से लगी रहती है। और आम नागरिक सड़क पर लुटता रहता है। इस लूट की समझ का दायरा दि्ल्ली में कैसे लगातार व्यापक हो रहा है, यह इससे भी समझा जा सकता है दस बरस में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतो की परिभाषा तक बदल दी गई है। जो पानी, बिजली, सफर और पार्किंग कमाई के हिस्से में सबसे न्यूनतम हुआ करते थे। अब वह सबसे ज्यादा हो चले हैं। यानी दिल्ली में जीने का मतलब न्यूनतम जरुरतों के जुगाड़ की ऐसी भागमदौड़ है, जहां रुक कर सांस भी ली और इंडियागेट या जंतर मंतर पर नारे लगाने के लिये भी रुके थमे तो घाटा हो जायेगा। और मनमोहन सिंह से लेकर शीला दीक्षित तक की व्यवस्था मुनाफा बनाने की है। घाटा उठाने की नहीं है । तो सरकार पहली बार इसलिये भौचक्की है कि उसने तो ना ठहरने वाली ऐसी व्यवस्था बनायी है, जिसमें कोई दर्द का जिक्र ना करे। और अब युवा ठहर कर सड़क से सरकार को आवाज लगा रहा है तो देश के प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि वह भी तीन बच्चियों के पिता हैं।
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