शुक्रवार, 27 जून 2014

आपातकाल- सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता

जयशंकर गुप्त
आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था, जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह प्रवृत्ति कमोबेश सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है। आपातकाल को याद करते समय हमारी चिंता इस बात को लेकर कुछ ज्यादा है।
आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे। हालाँकि हमने कभी बीएस बात का जिक्र खासतौर से लिखत पढ़त में तो नहीं ही किया है। तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे। आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा। जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित साप्ताहिक प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे। यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे। भारत रक्षा कानून (डीआईआर) के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए। सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह-आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। हम पिता-पुत्र एक ही बैरक में आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों (जेल में और जेल के बाहर भी) के साथ समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलने वाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था। वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले। उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, लोहिया विचार मंच के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा। वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता।
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी।’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। उस समय आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। हमारे आग्रह-अनुरोध पर मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के)रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र, जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हर संभव मदद करें।’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे। हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए। इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। बाकी लोगों से भी सहयोग-समर्थन मिलने लगा।
मधु जीके पत्र के साथ हम और समाजवादी-कर्मचारी नेता नेता विनय कुमार सिन्हा लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में हो रहे विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होने वाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करने वाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि उनकी राय में चुनाव का बहिष्कार करने से बचे खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आने वाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था।
हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र उसी पते पर रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे समझ सकते हैं। इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए। आपातकाल के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे। आपातकाल में लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह साल किए जाने के विरोध में मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। लोकसभाध्यक्ष ने उसे स्वीकार भी कर लिया था। त्यागपत्र इलाहाबाद से उपचुनाव जीते जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था। लेकिन उन्होंने लोकसभाध्यक्ष के बजाय अपना त्यागपत्र अपनी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। यह बात मधु जी को बुरी लगी थी। उन्होंने मुझे लिखे पत्र में कहा कि जाकर नैनी जेल में किसी तरह से जनेश्वर से मिलो और पूछो कि उन्हें क्या लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम? अगर त्यागपत्र देना था तो लोकसभाध्यक्ष के पास भेजते। अन्यथा ढोंग करने की आवश्यकता क्या थी? हम किसी तरह से जुगाड़ करके नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिले। वह भी हमारे नेता थे। संकोच करते हुए हमने उन्हें मधु जी के पत्र के बारे में बताया। जनेश्वर जी की प्रतिक्रिया समझने लायक थी। उन्होंने कहा कि मधु जी को बता दो कि वह अपनी पार्टी के नेता हैं, खुद फैसले ले सकते हैं लेकिन हम लोकदल में हैं जिसके अध्यक्ष चरण सिंह हैं, लिहाजा हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा। जाहिर सी बात है कि उनका त्यागपत्र लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं पहुंचा था।
इलाहाबादमें हम ऐसे समाजवादियों का एक ग्रुप बन गया था जो जेल से बाहर थे लेकिन आपातकाल के विरुद्ध अपने अपने हिसाब से सक्रिय थे। कुलभास्कर डिग्री कालेज के दो प्राचार्यों-श्रीबल्लभ जी और ललित मोहन गौतम जी, हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्वराज प्रकाश, विनय कुमार सिन्हां, सतीश मिश्र, ब्रजभूशण सिंह, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी भारत भूषण आदि हम लोग अक्सर मिला करते, कभी समूह में और अक्सर अकेले में। संघर्ष समाचार का नियमित प्रकाशन-वितरण करते थे। संघ और जनसंघ के कुछ लोग भी संपर्क में थे। लेकिन उनके साथ अक्सर हमारा वैचारिक विरोध होते रहता था। एक बार मुझे याद है कि इलाहाबाद में छापाखाने की दिक्कत हो जाने पर हम जेल में बंद नेता नरेंद्र गुरु और सिराथू के छोटेलाल यादव से संपर्क सूत्र लेकर बांदा जिले में राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी के गांव राजापुर गए थे। इलाहाबाद से एक रिम कागज लिए बस से शाम को राजापुर के इस पार इलाहाबाद जिले की साइड में यमुना नदी के तट पर पहुंचने और मल्लाह से अनुनय-विनय कर नाव से उस पार राजापुर पहुंचने की यात्रा कभी न भूलनेवाली यात्राओं में से एक है। वहां मिले समाजवादी नेता देवनारायण शास्त्री हमारी तरह ही जेल से छूट कर आए थे। उनका अपना छापाखाना था लेकिन वह दोबारा किसी तरह का जोखिम लेने के मूड में नहीं थे। बहुत समझाने पर हमारे ठहरने का इंतजाम तुलसी दास जी के मंदिर में हुआ जहां उस समय भी राम चरित मानस की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि के कुछ पन्ने रखे हुए थे। रात में हम दोनों ने जगकर बुलेटिन तैयार किया। प्रकाशन हुआ और हम अगली सुबह वहां से गायब।
आजमगढ़जेल से निकलने के बाद दोबारा हम नहीं लौटे। पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों को चकमा देते रहे। एक दो बार सामना भी हुआ लेकिन हम किसी तरह बच निकले। एक बार संभवतः नवंबर 1976 में संजय गांधी का इलाहाबाद में कार्यक्रम था, किसी तरह का विघ्न नहीं पहुंचे इसके लिए नए सिरे से धर पकड़ शुरू हुई थी। खुफिया पुलिस को किसी तरह इलाहाबाद में हमारे दारागंज वाले मकान का पता चल गया था। आधी रात को हमारे घर पुलिस का छापा पड़ा लेकिन हम एक बार फिर उन्हें चकमा देकर निकल भागने में कामयाब रहे। पुलिस की गाज हमारे परिवार, दोनों बड़े भाइयों पर गिरी। उन्हें पुलिसिया गालियों का सामना करना पड़ा। रात दारागंज थाने में गुजारनी पड़ी। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जब हम लुकते छिपते वापस घर पहुंचे तो भाइयों ने हाथ जोड़ लिया। कहा पिता जी तो जेल में हैं ही, तुम भी जेल से आए हो, लेकिन हम लोग सरकारी मुलाजिम हैं। हम चले गए तो परिवार का क्या होगा? संकेत साफ था। जरूरी कपड़े और कुछ पैसे लेकर हम घर से बाहर हो लिए। मां और भाभी की आंखें में आंसू थे। घर से निकलने के बाद सीडीए पेंशन में कार्यरत समाजवादी साथी सतीश मिश्र के प्रयास से मुट्ठीगंज स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के बगल की गली में रहने के लिए कमरे का जुगाड़ हो गया। खाना-पीना साथियों-सहयोगियों के घर परिवारों के जिम्मे था। सम्मेलन में समाजवादी साथी, सम्मेलन के मौजूदा प्रधानमंत्री विभूति मिश्र के कहने पर उनके पिता जी, सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभात मिश्र के आशीर्वाद से वहीं हमारे बैठने और दिहाड़ी के हिसाब से कुछ पैसे मिलने की व्यवस्था भी हो गई। लेकिन एक दिन हमें खोजते खुफिया पुलिस सम्मेलन के कार्यालय भी आ धमकी। हमें सम्मेलन भी छोड़ना पड़ा। इस तरह से पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों के साथ हमारी लुका-छिपी या कहें आंख मिचौनी का खेल चलता रहा।
इस बीच आपातकाल समाप्त हो गया लोकसभा चुनाव कराए गए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा या कहें दबाव से सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और भारतीय लोक दल को मिलाकर बनी जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई।
लेकिन शायद सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है। जनता पार्टी के सत्तारूढ़ नेताओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगी। हमारे जैसे लोगों के पास सच पूछें तो कोई काम नहीं था। चुनाव हम लड़ नहीं सकते थे, उस समय हमारी उम्र महज 21 साल की थी। पिता जी ने संसाधनों के अभाव और पूरे संसदीय क्षेत्र में काम नहीं होने की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और विधानसभा चुनाव में उनका टिकट जनता पार्टी के हमारे पड़ोसी अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने काट दिया था। पिता जी बगावत कर चुनाव लड़ गए थे। चंद्रशेखर जी और रामधन जी के हर संभव विरोध के बावजूद बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे। इलाहाबाद में हम युवा जनता के बैनर तले सक्रिय थे। लेकिन अपनी सरकार और अपने नेताओं के रहन सहन व्यवहार और काम काज को लेकर जनता पार्टी या कहें कि राजनीति से भी मन उचटने और झुकाव पत्रकारिता की ओर बढ़ने लगा। सरकार पर दबाव बनाने की गरज से हम लोगों ने इलाहाबाद में ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू किया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं। हम भी सत्तारूढ़ दल की युवा शाखा के पदाधिकारी रहते हुए भी जेल गए।
बहुत जल्दी ही समझ में आने लगा कि सत्ता का चरित्र वाकई एक जैसा ही होता है। आश्चर्य तो तब शुरू हुआ जब जनता पार्टी की सरकार ने, उसमें शामिल समाजवादियों ने एक भी ठोस काम ऐसा नहीं किया, जिससे देश में भविष्य में फिर कभी कोई दल अथवा नेता आपातकाल लागू करने का दुस्साहस नहीं कर सके। और नहीं तो लोकतंत्र की दुहाई देकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की सरकार ने कुछ ही महीनों बाद ‘जनादेश’ के नाम पर पहले अलोकतांत्रिक कार्य के रूप में नौ राज्यों की कांग्रेस की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त कर दिया। आपातकाल के बदनाम मीसा-आंतरिक सुरक्षा कानून-के विरुद्ध संघर्ष कर सत्तारूढ़ हुए लोगों को ‘मिनी मीसा’ की जरूरत महसूस होने में जरा भी लाज नहीं आई। संघ और पुराने कांग्रेसियों के दबाव में जनता पार्टी की सरकार और उसकी राज्य सरकारों ने ऐसे कई काम किए जिन्हें भ्रष्ट एवं स्वस्थ लोकतंत्र पर आघात पहुंचाने वाला ही कहा जा सकता था।
जाहिर है जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दबकर अकाल मौत का शिकार हो गई। बाद के वर्षों में भी आपातकाल के विरोध में या कहें जबरन आपातकाल और उसके कानूनों की ज्यादतियों का शिकार हुए लोगों ने मीसा जैसे खतरनाक प्रावधानों वाले टाडा और पोटा जैसे कानूनों की वकालत की। कई नेताओं को तो नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटनेवाले पोटा जैसे कानूनों के प्रावधान भी कमजोर नजर आने लगे। इसलिए जब शिवानंद जी आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के उपायों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत बताते हैं तो सोचने का मन होता है कि क्या आज हमारे प्रायः सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की राजनीतिक कार्यशैली को देखकर एक अदृश्य आपातकाल का एहसास नहीं होता। आज कौन दल अथवा नेता अपने आचरण से अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकता है। किस दल में आज अंदरूनी लोकतंत्र है जिसके बूते हम उम्मीद कर सकें कि इस देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की हिमाकत नहीं होगी। हां, हम इस तरह की किसी भी स्थिति का विरोध करने के लिए खुद को तैयार तो कर ही सकते हैं। इस साल 25-26 जून को आपातकाल की बरसी पर इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कुछ हो न हो, गांधी लोहिया और जयप्रकाश की वैचारिक थाती और गलत को गलत कहने और उसका विरोध करने की उनकी सीख और प्रेरणा तो है ही। इसे ही संजोकर जिन्दा रखने की जजरूरत आज का संकल्प है। यह बात तो हमारे चंचल जी भी मानेंगे ही जो शरीर से भले ही कोंग्रेसी हो गए हों, विचारों से समाजवादी और लोकतान्त्रिक ही हैं

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जयशंकर गुप्त। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह लोकमत समाचार के वरिष्ठ ब्यूरो चीफ हैं।

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