सोमवार, 16 जून 2014

खामोश वोटरों से ना पूछे वोट किसे देंगे ?




पुण्य प्रसून बाजपेयी


मुज़फ्फरनगर दंगों के साए में 10 अप्रैल का इंतज़ार

अगर दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर निकलता है तो पहली बार यूपी का रास्ता मुजफ्फरनगर दंगों से होकर निकल रहा है। यूपी की कुल अस्सी लोकसभा सीट पर मुकाबला तीन या चार कोणीय है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद और नरेन्द्र मोदी के पीएम उम्मीदवार होने के बाद हर सीट पर मुकाबला आमने सामने का हो यह और कोई नहीं यूपी का मुसलमान चाह रहा है। सवाल तीन हैं। क्या मुस्लिमों की यह सोच बीजेपी को लाभ पहुंचायेगी। क्या यूपी में जातीय समीकरण टूट जायेंगे। क्या मुस्लिम बीजेपी को रोकने के लिये दूसरे हर दल के उम्मीदवार को मौलाना मान कर वोट देगा। यह ऐसे तीखे सवाल हैं, जो मुजफ्फरनगर से लेकर बनारस की गलियों तक में गूंज रहे हैं। बीजेपी को लाभ यानी मोदी का नाम लेकर अमित शाह के बदला लेने की थ्योरी का मतलब है क्या। यह दिल्ली की सीमा पार करते ही मेरठ से लेकर सहारनपुर के बीच बेहद खामोशी से रेंगती है। यानी वह दस सीटें, जहां दस अप्रैल को वोट पड़ने हैं, उसके समीकरण बेहद तीखे और सीधे हैं। पूरा इलाके के साठ फीसदी लोग गन्ने की खेती से जुड़े हैं। यानी गुड से लेकर चीनी और शराब बनाने तक के लिये गन्ने के इस्तेमाल जहा भी जिस तरह होता है, उसमें धर्म मायने नहीं रखता। पेट की भूख या कहे रोजगार हर किसी को साथ जोड़कर काम कराता रहा है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पहली बार सामाजिक आर्थिक ताना बाना टूटा तो चुनाव की दस्तक ने इस टूटे हुये ताने बाने के बीच की लकीर को जिस उम्मीद में और चौडा कर दिया कि वोट देकर न्याय का सुकून तो पा सकते हैं। जाट-गुर्जर और मुसलमान ही यहां टकराये। गुर्जर कम और जाट ज्यादा। दूसरी तरफ मुसलमान। मुसलमान ने अपने राजनीतिक रहनुमा के तौर पर पारपरिक तौर पर कांग्रेस को देखा। अयोध्या कांड से समाज दरकाया तो मुलायम पहले मौलाना बने और कांग्रेस से मुसलमान छिटका। लेकिन यादवों की भीड़ में मुसलमान मौलाना मुलायम की चौखट पर ही तमाशा बना तो उसे मायावती अच्छी लगी। दलित वोट के साथ जैसे ही मुसलमान खड़ा हुआ मायावती को यूपी की गद्दी मिल गयी। पश्चिमी यूपी ही नही बल्कि समूचे यूपी में बीते बीस बरस का सच यही रहा कि मुसलमान सामाजिक सुकून,आश्रय, और आर्थिक सौदेबाजी में भटकता रहा। इस दरवाजे से उस दरवाजे और उस दरवाजे से इस दरवाजे। हालात यह बन गये कि जातीय समीकरण में जैसे ही मुस्लिम जिस तरफ सरका उसे जीत मिल गयी। लेकिन पहली बार मुस्लिम समाज उस न्याय को खोज रहा है जहां उसे दंगों के दौरान धोखा मिला। दंगों के बाद सियासी रंग ने डराया और अब वही चुनावी समीकरण उसके घाव को हरा कर रहे हैं, जिसे कभी वह सुकून के तौर पर देखता था। तो बीजेपी के पक्ष में मुसलमान अगर जाने को तैयार नहीं है तो वह करेगा क्या और बीजेपी के बोल अमित शाह ही तय करेंगे तो फिर चुनावी जीत-हार का रास्ता बनता किसके लिये है।

