फिर फिर हम अपने कातिल चुन रहे हैं कत्ल होने के लिएजो होना था, हो चुका… तीर कमान से निकल चुका है, निशाना बिंधने ही वाला है। अब तो भइये,आगे की सोचो। हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे एक खेत नहीं, एक गांव नहीं हम पूरी दुनिया मांगेंगे.
पलाश विश्वास
ग्रोवर साहेब, घूमते रहें देश दुनिया और अपने दादा राजीव नयन बहुगुणा की तस्वीरें शानदार निकालते रहें, लेकिन हम तो आपके संकल्प के मुताबिक,एक खेत नहीं, एक गांव नहीं हम पूरी दुनिया मांगेंगे…और कुछ भी नहीं।
अपने अग्रज मोहन क्षोत्रिय ने एकदम सही लिखा हैः
फ़ैज़ ही नहीं, दुनिया भर के न जाने कितने कवि याद आ रहे हैं, आज के दिन।
सच तो यह है कि अगर सचमुच देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरीतरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला, सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जायेगा। …. गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है।…… आज भी यहां की जनसभाओं में मेहनतकशों के पक्षधर फैज का गीत गाते हैं
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
एक खेत नहीं, एक गांव नहीं हम पूरी दुनिया मांगेंगे.
हमें उन मित्रों से सख्त तल्ख शिकायत है जो चुनावी जंग में कूद पड़े हैं और अपना मोर्चा फ्रिज कर चुके हैं। अविनाश बाबू वाराणसी में आसन जमाये हुए हैं, “मोहल्ला” सुनसान है। यशवंत फिर भी ठीक ठाक है, जहां भी हों, “भड़ास” निकाल रहा है।
“रविवार” का अता पता नहीं, पुरातन मित्र आलोक पुतुल का भी नहीं। फुटेला की कोई खबर ही नहीं है।
और तो और, अपने अभिषेक जैसे तेज तर्रार युवा साथी वाराणसी में ही खप रहे हैं तो साहिल भी।
कुल मिलाकर अमलेन्दु और रियाज अपने मोर्चे पर जमे हुए हैं, अभिनव सत्यनारायण चीम की गोलंदाजी भी जारी है।
लेकिन बाकी सारे लोग अमर्त्य सेन हैं या भगवा अर्थशास्त्री भगवती।
देश के स्थाई बंदोबस्त में तब्दीली किये बिना महज जनादेश के भरोसे हैं इस देश की बहिष्कृत जनता और उनके पक्षधर तमाम तुर्रम खां।
लेकिन फिर फिर हम अपने कातिल चुन रहे हैं कत्ल होने के लिए।
अर्थशास्त्री भगवती ने बहुमत की औकात बता दी है और साफ-साफ बता दिया है कि लोग मनमोहनी जादू के कायल होते रहे लेकिन नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार ने देश का ढांचा ही बदलकर रख दिया।
अल्पमत सरकारें गुल खिलाने को माली काफी हैं और इसी तरह चलेगा गुलशन का कारोबार क्योंकि इस संसदीय प्रणाली में आर्थिक एजेंडा पर सर्वकालीन सर्वदलीय सहमति का स्थाई बंदोबस्त हो गया है।
जो होना था,हो चुका। तीर कमान से निकल चुका है। निशाना बिंधने ही वाला है। अब तो भइये, आगे की सोचो।
गौर करें कि अंग्रेजी मीडिया भाषायी मीडिया की तरह अस्मिताओं के समीकरण सर्वे पेड न्यूज अभियान मध्ये अगली सरकार की प्राथिमिकताओं के एजंडे और मनमोहनी नीतिगत विकलांकता को मुख्यमुद्दा बनाये हुए है। पिछले दो साल से और दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों को सर्वोच्च वरीयता दे रखी है, जिस पर भाषायी मीडिया और सोशल मीडिया में नमोलहरिया वाद विवाद के अलावा किसी को न सूचना है और न परवाह।
