शुक्रवार, 27 जून 2014

आखिर अपनी मिट्टी से यह बैर क्यों ?

डॉ. एम.एल.परिहार
कई वर्षों से देश में ”सबके लिए शिक्षा” पर गोष्ठियां, सम्मेलन व चर्चाएं हो रही हैं, अरबों रूपयें पानी की तरह बहाए जा रहे हैं लेकिन हालात सुधरने की बजाय दिनों-दिन खराब होते जा रहे हैं। शिक्षा चंद मुट्ठी भर लोगों का व्यवसाय हो गया है। लोगों में वैज्ञानिक सोच की कमी होती जा रही है। मेहनत से मुंह चुरा कर आज का डिग्रीधारी शॉर्ट कट से रातों रात अमीर होना चाहता है। मौजूदा शिक्षा से बालक का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है और न ही हमने इस ओर ध्यान दिया। बच्चे की समझ विकसित होने के साथ ही हम उसे भूत प्रेत, काल्पनिक देवी देवताओं व चमत्कारों की कहानियां सुनाने लग जाते हैं। उसे आस्थाओं व अंधविश्वासों की धर्म, परम्परा व संस्कृति के नाम पर घुट्टी पिलाना शुरू कर देते हैं। उसे प्राणी मात्र से दया प्रेम, करूणा का व्यवहार तथा समाज व राष्ट्र के प्रति प्रेम व सम्मान की बजाय अपनी जाति, धर्म, गौत्र व अपने धर्म के ईश्वर से प्रेम करना सिखाया जाता है साथ ही दूसरे धर्म, जाति व दूसरे धर्म के धार्मिक स्थलों व अवतारों से दूर रहना सिखाया जाता है। न ही मौजूद शिक्षा से नैतिकता व उच्च आचरण का भाव पैदा है। यह शिक्षा समय को बर्बाद कर देने वाले क्रिकेट व भौंडी हिन्दी फिल्मों को देखकर अधकचरी व भौंडी संस्कृति निठल्ली व निकम्मी संस्कृति को बढ़ावा दे रही है। कर्म की बजाय पूजा पाठ, भाग्य व भगवान के भरोसे ही हर तरह की प्रगति के सपने देखने वाली शिक्षा समाज को दीमक की तरह खा रही है। अंधविश्वासी साधु के सपने के आधार पर पूरा देश सोने के खजाने ढूंढने के लिए खुदाई करने लग जाता है तो कभी मूर्ति को दूध पिलाने लग जाता है। ऐसी ही हमारी शिक्षा नीति जो हमें कूपमूंडक, दकियानूसी, रूढि़वादी व निकम्मा बना रही है।
ऊंचे महंगे स्कूलों में तो आज भी शहजादे व राजकुमार ही तैयार किये जाते हैं जिनको देश के गरीब समाज की समस्याओं से कोई लेना देना नहीं होता है, इनके महल, मॉल व पंच सितारे होटल ही इनके लिए सब कुछ हैं। ये क्रिकेट के सितारे ही इनके आदर्श होते हैं। सिर्फ धन कमाना और ऐशो आराम कराना तथा बिजली, पानी, भोजन का अपव्यय करना इनका स्टेटस सिम्बल है। ऐसे हालात में गांवों की सरकारी स्कूलों को तृतीय श्रेणी पास बच्चों की बेरोजगार फौज तैयार हो रही है। ऊंचे स्टेण्डर्ड की कही जाने वाली स्कूलों में शारीरिक श्रम का कोई महत्व नहीं है बल्कि श्रम करने वाले मेहनतकश से ये नफरत भी करते हैं। समय समय पर कुछ आयोगों ने शिक्षा सुधार में जो सुझाव दिये उन पर अमल किया गया होता तो शिक्षा के परिदृश्य में कुछ सुधार जरूर होता।
हमारे यहां शिक्षाउद्योग,उत्पाद व नैतिकता में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं है आज के स्कूल कॉलेज से जो धनाढ्य ऊंची डिग्रियां लेते हैं वे खुद काम नहीं करते हैं बल्कि अनपढ़अशिक्षित दलित शोषित वर्ग से ही सारा उत्पादन करवातेहैं। शिक्षित भद्रजनों कृषि, उद्योग, शिल्प कला आदि के विकास व उत्पादन में कोई योगदान नहीं है। विडम्बना यह है कि यह उच्च शिक्षित वर्ग के दबे कुचले मेहनत वर्ग को समाज का बोझ समझते हैं।
जिस प्रकार तेज गति से दुनिया में सूचना टैक्नोलोजी में क्रांति आ रही है दुनिया एक गांव हो गया है। ऐसे में कोई भी समाज अपने बहुसंख्यक दलित आदिवासी वर्ग को अनपढ़ रखकर आगे नहीं बढ़ सकता हैं क्योंकि अब तो हर छोटे बड़े काम के लिए पढ़े लिखे की जरूरत पड़ती है। आज शिक्षा के सार्वभौमिकरण की जरूरत है। विकसित देशों व कई विकासशील देशों में आये दिन शिक्षा के क्षेत्र में नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं जबकि हमारे यहां आज भी भूतप्रेत व देवी देवताओं की कहानियां व रामायण महाभारत को पढ़ाने तक ही शिक्षा सीमित कर दी गई। इसके अलावा जो डिग्रियां दी जा रही है उनका व्यावहारिक जीवन में कोई उपयोग नहीं है। दुनिया में आज शिक्षा उत्पादन,रोजगार व कौशल से जुड़ गयी है। एक मजदूर व फैक्ट्री वर्कर के लिए भी कम्प्यूटर का ज्ञान व अन्य कौशल होना जरूरी है। अब शिक्षा की आवधारणा बदल रही है। अब बच्चों को स्कूलों में मधुशाला जैसी कविताएं तथा निरर्थक कविता, कहानियां पढ़ाने की जरूरत नहीं है, न ही धर्म की अंधविश्वास व चमत्कारों वाली कहानियां रटाने की जरूरत है। अब शिक्षा की अवधारणा व जरूरतें काफी बदल गयी हैं। हमने आज तक कोई वैज्ञानिक खोज नहीं की है। आज तक जिस अंग्रेजीपश्चिम व उसकी संस्कृति को कोसते रहे हैं उन्हीं के द्वारा खोजे गये वैज्ञानिक उपकरणोंमशीनोंचिकित्सासूचनासुरक्षा आदि के द्वारा भारत के निठल्ले तथा अंधविश्वासी लोग मजे उड़ाते रहे हैं। हम जिनको पानी पी पी कर गाली देते हैं उन्हीं के रहन सहन, शिक्षा, उद्योग, विज्ञान को जनजीवन में उतारते हैं। हम भारतीय एक नंबर के बहुरूपिये है दोगली नीति वाले हिप्पोक्रेट हैं। गुणगान संस्कृत का करते हैं लेकिन व्यावहारिकता में घर में भी अंग्रेजी में बात करते हैं तथा हिन्दी बोलने पर डांटते हैं।
आज भारत जैसे देश में कर्णधारों व नीति निर्धारकों पर भारी जिम्मेदारी हैं कि हम किस तरह अपनी आधी से अधिक अनपढ़ अशिक्षित जनता को शिक्षित कर और दुनिया के साथ कदम मिला कर चले। गरीबी के साथ अशिक्षा का गहरा संबंध हैं। यदि हम विकसित देश की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं तो शिक्षा सभी वर्ग के लिए सरलता व सस्ते रूप में उपलब्ध करानी होगी तथा इसमें गुणात्मक सुधार भी लाना होगा। वरना हमारा देश अनपढ़ मजदूरों की मण्डी बनकर रह जायेगा। मौजूदा दोषपूर्ण शिक्षा नीति के लोगों को नैतिक, सुसंस्कृत व देश भक्त बनाने की बजाय उन्हें अपनी जड़ों से काट दिया है। आठवीं दसवीं पढ़े लिखे लडक़े भी आज घर परिवार में खेती पशुपालन के कामों के हाथ लगाने में शर्म महसूस करते हैं। वे शहर में आकर हाड़तोड़ मजदूरी कर लेंगे, ग्रेजुएट छात्र शहर में कंपनी में तीन हजार रूपये मासिक की नौकरी  कर लेगा लेकिन गांव में मिट्टी में हाथ नहीं करना चाहता। उसे अपनी मिट्टी से मानो बैर हो गया है। यह शिक्षा बच्चों को अपने पारम्परिक काम धंधों से काट रही है। लेकिन कोई ठोस वैकल्पिक रोजगार नहीं दे पाती। आज मनु के शास्त्र की निठल्ली बना देने वाली शिक्षा नीति की नहीं बल्कि मैकाले की वैज्ञानिक सोच व विकास पैदा करने वाली शिक्षा की जरूरत है। आज समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए बुद्ध द्वारा बतायी सम्यक शिक्षा की जरूरत हैं।
अब हर तरफ कथित पब्लिक स्कूलों की बाढ़ आ गई। कहने को तो ये अंग्रेजी मीडियम के आधुनिक ज्ञान विज्ञान देने वाले स्कूल है लेकिन अंग्रेजों की मेहनतकशवफादारी व वैज्ञानिक सोच वाली संस्कृति यहां कहीं भी नजर नहीं आती है। हां , ईसाई मिशनरी स्कूल इनमें काफी अलग व संस्कारपूर्ण परिवेश में चल रहे हैं। कमोवेश उन्हीं की नकल करने की होड़ में कुकुरमुत्तों की तरह गली, मोहल्लों में पॉश कोलोनियों से लेकर आदिवासी इलाकों में भी पब्लिक स्कूल खोल दिये हैं। ये शिक्षा के व्यापारी हैं, पैसा कमाना इनका एक मात्र लक्ष्य है, जैसे कपड़े या किराना की दुकानों का यह जाल बिछा रहे हैं उसी तरह पब्लिक स्कूल खोल रहे हैं। यहां अंग्रेजों की मेहनतकश व समर्पित भावना का कहीं भी माहौल नजर नहीं आता है। इनके स्कूल भवन, बच्चों की वेशभूषा आदि की चकाचौंध तो आधुनिक होने का नाटक किया जाता है लेकिन अंदर का माहौल तथा इनसे पढऩे वाले बच्चों की सोच अंधविश्वासी व दकियानूसी ही होती है। इन पब्लिक स्कूलों के मालिक आधुनिक शिक्षा पद्धति के स्वघोषित अग्रदूत बने हुए हैं। शिक्षा के इन मठाधीशों की शिक्षा दुकानों में दलित आदिवासी वर्ग के बच्चों के लिए कोई स्थान नहीं है। सरकार के 25′ सीटों के आरक्षण के बाजवूद इन गरीब वर्ग के बच्चों को प्रवेश नहीं देते हैं। इन स्कूलों में स्वीमिंग पुल है, होर्स राइडिंग की सुविधा है। कई अंग्रेजी खेलों के ग्राउण्ड भी हैं। साथ ही मजेदार बात यह है कि त्यौहारों पर पूजा पाठ के लिए मंदिर व यज्ञ हवन की खूब किये जाते हैं।
इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भारत के ग्रामीण जीवन व व्यवहारिक जीवन का तो रत्ती भर ज्ञान नहीं होता है। इनके नॉलेज बैंक के अनुसार मिर्ची व गेहूं का बड़ा पेड़ होता है। खेती बाड़ी, उद्यम, शिल्प का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं होता है। कंपनी सेक्रेटरीडॉक्टरीएम.बी.ए. का सपना देखने वाले को यह जानने की क्या जरूरत है कि दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं का उत्पादन कैसे व कहां होता है। जो विषय पढ़ाये जाते हैं उनका डिग्री लेने के बाद क्या उपयोग होगा किसी को पता नहीं। बस सिर्फ पास होने के लिए पढ़ रहे हैं। हर बात पर यह जमात प्रगतिशील व अंग्रेजीदा होने का नाटक करती है लेकिन भौंडी व रूढ़िवादी मानसिकता ही इनकी असलियत है। मजेदार बात यह है कि जो धार्मिक व कट्टरपंथी संगठन रात दिन पश्चिमी संस्कृति को कोसते थे वे भी शिक्षा के इस व्यापार के बड़े भागीदार हैं। मंच पर हिन्दी व संस्कृत का रोना रोते हैं लेकिन खुद के बच्चों को मिशनरी स्कूलों में भेजते हैं।
मौजूदा शिक्षा प्रणाली की उपज एक धनाढ्य वर्ग को इस देश, समाज से कोई लेना देना नहीं है उनकी नजर में आदिवासी तो जंगली है तथा दलित स्वच्छकार गुलाम हैं और वे खुद इस देश के हुकमरान हैं। अपनी खर्चीली जीवन शैली, वस्तुओं का अपव्यय करने की आदत तथा मेहनतकश को अपमानित करने का सामंती चेहरा इस देश में एक नई संस्कृति को जन्म दे रहा है। ये मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट से तो पूरी दुनिया से जुड़ गये हैं लेकिन इनके घर पर काम करने वाली तथा गटर साफ करने वाले मेहतर स्वच्छकार का घर कहां है इसकी जानकारी बिल्कुल नहीं रखी जाती। परिवार के सदस्य एक से दूसरे कमरे में भी मोबाइल से बात करते हैं ऐसे में भला गांव के दलित के घर तक जाकर उसकी पीड़ा को जानने की फुर्सत कहां से मिलेगी। यह इस अधकचरी शिक्षा का ही प्रतिफल हैं जो यहां समाज में भाईचारे व अपनापन का माहौल नहीं है। यदि एकता भी है तो वह अलग-अलग समाज की जातियों तक ही सीमित है। शिक्षा का भौंडा स्वरूप जो अंग्रेजों की नकल करने का नाटक करता है लेकिन उनके एक बाल की बराबरी भी नहीं कर पा रहा है। ऊपर से आधुनिकता का ढोंग व अन्दर से घोर जातिवादी। ऊपर से राष्ट्रभक्त होने का स्वांग लेकिन व्यवहारिकता में अनैतिक व भ्रष्ट। शिक्षा तंत्र की उपज का यही दोहरापन समाज व देश को कमजोर कर रहा है और राष्ट्र एक नहीं हो पा रहा है। खुद की जाति व धर्म के लिए बेशुमार धन व समय है लेकिन राष्ट्र का नंबर तो सबसे आखिर में आता है। आज देश में ऐसे शिक्षा तंत्र की जरूरत है जो समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा करे, समाज में प्रेम व मैत्री का माहौल तैयार करें, जात पांत व धार्मिक अंधविश्वास का खात्मा होवे तथा राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव पैदा हो।

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डॉ. एम. एल. परिहार। लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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