भारत विभिन्नता में एकता रखने वाला देश है. इसका प्रमाण एक बहुत ही प्रचलित कहावत से साफ़-साफ़ पता चलता है "कोस-कोस पर पानी बदले, ढाई कोस पर वाणी". भारत में बहुत तरह की भाषाएँ बोलीं जाती हैं. हर भाषा का अपना ही एक महत्व होता है. भाषाएँ एक-दुसरे को जोड़ने का काम करती हैं. देश में ४ भाषाओँ को देव भाषा का नाम दिया गया है जो की लिपि बद्ध हैं इनमे पहला है संस्कृत, तमिल, तेलगु और कन्नड़. लेकिन इन सभी भाषाओँ के साथ-साथ हमारी बाकि की क्षेत्रीय भाषाओँ का भी अपना ही एक महत्व होता है. हर क्षेत्र की अपनी एक अलग भाषा है. कोई बंगाली बोलता है तो कोई मराठी, कोई असमी बोलता है तो कोई भोजपुरी लेकिन इन सभी भाषाओँ का एक ही उद्देश्य होता है अपने विचारों की अभिव्यक्ति और एक जुडाव अपनों से अपनों की तरह. पर क्या होगा अगर एक कश्मीरी अपनी भाषा में किसी तमिल से बात करे या कोई असमी में किसी मराठी से बात करे. अगर ऐसा होता है तो अभिव्यक्ति तो हम कर सकते हैं लेकिन इस अभियक्ति का कोई महत्व नहीं होगा क्यूंकि हमारी बातें सामने वाले के समझ में नहीं आएँगी और हमारा संचार तंत्र वहीँ खत्म हो जायेगा.
क्षेत्रीय होना एक स्तर तक सही है लेकिन क्या भारतीय होना गलत है? इन्सान होना सही है लेकिन क्या अपने धर्म और अपने मूल को भूल जाना सही है? हिन्दू धर्म का सब कुछ अपने में समाहित करता है फिर एकता को क्यूँ नहीं समाहित करता है?
अब इसका दो ही उपाय है. हम जहाँ भी जाएँ वहां की भाषा सीखें जैसे की अगर कोई भोजपुरी बोलने वाला असम में जाये तो असमी सीखे जोकि जरुरी भी है लेकिन ये एक लम्बी प्रक्रिया है. तो यहाँ एक दूसरा पहलु है की अगर हम अपने देश की राष्ट्रीय भाषा हिंदी में बात करें. चूँकि हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे अधिकांश लोग समझ सकते हैं और टूटी-फूटी बोल भी सकते हैं. इस प्रकार अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाने में बहुत आसानी होती है. क्यूंकि भाषा अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए होती है न की अपनों को अपनों से दूर करने के लिए. दूर करने के लिए तो नेता हैं न जो की हमें लड़ाते रहते हैं कभी जाती के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर. पर इस भाषा के नाम पर लड़ने में हम अपने देश को ही बदनाम करते हैं जिसमे हम रहते हैं और अपनी मातृभूमि कहते हैं. क्या हम अपनी मातृभूमि का फर्ज पूरी तरह समझ पाए हैं?
हम इस सच्चाई को पूरी तरह ह्रदय से सर झुका कर मानते हैं की भारत देश जो कभी बिखरा हुआ था उसे सरदार बल्लभ भाई पटेल जी ने एक सूत्र में जोड़ा और इस जोड़ने में उनका उद्देश्य एक ही था की पूरा देश एक होकर रहे. इसी एक सूत्री भारत के उद्देश्य के लिए तत्कालीन आजाद भारत की सरकार ने हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाया. लेकिन तत्कालीन भारत सरकार ने भी हिंदी को थोपा नहीं. सरकार ने यही कहा की जो जिस भाषा में भारत में बोलने में आसानी महसूस करता है वो उस अमुक भाषा में बात करे लेकिन अगर २ अलग भाषा को बोलने वाले एक दुसरे से बात करना हो तो हिंदी का प्रयोग करें.
मैं आज भी वही बात करना चाहता हूँ की जैसे कोई भी बात जबरदस्ती किसी पर थोप कर नहीं की जा सकती है वैसे ही कोई भी भाषा किसी पर थोप कर एक-दुसरे को नहीं जोड़ा जा सकता है. एक दुसरे को अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए किसी भी भाषा से पहले आत्मीयता की जरुरत होती है. अगर हमारे अन्दर आत्मीयता है तो हर भाषा हमारे लिए एक हो सकती है फिर चाहे वो हिंदी हो या असमी या फिर तमिल. भाषा तो हमें एक ऐसा पुल प्रदान करती है जो नदी के दो किनारों को आपस में जोडती है और नदी के दोनों किनारों पर खड़े इंसानों को आपस में जोडती है.
अतः हम एक होकर एक भाषा को अपनी सामूहिक और कई क्षेत्रों के मध्य की भाषा बनायें और इस कार्य में एक ही भाषा है जो इस कार्य को कर सकती है और वो है हिंदी. हिंदी कोई एक अमुक समूह की भाषा नहीं है वरन हिंदी पुरे हिन्दू समूह और भारत की भाषा है. हर हिन्दू को हिंदी भाषा को अपने ऊपर थोपा हुआ नहीं समझना चाहिए वरन हिंदुत्व के लिए उसे सहर्ष अपनाना चाहिए साथ ही अपने दुसरे हिन्दू भाइयों को हिंदी भाषा को ह्रदय से अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए न की किसी हिन्दू को हिंदी भाषा बोलने से हतोत्साहित करना चाहिए.
हिंदी या कोई भी भाषा किसी पर थोपिए मत वरन हिंदी को हिन्दू सहर्ष अपनाएं ! ! !
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