हाल में टाइम्स आफ इंडिया ने अमर्त्यसेन और भगवती दो परस्परविरोधी लेकिन नख से शिख तक मुक्तबाजारी अर्थशास्त्रियों के इंडरव्यू साथ-साथ छाप कर हंगामा बरपा दिया।
नागपुर के एक अलक विश्वास ने बांग्ला में मेरे आलेखों के जवाब में सीधे पूछ लिया कि इस बारे में मेरी राय क्या है।
मैंने इस पर 2003 में नागरिकता संशोधन कानून विरोधी बामसेफ के सम्मेलन में दिये अपने वक्तव्य की यूट्यूब लिंक डाल दिया। तो बहस चल पड़ी कि हम किस बामसेफ की बात कर रहे हैं। जबकि हम और देश भर के हमारे साथियों ने अस्मिता टैग राजनीति आंदोलन से 2011 के अंत से नाता तोड़ लिया है और हममें से कोई इस वक्त बामसेफ और किसी अस्मितावादी संगठन और आंदोलन में नहीं है। अब सिर्फ हंगामा खड़ा करना हमारा मकसद नहीं है,हालात बदलने चाहिए।
यह बहस इतनी तेज चली कि हारकर मुझे अंग्रेजी में लिखना पड़ा कि अमेरिकी नागरिक अमर्त्य सेन के धर्मनिरपेक्षता बहाल करने के लिए भारत में आकर मतदान का हमारे लिए कोई महत्व नहीं है। भगवती को तो हम भगवा मानते ही हैं और इसलिए उनके खुल्लमखुल्ला एजेंडा पर हमने अलग से कोई मंतव्य नहीं किया।
हमने फिर लिखा है कि हम अरुंधति राय और आनंद तेलतुंबड़े के विश्लेषण से सहमत हैं कि बिना राष्ट्र के चरित्र और वर्णवर्चस्वी नस्ली अस्मिता सर्वस्व तंत्र मंत्र यंत्र और अंध संविधानपरस्ती में बुनियादी बदलाव के, बिना वेस्ट मिनिस्टर शैली की संसदीय प्रणाली के शासक वर्ग के लिए, शासक वर्ग द्वारा और शासक वर्ग के स्थाई बंदोबस्त को सिरे से बदलने की कोई कवायद किये बिना पहचान और अस्मिता सीमबद्ध खंड खंड खंडित हम हर हाल में रंग बरंगे जनादेश मार्फत यथास्थिति या बदतर स्थिति के विक्लप चुनकर बार-बार अपने कातिलों का ही चुनाव कर रहे हैं।
आम जनता के प्रति सत्ता की जवाबदेही,सही अमनोनीत निर्वाचित जनप्रतिनिधित्व, कानून का राज, न्याय, समता और सामाजिक न्याय के साथ संस्थागत कुलीनतंत्र के विरुद्ध सच्चे लोकतंत्र के लक्ष्य के लिए राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के सिवाय इस जायनवादी कारपोरेट आर्थिक राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आधिपात्यवादी जायनवादी संस्थागत महाविनाश से बचने का कोई दूसरा जुगाड़ नहीं है।
वोट तो हमारे लूट लिये गये हैं। अब पछताय का होत है जब चिड़िया चुग गयो खेत।
हम जो नंगे थे मतदान प्रक्रिया शुरु होने से पहले, अब भी उतने ही नंगे हैं।
हम जो मारे जा रहे थे, अब भी बेमौत मारे जायेंगे।
मरने से पहले कमसकम अपने कातिल को पहचानने की हिम्मत तो कीजै।
अभी कुछ दिनों पहले इन्हीं डा. अमर्त्य सेन ने जयपुर साहित्योत्सव में देशवासियों के संदेश दिया कि ज्ञान विज्ञान की भाषा संस्कृत है लिहाजा संस्कृत को भारतीय शिक्षा के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
