नरेन्द्र मोदी यूं ही क्योटो के प्रसिद्द तोजी बौद्ध मंदिर में नहीं गये । और उसके बाद किंकाकुजी बौद्दध मंदिर यूं ही नहीं पहुंचे। और इसी बरस नवबंर में होने वाले सार्क सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी नेपाल जायेंगे
तो यूं ही काठमांडू के बौद्धनाथ या स्वंयम्भूनाथ स्तूप के दर्शन करने नहीं जायेंगे या फिर अमिताभा मोनेस्ट्री के दर्शन करने की इत्छा यूं ही नहीं जतायेंगे। यानी नवंबर में सार्क सम्मेलन के दौराम प्रधानमंत्री मोदी
पशुपति नाथ मंदिर नहीं बल्कि बौद्ध मंदिर जायेंग। और सबसे पहले भूटान यात्रा करने भी प्रधानमंत्री मोदी यूं ही नहीं गये। ध्यान दें तो बौद्ध घर्म का जहां जहां प्रचार प्रसार हुआ और जहां जहां की सरकार बौद्ध धर्म से
प्रभावित रही हैं, प्रधानमंत्री मोदी सभी के साथ एक नया रिश्ता बना रहे है और सेतू का काम बौद्ध धर्म कर रहे हैं। तो यह सवाल नागपुर में आंबेडकरवादियो से लेकर यूपी के मायावती के दलित वोट में भी उठने लगा है
कि प्रधानमंत्री मोदी के बौद्ध प्रेम के पीछे की कहानी बौद्ध धर्म प्रभावित देशों के साथ भारत के रिश्तो को नया आयाम देना है या फिर संघ परिवार के विस्तार के लिये गुरु गोलवरकर के दौर की वह सीख है। जिसे
राजनीति के आइने में प्रधानमंत्री मोदी उतारना चाह रहे हैं। संघ के पन्नों को पलटे तो १९७२ में सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने ठाणे में पांडुरंग शास्त्री आठवले के निवास पर हुये दस दिन के हुये चिंतन बैठक में इस बात
पर जोर दिया था कि जात-पात, संप्रदाय, भाषा सेउपर उठकर संघ परिवार के विस्तार के लिये सभी को साथ लेना जरुरी है। असर इसी का हुआ कि केरल के दलित चिंतक श्री रंगाहरि आरएसेस के बौद्दिक प्रमुख के पद पर हाल के दिनों तक रहे। और इसी कड़ी में विश्व हिन्दुपरिषद के बालकृष्ण नाईक लंबे समय से दुनियाभर के बौद्ध धर्म को मानने वाले देशो के साथ संपर्क बनाये हुये हैं । और संघ परिवार का भूटान, नेपाल, श्रीलंका ,जापान समेत दर्जनभर देशों के बौद्ध धर्मावलंबी के साथ संबंध बना हुआ है।
लेकिन आजादी के बाद पहली बार संघ परिवार यह महसूस कर रहा है अपने बूते उसकी सरकार बनी है तो संघ की हर उस पहचान को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ने का खुला प्रयास भी हो रहा है जिसकी कल्पना इससे पहले की जरुर गयी लेकिन उसे लागू कैसे किया जाये यह सवाल अनसुलझा ही रहा। और चूंकि आरएसएस का प्रचारक रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने भी गोलवरकर का पाठ हर प्रचारक की तर्ज पर पढ़ा ही होगा कि विस्तार के लिये जात-पात, वर्ण भाषा संप्रदाय को आडे नहीं आने देना चाहिये। और अब जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री तो सियासत साधने के लिये भी गोलवरकर के मंत्र को राजनीतिक जमीन पर उतारने से चूकेंगे नहीं। यानी महाराष्ट्र में रिपब्लिक पार्टी के नाम पर सियासत करने वाले अंबेडकरवादी हो या अंबेडकर का नाम लेकर दलित राजनीति करने वाली मायवती। खतरे की घंटी दोनों के लिये है। पहली नजर में लग सकता है कि मायावती की समूची सियासत ही आज शून्य पर आ खडी हुई है तो वह प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लेने के लिये जन-धन योजना पर वार करने से चूक नहीं रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी जिस सियासत को साधने के लिये कई कदम आगे बढ़ चुके है, उसके सामने अब मायावती या मुलायम के वार कोई मायने रखेंगे नहीं। क्योंकि राष्ट्रीयता की बिसात पर संघ की उसी सोच को व्यवस्था बनाया जा रहा है जिस दिशा में किसी दूसरे राजनीतिक दल ने काम किया नहीं और आरएसएस अपने जन्म के साथ ही इस काम में लग गया।
वनवासी कल्याण आश्रम जिन क्षेत्रों में सक्रिय है और उस समाज के पिछडी जातियों के जितना करीब होकर काम कर रहा है क्या किसी राजनीतिक दल ने कभी उस समाज में काम किया है। पुराने स्वयंसेवकों से
