Posted by Astrologer Sidharth Jagannath
Joshi on बुधवार, फ़रवरी 05, 2014 with
एक दूसरे ग्रह का प्राणी विमान से छिटककर दूर जा गिरा और हमारे यहां बीकानेर में आ फंसा। आधी रात का समय था (अब उड़नतश्तरियां तो उसी समय घूमती है ना) एलियन भाई गिरते पड़ते किसी प्रकार दूर धोरे पर पहुंचना चाह रहे थे कि कुत्तों की नजर उन पर पड़ गई। एक ने भौंका और बाकियों ने सुर में सुर मिलाकर भौंक का भूकम्प ला दिया। कुछ हरावल दस्ते के कुत्ते को एलियन बाबू पर झपट भी पड़े।
एक बार तो वे कूद फांदकर बच गए। इतने में देखा कि एक आदमी जो दूर से निकल रहा था। (हमारे यहां ऐसे पराई पीड़ा को जानने वालों की भरमार है) उसने एक पत्थर उठाया और भद्दी गालियां निकालते हुए कुत्तों पर फेंका। कुत्ते दूर हट गए। आदम की परछाई हटी नहीं कि कुत्ते फिर मैदान में आ डटे। एलियन ने उस आदमी की दोनों गतिविधियों को गौर से देखा। गालियां जो उसने अपने एडवांस ब्रेन में रिकॉर्ड कर ली थी और एक्शन हथियार (पत्थर) उठाकर मारना। उसने गौर से जमीन की ओर देखा तो उसे बड़ी संख्या में हथियार फैले दिखाई दिए। वह बहुत खुश हुआ।
रिकॉर्ड की हुई आवाज को ज्यों का त्यों उच्चारित करते हुए वह झुका और हथियार को उठाने के लिए जोर लगाया, लेकिन हथियार जमीन में जोर से गड़ा हुआ था। पहले प्रयास में निकला नहीं। उसने और जोर लगाया, लेकिन हथियार निकला नहीं। इस बीच मुंह से ठीक वही आवाज निकालता रहा। कुत्ते एक बारगी तो पीछे हट गए, लेकिन जब उन्होंने देखा कि इतना अधिक घामड़ आदमी है कि सही पत्थर का भी चुनाव नहीं कर पा रहा है और गड़े हुए पत्थर पर अपनी अधिक शक्ति जाया कर रहा है तो वे और जोर से भौंकने लगे। काटने वाला कुत्ता गश्ती पर था नहीं, वरना काट पीट भी शुरू हो सकती थी।
काफी देर तक कुत्तों के भौंकने और एलियन के पत्थर निकालने के प्रयास जारी रहे। आखिर एलियन ने आखिरी हथियार अपनाया और छोटी स्टिक निकाली जो झाड़ू में बदल गई। उस पर बैठकर वहां से रवाना हो गया। इस बीच उसने कहा
"यह ग्रह बहुत खतरनाक है।
यहां हमलावर आजाद हैं
और हथियार बांधकर रखे गए हैं।"
कहानी यहां आकर खत्म नहीं हो जाती। दरअसल हमारे बाजार की भी कमोबेश यही स्थिति है। मैंने सुना है राज्य की अवधारणा कृषि के बाद शुरू हुई। कृषि में इतना उगता था कि खा पी लेने के बाद भी अधिशेष रह जाता था। इस अधिशेष पर कब्जे की कोशिश के मद्देनजर ही कुछ लोगों ने सुरक्षा, व्यवस्था और न्याय के लिए राज्य का गठन किया गया। अब राज्य के मूलभूत कार्यों में यह शामिल है कि राज्य का हर व्यक्ति इन चीजों के प्रति सहज रहे। आखिर राज्य बनाया ही इसीलिए गया कि इन आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए, इसके बाद इंसान आगे बढ़ने का प्रयास करे। लेकिन हो इससे उल्टा ही रहा है। हर इंसान इन आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए अपना पूरा जीवन व्यतीत कर रहा है।
अब बात करते हैं सट्टे की। सट्टे की मनोवृत्ति को एक सटोरिए ने बहुत शानदार तरीके समझाया। सुपर बाउल खेल में से कुछ जुआरियों को पकड़कर पुलिस ले जा रही थी। कार्रवाई के दौरान ही बारिश शुरू हो गई। इसी बीच कार में बैठे एक जुआरी ने पुलिस वाले से पूछा कि क्या तुम बता सकते हो कि कार की दोनों खिड़कियों की सिरे पर जो बूंदें लटक रही हैं, उनमें से कौनसी बूंद पहले नीचे आ गिरेगी। पुलिसवाला सोचने लगा। इतने में जुआरी हंसा, उसने कहा तुम हमें रोक नहीं सकते। हम कभी भी, कहीं भी, कैसे भी सट्टा कर सकते हैं।
