युद्ध की तैयारी हो चुकी है। ‘जनरल’ राहुल ज्यादा से ज्यादा यथासंभव खेल के बीचोंबीच आने के प्रयास में हैं। निराशा और शिकस्त की आशंका की इस घड़ी में कांग्रेस पूरे मन से लड़ने और भविष्य की तैयारी का जज्बा दिखा रही है |
राशिद किदवई एसो. एडिटर, द टेलीग्राफ |
चुनावी समय और मौसम है ‘प्रवासी पक्षियों’ के चहचहाने का है। कांग्रेस के कट्टर समझे जाने वाले कांग्रेसजनों ने बड़ी संख्या में इस सबसे पुरानी पार्टी को छोड़कर जाना शुरू कर दिया है। और इसी के साथ 1998 के शुरुआती दिनों की याद हो आई। उस समय सीताराम केसरी की अगुवाई में इसी प्रकार की भगदड़ मची थी, जिसके बाद सोनिया गांधी कांग्रेस में नेता के तौर पर उभरीं। सोनिया ने अपने काम को अच्छे से अंजाम देते हुए कांग्रेस परिवार को एकजुट किया। परिणामस्वरूप पार्टी 2004 और 2009 के चुनावों में लगातार जीत हासिल करते हुए सत्ता पर काबिज हुई। लेकिन वह तीसरी बार उतनी भाग्यशाली प्रतीत नहीं हो रहीं। नेतृत्व का लबादा अब उनके पुत्र राहुल गांधी ने धार लिया है, लेकिन हर दिन कोई सतपाल महाराज, जगदम्बिका पाल या पुरेन्द्री भाजपा में शामिल हो रही हैं। इस प्रकार के निराशाजनक पहलू का सामना कर रहे ‘जनरल’ राहुल गांधी ने अपने ज्यादातर कमांडरों को मोर्चो पर भेजना-चाहे वे जाना चाहें या न जाना चाहें-शुरू कर दिया है, ताकि कड़े संघर्ष का सामना कर रही पार्टी अपनी प्रतिष्ठा को कुछ तो बचाए रख सके। लोक सभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सूची में गुलाम नबी आजाद, कैप्टन अमरिन्द्र सिंह और अम्बिका सोनी सरीखे नेताओं के नाम हैं, जो शुरू में चुनाव न लड़ने के इच्छुक थे, लेकिन किसी की नहीं सुनने को तैयार राहुल के दबाव के चलते उन्हें मैदान में कूदना पड़ा है। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस नेता मानस भुइया, जो शुरू में चुनाव नहीं लड़ने की बात कह रहे थे, को घटाल संसदीय क्षेत्र से नामी अभिनेता देव का सामना करना पड़ रहा है। दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह को भाजपा की सुषमा स्वराज से मुकाबला करने को मध्य प्रदेश के विदिशा भेजा गया है। अमरिन्द्र, जो खुद को महाराजा कहलाना पसंद करते हैं, को अमृतसर में भाजपा के रणनीतिकार अरुण जेटली से मुकाबला करने को पार्टी ने सबसे उपयुक्त माना है। अमरिन्द्र, जो राजपरिवार से आते हैं, लोक सभा के सदस्य, विधायक और मुख्यमंत्री रहे हैं; लेकिन अब 72 साल की उम्र में और वह भी अपनी रियासत रहे क्षेत्र के अलावा कहीं और से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। पटियाला लोक सभा सीट से निवर्तमान सांसद परिनीत कौर, जो अमरिन्द्र की पत्नी हैं, चुनाव लड़ रही हैं। अम्बिका, जो अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की महासचिव के तौर पर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की सहयोगी हैं, को राहुल के करीबी माने जाने वाले रवनीत सिंह बिट्टू के स्थान पर आनन्दपुर साहिब से टिकट दिया गया है। पिछली बार वह लोक सभा का चुनाव बहुत पहले 1984 में मेरठ से लड़ी थीं, जहां उन्हें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी थी। अम्बिका उस समय कांग्रेस (एस) की टिकट पर राजीव गांधी द्वारा उतारे गए प्रत्याशी के मुकाबले चुनाव लड़ीं थीं। अम्बिका काफी समय से सोनिया की कोर टीम का हिस्सा रही हैं। वह 1975 में उस समय एकाएक राजनीति में मकबूल हो गई थीं, जब उन्हें युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। यह उठा-पटक का वह दौर था, जब संजय गांधी की देश में तूती बोल रही थी। यह
