मैने चौथी दुनिया के अपने इस स्तंभ में कई बार हिंदी में निकल रही साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा है. पाठकों ने पिछले अंक में पढ़ा होगा कि हिंदी साहित्य में साहित्यिक पत्रिकाओं को निकालने के पीछे किस तरह से बाज़ार को भुनाने की चाहत बढ़ती जा रही है. मैं हमेशा से इस बात का पक्षधर रहा हूं कि बाज़ार का अपने पक्ष में उपयोग किया जाना चाहिए, लेकिन बाज़ार को कोसना और फिर उसका ही इस्तेमाल करना मुझे साइकोफैंसी लगता है. बाज़ार के विरोध की आड़ में जिस तरह से यह खेल खेला जा रहा है, उसे पाठकों के सामने बेनकाब करने की ज़रूरत है. ऐसी पत्रिकाओं की संख्या थोड़ी ही है, लेकिन वे बिगाड़ने और पाठकों को भ्रमित करने के लिए काफी हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हिंदी जगत खड़ा होकर यह कहने की हिम्मत जुटाए कि अमुक पत्रिका अमुक मकसद से निकल रही है. मेरे कहने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हिंदी में निकलने वाली सभी साहित्यिक पत्रिकाएं इस खेल में शामिल हैं. हिंदी में अब भी कई पत्रिकाएं बेहद गंभीरता से निकल रही हैं, कुछ व्यक्तिगत प्रयासों से, तो कुछ सांस्थानिक पूंजी के सहारे.
ऐसी ही दो पत्रिकाएं हैं, तद्भव और आलोचना. तद्भव को कथाकार-उपन्यासकार अखिलेश बेहद श्रमपूर्वक सालों से बगैर किसी संस्थागत पूंजी की मदद के निकाल रहे हैं और आलोचना तो राजकमल प्रकाशन से अरुण कमल के संपादकत्व एवं नामवर सिंह जी की रहनुमाई में निकल रहा है. अभी हाल में तद्भव और आलोचना, दोनों ही पत्रिकाओं का नया अंक आया है. आलोचना का समीक्ष्य जुलाई-सितंबर 2013 अंक सहस्त्राब्दी अंक (50) है.
आलोचना लंबे समय से निकल रही है और इस पत्रिका की हिंदी के पाठकों के बीच साहित्यिक रुचि एवं संस्कृति विकसित करने में अहम भूमिका है. शिवदान सिंह चौहान से लेकर नामवर सिंह तक इसके संपादक रहे हैं. इन दिनों नामवर जी इसके प्रधान संपादक हैं और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एवं वरिष्ठ कवि अरुण कमल इसके संपादन का दायित्व संभाल रहे हैं. पत्रिका की आवर्तिता लगभग ठीक होने के बावजूद समय से थोड़ा पीछे चल रही है, जैसे समीक्ष्य सहस्त्राब्दी अंक जुलाई-सितंबर 2013 का अंक है. सहस्त्राब्दी अंक के संपादकीय में अरुण कमल ने बेहद विनम्रतापूर्वक कहा है, आलोचना का मुख्य काम श्रेष्ठ की पहचान कर, उसके मूल्य को स्वीकार्य बनाना है. साथ ही ऐसे वातावरण, ऐसे समाज की रचना में अपना योग देना है, जो श्रेष्ठ को पोषण प्रदान करे. ऐसे समाज का निर्माण, जहां रोटी और कविता में सबकी बराबर की हिस्सेदारी हो.
अब कवि हैं, तो आत्मा तो थोड़ी कविता की ओर झुकी ही होगी, लेकिन बेहतर होता कि संपादक यह कहता कि रोटी और साहित्य में सबकी बराबर की हिस्सेदारी हो. इसके अलावा साहित्य को रोटी से जिस तरह अरुण कमल ने जोड़ा है, उसे वह थोड़ा और विस्तार देते, तो आलोचना के आम पाठकों के लिए समझना आसान होता. अरुण कमल का गद्य भी पद्य की ही तरह मोहक होता है. इसके अलावा अपने संपादकीय में अरुण कमल ने बड़े बोल नहीं बोले हैं. वह कहते हैं, हम यह नहीं कहते कि यहां जो भी प्रकाशित हुआ, वह सब मूल्यवान ही है या श्रेष्ठ ही है, लेकिन पचास ऐसी प्रस्तुतियां भी मिलें, तो हम धन्य होंगे. अब इस वाक्य में ही शब्द पर ध्यान देने की आवश्यकता है. स़िर्फ ही लगाकर संपादक ने विनम्रता के साथ अपने दावे को पेश कर दिया है. इस बात का हक भी उन्हें है, क्योंकि आलोचना में सैकड़ों ऐसे लेख एवं कविताएं प्रकाशित हुए हैं, जिनकी गूंज लंबे समय तक हिंदी साहित्य में सुनाई देती रही है. समीक्ष्य अंक में लेख स्तरीय हैं, लेकिन इस बार ज़्यादातर कविताएं औसत हैं. संपादक और सह-संपादक, दोनों अच्छे कवि हैं, लिहाजा यह कमी खटकती है.
तद्भव के इस अंक में अखिलेश ने साहित्य और राजनीति को मिलाकर अपने संपादकीय में पेश किया है. अपने सारगर्भित संपादकीय में अखिलेश ने हिंसा और घृणा को अपने तरीके से परिभाषित किया है. उनका मानना है कि घृणा की बिसात पर होने वाली हिंसा ज़्यादा भयानक और गहन होती है. वह इसके लिए नरेंद्र मोदी के मशहूर कुत्ते के पिल्ले वाले बयान का उदाहरण देते हैं. अखिलेश का मानना है कि मुगलों ने राज्य-सत्ता का विस्तार करने के लिए हिंसा का सहारा अवश्य लिया था, लेकिन बाद में अपना शासन स्थापित कर वे वैमनस्यता भूल गए थे. अखिलेश इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि हिंसा और घृणा के ख़िलाफ साहित्य की कला कोई प्रतिरोध नहीं कर रही है. अखिलेश की विचारधारा ज्ञात है और इस वजह से उनके संपादकीय में अमेरिका की घृणा और युद्धोन्माद तो दिखाई देता है, लेकिन वह रूस या फिर पश्चिम बंगाल में वामदलों के शासनकाल में सरकारी हिंसा पर टिप्पणी करने से बच निकलते हैं. संभवत: वह यह सोचते हों कि रूस या बंगाल में जो हिंसा हो रही है, वह मुगलों की तरह है, जो अपना आधिपत्य स्थापित कर वैमनस्यता भूल जाती है. लेकिन, इतना अवश्य है कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद हिंदी में इस तरह के तीखे संपादकीय लिखने वाले अखिलेश अकेले लेखक बचे हैं.
अब तद्भव चूंकि अनियतकालीन है, लिहाजा संपादकीय पढ़ने का अवसर भी तय वक्त पर नहीं मिल पाता है. वीरेंद्र यादव तद्भव में संपादकीय की तरह ही स्थायी हैं. इस बार भी उन्होंने अतिया हुसैन पर लिखा है. वीरेंद्र यादव को पढ़ना हमेशा से रुचिकर होता है. बीच-बीच में जब वह अपने पूर्वाग्रहों पर जाते हैं, तो अतार्किक हो जाते हैं, लेकिन इस लेख में वह इस फैलेसी के शिकार नहीं हैं. तद्भव के इस अंक में गरिमा श्रीवास्तव का मलयालम स्त्री आत्मकथा पर लिखा लेख बेहतरीन है. अपने इस शोधपूर्ण लेख में गरिमा ने हिंदी के पाठकों का मलयालम में लिखी गई आत्मकथाओं से परिचय कराया है. मैं जब इस अंक को पढ़ रहा था, तो मन के किसी कोने-अंतरे में यह बात थी कि शायद गरिमा ने सिस्टर जेसमी की आत्मकथा पर न लिखा हो, लेकिन लेख ने मेरी आशंका गलत साबित की. उन्होंने सिस्टर जेसमी की आत्मकथा-आमीन को उभारा है. इसके अलावा इस अंक में उपासना और शिवेंद्र की लंबी कहानियां हैं. कुंवर नारायण, ऋतुराज, चेतन क्रांति और सुंदर चंद ठाकुर की कविताएं हैं. तुलसीराम की आत्मकथा तो लंबे वक्त से चल ही रही है, जो इस अंक में भी जारी है. कुल मिलाकर अखिलेश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तद्भव हिंदी साहित्य में एक अलग और ऊंचे स्थान पर स्थापित है. मैं पहले भी कई बार यह बात कह चुका हूं कि अखिलेश को यह पत्रिका नियमित करनी चाहिए. अगर मासिक निकालना संभव नहीं है, तो कम से कम द्वैमासिक तो निकालना ही चाहिए. मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि पूरा हिंदी साहित्य अखिलेश को रचनात्मक सहयोग करेगा.
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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014
नियमित हो तो बात बने
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