बुधवार, 2 अप्रैल 2014

व्यंग्य पर एक सार्थक चर्चा

एक सवाल अर्से से मुझे अक्सर उलझाता रहा कि व्यंग्य आख़िर है क्या, व्यंग्य की असल परिभाषा क्या है, व्यंग्य का उद्देश्य क्या है? साथ ही यह भी कि जिसे मैं व्यंग्य समझ कर लिखता रहा हूं, वह असल में व्यंग्य है भी या नहीं? इन सारे सवालों का जवाब मुझे बीते दिनों मिल गया, जब मैंने नवनीत का मार्च-2014 अंक पढ़ा. भारतीय विद्या भवन की मुंबई से प्रकाशित मासिक पत्रिका नवनीत किसी परिचय विशेष की मोहताज नहीं है. पत्रिका के संपादक विश्‍वनाथ सचदेव ने होली के मौ़के को मद्देनज़र रखते हुए देश के जाने-माने व्यंग्यकारों की ओर एक सवाल उछाला, व्यंग्य किसलिए? बदले में जो जवाब आए, उन्होंने न स़िर्फ हास्य और व्यंग्य का फ़़र्क बताया, बल्कि यह भी बताया कि व्यंग्य का मकसद क्या है, व्यंग्य कब जन्मता है और कौन अधिकार रखता है व्यंग्य लेखन का. नतीजा सामने है, पत्रिका के मार्च-2014 के अंक की आवरण कथा के रूप में-व्यंग्य इसलिए…
अपने संपादकीय में विश्‍वनाथ सचदेव कहते हैं कि जब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं, तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है, इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो और इसीलिए मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन, यह आवश्यक नहीं कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. जाने-माने व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी अपने आलेख में कहते हैं, इन दिनों बहुत सारा व्यंग्य ऐसा लिखा भी जा रहा है कि पूछने की तमन्ना तो हमारी भी होती है कि ऐसा व्यंग्य किसलिए? क्या संपादक आश्‍चर्य कर रहा है कि यह आजकल क्या चल रहा है कि व्यंग्य इतना लिखा जा रहा है? चतुर्वेदी कहते हैं कि यह विधा साहित्य के केंद्र में न भी आ गई हो, पर यह सेंटर स्टेज के आसपास तो मंडराने ही लगी है. वह दौर कब का जा चुका है, जब इस बात का स्यापा पीटा जाता था कि हाय, व्यंग्य स्पिरिट मात्र है और लोग इसे फालतू ही विधा मनवाने पर आमादा हैं. व्यंग्य इसलिए…को विस्तार देते हुए वह कहते हैं कि कोई आपसे यह प्रश्‍न पूछ रहा है कि यार, तू यहां किसलिए? यह जो कविता, कहानी, आलोचना के बामनों की पंगत चल रही थी, और बढ़िया ही चल रही थी, सो तू इस पंगत में यहां कैसे? आभिजात्य के ठसकों से भरे विद्वतजनों की इस महफिल में, जहां जीवन के गूढ़ रहस्यों पर गहन वायवीय विचार-विमर्श चल रहे थे, वहां तू समकालीन समाज की विसंगतियों के कीचड़ में लिथड़े पांव लेकर कहां घुस आया? तू जो अप्रिय प्रश्‍नों को सीधे पूछने की हिमाकत करता है और जीवन के गूढ़ार्थों में भी सीधे ही घुसता है, तू है कौन?
वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय अपने आलेख में कहते हैं कि भारतीय समाज में बाज़ारवाद ने चाहे पिछले दस-पंद्रह वर्ष में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई हो, परंतु हिंदी साहित्य में तभी से उपस्थित है, जब यह देश परतंत्र था. तब हम अंग्रेजी राज्य के तंत्र में थे और आज बाज़ारवाद के तंत्र में हैं. आज आम आदमी भी बाज़ार की गिरफ्त में है, आज़ादी से पूर्व आम आदमी पर लिखने वाले आम लेखक की खास विधा हास्य-व्यंग्य बाज़ार की गिरफ्त में थी. आज बाय वन-गेट वन फ्री की शैली में हास्य के साथ जो बिकना प्रारंभ हुआ, दिनोंदिन प्रगति करता गया. हास्य के बिना व्यंग्य की पहचान ही स्वीकार नहीं की गई. व्यंग्य से यह अपेक्षा की गई कि वह हास्य का मुखौटा लगाकर प्रगट हो. व्यंग्य का चेहरा ही बदल दिया गया, उसके लक्ष्य ही बदल दिए गए. व्यंग्य से अपेक्षा की गई कि वह अपनी मूल प्रहारक शक्ति को भोथरा कर दिल बहलाव का साधन बने, मनोरंजन करे.
वरिष्ठ व्यंग्यकार गौतम सान्याल सवाल उठाते हैं कि व्यंग्य लिखने का अधिकारी कौन है? किसके पास व्यंग्य की अथॉरिटी है कि वह व्यंग्य लिखे? व्यंग्य लिखने की हक़दारी किसके पास है? वह कहते हैं कि जो दलाल हैं, समझौतापरस्त हैं, पराधीन हैं, छलिया हैं, भयग्रस्त हैं तथा व्यवस्था व सत्ता के पिछले दरवाजे के टोहिया हैं…वे व्यंग्य लिखने के हक़दार नहीं हैं. जो विध्वंस में निर्माण नहीं कर सकते, वे व्यंग्यकार नहीं हो सकते. सान्याल कहते हैं कि जिनके हाथ पत्थरों के नीचे दबे होते हैं, वे व्यंग्य लिखने के अधिकारी हैं. जो अपना घर जलाकर मुहल्ले में रोशनी करना चाहते हैं, वे व्यंग्य लिखने के अधिकारी हैं. संत और कंत (प्रेमी) व्यंग्य लिखें. दुनिया भर के लिए दुआ मांगने वाले हाथ व्यंग्य लिखें. जिनके पास चील की दृष्टि और नीलकंठ की सहनशीलता हो, वे व्यंग्य लिखें. जो सच को सच की तरह देख पाते हों, सुन पाते हों, बोल पाते हों, वे व्यंग्य लिखें. वह कहते हैं कि राज्याश्रय हो या धर्माश्रय, व्यंग्य आश्रय में कभी नहीं पलता है. वह अन्य और वन्य प्राणी है, जो आलतू-फालतू-पालतू कभी नहीं होता. वह सत्ता की छांह में कभी नहीं फलता, क्योंकि फल ही नहीं सकता. पिजड़े का पंछी कभी अंडे नहीं देता. अंडों के लिए उन्मुक्त उड़ान और एक घोंसला चाहिए. खुला हुआ आकाश, निर्बाध प्रकृति और बेशुमार आज़ादी चाहिए.
आवरण कथा के क्रम में अपने आलेख के तहत वरिष्ठ स्तंभकार यज्ञ शर्मा कहते हैं कि व्यंग्य स्वभाव से डेमोक्रेटिक है, क्योंकि वह अपने साहित्य में बहुसंख्य लोगों को केंद्र में रखता है. अन्य साहित्य तो किसी एक नायक को केंद्र बनाकर रचनाकर्म करते हैं. समाज में एक ही नायक का होना अधिनायकवाद की उत्पत्ति करता है. जाहिर है, समाज के पास एक ही नायक होगा, तो समाज पर उसका वर्चस्व रहेगा. इसीलिए व्यंग्य नायकों को नकारता है. इतिहास उठाकर देख लीजिए, कभी भी किसी भी युग में नायक समाज में मेजोरिटी में नहीं रहे. व्यंग्य उस मेजोरिटी को केंद्र में रखता है, जो नायक नहीं है. मेजोरिटी का ध्यान रखना ही डेमोक्रेसी है.
नवनीत के इस अंक में विष्णु नागर, जवाहर चौधरी, शंकर पुणतांबेकर एवं हरिशंकर परसाई आदि प्रतिष्ठित रचनाकारों के व्यंग्य, संतोष श्रीवास्तव एवं रश्मि शील की कहानियां, अज्ञेय, सुधा अरोड़ा, दिनेश शुक्ल एवं रांगेय राघव की काव्य रचनाएं और कई ज्ञानवर्द्धक आलेख हैं. अंक न केवल पठनीय है, अपितु मेरे जैसे छिटपुट लिखने वालों के लिए संग्रहणीय भी है.
चौथी दुनिया

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