बुधवार, 2 अप्रैल 2014

उपेक्षा, कुंठा, खालीपन या फिर अवसरवादिता दल-बदल की तार्किकता की ऐतिहासिक अनुक्रमों से पड़ताल

उपेक्षा, कुंठा, खालीपन या फिर अवसरवादिता


अरुण वर्धन वरिष्ठ पत्रकार
धर्मनिरपेक्षता के मुखर प्रवक्ता एमजे अकबर, जिन्हें राजनीतिक पॉप स्तंभकार भी कह सकते हैं, कांग्रेस छोड़कर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी भाजपा में शामिल हो गए हैं। दलितों के मसीहा और सांप्रदायिकता के शाश्वत विरोधी रामविलास पासवान ने कथित सांप्रदायिक पार्टी भाजपा को अंगीकार कर लिया है। जद (यू) के अनेक बड़े नेता एवं उसकी पूरी दिल्ली इकाई भी भाजपा में शरीक हो गई है। पछ्रन्न कारण जो भी हो, प्रत्यक्ष कारण बताया गया कि उनके नेता साबिर अली को पार्टी ने निकाल दिया है, जिससे वे नाराज हैं जबकि सच्चाई यह है कि हवा का रुख देखकर जद (यू) सांसद साबिर अली पिछले कई माह से भाजपा से गुप्त सांठगांठ में लगे हुए थे। बड़े-बड़े रिटार्यड अधिकारी, लोकप्रिय संस्कृति से पनपी छोटी-बड़ी फिल्मी एवं टीवी हस्तियां, आरक्षण का दावानल भड़काने वाले सवर्ण-विरोधी छोटे-बड़े नेताओं, भारतीय उपराष्ट्रीयताओं से पनपी अलगाववादी हस्तियां अपने पारंपरिक रूढ़िवादी  सैद्धांतिक चौखट को लांघ कर नया राजनैतिक ‘सर्मन’