निपुण खिलाड़ी की तरह खेलते राहुल 2014 के चुनाव में लगता है कि राहुल यूपीए की खत्म होती बाजी की आखिर चाल निपुण शतरंज खिलाड़ी की भांति खेल रहे हैं। शतरंज के खेल में जब खेल खत्म होने को होता है, बादशाह आक्रामक रुख अख्तियार करते हुए बिसात के बीचोंबीच आ जाता है, जहां से वह आसानी से जहां कहीं जरूरी हो पहुंच सके। हालांकि बीचोंबीच आने के बाद मात देने वाली हर चाल के लिए बादशाह को कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उसकी कोशिश होती है कि विरोधी राजा की क्रियाशीलता को बांध कर रखे। उसे किसी भी सूरत में बीचोंबीच न आने दे। उसके इस रवैये का बाकी के प्यादे भी अनुसरण करते हैं। युद्ध की तैयारी हो चुकी है। जनरल राहुल इसलिए ज्यादा से ज्यादा यथासंभव खेल के बीचोंबीच आने के प्रयास में हैं। इस सारी कवायद में अम्बिका और आजाद तो प्यादे भर हैं, जो शहीदाना अंदाज में दिखलाई पड़ रहे हैं। लेकिन इसके अलावा कांग्रेस के भीतर कहीं गहरे पैठी कहानी भी है, जो अनायास परत दर परत खुल रही है। कांग्रेस में यह बदलाव का दौर है। बागडोर सोनिया से राहुल के हाथों में जा रही है। अम्बिका, आजाद और उन जैसे अन्य नेताओं के लिए संगठन में अपना दबदबा बनाए रखना पहले से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है। राहुल ने इन नेताओं को सीधे-सीधे नकारने या खारिज करने की बजाय ‘करो या मरो’ की तर्ज पर उन्हें अवसर देने का फैसला किया है। वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने हालात को भांप लिया है कि उनके सामने दो ही सूरत बची हैं-या तो लोक सभा का चुनाव जीत कर राहुल की नजरों में चढ़े रहें या फिर एक किनारे हो लें। सोचें कि आजाद या अम्बिका लोक सभा का चुनाव जीत लेते हैं, तो राहुल-नीत कांग्रेस में उनका किस कदर जलवा होगा। अभी राहुल मधुसूदन मिस्त्री, मोहन प्रकाश, जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह और उन जैसे नेताओं पर भरोसा करते हैं। इनके अलावा, गैर-राजनीतिक विशेषज्ञ या राजनीतिक परिवारों के युवा भी हैं, जिन्हें राहुल के करीबी माना जाता है। अम्बिका और आजाद जैसे नेता, जो संजय गांधी के समय से राजनीति में हैं, बखूबी यह हुनर जानते हैं कि कांग्रेस में अस्तित्व कैसे बचाए रखा जा सकता है। यदि चापलूसी, गुटबाजी से काम नहीं चल पा रहा तो वे ‘राहुल के तरीके’-चुनाव जीत कर प्रासंगिक बने रहने और ‘बिना जड़ के अजूबे’ के ठप्पे से निजात पा लेने-को अपमाने का प्रयास कर रहे हैं। 2014 के चुनावी नतीजों के इतर राहुल की रणनीति और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के रवैये से इस बेहद पुरानी पार्टी के लिए उम्मीद की किरण दिखलाई पड़ती है। निराशा और शिकस्त की आशंका की इस घड़ी में कांग्रेस पूरे मन से लड़ने और भविष्य की तैयारी का जज्बा दिखा रही है। संसदीय लोकतंत्र में लड़ने के जज्बे की सराहना किया जाना बेहद जरूरी है।
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