रविवार, 8 दिसंबर 2013

युवा बेपरवाह हैं इस बहस से

मुदसर नजर रिसर्च स्काल्ॉर, जेएनयू
नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि अधिकांश भारतीयों की हार्दिक इच्छा रही है कि इस अनु च्छेद को समाप्त किया जाए ताकि जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों के तुल्य किया जा सके। केंद्र सरकार ने समय-समय पर विभिन्न हथकंडे अपनाए हैं प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर खुद को सही ठहराने में जुटा है। जम्मू-कश्मीर जहां इसे जारी रखने के लिए जद्दोजहद करेगा वहीं शेष भारत इसके खात्मे के लिए दबाव बनाएगा

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किए जाने से अन्य राज्यों के विपरीत जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ में विशेष स्थान हासिल है। इसके चलते इस राज्य को कुछ हद तक स्वायत्तता भी मिली हुई है। भले ही यह सैद्धांतिक ज्यादा, व्यावहारिक कम है। जम्मू-कश्मीर का यह विशेष दर्जा 1947 से ही भारतीयों के लिए सिरदर्द रहा है। केंद्र सरकार ने समय-समय पर विभिन्न हथकंडे अपनाए हैं जिससे कि जम्मू-कश्मीर की विशेष स्वायत्तता को कुंद किया जा सके। दूसरी तरफ कश्मीरी हैं, जो कह रहे हैं कि अनुच्छेद 370 ने भी उनकी राजनीतिक दुश्वारियां कम नहीं की हैं। यह धारणाओं का द्वंद्व है और प्रत्येक पक्ष अपने हितों को ऊपर रखते हुए खुद को तर्कसंगत ठहराना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर खुद को सही ठहराने में जुटा है। जम्मू- कश्मीर जहां इसे जारी रखने के लिए जद्दोजहद करेगा वहीं शेष भारत इसके खात्मे के लिए दबाव बनाएगा। इस बीच, कश्मीर में समस्याएं जारी हैं और बाकी भारत में यह धारणा है कि अनुच्छेद-370 ही सारी समस्याओं की जड़ है। आतंकवादी घटनाओं या पृथकतावाद की आवाज उठने पर जम्मू-कश्मीर के विशेष दज्रे को लेकर विभिन्न पक्षों की विभिन्न राय या धारणाएं उभरती हैं। एक पक्ष नेहरू को राज्य को विशेष दर्जा देने के लिए कोसता है। इस पक्ष का मानना है कि विशेष व्यवस्था भारत की धर्मनिरपेक्षता पर काला धब्बा है। यह पक्ष मांग कर रहा है कि इस व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए। कहना न होगा कि इस पक्ष, जिसमें विहिप, आरएसएस समेत भाजपा जैसे साम्प्रदायिक कट्टरपंथी शामिल हैं, में व्यावहारिकता का अभाव है और यह जनभावनाओं को खारिज करता है। एक अन्य पक्ष का सोचना है कि राज्य में पृथकतावाद की आवाज उठने का कारण कश्मीर को विशेष दर्जा मिला होना है। भारतीयों के इस हिस्से में पढ़ेिलखे मध्यवर्गीय जन और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े लोग शामिल हैं। यह हिस्सा भी चाहता है कि अनुच्छेद-370 को खत्म किया जाए। और चुपके-चुपके भाजपा जैसी राजनीतिक ताकतों को समर्थन देता है। व्यावहारिक पक्ष रखने वाले वामपंथी और कांग्रेस का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में हालात साजगार बनाए रखने के लिए अनुच्छेद 370 एक व्यावहारिक उपाय है। ये चाहते हैं कि राजनीतिक संकट को टालने के लिए इस व्यवस्था को जारी रखा जाना चाहिए। कश्मीर में विशेष दर्जा की हिमायती राजनीतिक पार्टियों खासकर नेशनल कान्फ्रेंस का मत है कि राज्य को और ज्यादा स्वायत्तता दी जानी चाहिए या अनुच्छेद 370 को जारी रखा जाना चाहिए ताकि कश्मीर में राजनीतिक समस्या का समाधान किया जा सके। ये तमाम पक्ष विशेष दर्जा को लेकर पूरी तरह से गफलत में हैं और लोगों की वास्तविक अपेक्षाओं और इच्छाओं की अनदेखी कर रहे हैं। वे वास्तविक राजनीतिक मुद्दों की तरफ जाना ही नहीं चाहते। सच तो यह है कि कश्मीर का अवाम विशेष दर्जा को लेकर उनकी तमाम धारणाओं से सहमत नहीं है। ये तमाम अवधारणाएं वास्तव