कश्मीर पंडित अकेले पड़ गए हैं। पृथकतावादियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की मांगें गैर-वाजिब हैं। वे कश्मीर घाटी में स्वायत्तता की बात करते हैं। खुद के शासन और आजादी की बात कह रहे हैं। यही वह बात जिसे लेकर उनका और कश्मीरी पंडितों के बीच गहरा मतभेद है। दोनों पक्ष एक जगह पर इन मुद्दों के मद्देनजर एक जगह नहीं बैठ सकते। उनमें मतभेद का यह एक बड़ा कारण है
कुंदन कश्मीरी अध्यक्ष, कश्मीरी पंडित कान्फ्रेंस
इन दिनों अनुच्छेद 370 को लेकर देश भर में र्चचा है। अनुच्छेद-370 जम्मू-कश्मीर में अस्थायी तौर पर लागू किया गया था। ध्यान दें तो पाएंगे कि अनुच्छेद 370 की भाषा मुलम्ममा भर लगती है, वास्तविक नहीं। इस करके ऐसा कुछ नहीं है जिससे कहा जा सके कि यह अनुच्छेद किसी क्रिया से अपवित्र हो जाए। अनुच्छेद का गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इसमें संशोधन करने की बाबत कोई स्पष्ट सीमाएं नहीं हैं। इसलिए इस कानून के खात्मे में किसी तरह की कोई बाधा नहीं है। यदि भारतीय संसद चाहती है तो इस प्रकार का फैसला कर सकती है। इस अनुच्छेद के चलते जम्मू-कश्मीर को राष्ट्र की मुख्यधारा में आने में दिक्कत हुई। साथ ही, राज्य को शर्मिदगी उठानी पड़ी। राज्य के बाहर से आने वाले उद्यमियों को यहां निवेश करने से इस अनुच्छेद ने रोका है। अनुच्छेद की व्याख्या इस प्रकार से की गई कि देश को इसका खमियाजा भुगतना पड़ रहा है। कश्मीरी अलगाववादी और घाटी की तथाकथित मुख्यधारा अनुच्छेद- 370 को अपने साम्प्रदायिक एजेंडा को लागू करने में इस्तेमाल कर रहे हैं और गैर-मुस्लिमों को साम्प्रदायिक राजनीति का शिकार बना रहे हैं। अलगाववादी इस व्यवस्था की इस प्रकार से व्याख्या कर रहे हैं कि यह व्यवस्था राज्य में मुस्लिम बहुलता को पनपाए रखने के लिए की गई है। नतीजतन, यह समूचा क्षेत्र पलायन की समस्या से ग्रस्त है। साथ ही, जम्मू एवं कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताए जाने की बात पर भी यह व्यवस्था एक चुनौती की तरह दरपेश है। इसके चलते वर्ष 1989-90 में कश्मीरी पंडितों को अपने घर छोड़ने पर विवश होना पड़ा। ऐसे इलाके जहां साम्प्रदायिक लोग बहुलता में हैं, वहां से पृथकतावादी तत्वों को हवा मिलती है। यदि यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता तो हिंदुओं को अपने घर-बार नहीं छोड़ने पड़ते। उन्हें वहां अल्पसंख्यक हो जाने का दर्द झेलना पड़ा। अनुच्छेद-370 को एक समय बाद समाप्त करने का भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में संसद में प्रतिबद्धता जताई थी। सरदार पटेल के यह मुद्दा उठाए जाने पर उन्होंने यह प्रतिबद्धता जताई थी। आज यह भारत सरकार और राष्ट्रवादी ताकतों के साथ ही संवैधानिक विशेषज्ञों का दायित्व है कि अनुच्छेद-370 को उचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाए और जाना जाए कि यह क्या सोच कर लागू किया गया था। जरा इन कश्मीरी नेताओं पर गौर कीजिए। ये अपने देशवासियों को जम्मू एवं कश्मीर में रहने नहीं देना चाहते और न ही भारत का कानून राज्य में लागू करना चाहते लेकिन दूसरी तरफ देश भर में खुद के आने-जाने और रहने-बसने की पूरी आजादी चाहते हैं। वे देश में भर में कहीं भी आ-जा सकते हैं। कार्य कर सकते हैं। भारत में कहीं भी कारोबार कर सकते हैं। देश में कहीं भी मकान बना सकते हैं। और किसी भी राज्य में जाकर पढ़ाई कर सकते हैं। लेकिन वे अपने देशवासियों को जम्मू एवं कश्मीर में ऐसा किए जाने पर उन्हें आपत्ति है। वे इस बात की भी अनदेखी करते हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में इस प्रकार का कोई अनुच्छेद नहीं है जो पाकिस्तान के लोगों को वहां सेटल होने से प्रतिबंधित करता हो। न ही वहां पाकिस्तान के कानून लागू किए जाने पर कोई रोक है। इस पर इन कश्मीरी नेताओं को क्या कहना है। यहां तक जम्मू एवं कश्मीर का कुछ हिस्सा चीन को दिया गया तो कश्मीर के ये नेता चुप्पी साधे रहे। लेकिन ये ही नेता अनुच्छेद 370 को स्थायी तौर पर राज्य में लागू किए जाने को लेकर जमीन- आसमान एक किए हुए हैं। यही नहीं कश्मीर में सौहार्द का माहौल बिगाड़ने में भी पीछे नहीं रहते। यहां यह कहना चाहूंगा कि आज समूचा विश्व एक वैश्विक गांव बन चुका है। राजनीतिक तौर-तरीकों