तमिलनाडु सरकार द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को रिहा करने का फैसला क्या रेखांकित करता है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हत्यारों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदले जाने के दूसरे ही दिन तमिलनाडु सरकार ने तीन दिनों के अंदर उन्हें रिहा करने की घोषणा की थी, जिस पर फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। तमिलनाडु सरकार के निर्णय पर कांग्रेस के युवराज की नाराजगी सामने आते ही केंद्र सरकार फौरन हरकत में आ गई। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे न्याय के सभी सिद्धांतों के खिलाफ बताया है। उन्होंने राजीव गांधी की हत्या को देश की आत्मा पर हमला बताते हुए आतंकवाद के नाम पर राजनीति नहीं करने की नसीहत दी है।
इस बात में दो राय नहीं कि राजीव गांधी के हत्यारों को सजा मिलनी चाहिए, उन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए, किंतु स्वाभाविक प्रश्न है कि वोट बैंक के लिए आतंकवाद से समझौता करने का यह क्या अकेला उदाहरण है? राहुल गांधी तमिलनाडु सरकार के फैसले से स्वाभाविक तौर पर आहत हैं, किंतु 2008 में नलिनी और मुरुगन से मिलने प्रियंका वाड्रा वेल्लोर जेल क्यों गई थीं? क्या यह सच नहीं कि दक्षिण भारत के दौरों में कई बार स्वयं सोनिया गांधी भी राजीव गांधी के हत्यारों को माफ करने की सार्वजनिक इच्छा प्रकट करती आई हैं? क्या 1984 के दंगों के मामले में हत्या के आरोप में उम्रकैद काट रहे एक आरोपी को रिहा करने की सिफारिश दिल्ली की कांग्रेसी सरकार ने नहीं की थी? क्या यह आरोप गलत है कि वोट बैंक की राजनीति के कारण ही देश की संप्रभुता के प्रतीक संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु की फांसी की सजा सालों लटकाए रखी गई?
अभी हाल ही में देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर आतंकवाद के सिलसिले में गिरफ्तार मुस्लिम युवाओं की यथाशीघ्र रिहाई सुनिश्चित करने की अपील की थी। क्या यह सच नहीं कि स्वयं प्रधानमंत्री भी इस दिशा में गंभीर हैं? शिंदे ने आतंकवाद के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं की नाजायज गिरफ्तारी नहीं होने देने को सुनिश्चित करने के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को गलत तरीके से गिरफ्तार ऐसे युवाओं को न केवल तत्काल रिहा करने, बल्कि उन्हें समुचित मुआवजा देने की भी सलाह दी है। क्या इसी लीक पर आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने आतंकवाद के सिलसिले में गिरफ्तार मुस्लिम युवाओं की अदालत से रिहाई होने के बाद उन्हें मुआवजा देने की नई परंपरा प्रारंभ नहीं की है?
आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने 18 मई, 2007 को हुए मक्का मस्जिद बम विस्फोट में गिरफ्तार 21 मुस्लिम युवाओं को मुआवजा देने का निर्णय लिया है, जिन्हें पांच साल के कारावास के बाद पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में रिहा किया गया है। एक मजहब विशेष के साथ ही यह हमदर्दी क्यों? मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित, स्वामी असीमानंद पांच वषरें से जेल में बंद हैं। आज तक चार्जशीट में उनका नाम तक नहीं है। उनके साथ न्याय के सिद्धांत लागू क्यों नहीं होते? प्रधानमंत्री बताएं कि दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद हुए इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत को कलंकित कर उस मुठभेड़ को फर्जी बताने वाले कांग्रेसी नेता व मंत्री दंडित क्यों नहीं किए गए? गुजरात में मारी गई इशरत जहां आइबी के अनुसार लश्करे तैयबा की आतंकी थी। इसे एफबीआइ की गिरफ्त में आए आतंकी डेविड हेडली ने भी स्वीकारा है। फिर सीबीआइ के हाथों आइबी और गुजरात सरकार को कठघरे में खड़ा करने के पीछे कौन सी मानसिकता काम कर रही है? अभी जर्मन बेकरी धमाके के आरोपी हिमायत बेग को महाराष्ट्र एटीएस की जांच के आधार पर निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी, जिसे एनआइए बेदाग बता रही है। राजनीतिक लाभ के लिए जांच एजेंसियों के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर सरकार आतंकवाद से कैसे लड़ सकती है? राजीव गांधी के हत्यारों की मौत की सजा उम्रकैद में बदले जाने के खिलाफ सरकार पुनरीक्षण याचिका डालने वाली है, किंतु कोयंबटूर धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी के मामले में ऐसा क्यों नहीं किया गया? 