मिलिये तो वह आज भी कहते मिलेगें कि जेपी के कंघे से राजनीतिक प्रयोग करने वाले बालासाहेब देवरस इंदिरा गांधी के बाद मोरारजी देसाई को नहीं जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनवाना चाहते थे । सिर्फ दलित ही नहीं बल्कि जिस हिन्दु शब्द को लेकर सियासी बवाल देश में लगातार बढ़ रहा है उसकी नींव भी कोई आज की नहीं है। जिस नरेन्द्र मोदी को हिन्दूत्व शब्द के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है और अटल बिहारी वाजपेयी का हवाला देकर संघ के प्रचारक का माडरेट चेहरे का जिक्र किया जा रही है क्या १९७४ में लोकसभा में वाजपेयी की दिया भाषण, 'अब हिन्दू मार नहीं खायेगा ' किसी को याद नहीं है। संघ परिवार ने तो वाजपेयी के इस भाषण की करोड़ों कॉपियां छपवाकर देश भर में बंटवायी थीं। यह अलग सवाल है कि १९७७ में विदेश मंत्री बनने के बाद वाजपेयी ने कभी हिन्दु शब्द का जिक्र सियासी तौर पर नहीं किया। लेकिन संघ के भीतकर का सच यह भी है कि देवरस हो या उससे पहले गोलवरकर या फिर देवरस के बाद में रज्जू भैया। सभी ने वाजपेयी को नेहरु की तर्ज पर देश में सर्वसम्मति वाले भाव को पैदा करने को कहा भी और रास्ता भी बताया। क्योंकि हिन्दु शब्द तो संघ के जन्म के साथ ही जुड़ा। हेडगेवार ने खुले तौर पर हिन्दू होने की वकालत की। तो गोलवरकर ने तो हेडगेवार के दौर से संघ के प्रतिष्ठित स्वयसेवक एकनाथ रानाडे को १९७१-७२ में तब प्रतिनिधि सभा से अलग कर दिया जब उन्होने विवेकानंद शिला स्मारक पर काम करते वक्त विवेकानंद को इंदिरा गांधी के कहने पर हिन्दू संस्कृति की जगह भारतीय संस्कृति का प्रतीक बताया।
उस वक्त गोलवरकर यह कहने से नहीं चूके कि राजनीतिक वजहों से अगर हिन्दू शब्द को दरकिनार करना पड़े तो फिर संघ का आस्तित्व ही संकट में है। और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । और गुरु गोलवरकर के जीवित रहते हुये कभी रानाडे प्रतिनिधी सभा का हिस्सा ना बन पाये। लेकिन देवरस ने अपने दौर में राजनीतिक वजहों से ही हिन्दू शब्द पर समझौता किया। जनता पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर जब चन्द्रशेखर और मधुलिमये ने देवरस को समझाया कि हिन्दू शब्द पर खामोशी बरतनी चाहिये क्योंकि यह राजनीति जरुरत है तो उस वक्त आरएसएस में बकायदा निर्देश जारी हुआ कि कौई हिन्दू शब्द ना बोलें। दरअसल मौजूदा वक्त में दलित सियासत के उफान पर आने के संकेत हो या हिन्दू शब्द के राजनीतिकरण के तो समझना यह होगा कि मौजूदा सरसंघचालक भी देवरस की ही लकीर के है जो खुद हेडगेवार की लकीर पर चले। और तीनों के दौर में ही राजनीतिक प्रयोग हुये और खुले संकेत उभरे कि राजनीतिक प्रयोग आरएसएस कर सकता है और आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता उस अंडर-करेंट को उभार सकती है जो राजनीतिक दलों की
सक्रियता से सतह पर नहीं आ पाती। इसलिये तमाम राजनीति दल जो भी सोचे संघ परिवार के भीतर केन्द्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला और गोवा के डिप्टी सीएम फ्रांसिस डिसूजा के बयान को अंडर करेंट के सतह पर आने के नजरिये से ही देखा जा रहा है। संघ परिवार के भीतर हर तबके को साथ जोड़ने की कुलबुलाहट कैसे तेज हुई और कैसे समझौते भी किये गये यह बुद्ध को लेकर संघ की अपनी समझ के बदलने से भी समझा जा सकता है। एक वक्त आरएसएस ने बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा। लेकिन आपत्ति होने पर बुद्ध घर्म को अलग से मान्यता भी दी । लेकिन जैसे ही हिन्दू शब्द पर सियासत के लिये मुश्किल हुआ वैसे ही राष्ट्रीयत्व की लकीर आरएसएस ने खींचनी शुरु की। असर इसी का है कि संघ के हर संघठन के साथ राष्ट्रीय शब्द जुड़ा। खुद हेडगेवार ने भी हिन्दु स्वयंसेवक संघ नहीं बनाया बल्कि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ नाम दिया। और हिन्दु शब्द को सावरकर के हिन्दु महासभा से जोडकर यह बहस करायी कि सावरकर के हिन्दु शब्द में मुस्लिम या ईसाई के लिये जगह नहीं है। लेकिन आरएसएस के हिन्दु शब्द में राष्ट्रीयता का भाव है और इसमें हर घर्म-संप्रदाय के लिये जगह है। लेकिन पहली बार गुरु गोलवरकर १९६३ में जब नेपाल गये और लौटकर उन्होंने चीन का नेपाल में बढते प्रभाव पर नेहरु और लालबहादुर शास्त्री को यह कहकर रिपोर्ट भेजी भारत को अपना अंतराष्ट्रीय प्रभाव विकसित करना चाहिये । नेहरु ने कुछ किया या नहीं लेकिन उसके बाद पहली बार गुरु गोलवरकर ने ही हिन्दू शब्द को खुले तौर पर आत्मसात करते हुये विश्व हिन्दू परिषद का निर्माण किया। और मौजूदा वक्त में इसी विहिप से जुडे प्रचारक बालकृष्ण नाईक अमेरिका छोडकर दिल्ली-नागपुर की गलियां नापने लगे और बौद्ध धर्म को सेतू बनाकर संघ के साथ वास्ता बनाने में जुटे हैं। और मोदी ने क्वेटो के जरीये इस रास्ते को फिलहाल बनारस के नाम पर पकड़ा है लेकिन यह रास्ता सियासी तौर पर कैसे दलित राजनीति करने वालो का डिब्बा
गोल करेगा और बीजेपी को कितना विस्तार देगा इसका इंतजार करना होगा।
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