इस पर तब हमने लिखा था अंगेर्जी में कि पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में फिलीपींस से लेकर कंबोडिया तक और तमिलनाडु में तमिल बोली जाती है, तो तमिल को क्यों नहीं अनिवार्य बना दिया जाये। क्यों नहीं गोंड, जो मध्यभारत में सर्वत्र बोली जाने वाली आदिवासियों की भाषा है।
खासकर जब उत्तर भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में भी सातवी सदी में सम्राट शशांक के अवसान से लेकर ग्यारहवीं सदी तक बौद्धमयभारत के चर्यापद उत्कर्ष समय को तमयुग बतौर अंधेरे में रख दिया गया है।
जबकि तमिल भाषा में कम से कम सात हजार साल तक की अविराम इतिहासधारा अव्याहत है।
कम से कम जो देशभक्ति के नाम पर बाकी धर्मोन्माद विरोधी बहुसंख्य को राष्ट्रद्रोही बताने में एक सेकंड का समय नहीं लगाते, उनका तो परम कर्तव्य बनता है कि वे तमिल अवश्य सीखें। आप तमिल सीखेंगे तो क्या तमिलभाषी हिंदी नहीं सीखेंगे, सोचिये।
फिर समरसता की बात करने वालों को आदिवासियों की भाषा, बोली पहचान और संस्कृति से इतना परहेज क्यों होना चाहिए।
गोंड को सीखने की भी तो प्राथमिकता या कमसकम इच्छाशक्ति होनी चाहिए।तभी न दंडकारण्य और गोंडवाना की धड़कनों को हम समझ सकेंगे, जिसे माओवादी कहकर हम दो सेकंड में खारिज कर देते हैं।
हकीकत तो लेकिन यही है कि अमर्त्य बाबू का केसरिया विरोध और भगवा अर्थशास्त्री भगवती के नमोमय अर्थशास्त्र में कोई बुनियादी अंतर नहीं है।
पूरी अर्थशास्त्री जमात की जड़ें अमेरिकी जायनवादी ग्लोबल युद्धक व्यवस्था में हैं,वे जब भी हगते मूतते पादते हैं, तो रोबोटिक्स जरिये वे अमेरिका नियंत्रित ही होते हैं। वे किसी न किसी रूप में वैश्वक नियंता संस्थानों से संबद्ध हैं।
जो इतने बड़े विशेषज्ञ भी नहीं है तो उनके तार देशी विदेशी पूंजी के टाइम बस से जुड़े हैं और उनका समयबद्ध धमाका समय समय पर होता रहता है।
कोई बुनियादी फर्क इन अर्थशास्त्रियों और अमेरिकी रेटिंग संस्थानों के वक्तव्य में होना असंभव है सिवाय इसके कि कारपोरेट जिम्मेदारी और दस साल तक देश भर में जल जंगल जमीन नागरिकता मानवाधिकार से बेदखली के जनसंहारी अश्वमेध अभियान चलाने वाले मनमोहनी कारपोरेट जमावड़े की सामाजिक सुरक्षा और जनअधिकार के पाखंड बतर्ज समरस अर्थशास्त्र की तरह समता,सामाजिक न्याय और अंत्योदय की अवधारणाओं का उद्दात्त उद्घोष जैसे महापाखंडी फर्जीवाड़े शारदा पोंजी कांडी वास्तव के सिवाय।
दोनों मुक्त बाजार के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं। जैसे कांग्रेस वैसे भाजपा, उसी तर्ज पर जैसे अमर्त्य वैसे ही भगवती। तो बाकी लोग भी कमोबेश वहीं।
उनका भारतीय आम जनता, उनकी रोजमर्रे की जिंदगी में सिर्फ सांस भर लेने की जद्दोजहद से इस महामहिम महिमामंचित कुलीन संप्रदाय का न कोई सरोकार है और न हो सकता है।
पिछले तेइस साल में राजनेताओं के कंधों पर बंदूक चलाकर इन कारपोरेट अनिर्वाचित विशेषज्ञ असंवैधानिक निलेकणि तत्वों ने ही अविराम होलिया रंगबिरंगी मारक चांदमारी की है और आगे की भी पुरकश तैयारी है।