यह सवाल समूचे यूपी में बड़ा होता जा रहा है। यूपी की 28 लोकसभा सीट ऐसी हैं, जहां 20 फिसदी से ज्यादा मुसलिम वोटर हैं। यानी इन 28 सीटों पर दलित या यादव के साथ मुसलिम वोटर हो लिया तो बीजेपी की हार तय है। लेकिन इन्हीं 28 सीटो में से 19 सीट ऐसी भी है सहा जातिय समीकरण टूटे यानी दलित,ठाकुर,पटेल और ओबीसी बीडेपी की पक्ष में एकजुट होकर टूटे तो मुस्लिम वोट बैंक भी कुछ नहीं कर पायेगा। तो पहली बार यूपी में मुस्लिम चाह रहे हैं कि जातीय समीकरण बने रहें,जिससे वह अपने वोट के जरिए निर्णायक हालात बना दें कि कौन जीतेगा कौन हारेगा। लेकिन टूसरी परिस्थिति कहीं ज्यादा दिलचस्प हो चली है। कांग्रेस और आरएलडी यानी अजित सिंह के साथ चुनाव मैदान में है तो जाट वोट जो अजित सिंह की बपौती माना जाता रहा है, उसमें मुजफ्फरनगर दंगों के हालात सेंध लगा रहे हैं। जाट वोटरों को लगने लगा है कि मुस्लिमों के अनुकूल हालात अगर चुनाव के बाद बने तो फिर मुस्लिम दंगों का बदला लेने से नहीं चूकेंगे। और चूंकि पश्चिमी यूपी में खेत खलिहान के मालिक जाट हैं, जिस पर रोजगार के लिये मुसिलम काम करते रहे हैं तो उस पर भी आंच आ सकती है। यानी चुनाव में वोट किसे दें या किसे ना दें यह उस पारंपरिक रोजगार यानी रोजी रोटी से जा जुड़ा है, जहां चुनाव ने इससे पहले कभी सेंध लगायी नहीं थी। जाट वोटर को बीजेपी में दम दिखायी दे रहा है क्योंकि मुस्लिमों के लिये बीजेपी या कहे मोदी खलनायक के तौर पर है। तो दंगा के हालात पहली बार उस जातीय समीकरण को तोड़ रहे हैं, जिसे मुसलिम पहली बार बरकरार रखना चाहता है। बीजेपी इस हालात से खुश है क्योंकि उसे वाजपेयी सरकार के दौर से ठीक पहली अयोध्या कांड के आसरे बनी राजनीतिक जमीन का वो चेहरा याद आ रहा है जब 55 से ज्यादा सीटो पर बीजेपी जीती थी। बीजेपी का अपना गणित फिर उन्हीं हालात को देख रहा है। लेकिन पहली बार बीजेपी का गणित धर्म के आसरे समाज को बांटने के बदले दंगों से उपजे आक्रोश को अपने हक में करने की राजनीति को हवा दे रहा है। ऐसे में मुस्लिम समाज वोट बैंक में तब्दील होकर भी अपने आप में अभी अकेला है। और उसे चुनावी समर में अपना कोई नायक दिखायी दे नहीं रहा है। कांग्रेस फिसलन पर है। मौलाना मुलायम को यादवों की फ्रिक ज्यादा है और यूपी में छोटे बड़े सौ से ज्यादा दंगे समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान हो चुके हैं, जिसमें चालीस जगहों पर यादव और मुसलमान ही टकराये और दोनो का ही दावा रहा कि सरकार उनकी है।

