सोमवार, 7 अप्रैल 2014

प्रजातंत्र को कुचलने में यकीन रखता है फासीवाद

क्रूर है फासीवादफासीवाद के लक्षण
-राम पुनियानी
फासीवाद, जो यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जन्मा, के द्वारा मानवता को दिए गए त्रास को हमारी दुनिया आज तक नहीं भुला सकी है। फासीवाद क्रूर थावह प्रजातंत्र को कुचलने में यकीन रखता था, वह अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता था, वह राष्ट्र की शक्ति को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता था, वह अति-राष्ट्रवादी था, वह अपने नेता को ‘मजबूत’ नेता के रूप में प्रचारित करता था और उसके आसपास एक आभामंडल का निर्माण करता था। उस दौर में जो कुछ घटा, उसे हम आज तक भुला नहीं पाए हैं और हम नहीं चाहते कि हमारी दुनिया को उस दौर से फिर कभी गुजरना पड़े। तभी से ये दो शब्द-फासिज्म और हिटलर-हमारी दैनिक शब्दावली का हिस्सा बन गए। ये हमें उस तानाशाहीपूर्ण शासन और उस क्रूर तानाशाह की याद दिलाते हैं। कई बार इन शब्दों को किसी भी तानाशाहीपूर्ण शासन या अपनी मनमानी करने वाले किसी भी व्यक्ति या नेता के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस राजनैतिक परिघटना के लक्षण बहुत विशिष्ट हैं और किसी व्यक्ति या शासन व्यवस्था पर हिटलर या फासीवादी का लेबल चस्पा करने से पहले हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
इस मुद्दे पर बहस एक बार फिर इसलिए शुरू हुई है क्योंकि राहुल गांधी ने इशारों में यह कहा कि नरेन्द्र मोदी, हिटलर की तरह हैं। पलटवार करते हुए भाजपा के अरूण जेटली ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद के भारत के सिर्फ एक नेता की तुलना हिटलर से की जा सकती है और वे हैं इंदिरा गांधी, जिन्होंने देश में आपातकाल लगाया, अपने राजनैतिक विरोधियों को जेलों में ठूस दिया और प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया। यह सही है कि इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था। यह एक निंदनीय कदम था। यह भी सही है कि उनके आसपास के कुछ लोगों का व्यवहार तानाशाहीपूर्ण था। परंतु क्या वह फासिस्ट शासन था? क्या इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से की जा सकती है? कतई नहीं। हमें यह समझना होगा कि तानाशाही और एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था के कई स्वरूप होते हैं। कई देशों में आज भी फौजी शासन है और कई में राजा-महाराजा सत्ता में हैं। परंतु फासिज्म इन सबसे बिलकुल अलग है।
यूरोप के लगभग सभी फासीवादी, प्रजातांत्रिक रास्ते से सत्ता में आए। उसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे प्रजातंत्र का अंत कर दिया और तानाशाह बन बैठे। उन्होंने स्वयं को देश के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया और अपने देश की सीमाओं का विस्तार करने की कोशिश इस बहाने से की कि उनके पड़ोसी देश, कभी न कभी उनके देश का हिस्सा थे। फासीवाद के दो अन्य मुख्य पारिभाषिक लक्षण यह हैं कि फासीवादी शासकों को उद्योगपतियों का पूर्ण समर्थन हासिल रहता है और इसके बदले उन्हें राज्य हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराता है। दूसरे, फासीवादी शासक दुष्प्रचार और अन्य माध्यमों से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं। उन्हें राष्ट्रविरोधी और देश के लिए खतरा बताया जाता है। देश की सारी समस्याओं के लिए अल्पसंख्यकों को दोषी ठहराया जाता है। इसके बाद शुरू होता है अल्पसंख्यकों का कत्लेआम, जिसे समाज के बड़े वर्ग का मूक और कब जब मुखर समर्थन प्राप्त रहता है। यह फासीवाद साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद पर आधारित होता है, जिसे नस्ल या धर्म के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जाता है (हिटलर ने इसके लिए नस्ल का उपयोग किया था)।
