सोमवार, 16 जून 2014

सर्किट हाऊस के कमरा नं 1 ए से 7 रेसकोर्स की दौड़ तक

पुण्य प्रसून बाजपेयी


2002 का "अछूत" 2014 में "पारस" कैसे बन गया ?

नरेन्द्र मोदी ने 6 अक्टूबर 2001 में जब सीएम की कुर्सी संभाली उस वक्त मोदी ने सोचा भी नही था कि जिस सीएम की कुर्सी पर बने रहने के लिये उन्हें विधानसभा की सीट देने के लिये कोई तैयार नहीं है, वही सीएम की कुर्सी 12 बरस बाद उन्हें पीएम की कुर्सी का दावेदार बना देगी। केशुभाई को गद्दी से उतारकर सीएम बने मोदी पहला चुनाव एलिसब्रिज से लड़ना चाहते थे। अहमदाबाद के दिल में बसा एलिसब्रिज ऐसी सीट थी, जो शहरी मिजाज लिये बीजेपी के पक्ष में थी। तो मोदी सेफ सीट सोच कर ही एलिसब्रिज से लड़ना चाहते थे। लेकिन हरेन पांडया ने एलिसब्रिज सीट छोड़ने से इंकार कर दिया। सीट की खोज में नरेन्द्र मोदी ने राजकोट का रास्ता पकड़ा। सोचा पटेल वोट या कहें केशुभाई के गढ़ में उन्हें मदद मिलेगी। राजकोट-2 की सीट वजूभाई वाला ने मोदी के लिये खाली कर दी। सौराष्ट्र के दिल में बसे राजकोट में मोदी ने भी चुनावी वादे पारंपरिक तौर पर ही किये। पानी की सप्लाई महीने में सिर्फ 4 दिन होती थी तो मोदी ने वादा किये कि वह महिने में 22 दिन पानी सप्लाई करवायेंगे। नर्मदा का पानी भी राजकोट तक पहुंचाने का वादा किया। 24 फरवरी 2002 को चुनाव परिणाम आये तो मोदी 14 हजार वोट से चुनाव जीते जरुर थे। लेकिन वजुभाई की तुलना में जीत आधी हो गई थी। और तो और राजकोट के साथ दो अन्य सीटो पर भी उपचुनाव हुये। लेकिन दोनों सीट कांग्रेस ने जीत ली। और मोदी की जीत के बावजूद यह माना जाने लगा कि मोदी के दिन इने-गिने हैं । क्योंकि 2003 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सत्ता खत्म होगी और कांग्रेस की वापसी होगी।

लेकिन सिर्फ तीन दिन बाद ही मोदी की दुनिया ही बदल जायेगी य़ह किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन हुआ यही और 27 फरवरी को साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस-6 को जिस तरह गोधरा में आग के हवाले कर दिया गया और 59 कारसेवक जिन्दा जल गये। उसके अगले दिन से ही गुजरात की तस्वीर बदल गयी। गुजरात देश के केन्द्र में आ गया। 28 फरवरी 2002 की सुबह दिल्ली में वाजपेयी सरकार बजट पेश करने की तैयारी में जुटी थी। और दिल्ली में संघ हेडक्वार्टर झंडेवालान में आरएसएस के सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन लगातार संघ की गुजरात शाखा से संपर्क में थे। 11 बजे संसद में वाजपेयी सरकार ने बजट रखा ही था कि चंद मिनटों बाद ही संघ के हेडक्वार्टर से गोधरा कांड की आलोचना करते हुये कारसेवकों की हत्या का बदला लेने के संकेत देने वाली प्रेस विज्ञप्ति संघ के प्रवक्ता एमजी वैघ ने जारी कर दी। देखते देखते बजट के बोल न्यूज चैनलो पर पीछे छूट गये और गुजरात की आग न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर रेंगने लगी। अहमदाबाद की सड़कों पर विश्व हिन्दू परिषद भगवा लगराते हुये पहुंचने लगे थे। धीरे धीरे अजब सा तनाव पूरे वातावरण में घुलने लगा था। सच यह भी है कि 27 फरवरी को गोधरा की घटना के सामने आने के बावजूद गुजरात का उच्च तबका जो आज मोदी के साथ खड़ा है, वो 27 की रात अहमदाबाद के कर्णावती क्लब में जगजीत सिंह की गजल गायकी में खोया हुआ था। लेकिन 28 परवरी के बाद से गुजरात का नजारा जो बदला उसने नरेन्द्र  मोदी की सत्ता को एक ऐसी प्रयोगशाला में बदला, जहां हिन्दुत्व का बोलबाला था। संघ परिवार का गुस्सा था। क्रिया की प्रतिक्रिया का खुल्लम खुल्ला एलान था। कोई रोकने वाला नहीं था। बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजधर्म का पाठ भी संघ के दबाब में भोथरा साबित हो गया। और मोदी चाहे अनचाहे बीजेपी से लेकर संघ परिवार के केंन्द्र में आ खड़े हुये। जहां उन्हें चाहने वाले थे या मोदी के जरीये सियासत साधने वाले और दूसरे तरफ मोदी को नापसंद करने वाले।