लेकिन मामला जब थानों में पहुंचा तो जमीन मुसलमानो को ही गंवानी पड़ी। क्योंकि हर थाने में थानेदार यादव ही हैं। यह हालात मायावती के प्रति राजनीतिक प्रेम मुसलिमों में जगाते जरुर हैं। लेकिन मायावती का संकट पहली बार बीजेपी को लेकर नरेन्द्र मोदी के अपने जातीय समीकरण होना है। मोदी घासी जाति के हैं। यूपी के जातीय समिकरण में मोदी ओबीसी के बीच बैठते हैं। और जिस तरह कि सोशल इंजीनियरिंग इस बार मोदी के नाम से लेकर टिकटों के बंटवारे तक में बीजेपी में की है, उसने जातीय समीकरण की इस थ्योरी के मायने ही बदल दिये हैं, जो बीस बरस पहले मंडल-कमंडल की राजनीति से निकले थे। दलित और ओबीसी को पहली बार बीजेपी के भीतर से दिल्ली का लालकिला दिखायी देने लगा है । और इस हालात ने बीजेपी के बीतर ब्रह्ममणो को लेकर कुछ नये सवाल पैदा कर दिये है जो लखनउ ,कानपुर से लेकर बनारस और गोरखपुर तक में हेगामा खडा किये हुये है। ब्रह्मणों को लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई बीजेपी को पिछडी जातियों के नये रहनुमा के तौर पर तो खड़ा नहीं कर देगी। फिर जिस तरह मुरली मनमोहर जोशी की सीट बदली गयी, लालजी टंडन को घर बैठाया गया । कलराज मिश्रा को भी पूर्वाटल के दरवाजे पर चुनाव लडने बेजा दिया गया । उससे ब्रह्मण नाखुश जरुर है । लेकिन बीजेपी हो या संघ परिवार या फिर मोदी सभी इस हकीकत से भी वाकिफ है कि ब्रह्ममणो के पास बीजेपी के अलावे कोई और विकल्प है नहीं। लेकिन बीजेपी के सामने मुश्किल यह है कि यूपी की दस सीट रामपुर,मोरादाबाद,बिजनौर,ज्योतिबा फुले नगर, सहारनपुर,मुजफ्फरनगर, बलरामपुर,बहराइच,बरेली और मेऱठ में तीस फीसदी से ज्यादा मुसलमान हैं और इन दस सीटों से लगी 22 सीटों पर मुसलिम समाज का ताना-बाना हिन्दुओं से वैसे ही जुड़ा है, जिसका जिक्र बनारस की गलियों में गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर होता है। बावजूद इसके इन सीटों पर अभी तक बीजेपी नेताओं के कुल 18 रैलियों में विकास से ज्यादा स्वाभिमान और हिन्दुत्व वाद की थ्योरी को ही परोसा गया। चूंकि बीजेपी हर मायने में सबसे आगे चल रही है और मोदी खुले तौपर पीएम के उम्मीदवार से आगे निकल कर बतौर पीएम ही अपने वक्तव्यों को रख रहे हैं तो पहली बार बीजेपी रैलियो में कह रही है। या कहें जिस तरह खुद को रख रही है वही सच भी है और चुनावी तिकडमों में उसे बदलने वाले हालात भी इसबार उसके साथ नहीं हैं। तो ऐसे हालात की नयी गूंज आजमगढ़ से लेकर बनारस की गलियो में सुनायी देने लगी है। आजमगढ एकदम बनारस से लगा हुआ है औक बनारस में मोदी है तो आजमगढ में मुलायम सिंह यादव।

सामान्य तौर पर यह समीकरण दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। लेकिन जिस तरह बनारस में मुलायम की घेराबंदी मुस्लिम कर रहे हैं और पहली बार उलेमा के उम्मीदवार के पक्ष में अपना दल भी खड़ा हो गया है और बीएसपी को भी संदेस भेजा जा रहा है कि मुलायम को हराने के लिये मुकाबला त्रिणोणीय न बनाये उसने बनारस को लेकर भी नये समीकरण बनाने शुरु कर दिये हैं। क्योंकि बनारस की गलियो में चाहे वह अस्सी घाट हो या गोधुलिया । हर जगह दो ही सवाल है । पहला नरेन्द्र मोदी पीएम पद के उम्मीदवार है तो बनारस का कायाकल्प मोदी कर सकते हैं। अगर वह चुनाव जीत जाये। और दूसरी आवाज धीमी है मगर सुनायी देने लगी है कि बनारस को ही यह मौका मिला है कि वह मोदी को संसद ना भेज गुजारात लौटा दें। जिससे बनारसी संस्कृति पर आंच ना आये। असर इसी का है कि मुलायम सिंह यादव अपने खिलाफ हर उम्मीदवार को टोह रहे हैं और बनारस में कांग्रेसी अजय राय को बीजेपी ने अभी से ही मोह लिया है। यह टोगना या मोहना सौदेबाजी की प्रतीक है। लेकिन सियासत की बिसात पर पहली बार पंडित और मौलाना दोनो समझने लगे हैं कि 2004 में जामा मसजिद के जिस शाही इमाम बुखारी ने बीजेपी के लिये अजान लगायी थी वही शाही इमाम बुखारी 2014 में अगर कांग्रेस के लिये अजान लगा रहे हैं तो यह सब बेमतलब है। और चुनावी जीत-हार के रास्ते को हर हाल में उन्हीं सामान्य वोटरों की अंगुलियो के निशान से गुजरना है, जिसने जीत हार के लिये बार बार अपनी ही उंगुलियो को घायल किया है। तो वोट किसे कौन देगा यह सवाल पूछते ही पहली बार यूपी में हर चेहरा दहशत के साथ ही खामोश हो जाता है। लेकिन चर्चा कीजिये तो सियासत की परते उघाड़कर अपने लहुलूहन पेट-पीठ को दिखाने से नहीं चूकता ।

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