विदेशी शासन से मुक्त हुए देशों में समाज के सामंती वर्गों की विचारधारा को मध्यम वर्ग व उच्च जातियों द्वारा अपना लिए जाने से फासीवाद से मिलती-जुलती ताकतें उभरती हैं। यही लक्षण राजनैतिक कट्टरवाद के भी हैं, जहां पूरे समाज पर धर्म की संकीर्ण व्याख्या लाद दी जाती है और जो लोग उससे सहमत नहीं होते, उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। कई इस्लामिक देशों में इस तरह का कट्टरवाद है। भारत में भी इस्लाम के नाम पर कुछ कट्टरवादी-फासीवादी ताकतों का उदय हुआ है और वे धर्म के नाम पर राजनीति कर रही हैं। भारत में धर्म के नाम पर राजनीति के फासीवाद में बदल जाने का खतरा है। नेहरू इस आशंका से अच्छी तरह वाकिफ थे। उनके द्वारा दी गई चेतावनी आज भी एकदम उपयुक्त जान पड़ती है। उनके अनुसार, मुस्लिम साम्प्रदायिकता उतनी ही खराब है जितनी कि हिन्दू साम्प्रदायिकता। यह भी हो सकता है कि मुसलमानों में साम्प्रदायिकता की भावना हिन्दुओं की तुलना में कहीं अधिक हो। ‘‘…परंतु मुस्लिम साम्प्रदायिकता, भारतीय पर प्रभुत्व जमाकर यहां फासीवाद नहीं ला सकती। यह केवल हिन्दू साम्प्रदायिकता कर सकती है’’ (फ्रंट लाईन १ जनवरी १९९३ में उद्धृत)।
भारत में फासीवाद-कट्टरतावाद का बीज पड़ा सन् १८८० के दशक में हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के साथ। मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति ने अलग राह पकड़ ली और उसने पाकिस्तान की जनता को असंख्य दुःख दिए। भारत पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति भी साथ में ही उभरी परंतु उसने फासीवादी रंग अख्तियार कर लिया। इस फासीवाद की रूपरेखा आरएसएस के प्रमुख विचारक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘व्ही ऑर अवर नेशनहुड’ में प्रस्तुत की। इस पुस्तक में जर्मनी के नाजी फासीवाद से बहुत कुछ लिया गया है और नाजीवाद के सिद्धांतों की जमकर प्रशंसा की गई है। यह पुस्तक नस्लीय गर्व को उचित ठहराती है और ‘दूसरे’ (इस मामले में गैर-हिन्दू) से निपटने में क्रूर तरीकों के इस्तेमाल की वकालत करती है। पुस्तक, हिन्दू संस्कृति को राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में स्वीकार करने की वकालत करती है और आमजनों का आह्वान करती है कि वे हिन्दू नस्ल और हिन्दू राष्ट्र का महिमामंडन करें, ‘अन्यों’ को हिन्दुओं के अधीन मानें और ‘अन्यों’ के नागरिक अधिकारों को सीमित करें, जैसा कि जर्मन फासीवादियों ने हिटलर के नेतृत्व में यहूदियों के साथ किया था। इसकी प्रशंसा करते हुए गोलवलकर लिखते हैं, ‘‘…अपने राष्ट्र और संस्कृति की शुचिता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को यहूदी नस्ल से मुक्त कर दिया। यह राष्ट्रीय गौरव का शानदार प्रकटिकरण था। जर्मनी ने यह भी दिखाया कि किस तरह ऐसी नस्लों या संस्कृतियों, जिनमें गहरे तक अंतर हैं, को कभी एक नहीं किया जा सकता। इससे हिंदुस्तान को सीखना और लाभ उठाना चाहिए’’ (व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड, पृष्ठ २७, नागपुर १९३८)।
फासिज्म के मूल में है एक ऐसी सामूहिक-सामाजिक सोच का निर्माण, जिसके निशाने पर ‘दूसरा’ समुदाय हो। यही १९८४ की भयावह सिक्ख-विरोधी हिंसा को मुस्लिम-विरोधी व ईसाई-विरोधी हिंसा से अलग करता है। मुसलमानों और ईसाईयों का जानते-बूझते दानवीकरण कर दिया गया है और उन्हें सामान्यजनों की सोच में ‘दूसरा’ बना दिया गया है। यही कारण है कि उनके खिलाफ नियमित तौर पर होने वाली हिंसा को समाज की मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है।
आरएसएस की विचारधारा, फासीवाद का भारतीय संस्करण है। इसकी नींव में हैं अतिराष्ट्रवाद, ‘दूसरे’ (मुसलमान व ईसाई) व अखण्ड भारत की परिकल्पना और भारतीय राष्ट्रवाद की जगह हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति वफादारी। महात्मा गांधी ने आरएसएस के इन लक्षणों को बहुत पहले ताड़ लिया था। उन्होंने संघ को ‘‘एकाधिकारवादी दृष्टिकोण वाला साम्प्रदायिक संगठन’’ बताया था। मोदी के उदय के पहले तक हम सब को यह लगता था कि आरएसएस का आंदोलन फासीवादी इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि उसके पास कोई चमत्कारिक नेता नहीं है। फासीवाद एक चमत्कारिक नेता के बिना नहीं पनप सकता। सन् २००२ के बाद से मोदी