ध्यान दें तो मोदी 2002 में बीजेपी से लेकर संघपरिवार की बिसात पर प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं थे। और वाकई अहमदाबाद से 30 किलोमीटर दूर गांधीनगर के सर्किट हाऊस के कमरा नं 1ए में रहने के दौरान नरेन्द्र मोदी को इसका एहसास तक नहीं थी कि जो गुजरात में हो रहा है, वह हालात 12 बरस बाद उन्हें दिल्ली के 7 रेसकोर्स की दौड़ में शामिल कर देंगे। मोदी 4 अक्टूबर को 2001 में जब गुजरात पहुंचे थे तब गांधीनगर के सर्किट हाऊस के कमरा नं 1 को ही अपना घर बनाया। उसके बाद राजकोट से पहला चुनाव लड़ने पहुंचे तो भी सर्किट हाउस का कमरा नं 1 को ही अपनी रिहाइश बनाया। उस वक्त बीजेपी के दिल्ली में बैठे कद्दवर नेता हों या नागपुर में संघ परिवार के वरिष्ठ स्वयंसेवक। विहिप के नेता हो या स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ता, हर कोई मोदी के साथ था या मोदी के पीछे। लेकिन बीते बारह बरस में मोदी के राजनीतिक प्रयोग ने उन्हें जिस तरह 7 रेसकोर्स की दौड़ में लाकर खड़ा कर दिया, उसने मोदी को चाहे सर्किट हाऊस के कमरा नं 1से दूर कर दिया लेकिन मोदी नं 1 बनकर 7 रेसकोर्स की दौड में अकेले हो गये। वडोदरा से बतौर पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा चुनाव के लिये पर्चा भरते मोदी के साथ ना तो कोई बीजेपी का कद्दावर नेता नजर आया। ना ही बीजेपी की विचारधारा। ना ही संघ की सोच। ना ही विहिप की गूंज। सिर्फ मैं ही मैं की सोच से अभिभूत मोदी ने जो काम बतौर सीएम नहीं किया, वह सारे काम पीएम पद के उम्मीदवार बनते ही शुरु कर दिया। घासी जाति हो या चायवाला-पहली बार खुली गूंज पीएम पद के लिये किसी योद्दा की तर्ज पर लड़ते मोदी ने ही किया। बीजेपी को नहीं सीधे वोट मुझे ही मिलेगा यानी कोई उम्मीदवार, कोई पार्टी मायने नहीं रखती, यह गूंज भी मोदी की ही है। संघ के ब्राह्मणवादी सोच में सोशल इंजिनियरिंग भी मोदी ने ही फिट करके बताया कि मिशन 272 का मतलब होता क्या है। 2009 के चुनावी घोषणा पत्र की शुरुआत ही राममंदिर से हुई थी लेकिन 2014 के घोषणापत्र का अंत रामजन्मभूमि पर राममंदिर के साथ हुआ । प्राथमिकताएं मोदी ने ही बदलीं। गुजरात के 6 करोड़ गुजरातियों से आगे सवा सौ करोड़ भारतियों का सवाल अब उठाना है तो वडोदरा से आगे बनारस से चुनाव लड़ने का फैसला भी मोदी ने ही किया। और इसी रास्ते ने पहली भारतीय राजनीति को एक ऐसा नेता दे दिया जिसे 2002 में अछूत समझा जाता था और 2014 में पारस समझा जा रहा है। यानी जो हर हर मोदी कह चुनाव लड़ेगा उसे घर घर मोदी के नाम के वोट भी मिल जायेंगे। लेकिन 7 रेसकोर्स की दौड में निकले मोदी को अभी इंतजार करना पड़ेगा, क्योंकि बनारस में में हर कोई कहता है, जल में कुभ्भ कुभ्भ में जल है, बाहर भीतर पानी / फूटा कुभ्भ जलहिं समाना, यह तत कथ्यौ ज्ञानी।

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