हमें आप गोली मार सकते हैं, लेकिन सच यही है कि धर्मनिरपेक्षता का किस्सा अपने आप में बहुत बड़ा पाखंड है और मौकापरस्ती भी। जब चाहे तब नकद सुविधा वाला एटीएम है यह जिसे राम नाम के पासवर्ड साथ निकासी वास्ते खुल्लमखुल्ला रामविलासी इस्तेमाल किया जा सकता है।
धर्मनिरपेक्षता का जाप करने वाले महज धर्मोन्माद के खिलाफ जिहाद का ऐलान करते हुए दूसरे नरम धर्मोन्मादी जनसंहारी का विकल्प चुनने के लिए आम जनता को प्रेरित करते हैं बस इतना ही।
बंगाल में इस धर्मोन्माद विरोधी राजनीति का खेल हम लोग निरंतर देख रहे हैं अविराम।
सच्चर कमिटी की रपट ने इसका खुलासा कर दिया है।
पूर्व आईपीएस अफसर नजरुल इस्लाम और हाल में माकपा से बहिष्कृत किसान नेता रज्जाक मोल्ला ने सिलसिलेवार ढंग से बता दिया है कि कैसे यह फर्जीवाड़ा बहुसंख्य को जीवनधारा राष्ट्रधारा से काटने का अचूक राम वाण है।
उनसे भी पहले जयपुर साहित्योत्सव में ही आशीष नंदी ने साफ-साफ कह दिया कि बंगाल में सौ साल से व्यवस्था में किसी भी स्तर पर अनुसूचितों और पिछड़ों को कोई प्रतिनिधित्व हासिल नहीं किया और इसीलिए बाकी देश के मुकाबले बंगाल में भ्रष्टाचार कम है।
बहुजनों को भ्रष्ट बताने पर तो लोग उबल गये, लेकिन इस बुनियादी मसले पर कोई बहस ही नहीं हो सकी कि पिछले सौ साल में सत्ता वर्ग ने बंगाल में बहुजनों का क्या हाल किया।
बाबासाहेब ने ते फिरभी बता दिया कि कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या हश्र किया।
लेकिन उनके नाम से रंग बिरंगे इंद्रधनुषी बुतपरस्त दुकाने खोले लोगों की इतनी काबिलियत भी नहीं कि इस ग्लोबीकरण में बहुजनों बहिष्कृतों सर्वस्वहाराओं मेहनतकशों का क्या हाल हुआ, उसका अंदाजा भी लगा सके और उनमें से जो ज्यादा शातिर हैं, वे सब कुछ हमस सबसे बेहतर जानते हुए सत्ता वर्ग के खूनी खेल में शामिल हैं।
वे तमाम लोग ग्लबीकरण के मसीहा हैं और नमोमयदेश के कल्कि अवतार के शिखंडी भी।
अभी अभी बंगाल में तीसरे दफा के मतदान से पहले श्रीरामपुर में संस्थागत संघी महाविनाश के कल्कि अवतार ने 1947 के भारत विभाजन के बाद आये तमाम लोगों को बांग्लादेशी बताकर उन्हें 16 मई के बाद भारत से खदेड़ने का जो ऐलान किया, उसके खिलाफ धर्मनिरपेक्ष मोर्चे पर सिरे से सन्नाटा है।
क्या यह धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद या भाषाई सांप्रदायिकता का खुला इजहार नहीं है कि हम भारत विभाजन और मौजूदा सत्ता वर्ग को साजिशन सत्ता स्थानातंरण के स्थाई बंदोबस्त के बलि पश्चिम पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को तो भारत की नागरिकता दिलाने के लिए एढ़ी-चोटी का जोर लगाते हैं, कश्मीरी पडितों को घर वापसी के लिए धारा 370 के खिलाफ जिहाद का ऐलान भी करते हैं, लेकिन पूर्वी बंगाल से आये मुसलमानों की तो खैर छोड़ दीजिये, हिंदू दंगापीड़ित शरणार्थियों को बांग्लादेशी घुसपैठिया बताने से पहले अपने हिंदुत्व को कसौटी पर कसते नहीं हैं ?
और तो और भारत के अभिन्न हिस्सा पश्चिम बंगाल के बांग्लाभाषी लोगों को भारत के दूसरे राज्यों में बांग्लादेशी तो कहते ही हैं, आदिवासियों के साथ-साथ बेशकीमती जल जमीन जंगल से आदिवासियों की तरह उन्हें कारपोरेट हित में बेदखल करने के सैन्य राष्ट्र के अभियान को राष्ट्रहित मानते हैं, सोचिये।
नागरिकता संशोधन विधेयक और आधार प्रकल्प का मकसद ही अबाध बेदखली अभियान है, आदिवासी भूगोल में जितना,उससे महानगरों, औद्योगिक इलाकों और शहरी कस्बाई की बेशकीमती इलाकों में, हम इस अर्थशास्त्र को समझ ही नहीं रहे हैं।
इसीलिए जब हमसे अमर्त्य और भगवती के ताजा युगल इंटरव्यू पर राय मांगी गयी तो हमने अपने नागरिकता संशोधनी विरोध संक्रांत यूट्यूब पर उपलब्ध वक्तव्य का लिंक जारी कर दिया। आधार पर तो हम निरंतर बोल लिख रहे ही हैं।
कश्मीर के तेजतर्रार युवा वकील अशोक बसोत्तरा का कहना है कि लोग देश की बात करते हैं लेकिन अपने घर और मोहल्ले सा बाहर नहीं निकल पाते और न उनकी दृष्टि में देश का समूचा नक्शा होता है।
बसोत्तरा का कहना है कि वे दरअसल हर वक्त खंड खंड देश की बात कर रहे होते हैं और उनका आचरण देश को खंड खंड बनाने का शाश्वत एजंडा ही है।
गौर करें कि बसोत्तरा कोई अलगाववादी कश्मीरी नहीं है, कुल परिचय से वे भी नरेंद्र मोदी और बाबा रामदेव, अमर्त्यसेन और आशीष नंदी की तरह विशुद्ध शूद्र है जिसे अब ओबीसी कहा जाता है।
हैरतअंगेज बात तो यह है कि विभाजन के बाद लगातार शरणार्थियों को वोट बैंक बनाये रखकर बंगाल में 35 साल तक और अब भी त्रिपुरा में राज करने वाले वामपंथियों ने नरेंद्र मोदी के इस राष्ट्रविरोधी वक्तव्य का नाममात्र प्रतिवाद तक नहीं किया।
ठीक उसी तरह जैसे बंगाल केरल और त्रिपुरा तीन तीन राज्यों में वाम शासन के वक्त अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए वे मनमोहिनी अश्वमेध अभियान के परम पुरोहित बनकर देशभर में वाम आंदोलन को पलीता लगाते रहे।
फिर यह खेल भी हमारे आत्मघाती वामपंथी मित्रों को समझ में नहीं आ रहा है कि ममता अब किसी भी हाल में नमोलहर में शामिल नहीं है और अगले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर बंगाल के शक्तिशाली मुस्लिम वोट बैंक के मद्देनजर केसरिया खेमे से उनका गठबंधन नहीं होने वाला है, केंद्र की कांग्रेसी सरकार बंगाली कांग्रेसी नेताओं के ममताविरोध को हाशिये पर रखकर चुनावों में ममता के पक्ष में एकतरफा मतदान के हालात बनाने में लगी है सर्जिकल अभ्यस्तता, कुशलता और गोपनीयता के साथ।
नरेंद्र मोदी के बांग्लादेशी वक्तव्य और उसकी प्रतिक्रिया में ममता के खुले जिहाद के बाद हुए बंगाल में तीसरे चरण के मतदान के दौरान अदृश्य इशारे के तहत केंद्रीय वाहिनियों को मतदान केंद्रों से दूर रखा और उनकी अनुपस्थिति में बीरभूम में दो बजे तक सारा खेल खत्म तो हावड़ा में तो कहीं कहीं ग्यारह बजे तक शत प्रतिशत तक मतदान हो गया।
समझने वाली बात है कि ऐन चुनाव वक्त शारदा फर्जीवाड़े की बासी कढ़ी में उबाल लाकर ममता को घेरा है केंद्रीय एजंसियों ने। जैसे अतीत में लालू मुलायम शिबू जयललिता करुणाकरण इत्यादि क्षत्रपों को कांग्रेस पक्षे लामबंद कारणे घेरने का राजकरण आम है।
पोंजी स्कीम जब सारी अर्थव्वस्था है जब सारे लोग छिनाल पूंजी के हमबस्तिर हैं तो सैकडों की तादाद में जारी पोंजी कंपनियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकती है।सीबीआई सीबीआई गुहार मस्त मस्ती है। कांग्रेस सरकारों के तमाम घोटालों में सीबीआई का नतीजा क्या निकला, यह भी देखें।