कंपोज कर रही हैं। पार्टियों के पाले बदल रही हैं। राजनीतिक पार्टियों ने भी सैद्धांतिक वर्जनाओं की तिलांजलि देकर पाला बदल सवारों को लोक सभा चुनावों के महोत्सव में शरीक कर लिया है। भाजपा ने अकबर को अपनी पार्टी का प्रवक्ता घोषित किया है, जो कि बेहद महत्त्वपूर्ण एवं संवेदनशील पद है। इस पाला बदल को ‘अवसरवादिता’, म्युजिकल चेयर की राजनीति, निष्ठा का बाजारू संस्करण या राजनीतिक अस्थिरता या घालमेल कह सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर किसी पार्टी या चुनाव चिह्न पर सदन में पहुंचने वाला राजनीतिज्ञ जब पाला बदलता है, तो आम तौर पर उसके पीछे उसकी मंशा सत्ता हथियाने या फिर उपेक्षा और सफलताओं से उपजी कुंठा और खालीपन को दूर करने की होती है ताकि जीवन में अर्थ एवं उद्देश्य का रंग भरा जा सके। भारत में पाला बदल की शुरुआत आजादी से दस वर्ष पहले से ही हो गई थी। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत हुए चुनावों (1937) में कांग्रेस का युनाइटेड प्राविंस में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। फिर भी मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुस्लिम लीग से पाला बदलने वाले विधायकों को सत्ता में शामिल कर लिया। उनके मुखिया हाफिज मोहम्मद इब्राहिम को मंत्री बनाया। इसी प्रकार, उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, नगालैंड, ओडिशा, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू- कश्मीर, मध्य प्रदेश, पंजाब, बिहार, प. बंगाल, कर्नाटक एवं गुजरात में विधायकों एवं नेताओं द्वारा पाला बदल या दल बदल की घटनाएं बार-बार दोहराई जाती रहीं। एक अनुमान के मुताबिक भारतीय लोकतंत्र में चार हजार पांच सौ से ज्यादा दल-बदल की घटनाएं हुई। दल-बदल की घटनाएं पहले भी होती थीं, जिसका मूल कारण सत्ता लोलुपता थी। परंतु आज भारत की नई पीढ़ी एक ऐसे पॉप संस्कृति में जी रही है जो पारंपरिक नैतिकताओं या रूढ़िगत नियमाचारों से मुक्त संस्कृति है। संवेदनहीनता इसकी विशेषता है। हिंसा पर टिकी इस संस्कृति का मुख्य नारा ‘सब कुछ जायज है, इस पीढ़ी के जीवन का मूल मंत्र बन गया है। अतीत से कटी इस बेतुकी संस्कृति के आलोक में ही भारत के राजनीतिक लोकतंत्र में बढ़ती हुई पाला-बदल की समस्या को ज्यादा गहराई से समझा जा सकता है। हम एक ऐसे उत्तर-आधुनिक समाज में रह रहे हैं; जहां अतीत, वर्तमान और भविष्य का अंतर चलता नहीं। भारत की वर्तमान राजनीतिक यात्रा पर यही उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियां हावी हैं, जो नवउदारवाद से पनपी वैश्वीकरण की देन है। भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक यात्रा में सन् 1990 के बाद की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने के बाद विस्मयकारी परिवर्तन देखने को मिले। राजनैतिक सिद्धांतों की वर्जनाएं टूटने लगीं। हिंदूवादी भाजपा के कट्टरपंथी नेता कांग्रेस में और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस के नेता भाजपा में जाने लगे। वामपंथ की ओर झुकी समाजवादी पार्टियों ने अपनी कट्टर आलोचना को ताक पर रखकर भाजपा के साथ मिलकर मिली-जुली सरकारें गठित कीं। मुस्लिम कठमुल्लाओं ने भाजपा के नेता मोदी की प्रशंसा शुरू कर दी और भाजपा में शामिल होने लगे। इन सब घटनाओं का मुख्य कारण विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सैद्धांतिक विशिष्टताओं के बीच की खाई मिटना है। सैद्धांतिक हठवाद का खूंटा छोड़कर पार्टियां व्यावहारिक राजनीति को उजागर बना रही हैं। वामपंथी दलों सहित सभी राजनीतिक पार्टियां कमोबेश कुछेक मुद्दों को छोड़कर अन्य सभी पर एकमत दिखती हैं। सत्ता में आने पर सभी पार्टियों का रवैया एक जैसा होता है। इसलिए उनके बीच की दीवारें लचीली हो गई हैं, परिणामस्वरूप किसी भी दल का नेता अन्य किसी भी पार्टी में शामिल हो सकता है। पार्टियों के आदर्शवाद पर व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित उद्देश्यपरकता की चादर चढ़ गई है। कांग्रेस में धर्म एवं धर्म निरपेक्षता पर चलने वाली अंतर्दलीय र्चचाएं, या भाजपा में भूमंडलीकरण बनाम स्वदेशी पर छिड़ने वाली बहसें दम तोड़ने लगी हैं। भाजपा, कांग्रेस या वामपंथी दलों में धर्मनिरपेक्षता पर उनके विचार उनकी विशिष्टिताएं तय करती थीं। मगर अब पार्टी फोरम पर उन विचारों की प्रतिध्वनियां सुनने को कम मिलती हैं। यह हैरतनाक है कि क्षेत्रीय दलों या जाति समूहों की राजनीति पर टिकी पार्टियों को भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में कोई परहेज नहीं है जिसके नेताओं ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में खुलेआम सहयोग दिया और जिनका मुस्लिमिवरोधी रवैया किसी से छिपा नहीं रहा। नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, जयललिता, ममता बनर्जी एवं मायावती को भाजपा से ऐतराज नहीं था। धर्मनिरपेक्ष, जातिवादी क्षेत्रीय पार्टियों के भाजपा से हाथ मिलाने की व्यावहारिक राजनीति में भाजपा में होने वाले राजनीतिक परिवर्तन में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। सातवें दशक के दौरान भाजपा ने अपनी उग्रवादी चरमपंथी हिंदूवादी राजनीति में नरमी के संकेत देने प्रारंभ कर दिये थे ताकि अखिल भारतीय स्तर पर उसकी स्वीकार्यता बढ़े। सन् 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल लागू होने के बाद भाजपा (उस समय जनसंघ) को जनता पार्टी के साथ आने का अवसर मिला, और 1977 के लोक सभा चुनावों में उसके सबसे अधिक उम्मीदवार जीतकर आये। उस सरकार के दौरान जनसंघ ने ‘उग्र हिंदू राष्ट्रवाद’ के स्थान पर ‘हिंदू परंपरावाद’ का रास्ता अख्तियार किया। नवें दशक के दौरान रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण के आंदोलन और आडवाणी की रथयात्रा की उग्रता ने एक राष्ट्रीय संकट को जन्म दिया था लेकिन देश में दक्षिणपंथी राजनीति की सीमाओं के चलते और सत्ता हस्तांतरण की महत्त्वाकांक्षा ने भाजपा को धीरे-धीरे मध्यमार्गी राजनीति की पटरी पर ला दिया है। क्षेत्रीय पार्टियों और जातीय समूहों को समाहित करने की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा के कारण भी भाजपा के लिए दक्षिणपंथी सैद्धांतिक स्वरूप को बचाकर रखना संभव नहीं है। लोक सभा के इस महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक चुनावी समर में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने एक बार भी रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण, या कट्टरपंथी विचारधारा के मुद्दों को नहीं छेड़ा है। इसने सभी पार्टियों और कथित सैद्धांतिक विचारधारा के नेताओं को हवा का रुख देखकर मौकापरस्त राजनीति का अवसर प्रदान किया है। भारतीय राजनीति पर हिंदू राष्ट्रवाद का साया मंडरा सकता है लेकिन यह निश्चित है कि भारतीय लोकतंत्र का राजनैतिक रुझान मध्यमार्गी ही होगा। व्यावहारिक राजनीति अपनाने की मजबूरी विश्वव्यापी स्तर पर देखने को मिल रही है। अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी ब्रिटेन की लेबर पार्टी और विश्व के अनेक वामपंथी दलों को मुक्त बाजार की नीतियां अपनानी पड़ी हैं। भाजपा से सैद्धांतिक टकराव के बावजूद अनेक भारतीय राजनीतिक पार्टियों ने दक्षिणपंथी राजनीति को अपना आधार बनाया। कुछ मतभेदों के बावजूद लगभग सभी भारतीय राजनीतिक पार्टियां आर्थिक नीतियों के मुद्दों पर एकमत हैं। केंद्रीय सत्ता एवं राज्य सरकारों पर काबिज होने वाली कोई भी पार्टी, चाहें उसका कोई भी सिद्धांत हो नवउदारवाद आर्थित नीतियों से पलटना नहीं चाहता। इसने विभिन्न पार्टियों के सैद्धांतिक मतभिन्नता को एकरूपता प्रदान कर दी है।

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