16 मार्च, 2006 को होली की छुट्टी के दिन केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर साठ निरपराधों की हत्या के आरोपित एक आतंकवादी, अब्दुल नासेर मदनी की रिहाई के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव कांग्रेसियों और मार्क्सवादियों ने पारित किया था। पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में 2007 में सत्र न्यायालय ने उक्त आरोपी को दोषमुक्त कर दिया, किंतु उस निर्णय के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील नहीं की गई। स्वयंभू मानवाधिकारी आतंकवाद, हत्या, दुष्कर्म के आरोप में अदालत द्वारा सुनाई गई मौत की सजा को कारावास में बदलने की वकालत करते हैं। वस्तुत: 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने मारे गए लोगों के जीवन से अधिक हत्यारे के जीवन को प्राथमिकता देते हुए फांसी की सजा 'विरल से विरलतम' मामलों में ही देने की बात की थी। न्यायालय के इस दृष्टिकोण का स्वयंभू मानवाधिकारियों ने खूब दोहन किया है।
आधिकारिक स्नोतों के अनुसार राजीव गांधी के हत्यारों समेत देश भर में करीब 300 ऐसे अपराधी हैं जिनकी मौत की सजा लंबित है। यह ठीक है कि भारत एक सभ्य समाज का नेतृत्व करता है और स्वाभाविक तौर पर इस नैसर्गिक विधान को भी मानता है कि जब किसी को जान देने की क्षमता नहीं है तो उसे किसी के प्राण लेने का भी अधिकार नहीं है, किंतु सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले आतंकियों के साथ किसी तरह नरमी नहीं की जानी चाहिए।
कांग्रेस ने राजनीतिक अवसरवाद के लिए देश की सुरक्षा से कई बार समझौते किए और उसे उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। पंजाब में भाजपा-अकाली दल की एकजुटता तोड़ने के लिए इंदिरा गांधी ने भिंडरावाले को राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया, जिसकी परिणति ऑपरेशन ब्लूस्टार और स्वयं इंदिरा गांधी की हत्या में हुई। राजीव गांधी की बर्बर हत्या के लिए भी लिट्टे के साथ तत्कालीन सत्ता अधिष्ठान की अदूरदर्शिता जिम्मेदार है। क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए जब इस तरह के दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं तो उसका खामियाजा सभ्य समाज को ही भुगतना होता है। आज नक्सली हिंसा से देश के ढाई सौ जिले त्रस्त हैं तो इस्लामी आतंक से कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोग खौफजदा हैं। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, इसलिए मजहब के आधार पर किसी आतंकी को रिहा करने की अपील देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है।
राजीव गांधी के हत्यारे देशघाती हैं। देशघातियों के साथ उदारता बरतना दानवाधिकार की वकालत करना है। वस्तुत: आतंकवाद के खिलाफ जंग में मानवाधिकार का मुद्दा गौण हो जाता है। हमें सभ्य समाज के मानवाधिकारों की चिंता करनी चाहिए। आतंकवादी गतिविधियों से सामाजिक सौहार्द तो भंग होता ही है, यह हमारे आर्थिक ढांचे को भी पंगु करता है। आतंकवादी मानवता के दुश्मन हैं और मानवीय मूल्यों पर उनकी कोई आस्था नहीं होती। यदि हमें सभ्य समाज की रक्षा करनी है तो आतंकी के मानवाधिकार की अवसरवादी चिंता त्यागनी होगी।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा के सदस्य हैं]
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