बुधवार, 2 अप्रैल 2014

भाजपा में परेशान और हलकान बुजुर्ग


पार्टी में चल रहे घमासान पर नजर डालें तो उसके केंद्र में ज्यादातर सत्तर के पार वाले हैं। तो कहें कि भाजपा में यह वृद्धों की बगावत है। पार्टी का युवा खामोश है। वह अपना अवसर छिनता देख कर भी पार्टी के फैसले को खुशी-खुशी मानने को तैयार है। लेकिन पार्टी के बूढ़े हैं कि मानते नहीं। लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर लाल मुनि चौबे तक कोई सब्र करने को तैयार नहीं है
प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार
देश का मतदता भारतीय जनता पार्टी को एक अवसर देने को तैयार लग रहा है। पर भाजपा है कि कह रही है कि पहले अपने से और अपनों से हिसाब किताब कर ले, फिर चुनाव देखेगी। पार्टी के अंदर का घमासान अब सड़क पर आ गया है। अब यह तो भाजपा में ही हो सकता है कि पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं में से एक पार्टी के फैसले के खिलाफ ट्वीट करने की पार्टी अध्यक्ष से इजाजत मांगे और इजाजत मिल भी जाय। पार्टी में चल रहे इस घमासान पर नजर डालें तो उसके केंद्र में ज्यादातर सत्तर के पार वाले हैं। तो भाजपा में यह वृद्धों की बगावत है। पार्टी का युवा खामोश है। वह अपना अवसर छिनता देखकर भी पार्टी के फैसले को खुशी- खुशी मानने को तैयार है। लेकिन पार्टी के बूढ़े हैं कि मानते नहीं। लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर लाल मुनि चौबे तक कोई सब्र करने को तैयार नहीं है। सब सरकार बनने से पहले ही शपथ लेने के लिए तैयार बैठे हैं। भाजपा में नेतृत्त्व के स्तर पर पिछले एक साल में पीढ़ी का परिवर्तन हो चुका है। इस परिवर्तन को रोकने की हर कदम पर कोशिश हुई। पहले राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनने से रोकने का प्रयास हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दखल से ही राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन पाए। आडवाणी खेमे ने राजनाथ सिंह को रोकने के लिए आखिर में नितिन गडकरी (जिन्हें दूसरा कार्यकाल न मिलने में उनकी प्रमुख भूमिका थी) से भी हाथ मिलाने में उन्होंने संकोच नहीं किया। उसके बाद दूसरा मोर्चा खुला मोदी को पहले चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने और फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के मुद्दे पर। आडवाणी खेमे का मोदी के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क वही था, जो मोदी के धुर विरोधियों का। कहा गया कि मोदी को नेतृत्त्व सौंपने से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होगा, एनडीए टूट जाएगा और चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को नुक्सान हो जाएगा। आडवाणी को अचानक शिवराज सिंह चौहान में अटल बिहारी वाजपेयी की छवि नजर आने लगी। पार्टी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना रही थी और आडवाणी और सुषमा स्वराज नीतीश कुमार को आश्वासन दे रहे थे कि हम मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने नहीं देंगे। पार्टी में अपने विरोधियों के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए। जसवंत सिंह का ताजा उदाहरण ले लीजिए। वे कह रहे हैं कि पार्टी में ऐसे लोग आ रहे हैं, जिनका इससे पहले पार्टी से कोई लेना-देना नहीं था। बात तो सही है। लेकिन यह भी सही है कि जब किसी संगठन का विस्तार होता है तो ऐसे लोग आते ही हैं। जसवंत सिंह शायद भूल गए कि 1980 में जब वे भाजपा में आए थे तो उससे पहले उनका पार्टी से कोई लेनादेना नहीं था। उन्हें पार्टी ने लोक सभा में भेजा, 1998 में चुनाव हार गए तो राज्य सभा में भेजा, मंत्री बनाया, मंत्री नहीं रहे तो पार्टी में पद दिया। उनके बेटे को पहले लोक सभा और फिर अब विधानसभा में भेजा। पर वे इतने से संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें और चाहिए। पार्टी में एक चुनाव नहीं लड़ने को कहा तो उनके साथ धोखा हो गया। लाल मुनि चौबे चुनाव हारें या जीतें; बक्सर सीट पर उनका दावा स्थाई है। कलराज मिश्र, डा. मुरली मनोहर जोशी, राजगोपाल (केरल) जैसे नेताओं की कमी नहीं है, जो यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि नए लोगों को या उनके अलावा किसी और को भी मौका मिलना चाहिए। उनके लिए पार्टी के हित से ज्यादा अहम मसला अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने का है।भाजपा की समस्या यह है कि उसके वरिष्ठ नेताओं की सत्ता की पिपासा शांत ही नहीं हो रही है। वे पार्टी में बदलाव तो चाहते हैं पर अपने अलावा। ये नेता अगली पीढ़ी के लिए जगह खाली करने को तैयार ही नहीं हैं। नेतृत्त्व के स्तर पर भाजपा में अगली पीढ़ी ने सत्ता संभाल ली है। पर पुरानी पीढ़ी इस वास्तविकता को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है। भाजपा में इस समय नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह और अरु ण जेटली की त्रिमूर्ति काबिज हो गई है। इन बुरी खबरों के बीच पार्टी के नजरिए से समझदारी की बात लाल जी टंडन ने बुधवार को लखनऊ में राजनाथ सिंह का स्वागत करते हुए कही। उन्होंने कहा कि ‘हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि पार्टी में नया निजाम आ गया है क्योंकि जब आप सत्ता पाने की कोशिश करते हैं तो परिवर्तन अवश्यम्भावी और स्वाभाविक है। जो लोग नए नेतृत्त्व में आए हैं; वे वही हैं, जिन्हें हमने बनाया और आगे बढ़ाया।’ दरअसल, इस तरह की बात लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की ओर से आनी चाहिए थी। लाल जी टंडन ने उन्हें आईना दिखाया है। भाजपा में इस समय दूसरी समस्या है नए आने वालों की; जो आगे चलकर बड़ी हो सकती है। पार्टी इस समय हर उस व्यक्ति को लेने को तैयार है, जो आना चाहता हो। यही कारण है कि एक दिन पहले कांग्रेस का टिकट लेकर दूसरे दिन भाजपा के दरवाजे पर खड़े होने वालों का भी पार्टी स्वागत कर रही है। पिछले बारह साल से भाजपा और नरेन्द्र मोदी को पानी पीकर कोसने वाले राम विलास पासवान का भाजपा में आना चुनाव के लिए जरूर फायदेमंद हो सकता है। पर क्या पार्टी की छवि, संगठन और उसकी नीतियों के लिए पासवान का आना फायदेमंद है। राम विलास पासवान राजनीतिक अवसरवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार का सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं। ये वही पासवान हैं, जो बिहार विधानसभा चुनाव के समय अपने मंच पर एक ऐसे व्यक्ति को बिठाते थे जो ओसामा बिन लादेन जैसा लगता था। जो नेता मुसलिम वोटों की खातिर दुनिया के इतने बड़े आतंकवादी का समर्थक हो सकता है, उसको साथ लेकर भाजपा क्या साबित करना चाहती है? यह ठीक है कि संगठन बढ़ता है तो कई तरह के नए लोग आते हैं। लेकिन सवाल है कि उनकी उपयोगिता पर भी तो ध्यान देना चाहिए। जगदंबिका पाल और श्यामाचरण गुप्ता भाजपा को क्या देंगे? ऐसे लोगों के आने से पार्टी के लिए सालों से निष्काम भाव से काम करने वाले निराश और हताश होते हैं। किसी भी पार्टी का नेतृत्त्व जब पार्टी में ऐसे लोगों को लाता है, जो पार्टी की ताकत में इजाफा कर सकें तो आम कार्यकर्ता उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं करता। लेकिन संगठन के विस्तार के नाम पर जब ऐसे लोग आते हैं, जो पार्टी के लिए सिर्फ बोझ हैं तो बात बिगड़ने लगती है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसे लोगों को तरजीह दी है, जो आगे चलकर पार्टी के लिए सिरदर्द बनने वाले हैं। यह ऐसी मुश्किल है, जिसे भाजपा-नेतृत्त्व ने खुद चुना है। उसका खमियाजा भुगतने के लिए भी उसे तैयार रहना चाहिए।

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