Posted: 01 Feb 2014 04:47 PM PST
राहुल गांधी के पास यह बेहतरीन मौका था जब वे अपनी बात को अपने तरीके से देश की जनता के सामने रख सकते थे। कांग्रेस और राहुल ने अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए 500 करोड़ रुपए खर्च किए है। पर उसका असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। राहुल की सरलता को लेकर सवाल नहीं है। पार्टी की व्यवस्था को रास्ते पर लाने की उनकी मनोकामना को लेकर भी संशय नहीं है। पर वे अभी तक जो भी कह रहे हैं या कर रहे हैं, उसका बेहतर संदेश जनता तक नहीं जा रहा है। अर्णब गोस्वामी के साथ बातचीत में भी उन्होंने नरेंद्र मोदी पर हमला किया और उल्टे 1984 की सिख विरोधी हिंसा का विवाद उनके गले पड़ गया।
सन 1984 और 2002 की हिंसाएं आज भी हमारी राजनीति पर हावी हैं। बेशक इन दोनों घटनाओं के साथ महत्वपूर्ण बातें जुड़ीं हैं। पर राजनीति सिर्फ इतने तक सीमित नहीं रह जाएगी। हमें भविष्य की ओर भी देखना चाहिए। लगता है कि राहुल गांधी कांग्रेस को घेरने वाले जटिल सवालों की गम्भीरता से या तो वे वाकिफ नहीं हैं, वाकिफ होना नहीं चाहते या पार्टी और सरकार ने उन्हें वाकिफ होने नहीं दिया है। पिछले महीने ही कांग्रेस पार्टी ने अंतरराष्ट्रीय पब्लिक रिलेशंस कम्पनी बर्सन-मार्सटैलर और जापानी मूल की विज्ञापन कम्पनी डेंत्सु इंडिया को पार्टी की छवि सुधारने का काम सौंपा है। लगभग 500 करोड़ के बजट के इस काम का परिणाम कुछ समय में देखने को मिलेगा, पर राहुल का पहला इंटरव्यू कोई सकारात्मक संदेश देकर नहीं गया।
राहुल से उतने तीखे सवाल नहीं पूछे गए, जितने पूछे जा सकते थे। राहुल के खिलाफ व्यक्तिगत तो नहीं, पर रॉबर्ट वाड्रा को लेकर कुछ आरोप हैं। पर अर्णब ने वे बातें नहीं उठाईं। उनका इरादा उन्हें परेशान करने का नहीं था, बल्कि उनकी ही बात को सामने लाने का था। टाइम्स नाउ को इस इंटरव्यू के लिए जान-बूझकर चुना गया होगा। इसके पहले वे एक हिंदी अख़बार को भी इंटरव्यू दे चुके थे। अख़बार में बेहद मामूली सवाल पूछे गए थे। पर वे प्रिंट में थे। टीवी में व्यक्ति की मुखमुद्रा भी काफी कुछ कहती है। राहुल गांधी इस इंटरव्यू के मार्फत इस धारणा को नहीं तोड़ पाए कि वे नरेंद्र मोदी का सामना करने से घबराते हैं। उनसे सीधे पूछा गया कि क्या आप नरेंद्र मोदी का सीधा आमना सामना करने से बच रहे हैं। इसका सीधा जवाब देने के बजाय उन्होंने कहा, इसे समझने के लिए आपको यह भी समझना होगा कि राहुल गांधी कौन है और राहुल गांधी के हालात क्या रहे हैं।
जब उनसे जन सम्पर्क में देरी और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने की अनिच्छा के बाबत पूछा गया तो उन्होंने पूछने वाले से उल्टा सवाल किया, आप एक पत्रकार हैं। जब आप छोटे रहे होंगे तो आपने सोचा होगा कि मैं कुछ करना चाहता हूं, किसी एक पॉइंट पर आपने जर्नलिस्ट बनने का फैसला किया होगा, आपने ऐसा क्यों किया? इसपर अर्णब गोस्वामी ने कहा, आप मेरे सवाल का जवाब देने से बच रहे हैं। राहुल का जवाब था कि मुझे केवल एक चीज दिखाई देती है कि सिस्टम को बदलना है।