में भी एक प्रकार की सापेक्षता आ चुकी है। आज जो नया वैश्विक स्थितियां हैं, उनमें किसी को भी समूची विश्व में कहीं भी रहने की आजादी है। अनुच्छेद-370 जैसी बाध्यता तो कहीं भी देखने को नहीं मिलती। ये वैश्विक स्थितियां कश्मीरियों के लिए भी क्यों नहीं रहनी चाहिए। रह सकती हैं। शर्त यह है कि वे समझदारी से काम लें और यह जानें कि किस प्रकार से इन स्थितियों का फायदा उठाया जा सकता है। जहां तक कश्मीरी पंडितों के घाटी में लौटने का प्रश्न है, अपनी पुरानी जगहों पर पहुंचने का सवाल है, तो सबसे जरूरी है जम्मू-कश्मीर में उनकी सुरक्षा। घाटी से विस्थापित होकर ये कश्मीरी पंडित देश भर में रह रहे हैं। उनके वापस लौटने के लिए जरूरी है कि वहां सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था की जाए। यहां ध्यान रखना होगा कि केवल उनके वापस लौटने के संदर्भ में जरूरी है कि घाटी में रह रहे लोग उनका स्वागत करने को तैयार हों। वहां अब उन्हें लौटने पर नए पड़ोसी मिलेंगे। अैर मिलेगी बंदूक के साये में पल-बढ़ कर बड़ी हुई युवा पीढ़ी। उसके साथ एडजस्ट करने की अपनी समस्याएं होंगी जिनका समाधान भी विस्थापितों के घाटी में लौटने की स्थिति में खोजना होगा। अभी राष्ट्रिवरोधी प्रदर्शन, हिंसा और घृणा आये दिन देखने को मिलती है। पाक समर्थक और अलगाववादी ताकतें भारत से कश्मीर को अलग करने के तमाम हथकंडे अपनाए रहते हैं। नागरिकों की हत्या, सीमा पार से घुसपैठ, आम जनजीवन में हर रोज का व्यवधान, स्कूलों को बंद किया जाना जैसी तमाम हकरतें अलगाववादी कर रहे हैं। इन हालात में वहां रह रहे लोगों के लिए विस्थापन का दंश झेल कर लौटे कश्मीरी पंडितों का खुले दिल और खिले माथे स्वागत करना उतना आसान नहीं होगा। कश्मीर पंडित अकेले पड़ गए हैं। पृथकतावादियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की मांगें गैर- वाजिब हैं। वे कश्मीर घाटी में स्वायत्तता की बात करते हैं। खुद के शासन और आजादी की बात कह रहे हैं। यही वह बात जिसे लेकर उनका और कश्मीरी पंडितों के बीच गहरा मतभेद है। दोनों पक्ष एक जगह पर इन मुद्दों के मद्देनजर एक जगह नहीं बैठ सकते। उनमें मतभेद का यह एक बड़ा कारण है। यही कारण है कि कश्मीरी पंडितों के लौटने पर घाटी के दोनों समुदाय (कश्मीरी मुस्लिम और कश्मीरी हिंदू) एक साथ तो नजर आएंगे लेकिन उनके दिलों और में फर्क रहेगा। कश्मीर को लेकर उनकी सोच में खासा फर्क आ चुका है। कश्मीरी पंडितों ने घाटी में अपने घर-बार छोड़े ही इसलिए थे कि उन्हें पृथकतावादी बातों में शामिल होना मंजूर नहीं था। और अब वह पक्के मन बना चुके हैं कि घाटी में तभी लौटेंगे जब वहां पूरी तरह से भारतीय रंग में रंगा माहौल बने। वे चाहते हैं कि हालात इतने सामान्य हो जाएं कि उन्हें भारतीयता का हर कहीं अहसास हो। एक और कारण है जिसके चलते कश्मीरी पंडित घाटी में लौटना नहीं चाहते। करीब 85 प्रतिशत विस्थापित पंडितों ने अपने मकान-संपत्ति आदि बेच डाली हैं। या फिर उनके मकान- संपत्ति पर कब्जा किया जा चुका है। पहले घाटी में हिंदू-मुस्लिम-सिख-इतिहाद के नारे लगते थे जिनसे सामुदायिक सौहार्द का माहौल था। लेकिन अब वह बात नहीं रही। हालात एकदम से बदल गए हैं। शंकराचार्य, हरिपरबत, अनंतनाग जैसे नाम अब बदल गए हैं, उन्हें सुलेमान तेइंग, कोहिमारन, इस्लामाबाद जैसे मुस्लिम नामों से पुकारा जाने लगा है। आज हालत यह है कि कश्मीरी पंडितों को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक तमाम मोर्चो पर उनकी अनदेखी की जाती रही है। वे कानून का सम्मान करने वाले लोग हैं। अपने हाथ में कानून नहीं लेते। न ही सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। न ही किसी अन्य प्रकार की हिंसा में शामिल होते हैं। हालांकि उन्हें जिन हालात से जूझना पड़ रहा है, उन्हें देखते हुए वे ऐसा करें तो गलत नहीं होगा। वे अपने घरों को खो बैठे हैं। बहन-भाइयों से बिछड़ चुके हैं। उनके नेताओं की बिना वजह क्रूरता से हत्याएं की जा चुकी हैं। राज्य की विधानसभा, मंत्रिमंडल और संसद में उन्हें प्रतिनिधित्व देने में अनदेखी हुई है।
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रविवार, 8 दिसंबर 2013
कश्मीरी पंडितों के मसले भी करें हल
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