एक ऐसे चमत्कारिक नेता के रूप में उभरे हैं और उन्हें चमत्कारिक नेता का स्वरूप देने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है। मोदी की फासीवादी सोच, गंभीर अध्येताओं और समाज विज्ञानियों से तब भी नहीं छुपी थी जब वे बड़े नेता नहीं थे। गुजरात कत्लेआम के बहुत पहले, आशीष नंदी ने लिखा था, ‘‘एक दशक से भी ज्यादा पहले, जब मोदी आरएसएस के छोटे-मोटे प्रचारक थे व बीजेपी में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयासरत थे, उस समय मुझे उनका साक्षात्कार लेने का मौका मिला…उनसे मुलाकात के बाद मेरे मन में कोई संदेह नहीं रह गया कि वे एक विषुद्ध फासीवादी हैं। मैं ‘फासीवाद’ शब्द को गाली की तरह प्रयुक्त नहीं करता। मेरी दृष्टि में वह एक बीमारी है, जिसमें संबंधित व्यक्ति की विचारधारा के अलावा उसके व्यक्तित्व और उसके प्रेरणास्त्रोतों की भी भूमिका होती है। वे (मोदी) अति शुद्धतावादी हैं, उनके मन में भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और वे हिंसा में विश्वास करते हैं-वे जुनूनी और अर्द्धविक्षिप्त हैं। मुझे अभी भी याद है कि उन्होंने किस तरह बड़ी नपीतुली भाषा में यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि भारत के विरूद्ध सारी दुनिया षडयंत्र कर रही है और किस तरह हर मुसलमान देशद्रोही और संभावित आतंकवादी है। इस साक्षात्कार ने मुझे अंदर तक हिला दिया और इसके बाद मैंने याज्ञनिक से कहा कि अपने जीवन में पहली बार मैं ऐसे व्यक्ति से मिला हूं जो पुस्तकों में दी गई फासीवादी की परिभाषा पर एकदम फिट बैठता है। ये संभावित हत्यारा है। बल्कि ये भविष्य में कत्लेआम भी कर सकता है।’’
इसी तरह, जब अप्रैल २०१० में जर्मनी का एक प्रतिनिधिमण्डल गुजरात की यात्रा पर आया तो उसके एक सदस्य ने कहा कि उसे यह देखकर बहुत धक्का लगा कि हिटलर के अधीन जर्मनी और गुजरात के अधीन मोदी में कितनी समानताएं हैं। यहां यह बताना समीचीन होगा कि गुजरात की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में हिटलर को एक महान राष्ट्रवादी बताया गया है। गुजरात, हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला रहा है। मोदी की प्रचार मशीनरी चाहे कुछ भी कहे, सब यह जानते हैं कि २००२ के कत्लेआम के बाद से, राज्य में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हाल बेहाल हैं।
क्या हम कह सकते हैं कि फासीवाद केवल यूरोप तक सीमित है और वह भारत में नहीं आ सकता? मूलतः फासीवाद एक ऐसी विचारधारा है, जिसका जन्म समाज के उन तबको में होता है जो प्रजातंत्र के खिलाफ हैं और जो काल्पनिक भयों का निर्माण कर प्रजातांत्रिक संस्थाओं को खत्म कर देना चाहते हैं और जो यह मानते हैं कि चीजों को ठीक करने के लिए एक मजबूत नेता की आवश्यकता है। फासीवाद, अतिराष्ट्रवाद पर जोर देता है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है। पड़ोसी देशों के प्रति उसका रवैया आक्रामक होता है। इस अर्थ में फासीवाद किसी भी देश पर छा सकता है-किसी भी ऐसे देश पर, जहां सामाजिक आंदोलन या तो कमजोर हैं या बंटे हुए हैं या फासीवाद के खतरे के प्रति जागरूक नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भारत में इतनी विविधताएं हैं कि यहां फासीवाद के लिए कोई जगह नहीं है। यह एक अच्छा विचार है और शायद इसी कारण अब तक भारत में फासीवादी ताकतें नियंत्रण में रही हैं। परंतु समय के साथ कई बार विविधताएं समाप्त हो जाती हैं और सब ओर एक सी प्रवृतियां उभरने लगती हैं। इसलिए यह मानना अनुचित होगा कि भारत में फासीवाद कभी आ ही नहीं सकता, विशेषकर इस तथ्य के प्रकाश में कि इस तरह की प्रवृत्तियों को भारत में भारी समर्थन मिल रहा है। फासीवादी ताकतों की ठीक-ठीक पहचान और प्रजातांत्रिक सिद्धांतों व बहुवाद के मूल्यों की रक्षा के लिए सम्मलित प्रयास ही हमारे प्रजातंत्र को बचा सकते हैं।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)  About The Author
Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and

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