यही सटोरिए एक दिन हमारे मुक्त बाजार के हिमायती सिस्टम में वहां घुस गए, जहां आम आदमी भी बुरी तरह प्रभावित होता है। अनाज में। देश के 95 प्रतिशत लोग अन्न पर निर्भर हैं। कुछ समुद्री किनारों वाले लोग भले ही मांस मच्छी नियमित खाने में खाते होंगे, लेकिन शेष लोग गेहूं, बाजरी, चावल, जौ, मक्का और दालों पर ही जिंदा हैं। इन लोगों को यह रोजाना न मिले तो व्यवस्था बिगड़ सकती है, लेकिन वर्ष इक्कीसवी सदी के पहले ही दशक में हमारे सामने बड़े सट्टा बाजार आ चुके थे। इन्हें नाम दिया गया कमोडिटी एक्सचेंज। एक है नेशनल कमोडिटी एस्कचेंज और दूसरा है मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज। इनके अलावा भी कई हैं, लेकिन भारत में ये सबसे बड़े हैं।
अपने शुरूआती दौर में इन एक्सचेंज में ग्वार और उड़द जैसी वस्तुओं पर अधिक सट्टा हो रहा था, लेकिन बाद में हर चीज को शामिल करते गए। आखिर एक दिन यह स्थिति आई कि किसान भले ही पहले की तरह भूखा मर रहा हो, लेकिन हैजर्स (यह कुलीन सटोरिए होते हैं), सटोरिए और जुआरी भावों को तय कर माल लूटने लगे। नतीजा यह हुआ कि आम उपभोक्ता तक पहुंच रही वस्तुएं इतनी महंगी हुई कि हाहाकर होने लगा।
जब किसानों ने देखा कि उन्हें बीज मिल रहा है दोगुने दाम में और फसल बिक रही है आधे दाम में तो उन्होंने बगावत कर दी। बाजार की स्थिति सामने दिख रही थी। सरकार झुक गई। सरकारी नियंत्रण के तहत फसलों का मूल्य तय करने के लिए एक आधारभूत राशि तय करने का प्रयास किया जाता है। जिसे सरकार समर्थन मूल्य कहती है। यानी किसानों से कहा जाता है आप तो फसल उगाओ, अगर नहीं बिकी तो कम से कम इस कीमत में तो हम ले ही लेंगे।
नतीजा यह हुआ कि हर साल समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी होने लगी। इस तेज बढ़ोतरी के बाद हर बार सट्ट बाजार और अधिक सक्रिय होकर फसलों के दाम और बढ़ाने लगा। नतीजा यह हुआ कि अन्न और दूसरे खाद्य पदार्थ और महंगे हुए।
मुक्त और नियंत्रित बाजार में ऊपर बताई गई कुत्ते और पत्थर वाली समस्या ही है। यहां कुत्ते आजाद हैं और पत्थर बंधे हुए हैं। सरकारी नियंत्रण समर्थन मूल्य को बढ़ाने के इतर और कुछ कर नहीं पाता और बाजार सरकारी नियंत्रण की इस बेबसी का जमकर फायदा उठाता है।
दूसरे देशों को देखें तो वहां या तो पूर्णतया सरकारी नियंत्रण है या पूर्णतया मुक्त बाजार है। भारत में दोनों व्यवस्थाएं होने से आखिर में केवल ट्रेडर और सटोरिया ही फायदे में नजर आ रहा है। या फिर सरकार पर दबाव बनाकर समर्थन मूल्य बढ़वाकर अपना माल बेचने वाले बड़े किसान (जो आमतौर पर रसूखदार लोग होते हैं) ही फायदा उठा रहे हैं।
अगर सरकार नियंत्रण रखती है तो उसे इस प्रकार का नियंत्रण रखना चाहिए कि किसान की जरूरत के मुताबिक उसे फसल का सही दाम मिल जाए और उपभोक्ता पर बिचौलियों की कसरतों का दबाव न आए। ऐसे में सरकारी नियंत्रण को सफल कह सकते हैं। वरना बिचौलिए अपना पेट भरते और बढ़ाते रहेंगे, किसान और उपभोक्ता अधिक पिसते और मरते रहेंगे।
या फिर बाजार को ही मुक्त कर दिया जाए। जिसे जिस भाव में जो सामान जहां मिल रहा है, वहीं खरीदे। इस खुले बाजार में जो शेर होगा वही चरेगा, न सरकार की जरूरत न नियंत्रण का दबाव। बाजार खुद ब खुद नियंत्रित हो जाएगा।
वरना पत्थर बंधे रहेंगे और कुत्ते भौंकते रहेंगे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें