बुधवार, 2 अप्रैल 2014

जन्मशती के बहाने उठे सवाल

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहा करते थे, जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरी परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं. जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छा से स्वीकार कर लेती हैं. पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, लेकिन जहां प्रवाह एक तरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है. हालांकि, सांस्कृतिक ग़ुलामी का सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है. यह ग़ुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है. दिनकर के इस कथन में यह जोड़ना भी आवश्यक है कि जो समाज अपनी भाषा के लेखकों को याद नहीं रख सकता, उनका उचित सम्मान नहीं कर सकता, उनकी रचनाओं को भावी पीढ़ियों को हस्तगत नहीं कर सकता और अपने महान लेखकों की विरासत को संभाल नहीं सकता वह समाज कालांतर में साहित्यक और सांस्कृतिक रूप से पंगु हो जाता है. दरअसल, हमारे समाज, विशेषकर साहित्यक समाज में अपने महान लेखकों को याद करने की परंपरा धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है. लेखकों के जन्म दिवस या पुण्य तिथि पर रस्म अदायगी के लिए छोटे-मोटे समारोह हो जाते हैं, लेकिन हमने कभी गंभीरता से नहीं सोचा कि भावी पीढ़ियों को हिंदी समाज के बड़े लेखकों से कैसे परिचित कराया जाए ? साहित्य और संस्कृति तो ख़ैर सरकार की प्राथमिकता में कहीं होती नहीं है. चिंता की बात यह है कि साहित्य समाज भी अपने लेखकों को लेकर उदासीन दिखता है. यह बहुत दुखद है कि हमारी मौजूदा पीढ़ी को अपनी भाषा में बात करने में गौरव महसूस नहीं होता है, बल्कि उसे अंग्रेजी में तुतलाने में परम गौरव का अनुभव होता है. हमारी शिक्षा व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि अंग्रेजी स्कूलनुमा दुकानें हर गली मोहल्ले में खुल गई हैं, जो बच्चों को न तो सही से अंग्रेजी का ज्ञान दे पा रही हैं और हिंदी तो बस पढ़ाने के लिए पढ़ाई जाती है.  इस तरह हमारा हिंदी समाज भाषायी ग़ुलामी की ओर बढता जा रहा है.
हम इस भाषाई ग़ुलामी के चंगुल में जाने की पड़ताल करें, तो राजनीतिक नेतृत्व की उदासीनता के अलावा साहित्यक नायकों के प्रति हमारी उदासीनता भी एक बड़ी वजह है. कई यूरोप के देशों में यह परंपरा है कि वहां स्कूल कॉलेजों के अलावा, सड़कों और हवाई अड्डों के नाम भी उनकी भाषा के महान लेखकों के नाम पर रखे जाते हैं. अमेरिका में सड़कों और सरकारी इमारतों के नाम लेखकों के नाम पर हैं. भारत में तो परिवार विशेष के सदस्यों को ही यह विशेष इज्जत बख्शी जाती है. हमारे लिए यह बेहद अफ़सोस की बात है कि कोई बड़ा हवाई अड्डा किसी लेखक के नाम पर नहीं है. दिल्ली में कोई सड़क प्रेमचंद सरीखे लेखकों के नाम पर नहीं है. हर जगह गांधी, गांधी और गांधी. सड़कों या इमारतों का नाम किसी मशहूर शख्सियत के नाम पर रखने का यह फ़ायदा होता है कि नई पीढ़ी उनके बारे में जानना चाहती है. वह इस बात की तफ्तीश करती है कि अमुक नाम के व्यक्ति का क्या योगदान रहा है. इस तरह पीढ़ी-दर- पीढ़ी उस व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता बनी रहती है.  हमारे देश में राजनेताओं को यह गौरव हासिल है, लेकिन साहित्यकारों को नहीं. इमारतों और सड़कों के नामकरण की तो छोड़िए, साहित्यकारों की जन्मशती पर भी देश में व्यापक आयोजन नहीं होता है. जन्मशती वर्ष पर समारोह का ऐलान होता है, लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायगी भर होकर रह जाता है.
इस साल हिंदी और उर्दू के मशहूर लेखक कृष्ण चंदर का जन्मशती वर्ष है, लेकिन अब तक कहीं भी किसी तरफ से कोई सुगबुगाहट नहीं सुनाई दे रही है.  न तो साहित्य अकादमी की तरफ से और न ही उर्दू अकादमी की तरफ से. इन दोनों अकादमियों से इसलिए अपेक्षा है, क्योंकि कृष्ण चंदर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते थे. कृष्ण चंदर की हिंदी और उर्दू में रचनात्मक आवाजाही उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है. कृष्ण चंदर के जन्म को लेकर भी कई भ्रांतियां हैं. कहीं इस बात का उल्लेख है कि वह लाहौर में पैदा हुए, कहीं उनका जन्म स्थान पुंछ बताया जाता है, तो किसी प्रकाशन में उनके जन्म स्थान के रूप में वजीराबाद का जिक्र है. हालांकि, पिछले दिनों एक अख़बार में कृष्ण चंदर के छोटे भाई उपेंद्र चोपड़ा के हवाले से ख़बर छपी कि उनका जन्म राजस्थान के भरतपुर में हुआ था. कृष्ण चंदर के पिता डॉक्टर थे और उनके जन्म के समय वह भरतपुर इला़के में तैनात थे. जन्म स्थान चाहे भरतपुर रहा हो, लेकिन कृष्ण चंदर की मौत के बाद लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक व्यू प्वाइंट में उनका आखिरी ख़त छपा था, जिसमें कृष्ण चंदर ने स्वीकार किया था कि वो लाहौरिया हैं. कृष्ण चंदर ने लिखा कि उन्होंने लाहौर में शिक्षा और प्रसिद्धि दोनों पाई. अपने उस ख़त में कृष्ण चंदर ने इस बात को भी शिद्दत से स्वीकार किया था कि लाहौर का उनके लिए वही स्थान है, जो शरीर के लिए आत्मा का होता है. आजादी के बाद कृष्ण चंदर लाहौर से हिंदुस्तान आ गए. बंटवारे के बाद मिली आज़ादी को कृष्ण चंदर हमेशा त्रासद आज़ादी मानते रहे और उसी के आलोक में उन्होंने कई कहानियां और रचनाएं लिखीं. यह वही दौर था, जब कृष्ण चंदर के अलावा, सआदत हसन मंटो, बलवंत सिंह, उपेंद्र नाथ अश्क, अली सरदार जाफ़री, राजेंद्र सिंह बेदी और यशपाल जैसे प्रगतिशील लेखक अपनी रचनाओं से समाज को जागृत कर रहे थे. एक तरफ मंटो जहां समाज की रूढ़ियों पर चोट कर रहे थे, वहीं कृष्ण चंदर अपनी रचनाओं के माध्यम से दबे कुचलों लोगों को आवाज़ दे रहे थे. अपनी मशहूर कहानी कचड़ा बाबा में कृष्ण चंदर ने बताया है कि किस तरह से कूड़े के ढेर के पास अपनी ज़िंदगी बसर करने वाले एक शख्स को, जब कूड़े के ढेर में एक लावारिस नवजात मिलता है, तो उसकी ज़िंदगी बदल जाती है. इस कहानी में कृष्ण चंदर की रचनात्मकता और उसका व्यापक फलक उभर कर सामने आता है. इसी तरह से जामुन के दरख्त कहानी में कृष्ण चंदर ने लालफीताशाही और अफसरशाही को निशाने पर लिया और बताया कि किस तरह वे अपनी ताक़त का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं. कृष्ण चंदर की कहानियों का रेंज काफ़ी व्यापक था, लेकिन उन सारी कहानियों में एक ही सूत्र था, समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार. कालांतर में कृष्ण चंदर ने फिल्मी दुनिया में भी अपने हाथ आजमाए और उनकी कहानियों पर कई फिल्में भी बनी. कृष्ण चंदर के बीस उपन्यास, तीस कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. अस्सी के दशक में पाकिस्तान के एक प्रकाशक ने उनकी सौ कहानियों का एक संग्रह भी प्रकाशित किया था. हिंदी में भी उनकी रचनाएं उपलब्ध हैं. हिंदी साहित्य समाज का यह दायित्व बनता है कि कृष्ण चंदर के जन्म शताब्दी वर्ष में उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को बताया जाए, लेकिन सवाल फिर से मुंह बाए खड़ा है कि हम अपनी भाषा के लेखकों का सम्मान कब कर पाएंगे. हमें हमने लेखकों पर गुमान करना होगा, तभी हम अपनी भाषा को चौतरफा हमले से बचा पाएंगे. आज़ादी के बाद गिरिजा कुमार माथुर ने लिखा था- आज जीत की रात पहरुए, सावधान रहना / दुश्मन है खूंखार पहरुए, सावधान रहना. हिंदी पर जिस तरह से हमले हो रहे हैं, उसमें हिंदी के पहरुओं को सावधान रहने की ज़रूरत है.
चौथी दुनिया

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