बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

…और तभी सार्थक होगा मोमबत्तियों का जलना

…और तभी सार्थक होगा मोमबत्तियों का जलना


Kitab-Mili
भ्रष्टाचार तो हम भारतीयों के रक्त में सम्मिलित हो गया है. इसे हमारे समाज ने सहजता से स्वीकार कर लिया है. हम ले-देकर काम कराने के आदी हो गए हैं. शॉर्टकट ढूंढने में मसरूफ हो गए हैं, हम जुगाड़ू हो गए हैं और सच कहें कि हम जुगाड़ुओं को अहमियत भी देने लगे हैं. आज के बाज़ार में ईमानदारों की तुलना में जुगाड़ुओं को अधिक क़ीमत मिलती है…

आपको लग रहा होगा कि उक्त बातें किसी बड़े राजनीतिक-सामाजिक नेता के भाषण का हिस्सा हैं, लेकिन नहीं, ये बातें किसी व्यक्ति विशेष के भाषण का अंश कतई नहीं हैं, बल्कि हाल में प्रकाशित पुस्तक-जलते दिये की बुझती लौ: कैंडल मार्च के चौथे अध्याय-अभियुक्त बनाम दोषी से उद्धृत हैं, जिसमें इस पुस्तक के लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल कुमार ने बताया है कि हम और आप भी, अपने सामने होने वाले अन्याय, अराजकता, अमानवीयता, बेईमानी, चोरी और अन्य दूसरे तरह के अनुचित कामों एवं गतिविधियों को बड़ी लापरवाही के साथ न केवल नज़रअंदाज कर देते हैं, बल्कि कभी-कभी खुद उसके हिस्से भी बन जाते हैं. पिछले दिनों हुए जनांदोलनों और कई अन्य राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों को लेकर लिखी गई यह पुस्तक हमें बताती है कि भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों के लिए स़िर्फ ऐसा करने वाला ही दोषी नहीं होता है, बल्कि हम भी उसमें बराबर के कुसूरवार होते हैं, चाहे ऐसा जानते हुए हो अथवा अनजाने में. प्रफुल्ल कुमार की यह पुस्तक अपने 12 अध्यायों के अंतर्गत कई गंभीर बिंदुओं पर न केवल चर्चा करती है, बल्कि हमें उन पर चिंतन-मनन के लिए भी प्रेरित करती है.


दरअसल, किसी भी पुस्तक का ध्येय तब पूरा होता है, जब वह अपने संदेश को पाठकों तक उनकी भाषा में, उन्हीं की सरलता के अनुरूप पहुंचा दे. पाठकों को लगे कि यह तो वही बात है, जो वे भी सोचते हैं, कहना चाहते हैं, लेकिन नहीं कह पाते. इस प्रकार उन्हें संतुष्टि मिलती है कि उनकी सोच की दिशा सही है और उन्हें यह भी मालूम हो जाता है कि अपनी बात अपने ही शब्दों में दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है और किस तरह. कैंडल मार्च को लिखते समय प्रफुल्ल कुमार ने पाठकों तक अपना संदेश पहुंचाने का ध्येय सर्वोपरि रखा और शायद यही कारण है कि उन्होंने ज़मीन से जुड़े मसलों पर आमजन की भाषा में बात की और वह भी ज़मीन पर खड़े होकर. आमुख में वरिष्ठ पत्रकार सत्य प्रकाश असीम ने अक्षरश: सही कहा है कि वास्तव में प्रफुल्ल जो हैं, वहीं दिखते हैं और उनके मन में जो बातें आती हैं, उन्हें वह बिना कोई परवाह किए कह जाते हैं. उन्हें अपने विचार के संग अकेले पड़ जाने का मलाल नहीं है.

कैंडल मार्च, कितने दीप जलाऊं, पीड़ित कौन, अभियुक्त बनाम दोषी, आंदोलनकारी हाज़िर हों, ख़तरे में लोकतंत्र: नेतृत्वहीनता, लाइन हाज़िर, टीआरपी के खेल में पत्रकारिता फेल, दशहरे का मेला, कोई फ़़र्क नहीं पड़ता, बदल रहा है देश, ढाक के तीन पात जैसे शीर्षकों तले लेखक ने उन सभी बिंदुओं पर चर्चा की, जिन पर उनकी नज़र गई. देश की न्याय व्यवस्था के ढीलेपन एवं उसकी खामियों पर रोशनी डालते हुए लेखक कहते हैं, किसी पीड़ित को न्याय मिले, यह एक सभ्य समाज के भविष्य की अनिवार्य शर्त एवं शासन का दायित्व है, जिसमें संभवत: हम विफल रहे हैं. कोई अपराधी किसी व्यक्ति विशेष का शत्रु नहीं, बल्कि समाज का शत्रु होता है, किंतु हमारे देश में यह प्रथा अब तक चलन में नहीं है. इसलिए आम तौर किसी अपराध का दोषी उस अपराध के पीड़ित का शत्रु मात्र समझा जाता है, जिसे सजा दिलाने के लिए पीड़ित संघर्ष करता है और जब यह संघर्ष दीर्घकालीन होने लगता है, तो पीड़ित टूटने लगता है और ऐसे में वह उस सीमा रेखा को भी कई बार लांघ जाता है, जो अभियुक्त और पीड़ित के बीच होती है और तब पीड़ित स्वयं अन्य मामले में अभियुक्त होता दिखता है.
पुस्तक में ऐसे कई विचार-बिंदु हैं, जो हमारे क़रीब होकर भी आज तक अनछुए रहे, जिन्हें लेखक ने बखूबी पकड़ा. समाज में महिलाओं की हालत को लेकर उन्होंने कहा कि जो अपने गर्भ में हमें नौ-दस माह तक रख सकती है, वह अबला कैसे हो सकती है? लेखक कहता है कि जब समाज में वर (दूल्हे) खरीदे जाते हैं, तो ऐसे में बेटी के कन्यादान की रस्म का क्या औचित्य है? एक जगह लेखक ने पुलिसकर्मियों की मनोदशा का वर्णन किया है, वह भी काव्यात्मक, शीर्षक है लाइन हाज़िर. इसे पढ़कर आप कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदार पुलिसकर्मियों के मन में चलने वाली उथल-पुथल को बखूबी समझ सकते हैं. बहुत आशावादी दृष्टि रखते हुए लेखक का मानना है कि हमारी व्यवस्था में जो खामियां हैं, उन्हें दूर किया जा सकता है, बशर्ते हम इसके लिए खुद को तैयार कर सकें. प्रफुल्ल सच कहते हैं, क्योंकि यह हमारी फितरत है कि जब कोई अन्य शख्स कहीं कुछ अनुचित कार्य करता है, अपने कर्तव्य से दूर भागता है, भ्रष्ट आचरण करता है, तो वह हमारी नज़र में सहज ही दोषी हो जाता है, लेकिन जब हम वैसा आचरण करते हैं, तो खुद को पाक-साफ़ बताने और साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते. बहरहाल, भाषा-व्याकरण संबंधी कुछ त्रुटियों के बावजूद यह पुस्तक सुधी पाठकों को एक नया संदेश, एक नया रास्ता देगी, ऐसा मुझे विश्‍वास है.

चौथी दुनिया 

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