में जम्मू-कश्मीर के विशेष दज्रे को लेकर एक तरह की गफलत हैं। पहली बात तो यह कि अनुच्छेद 370 ने न तो पृथकतावाद को बढ़ावा दिया है और न ही इसने कश्मीरियों को अलगाववाद की भावनाओं से ही बचाया है। दरअसल, इतिहास की स्मृति और विवादग्रस्त इतिहास सारे संकट की जड़ हैं। इसलिए अनुच्छेद 370 का खात्मा समस्या सुलझाने के बजाय उसे और बढ़ा देगा। दूसरी बात यह कि जम्मू-कश्मीर पहले से कहीं ज्यादा एकजुट या कहें कि संघटित है और यह अनुच्छेद मात्र मुलम्मा भर है। और इसे लागू किए जाने के बाद से हालात काफी बदल चुके हैं। यहां ध्यान देना होगा कि 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद, केंद्रीय सूची में 97 में से 94 प्रविष्टियां और समवर्त्ती सूची में 47 में से 26 प्रविष्टियां पहले ही जम्मू-कश्मीर में लागू की जा चुकी हैं। ऐसे में इस अनुच्छेद पर र्चचा से इस स्थिति में बिगड़ाव आएगा। अनुच्छेद 370 एक ऐसी सुरंग है जिसमें से होकर खासा आवागमन हो चुका है। किसी भी प्रकार का बदलाव राज्य और केंद्र के बीच विश्वास का संकट खड़ा कर देगा। और उनके सम्बन्धों में एक प्रकार की जटिलता ला देगा। र्चचा होने पर भारत के कानूनों को लागू करने के असंवैधानिक तरीके पर भी र्चचा छिड़ जाएगी। इन्हें राज्य में भी लागू किया गया है क्योंकि अनुच्छेद 370 के तहत भाग एक ही तर्कसंगत है। इस अनुच्छेद के तहत बाकी का जो कुछ भी राज्य में लागू किया गया, वह असंवैधानिक रहा। भाजपा को इस बात की गलतफहमी है कि अनुच्छेद 370 को खत्म किया जा सकता है, जिसके लिए संसद के वोट की भी दरकार नहीं होगी और वह इस इस पर र्चचा करने की बात कह रही है। लेकिन अनुच्छेद 370 पर र्चचा से जम्मू-कश्मीर के भारत में जुड़ने को लेकर भी र्चचा होनी अपरिहार्य है। कारण, र्चचा मात्र इन दो विकल्पों-इसे रखा जाए या खत्म किया जाएतक नहीं सिमट सकेगी बल्कि भारत की संघीय सरकार के साथ जम्मू- कश्मीर के पहले से ही जटिल सम्बन्ध को यह और भी जटिल बना देगी। कानूनन उस तरीके से अनुच्छेद 370 का खात्मा सम्भव नहीं है जिस ढंग से भाजपा चाहती है। हालांकि अनुच्छेद 370 (भाग 3) कहता है, ‘इस अनुच्छेद के प्रावधानों का पालन न होने की सूरत में राष्ट्रपति सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए घोषणा कर सकते हैं कि यह अनुच्छेद निष्प्रभावी हो गया है या वह तिथि विशेष से कुछ संशोधनों और अपवादों के साथ इसके लागू रहने की घोषणा कर सकते हैं।’ लेकिन यह अनुच्छेद यह भी कहता है, ‘इस प्रकार की अधिसूचना जारी किए जाने से पूर्व इस अनुच्छेद के भाग (2) में वर्णित राज्य की संविधान सभा से इस आशय की सिफारिश मिलना अनिवार्य है।’

यदि यह र्चचा फिर से खुलती है तो कश्मीर में सक्रिय अलगाववादियों की तो जैसे बन ही आएगी और भारत को उनके खिलाफ कार्रवाई करने में दिक्कत दरपेश होंगी। और फिर, जम्मू-कश्मीर विशेष दज्रे से खुश है तो क्या हर्ज है? दुर्भाग्य की बात है कि समय गुजरने के साथ ही अनुच्छेद 370 को ‘जारी रखने या खत्म करने’ जैसे नारों ने कुछ लोगों खासकर राजनीतिक पार्टियों को खासा व्यस्त कर दिया है। वे इस मुद्दे को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने में जुटी हैं। उनका यह सोचना भ्रम है कि इसके खात्मे से उनकी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। जहां तक कश्मीरियों की युवा पीढ़ी की बात है तो उनके लिए इस अनुच्छेद पर र्चचा फिजूल है और इस पर र्चचा बेमानी है। राजनेताओं द्वारा इस मुद्दे पर छिड़ी लड़ाई से युवाओं का नजरिया अलग है। वे एकमत से कश्मीर की समस्या को राजनीतिक समस्या मानते हैं और इसका राजनीतिक समाधान तलाशे जाने के हामी हैं।

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