फिर निजी कंपनियों को बैंकिंग लाइसेंस देकर सहारा को हाशिये करने वाली सत्ता अबतक की सबसे बड़ी पोंजी स्कीम इस जनादेश के तुरंत बाद चालू करने वाली है।
जान माल जमा पूंजी पीएफ पेंशन बीमा सबकुछ बाजार में झोंकने वाले वित्तीयबंदोबस्त के ईडी जांच के भरोसे बाकी मुद्दे छोड़ ममता को घेरने की कवायद में अपना बाकी बचा जनाधार भी माकपाइयों और वामदलों ने गवां दिया।
गौर करें कि बंगाल के मोर्चे पर तोपंदाजी अब ममता और मोदी के मध्य है। जो ममता केंद्र में सत्ता दखल करने के लिए अन्ना ब्रिगेड में शामिल होकर तीन तीन बार चरण स्पर्श कर रही थीं, वे धर्मनिरपेक्ष भाषा में कांग्रेस के साथ लामबंद हो गयी हैं और इसका नकद भुगतान भी कांग्रेसी सत्ता ने एकतरफा तीसरे चरण के मतदान के जरिये कर दिया है।
वामपंथी बिना किसी राजनीतिक कवायद के केंद्रीय एजंसी चुनाव आयोग से न्याय की गुहार करते हुए लाल पीले हुए जा रहे हैं। अब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोकने वाले बंगाली मार्क्सवाद पर क्या आखिर कहा जा सकता है।
बंगाल में अगले दो चरणों में बभी विपक्ष के संघबद्ध गुहार के बावजूद चुनाव आयोग केंद्र सत्ता के इशारे के बिना ऐसा ही तटस्थ भूमिका अदा करके बंगाल में ममता को अधिकतम सीटें दिलाने की कोशिश करेगा।
बंगाल में जो मोदी बनाम ममता ध्रुवीकरण हो गया, उससे वामपंथी किनारे हो गये मोदी के खिलाफ हैरतअंगेज चुप्पी बरतकर ममता बनर्जी पर व्यक्तिगत आक्रमण तेज करते हुए।
इससे हिंदू शरणार्थी वोट भाजपा को स्थानांतरित हो गये तो खंडित मुस्लिम वोट बैंक एकजुट होकर ममता के हक में लामबंद हो गया।
जाहिरा तौर पर वामपंथियों ने न सिर्फ अपने पांव में कुल्हाड़ी मारने की ऐतिहासिक भूलों की निरंतरता जारी रखी है, बल्कि केंद्र में नई सरकार बनाने की प्रक्रिया से जाने अनजाने खुद को अलग कर लिया है।
नमोमय देश यकीनन हिंदू राष्ट्र नहीं होगा।
वह विशुद्ध अंबानी राज होगा।
भगवती ने साफ साफ कहा है कि अल्पमत सरकार के लिए आर्थिक सुधार लागू करने में कोई अड़चन नहीं है।
अपने इंटरव्यू में अबाध पूंजी प्रवाह जारी रखने पर देते हुए खुदरा कारोबार तक में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की वकालत उन्होंने की है।
संघी आर्थिक एजंडा की बात हम पहले ही कर चुके हैं।
अगर मोदी रुक गये, और ममता, मुलायम, मायावती, नीतीश, लालू, नवीन, महंत, जगन, जयललिता, शरद पवार जैसे शक्तिशाली क्षत्रप एक साथ मिलकर नया विकल्प देते हैं चुनाव के बाद, तब हो सकता है कि कांग्रेस नीत या कांग्रेस नियंत्रित सरकार बनने से धर्मनिरपेक्ष खेमे की जय जयकार हो जाये।
हमारे हिसाब से ऐसे हालात में भी नतीजा मोदी सरकार बनने से अलग कुछ नहीं होगा।
कांग्रेस की सरकार बने या फिर मोदी की या तीसरे विकल्प की या त्रिपुरा जैसे दो सीटों वाले राज्य के माकपाई मुख्यमंत्री माणिक सरकार की, हमें फर्क कुछ नहीं पड़ने वाला है।
भगवती जो कह रहे हैं, वह सो टक्का सच है।
बरोबर।बरोबर।
जैसे अल्पमत सरकारों ने एक के बाद एक जनविरोधी कानून बनाकर बाकायदा भारतीयजनगण के खिलाफ युद्धघोषणा कर दी है, इन परिस्थियों में कोई भिन्न परिप्रेक्ष्य 16 मई के बाद होगा नहीं, ईवीएम से निकला कारपोरेट जनादेश का चरित्र कुछ भी है।
नगण्य नोटा के इस्तेमाल के बावजूद लोकगणराज्य के वध महोत्सव का आईपीएल थमने वाला नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें