लंदन के डेली मिरर ने दिल्ली गैंग रेप की पीड़ित लड़की का नाम और पहचान उजागर कर दी। उसके पिता चाहते हैं कि नाम उजागर हो। कानून का जो उद्देश्य है मामला उससे आगे चला गया है। सारा देश उस लड़की को उसकी बहादुरी के लिए याद रखना चाहता है। यदि उसे याद रखना है तो उसका नाम क्यों न बताया जाए। उसका दर्जा शहीदों में है। बहरहाल रेप पर चर्चा कम होती जाएगी, पर उससे जुड़े मसले खत्म नहीं होंगे।
दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार की रात ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप है कि दिल्ली गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं हैं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। सम्भव है ऐसे ही कुछ मामले और दर्ज किए गए हों। या आने वाले समय में दर्ज हों। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया है जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया है। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए?पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा?
आईपीसी की तमाम धाराओं के तहत केस की पीडिता का नाम छापने करने पर दो साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है। कानून के तहत बलात्कार पीडि़ता के निवास, परिजनों, दोस्तों, विश्वविद्यालय या उससे जुड़े अन्य विवरण को भी उजागर नहीं किया जा सकता। उधर केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री शशि थरूर ने अपने ट्वीट में लिखा, "सोचता हूँ कि आख़िर दिल्ली बलात्कार पीड़ित की पहचान छिपाए रखकर क्या हासिल होगा? क्यों न उनका नाम बताकर उनका एक वास्तविक व्यक्ति की तरह सम्मान किया जाए, जिसकी अपनी पहचान है।" उन्होंने अगले ट्वीट में लिखा, "अगर उसके माता-पिता आपत्ति नहीं करते हैं तो उस लड़की का सम्मान किया जाना चाहिए। इसके अलावा बलात्कार के क़ानून में जो बदलाव होने हैं उसके बाद नए क़ानून का नाम उसी के नाम पर रखा जाना चाहिए।" उनका एक और ट्वीट था, "मैं जिसकी पहचान के बारे में जानना चाहता हूँ, वह कोई काल्पनिक पात्र नहीं है। देश को उसकी असलियत के बारे में जानने का पूरा हक़ है। अगर वर्षों बाद इस देश में महिलाएँ सुरक्षित हुईं तो मैं चाहता हूँ कि दुनिया को पता चले कि इसकी शुरुआत किसने की।"
बलात्कार कांड ने एक साथ अनेक सवालों को जन्म दिया है। ज्यादातर बातें हमारी विसंगतियों की ओर इशारा करती हैं। जिस लड़की को बचाने के लिए हजारों लोग इंडिया गेट पर एकत्र हो गए, वह जब सड़क पर पड़ी थी, तब वे उसे बचाने के लिए क्यों नहीं रुके? जिसे बचाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार को सामने आना पड़ा, उसके लिए अस्पताल में एक कम्बल तक क्यों नहीं था? इस मामले के अपराधियों को पकड़ने के लिए जो पुलिस इतनी त्वरित कार्रवाई करती है, वह मौके पर अपने क्षेत्राधिकार को लेकर क्यों झगड़ती रही? चूंकि यह मामला बड़ा बन गया, इसलिए हम सब इसे बढ़ा-चढ़ाकर देख पा रहे हैं। अन्यथा इसे आम अपराधों की तरह भुला दिया जाता। पूरे मामले में केवल पुलिस या सरकार ही दोषी नज़र नहीं आती। इसमें पूरे समाज के दोष भी दिखाई पड़ते हैं। पर क्या ऐसी घटनाएं हमें अपने आप को सुधारने का मौका नहीं देतीं?क्या ऐसे झटके किसी बड़े बदलाव का कारण नहीं बन सकते? क्या ऐसे आंदोलन किसी तार्किक परिणति तक पहुंच सकते हैं?क्या यह पहल हमें बेहतरी की ओर ले जाएगी? और यह भी कि बलात्कार के अपराध को हम किस तरीके से देखते हैं और खासतौर से उसकी शिकार लड़की के प्रति हमारा बर्ताव कैसा होता है।
बीबीसी की वैबसाइट ने अतीत में बलात्कार की शिकार हुई एक लड़की का ज़िक्र किया है। इंडिया गेट पर बलात्कार के खिलाफ़ कड़े कानून की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों में एक लड़की ऐसी भी थी जिसने यह त्रासदी खुद झेली थी। इस लड़की के मुताबिक जब उसके साथ यह हादसा हुआ तब उसके बाद उसकी मेडिकल जांच करने वाली डॉक्टर का रवैया बेहद संवेदनहीन था। दो उंगलियों से किए जाने वाले परीक्षण के दौरान वह अमानवीय हो गई थी और यह मेरे लिए बेहद तकलीफ़देह था। उसने कहा,"लम्हें भर के लिए मुझे लगा कि मेरा कोई वजूद नहीं था, मैं बलात्कार का शिकार हुई महज़ एक लड़की बनकर रह गई थी। अगर आप बलात्कार की शिकार हुई हैं तो आपने अपने होने का मतलब खो दिया है। "मैं अस्पताल के रिसेप्शन पर इंतज़ार कर रही थी कि तभी किसी ने कहा कि उस औरत को बुलाओ जिसके साथ बलात्कार हुआ है। यह आवाज़ मेरे दिमाग में गूंजने लगी।" केस वापस लेने के दबाव भी पड़ा। पीड़िता ने बताया कि बचाव पक्ष का वकील मेरे एक दोस्त से मिला। पीड़िता पर बलात्कारी से शादी करने का लगातार दबाव डाला गया। "मुझसे कहा गया कि जो हुआ उसे भूल जाओ, उससे शादी कर लो।" इंडिया गेट पर अपनी मौजूदगी को लेकर वह आशान्वित थी। उसने बताया कि यह मेरे जीवन का सार्थक पहलू है।
इस आंदोलन को केवल बलात्कार के खिलाफ आंदोलन नहीं मानना चाहिए। यह हर तरह के अपराध के खिलाफ आंदोलन था। किसी भी छोटे अपराध की अनदेखी होने पर उससे ज्यादा बड़े अपराध का हौसला मिलता है। हमारा हर अपराध से विरोध है। क्या यह आंदोलन किसी बड़े सामाजिक आंदोलन को जन्म दे सकता है? या फिर यह दूध के उफान जैसा है? संशयी मन कहते हैं कि कुछ नहीं हो सकता। यह सब व्यर्थ जाएगा। इस आंदोलन का माँग क्या थी? थी भी तो ज्यादा से ज्यादा यही कि बलात्कारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो। पर असल बात यह है कि यह रोष की अभिव्यक्ति थी। रोष भी सरकार के खिलाफ। पर यह सरकार हमारी है। हम उससे माँग कर सकते हैं और माँग मनवा भी सकते हैं। पर इसके लिए हमें भी बदलना चाहिए। अपने दोषों की ओर भी देखना चाहिए। हम धीरे-धीरे जिस संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं, अंततः वह हम सबका जीना हराम कर देगी। सरकार या व्यवस्था एक विशाल मशीनरी है, जिसमें तमाम तरह के पुर्जे हैं। हम भी उसके पुर्जे हैं। इन पुर्जों में खराबी है तो उसे दूर करना चाहिए। कृपया गम्भीर विमर्श से भागना बन्द कीजिए। आप जहाँ भी हैं, जिस हाल में हैं, अपनी जानकारी और चेतना के स्तर को बढ़ाइए। यह आपके हित में है।
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