सोमवार, 1 सितंबर 2014

समझौता ? कैसा समझौता ? हमला तो तुमने बोला है

राजीव यादव

शैलेन्द्र एक प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार थे। जिनकी रचनाएं उनके राजनीतिक विचारों की वाहक थीं और इसीलिए वेकम्युनिस्ट राजनीति के नारों के रूप में आज भी सड़कों पर आम-आवाम की आवाज बनकर संघर्ष कर रही हैं। ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है !’ (1949) आज किसी भी मजदूर आंदोलन के दौरान एक ‘राष्ट्रगीत’ के रूप में गाया जाता है।

शैलेन्द्र ट्रेड यूनियन से लंबे समय तक जुड़े थे, वे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और खाके के प्रति बहुत सजग थे। आम बोल-चाल की भाषा में गीत लिखना उनकी एक राजनीति थी। क्योंकि क्लिष्ट भाषा को जनता नहीं समझ पाती, भाषा का ‘जनभाषा’ के स्वरूप में जनता के बीच प्रसारित होना एक राजनीतिक रचनकार की जिम्मेवारी होती है, जिसे उन्होंने पूरा किया।

आज वर्तमान दौर में जब सरकारें बार-बार मंदी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं, ऐसा उस दौर में भी था। तभी तो शैलेन्द्र लिखते हैं ‘मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है।’ बार-बार पूँजीवाद के हित में जनता पर दमन और जनता द्वारा हर वार का जवाब देने पर वे कहते हैं ‘समझौता ? कैसा समझौता ? हमला तो तुमने बोला है, मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें।’

पर शैलेन्द्र के जाने के बाद आज हमारे फिल्मी गीतकारों का यह पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि वक्त जरूर पूछेगा कि जब पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे ?

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About The Author
राजीव यादव, लेखक स्वतंत्र पत्रकार, 
मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।
 हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।

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