सोमवार, 1 दिसंबर 2014

मेहनतकश जनता का कत्लेआम, पर केसरिया कारपोरेट राष्ट्र के एजंडे सबसे टाप पर

श्रमसुधारों को संसद की मंजूरी

बाबासाहेब ने संविधान रचा है, बार-बार इस जुगाली के साथ जयभीम, नमोबुद्धाय और जयमूलनिवासी कहने वाले तबके के लोगों को मालूम है ही नहीं कि उस संविधान को कैसे खत्म किया जा रहा है और उसी संविधान को हमारी संसद और हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिये पूना समझौते की अवैध संतानें कैसे-कैसे मनुस्मृति में बदल लगी हैं।

विपक्ष के कड़े विरोध के बावजूद लोकसभा में शुक्रवार को श्रम विधि संशोधन विधेयक 2014 के पारित होने के साथ ही इसे संसद की मंजूरी मिल गई। अब सिर्फ राष्ट्रपति का दस्तखत नये कानून को अमल में लाने के लिए बाकी है, जो कहना न होगा, महज औपचारिकता मात्र है।

मेहनतकश जनता का कत्लेआम केसरिया कारपोरेट राष्ट्र के एजंडे पर सबसे टाप पर, इसीलिए लोकसभा में श्रम कानूनों में सशोधन को हरी झंडी! संगठित और असंगठित मजदूरों में इन संशोधनों के बाद भारी समानता हो जायेगी, अच्छी बात यह है। अब मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स अधिनियम 1961, अंतर राज्यीय प्रवासी मजदूर (रोजगार और सेवा शर्तों का विनियमन) अधिनियम 1976, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 आदि सहित सात नए कानून बन गए।

सरकार ने हाल ही में ‘श्रमेव जयते‘ का नारा देकर श्रम कानूनों को सरल बनाने और इंस्पेक्टर राज को खत्म करने की बात कही थी।

जाहिर है कि मालिकान जब बहीखाता रखने को मजबूर न होंगे और किसी को कोई लेखा जोखा रिकार्ड दिखाने को बाध्य नहीं किये जा सकेंगे, लेबर कमीशन और ट्रेड यूनियन के अधिकार भी खत्म हैं।

अयंकाली, नारायणराव लोखंडे और बाबासाहेब की विरासतें भी खत्म हैं और खत्म है शिकागो में खून से लिखी गयीं मजदूर दिवस की इबारतें।

पूरा देश अब आईटी उद्योग है और आउटसोर्सिंग है।

अमेरिका हो गये हैं हम।

न काम के घंटे तय हैं और न पगार तय है। भविष्य में न वेतनमान होंगे न होंगे भत्ते। न होंगे पीएफ और न ग्रेच्युटि। श्रम को भी संघ परिवार ने विनियंत्रित कर दिया जैसे कृषि को कर दिया है और कारोबार को कर रहे हैं एफडीआई और ईटेलिंग मार्फत।

न किसान गोलबंद है, न मेहनतकश जनता। न कारोबरी गोलबंद हैं और न कर्मचारी।

झंडे छोड़कर सभी मिलकर इस स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ खड़े होंगे, इसके आसार भी नहीं है।

बिना लड़े लड़ाई की खुशफहमी में जीते हुए अपने किले हार रहे हैं हम।

गौरतलब है कि राष्ट्रपति ने हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित तीन श्रम संबंधी केंद्रीय कानूनों में बदलाव को मंजूरी दे दी जिससे अब राज्य में संशोधित श्रम कानून लागू होंगे।

कारपोरेट खेमे की युक्ति है कि ऐसा लगता है मानो हम देश के किसी कोने में श्रम कानून में हुए मामूली से मामूली बदलाव पर भी खुशी मनाने को तैयार बैठे हैं जबकि जरूरत यह है कि इन कानूनों में देशव्यापी बदलाव हों।

संसद में श्रम कानूनों में संसोधन इसी कारपोरेट लाबिइंग की लहलहाती फसल है जिसक जहर अब हमारी जिंदगी है।

राजस्थान में जो बदलाव किए गए हैं उनमें सबसे अहम यह है कि अगर किसी कंपनी में 300 से कम कर्मचारी हैं तो उसे कर्मचारियों की छंटनी करने अथवा किसी उद्यम को बंद करने के लिए सरकारी अनुमति की जरूरत नहीं होगी।

पहले इसकी सीमा 100 कर्मचारियों की थी। हालांकि दिलासा यह दिलाया जा रहा है कि अगर किसी कंपनी को यह सुविधा हासिल हो कि वह जरूरत के मुताबिक छंटनी कर सकती है तो उसके नए लोगों को भर्ती करने की संभावना भी बढ़ जाती है। ताजा नौकरियों, नियुक्तियों और भर्तियों का हाल क्या बयान करने की जरूरत है।

बाबासाहेब ने बाहैसियत ब्रिटिश सरकार के श्रम मंत्री और बाद में संविधान रचयिता बतौर मेहनतकश जनाते के लिए जो उत्पादन प्रणाली में जाति धर्म लिंग नस्ल भाषा क्षेत्र निर्विशेष जो श्रम कानून बना दिये, एक ओबीसी समुदाय के नेता को देश की बागडोर सौंपकर संघपरिवार उसे खत्म करते हुए विदेशी पूंजी का मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है। वैदिकी सभ्यता का पुनरूत्थान हो रहा है नवनाजी जायनी कायाकल्प के साथ, जिसमें वर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणों की भी शामत आने वाली है कारपोरेट निरंकुश आवारा पूंजी के राज के लिए,करोड़पति अरबपति के नये वर्ण श्रेष्ठ वर्ण के लिए, नये भूदेवताओं के लिए।

