जीवन संग्राम में परमात्मा की कृपा का होना नितांत आवश्यक है। आपके अंतर्मन में प्रभु का स्मरण रहेगा तो जीवन यात्रा निर्विघ्न पूरी होगी। संग परमात्मा रहे, सत्य रहे, संग धर्म रहे, मानवता रहे। अगर ये हमारे संग रहे तो चिंता करने की कोई बात नहीं। जैसे अर्जुन के सद्गुणों की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बनकर आए थे। तभी तो कहते हैं-जहां धर्म है वहां कृष्ण हैं। जहां कृष्ण हैं वहां विजय सुनिश्चित है। प्रभु संग रहते हैं तो कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर सकता, परंतु जीवन में ये सद्गुण तभी कायम रह सकते हैं जब हम सजग व सतर्क रहें। अपने हर कर्म को पूजा बना लें। साथ ही, उसका चिंतन करें। उसे अनुभूत करें।
परमात्मा के चिंतन से चिंता स्वयं समाप्त हो जाती है। दुख-चिंता-मुसीबत, इन सबके बादल प्रभु कृपा से जीवन में छट जाते हैं। हमारे प्रारब्धवश, कर्मवश ये बादल बार-बार आते रहते हैं। कई बार बरसते भी हैं, लेकिन हमारे प्रभु यदि एक छाता हाथ में पकड़ा दें, तो दुख रूपी बरसात से काफी हद तक छुटकारा मिलता है। ध्यान रहे, ये संसार दुखालय है। एक दुख हटता नहीं, दूसरा सिर पर मंडराने लगता है। एक परेशानी दूर होती नहीं कि दूसरी सिर उठा लेती है। यह संसार परिवर्तनशील है। यहां कुछ भी स्थिर नहीं है। प्रभु की कृपा हर पल, हर क्षण हमारे ऊपर बनी रहती है। हम उस कृपा को समझें या न समझें।
हमारी संस्कृति युद्ध के चिंतन की नहीं है, यह धर्मानुसार जीवन जीने का चिंतन देने वाली संस्कृति है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य का उद्घोष भारतीय संस्कृति और सभ्यता के रक्षार्थ किया था। वह भी युद्ध नहीं चाहते थे, परंतु धर्म के रक्षार्थ उन्हें दुष्टों के दमन के लिए युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा। भगवान श्रीराम ने रावण को बहुत समझाया। नहीं माना तो सोने की लंका भी गई। हमारे देश में अवतरित होने वाले हर अवतार के पीछे जन्म लेने वाले महापुरुष के पीछे कोई न कोई सोद्देश्य होता है। यह मानव देह परमात्मा की अनंत कृपा के बाद मिली है। हमें इसे माध्यम बनाते हुए अपने व्यक्तित्व को सर्र्वांगीण बनाकर ध्यान-साधना के जरिये ईश्वर की अनुभूति करनी चाहिए।
[स्वामी हरिचैतन्यपुरी कामां]
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