सिस्टम को बदलने की उनकी मनोकामना उनसे पूछे गए हर सवाल का जवाब थी। तीखे सवालों के तीखे जवाब देने के बजाय वे सवालों को टालते नजर आए। उनसे पूछा गया कि वे टूजी के मामले में कुछ क्यों नहीं बोले, कोलगेट मामले में चुप क्यों रहे? पवन बंसल और अश्विनी कुमार के मामले में संसद में छह दिन तक गतिरोध रहा, आपको नहीं लगता कि उस समय बोलना चाहिए था? महंगाई पर नहीं बोलना चाहिए था? दर असल ये वे सवाल हैं, जिनका जवाब जनता चाहती है। पार्टी के संगठन को लेकर उसकी जिज्ञासा उतनी नहीं है। ऐसे सवालों के जवाब में उन्होंने देश की बुनियादी समस्याओं का हवाला देना शुरू कर दिया। पर ऐसी कोई ठोस योजना पेश नहीं की, जो आश्वस्त करती हो।
उनके इस इंटरव्यू से भाजपा को फायदा हुआ या नहीं, पर इससे कांग्रेस कुछ खास फायदा नहीं ले पाई। इसका मतलब क्या यह है कि कांग्रेस ने हार मान ली है और वह 2014 के बाद के चुनाव के बारे में सोचने लगी है, जो अनिश्चितता के कारण दो-एक साल बाद भी हो सकते हैं? क्या राहुल गांधी लम्बी रेस के घोड़े के रूप में विकसित हो रहे हैं? ऐसा है तो 500 करोड़ के मेक ओवर की अभी जरूरत क्या है? कांग्रेस क्यों नहीं अपना जनाधार तैयार करती?गाँवों और मोहल्लों में रहने वाले मुफ्त के कार्यकर्ता सिर्फ माइक्रोफोन और दरी के सहारे चार पूड़ी खाकर अच्छा प्रचार कर सकते हैं। पर क्या कांग्रेस वही पुरानी कांग्रेस है, जिसने राष्ट्रीय आंदोलन चलाया था? क्या नेहरू-गांधी परिवार पर अतिशय-अवलम्बन कांग्रेस के पराभव का कारण नहीं है? क्या पार्टी को परिवार से बाहर निकल कर नहीं सोचना चाहिए? कांग्रेस पराजित हुई तो ये बातें लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद उठेंगी।
राहुल गांधी के समर्थकों का कहना है कि आगामी आम चुनावों में कांग्रेस की हार हुई तो उसका कारण राहुल गांधी नहीं बल्कि केंद्र सरकार होगी जो भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगा सकी। दूसरी ओर कहा जा रहा है कि मनमोहन सिंह सरकार स्वतंत्र नहीं थी। वास्तविक सत्ता पार्टी अध्यक्ष के पास थी। पार्टी के भीतर का एक सोच यह है कि चुनाव में अभी कुछ महीने बाकी हैं। इस बीच हालात बदल सकते हैं। केवल एक इंटरव्यू से नतीजे तय नहीं होते। करन थापर के कार्यक्रम में तीखे सवालों से परेशान होकर नरेंद्र मोदी बीच से ही उठ कर चले गए थे। मोदी भी राहुल की जगह एक घंटे तक सवालों का सामना करते तो लड़खड़ा जाते। पार्टी की योजना लगातार कई बड़े इंटरव्यू देने की है। हो सकता है कि अगले इंटरव्यू में उनका प्रदर्शन इससे बेहतर हो। राष्ट्रपति ओबामा भी 2012 में राष्ट्रपति पद के चुनाव से पहले हुई तीन टेलीविजन डिबेटों में से पहली में अपने प्रतिद्वंद्वी से पिछड़ गए थे। बाद में उनका प्रदर्शन बेहतर हुआ। दूसरी और उनके क़रीबी नेता यह भी कहते हैं कि पार्टी अगर चुनाव हारेगी तो यह खराब होगा, लेकिन हार के बहाने से राहुल उन नेताओं को पार्टी से अलग करने में कामयाब होंगे जो बोझ बने हुए हैं।
फिलहाल राहुल गांधी चाहें या न चाहें लोकसभा चुनाव दो नेताओं के इर्द-गिर्द ही लड़ा जाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टियों के दो चेहरे सामने हैं। शायद अरविंद केजरीवाल भी तीसरे चेहरे के रूप में सामने आएं। इनमें सबसे ज्यादा दबाव राहुल पर ही है। अगले दो-तीन महीने में वे मीडिया में अपनी छवि सुधार लें तब भी आसार अच्छे नहीं हैं। सन 1977 और 2014 की परिस्थितियों में बुनियादी फर्क है। इस चुनाव में आंधियों का अंदेशा है।
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