संघ परिवार की रणनीति के तहत अब बहुजन समाज एक दिवास्वप्न है क्योंकि बहुसंख्य ओबीसी समुदाय के लोग ही संघ परिवार के सबसे बड़े सिपाहसालार हैं केंद्र और राज्यों में और सारे क्षत्रप गरजते रहते हैं, बरसते कभी नहीं, कभी नहीं और किसी बंधुआ मजदूर से बेहतर न उनकी हैसियत है और न औकात है।

शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका, जल जंगल हवा जमीन पर्यावरण नागरिकता से लेकर खाद्य के अधिकार असंवैधानिक तौर तरीके से कारपरेट लाबिइंग के तहत खत्म किये जा रहे हैं एक के बाद एक। दुनिया भर में तेल की कीमतें कम हो रही हैं और भारत में सत्ता वर्ग ने तेल की कीमतें बाजार के हवाले कर दी हैं।

अब विदेशी पूंजी के हित में, विदेशी हित में निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेश, प्रत्यक्ष निवेश, छंटनी, लाक आउट, बिक्री के थोक अवसरों के लिए तमाम श्रम कानून बदले जा रहे हैं और खबरों में कानून बदले जाने के वक्त कभी सकारात्मक पक्ष को हाईलाइट करने के अलावा उसके ब्यौरे या उसके असली एजेंडे का खुलासा होता ही नहीं है।

हमारे लोगो को मालूम ही नहीं चला कि बाबासाहेब ने भारतीय महिलाओं और मेहनतकश जनता की सुरक्षा के लिए जो शर्म कानून बनाये उसे खत्म करने के लिए देश के सभी क्षेत्रों से चुने हुए करोड़पति अरबपति जनप्रतिनिधियों ने हरी झंडी दे दी है।

मेहनकशों के जो झंडेवरदार हैं जुबानी जमाखर्च के अलावा सड़क पर उतरकर विरोध तक दर्ज कराने की औकात तक उनकी नहीं है और जो अंबेडकरी एटीएम से हैसियतों के हाथीदांत महल के वाशिंदे अस्मिता दुकानदार हैं, उन्हें तो संविधान दिवस मनाने की भी हिम्मत नहीं होती।

बाबासाहेब ने संविधान रचा है, बार-बार इस जुगाली के साथ जयभीम, नमोबुद्धाय और जयमूलनिवासी कहने वाले तबके के लोगों को मालूम है ही नहीं कि उस संविधान को कैसे खत्म किया जा रहा है और उसी संविधान को हमारी संसद और हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिये पूना समझौते की अवैध संतानें कैसे-कैसे मनुस्मृति में बदल लगी हैं।

इसी वास्ते जनजागरण के लिए हमने देशभर में संविधान दिवस को लोकपर्व बनाने की अपील की थी। महाराष्ट्र में तो भाजपा सरकार ने ही संविधान दिवस का शासकीय आयोजन किया था, लेकिन भीमशक्ति को संविधान दिवस तक मनाने की फुरसत नहीं हुई तो बाबासाहेब की विरासत बचाने के लिए उनसे क्या अपेक्षा रखी जा सकती है।

रंग बिरंगे झंडो में बंटे हुए हैं इस देश के लोग और एक दूसरे के खिलाफ मोर्चाबंद है इस देश के लोग। सड़क से संसद तक इसीलिए कत्लेआम के खिलाफ सन्नाटा है और मौत के सौदागरों की महफिल में तवायफ को रोल निभा रहे हैं हम लोग।

अपनी फिजां को कयामत बना रहे हैं हमी लोग ही।

गौर तलब है कि लोकसभा में शुक्रवार को श्रम कानून संशोधित बिल, 2011 पास कर दिया गया। यह बिल 1988 के वास्तविक श्रम कानून में कुछ बदलावों के साथ पास किया गया। नए संशोधित बिल में छोटी यूनिट्स को रिटर्न फाइल करने, रजिस्टर मेंटेन करने जैसे काम में छूट दी गई है। साथ ही 7 नए एक्ट भी शामिल किए गए हैं।

असली मामला इन नये सात कानूनों का है जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और निजीकरण का खुल्ला खेल फर्रुखाबादी है और जो परदे के पीछे खेला जा रहा है।

असली मजा तो यह है कि देशभक्त संघ परिवार अब भी स्वदेशी का अलख जगाकर विदेशी पूंजी और एफडीआई का कारपरेट राज चला रहा है और प्रचार यह दिखाने के लिए, हिंदुत्व की पैदल फौजों को काबू में रखने के लिए कि केंद्र की मोदी सरकार आर्थिक सुधारों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐतराज को दरकिनार कर आगे बढ़ने की तैयारी में है। श्रम कानून में सुधार संबंधी बिल संसद से पास कराकर सरकार ने अपना पहला कदम बढ़ा भी दिया है।

खेल यह है मनुस्मृति कारपोरेट राजकाज और राजकरण का कि आर्थिक सुधार के लगभग 6 मुद्दों पर अपनी आपत्ति जताने के बाद संघ ने निर्णय का अधिकार सरकार के विवेक पर छोड़ दिया है। मजा यह भी कि संघ के विभिन्न संगठनों ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने, श्रम कानून में सुधार, रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश, जीएम फसलों के ट्रायल जैसे मुद्दों पर अपनी आपत्ति जताई थी।

हालांकि सरकार ने आर्थिक सुधारों के मामले में तेजी से आगे बढ़ने का फैसला किया है।

O- पलाश विश्वास

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