सोमवार, 16 जून 2014

ऐसा क्यों बोले केजरीवाल?

पत्रकारों को जेल भेजने की धमकी इतने मुखर रूप में इससे पहले शायद किसी ने नहीं दी होगी। इसके पीछे दुर्भावना से ज्यादा नासमझी नजर आती है। अरविंद केजरीवाल या उनकी टोली जिस राजनीतिक राह पर चल रही है, उसकी सदाशयता की परीक्षा समय पर होगी, पर उसके पीछे बचकानापन है यह बात साफ दिखाई पड़ रही है। इस नासमझी के कारण वे अपनी राजनीतिक जमीन को हार भी सकते हैं, जो ठीक नहीं होगा। उन्हें पहली बात यह समझनी चाहिए कि वे राष्ट्रीय क्षितिज पर दो कारणों से उभरे हैं। पहला व्यवस्था की बेरुखी से जनता नाराज़ है और उसे वैकल्पिक शक्तियों की तलाश है। दूसरे, आम आदमी पार्टी खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रही है और जनता पहली नज़र में उस पर भरोसा करती है। यह भरोसा टूटना नहीं चाहिए। पूरे मीडिया पर बिका होने का आरोप राजनीतिक है। और उस आरोप को वापस लेना राजनीति है।

अरविंद केजरीवाल ने मीडिया पर सीधा हमला बोला है। उनके अनुसार इस बार समूचा मीडिया बिक गया हैयह एक बड़ा षडयंत्र है। हमारी सरकार सत्ता में आई तो हम इसकी जांच कराएंगे। मीडिया के लोगों को जेल भेजा जाएगा। शुरुआती हिचक के बाद आम आदमी पार्टी ने इसे बड़ा राजनीतिक मसला बनाने का इरादा भी जाहिर कर दिया और घोषणा की कि तीन चैनलों की शिकायत चुनाव आयोग से की जाएगी। मीडिया पक्षपाती है,यह बात केजरीवाल को देर से समझ में आई है। साथ में यह भी कि यह मीडिया काले धन की मदद से चल रहा है। चूंकि उनकी पार्टी ने चुनाव आयोग से शिकायत करने की बात कही है, इसलिए देखना होगा कि शिकायत क्या है?एक शिकायत यह हो सकती है कि फलां पार्टी ने फलां चैनल को पैसा दिया है। यदि यह साबित किया जा सका तो यह खर्चा पार्टी के चुनाव खर्च में जोड़ा जाएगा। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। किसी का समर्थन या विरोध न तो रोका जा सकता है और न इस आरोप के आधार पर भविष्य में किसी को जेल में डालने की धमकी दी जा सकती है। चूंकि पेड न्यूज का काम काले धन की मदद से होता है, इसलिए काले धन से जुड़े नियम भी उस पर लागू हो सकते हैं। पर इस बात को प्रमाणित करना होगा कि चैनलों को किसी खास नेता या दल की पब्लिसिटी के लिए पैसा दिया गया है।

सवाल दूसरे हैं। क्या मीडिया बदल गया है? या केजरीवाल बदल गए हैं?या उनका चश्मा बदल गया है?केजरीवाल के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के अनेक बड़े नेता पिछले दो साल से कहते रहे हैं कि हमारी नकारात्मक छवि बनाने के पीछे मीडिया, सीएजी और अदालतों के फैसले हैं। नरेंद्र मोदी पिछले बारह साल से कहते रहे हैं कि उनकी नकारात्मक छवि बनाने में मीडिया की भूमिका है। हाल में जब तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल का मसला सामने आया तब भी यह बात कही गई कि उन्हें राजनीतिक पक्षधरता के कारण फँसाया गया है। केजरीवाल के आरोप का कपिल सिब्बल ने परोक्ष रूप में समर्थन किया है और वामपंथी पार्टियों के नेताओं का कहना है कि हम तो काफी पहले से यह बात कहते रहे हैं।

इन सारी बातों का एक अर्थ है कि मीडिया विश्वसनीय नहीं है। वह पैसा खाकर काम करता है। दूसरा यह कि कॉरपोरेट हाउसों को मोदी में भविष्य नजर आ रहा है। पर क्या मीडिया पर यह रंग हाल में चढ़ा है? सन 2011 में जब अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हुआ था तब भी यही आरोप लगा था। तब क्या मीडिया को अन्ना और केजरीवाल में भविष्य नजर आता था?तब केजरीवाल मीडिया से नाराज क्यों नहीं थे?और क्या वजह है कि कॉरपोरेट हाउस अब कांग्रेस से नाराज हैंदिसम्बर के महीने में जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत हुई थी तब मीडिया उस जनमत संग्रह का सीधा प्रसारण कर रहा था जो सरकार बनाने के बारे में जनता की राय लेने के लिए किया गया। हाल में केजरीवाल की गुजरात यात्रा की खबरों का मीडिया ने जमकर प्रसारण क्या नहीं किया? अलबत्ता कुछ सवाल उठाए गए जिनसे पार्टी का नकारात्मक प्रचार हुआ।

मीडिया में वास्तव में असंतुलन है। वह भी केजरीवाल जैसा बचकाना व्यवहार कर रहा है। चूंकि वह अपना इस्तेमाल होने देना चाहता है इसलिए अलग-अलग ताकतें उसका इस्तेमाल करती हैं। और जब वह मन माफिक नहीं होता तो लानतें भेजती हैं। मीडिया का असंतुलन केवल मोदी-राहुल और केजरीवाल के बीच नहीं है। वास्तव में इन तीनों राजनेताओं के नाम को दिनभर घिसते जाना ज्यादा बड़ा असंतुलन है। हर तरह के मीडिया ने वास्तविक खबरों की तरफ से आँखें मूँद ली हैं। राजनेता कड़वे सवालों से भागते हैं। नरेंद्र मोदी ने कई इंटरव्यू अधूरे छोड़े। ममता बनर्जी ने भी यही काम किया। राहुल गांधी तो सीधे सवालों के घेरे में ज्यादा आए ही नहीं।

राजनेता ऐसे इंटरव्यू पसंद करते हैं, जिनमें उनकी वाह-वाही हो। केजरीवाल अभी तक वाह-वाही के सहारे थे। कौन जाने कल वे भी किसी इंटरव्यू के दौरान माइक्रोफोन खींचकर फेंक दें और कहें कि भाई हमारी-आपकी दोस्ती खत्म। मीडिया नरेंद्र मोदी से जुड़े सवाल उठाए या न उठाए उसे अपनी साख के बारे में सोचना चाहिए। नहीं सोचता तो वह जाने। उसकी आखिरी परीक्षा जनता के सामने होगी। आम आदमी पार्टी को तीन चैनलों से शिकायत है। पर चैनल केवल तीन ही नहीं हैं। इससे सारे मीडिया को बिका हुआ कैसे कहा जा सकता है?मीडिया केवल भगवा रंग का ही नहीं है। लाल, हरे और बैंगनी रंग का भी है। उसकी कवरेज में असंतुलन केवल उसकी पक्षधरता के कारण नहीं है। एक, दो या चार चैनल किसी खास बात का प्रचार करें तो इससे फर्क क्या पड़ता है?देखना यह चाहिए कि बात के दूसरे पहलू को रखने वाले चैनल हैं या नहीं। कांग्रेस के हमदर्द चैनल भी हैं और आप समर्थक पत्रकार भी हैं।


किसी का समर्थन या विरोध करना पत्रकारिता के मूल्य मानकों के भीतर आता है। थोड़ी देर के लिए नेताओं से यारी-दोस्ती को भी मंजूर कर लें। राडिया टेपों ने किसका करिअर खत्म किया?पर बौद्धिक दृष्टि से अपने विरोधी को भी गलत उधृत नहीं किया जाना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कहना मुश्किल होता है कि कहाँ समाचार है और कहाँ विचार है। केजरीवाल ने जिन चैनलों पर आरोप लगाया है वह सही भी हो सकता है। पर जो लोग केजरीवाल का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करते हैं क्या वे साफ-सुथरे हैंहमें तथ्यों की प्रतीक्षा करनी होगी। चिंता की बात यह है कि अपनी वस्तुनिष्ठता को लेकर मीडियाकी संवेदनशीलता खत्म हो रही है। खासतौर से इस आरोप के परिप्रेक्ष्य में कि वस्तुनिष्ठता जैसी कोई ची़ज होती नहीं है। नहीं होती है तो मोदी-चैनलराहुल प्रचारक और केजरीवाल की गाने वालों में अंतर क्या है? मीडिया और प्रचारक में अंतर का मिटना चिंता की बात है। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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