बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

संसद में शरारती मशीन


राजीव सचान
संसद में शरारती मशीन
यह देखना-सुनना सुखद और आश्चर्यजनक था कि 15वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के आखिरी दिन पक्ष-विपक्ष के सदस्यों ने एक-दूसरे की तारीफ में कसीदे काढ़े। करीब-करीब सभी ने माना कि इस लोकसभा में वक्त की बर्बादी के साथ तमाम ऐसे काम हुए जिनसे सदन की छवि गिरी और लोगों के बीच अच्छा संदेश नहीं गया। इसके साथ ही यह कहकर संतोष भी जताया गया कि इसी लोकसभा ने राष्ट्रीय महत्व के कई विधेयक भी पारित किए। उदाहरण के तौर पर लोकपाल बिल, खाद्य सुरक्षा बिल, भूमि अधिग्रहण बिल का उल्लेख किया गया। नि:संदेह ये विधेयक उल्लेखनीय कहे जाएंगे, लेकिन यह हैरत की बात है कि किसी ने संकेत रूप में भी लोकसभा की कार्यवाही का प्रसारण रोके जाने की घटना का जिक्त्र नहीं किया। ऐसा तब हुआ जब यह बिल्कुल साफ है कि इस प्रसारण बाधा ने संसद की साख पर बट्टा लगाया। प्रसारण बाधित होने के दिन तो खूब हल्ला-गुल्ला मचा और उसके अगले दिन भी नाराजगी के कुछ स्वर सुनाई दिए, लेकिन इसके बाद ऐसा जाहिर किया गया जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि चिंताजनक भी है कि सभी इससे सहमत-संतुष्ट नजर आ रहे हैं कि महज तकनीकी खामी से उस वक्त लोकसभा की कार्यवाही का प्रसारण नहीं हो सका जब सदन में तेलंगाना विधेयक पारित किया गया। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि देश को अंधेरे में रखकर एक नए राज्य के गठन का विधेयक पारित किया जाए?
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ऐसा जानबूझकर किया गया। शायद इसीलिए ताकि अगर स्प्रे छिड़कने या माइक तोड़कर उसे चाकू की तरह लहराने की हरकत फिर से हो तो उसे देश देखने से बच सके। प्रसारण रोके जाने का संदेह इससे भी होता है कि जब कुछ सांसदों ने इस पर आपत्तिजताई तो सत्तापक्ष के सांसदों ने कहा कि आप व्यवस्था पर सवाल नहीं उठा सकते। शाम तक यह बताया जाने लगा कि दरअसल तकनीकी खामी की वजह से प्रसारण बाधित हो गया था। इस कथित कारण के उल्लेख से संदेह का निवारण इसलिए नहीं होता, क्योंकि प्रसारण ठीक उसी वक्त बंद हुआ जब सुशील कुमार शिंदे तेलंगाना विधेयक पर चर्चा के लिए अपनी सीट से खड़े ही हुए थे। अगर एक क्षण के लिए इसे दुर्योग मान लें तो भी यह समझना कठिन है कि लोकसभा टीवी की स्क्त्रीन पर 'संसद की कार्यवाही स्थगित' लिखकर क्यों आया? इसके बाद यह संदेश बदल कर 'प्रसारण थोड़ी देर में' क्यों हो गया? कोई भी उपकरण अथवा मशीन इतनी शरारती अथवा समझदार नहीं हो सकती कि स्वत: प्रसारण भी बाधित कर दे और दर्शकों को गुमराह करने वाला संदेश भी प्रसारित कर दे। जैसी परिस्थितियों में लोकसभा का प्रसारण नहीं हो सका अथवा नहीं होने दिया गया उन्हें देखते हुए कोई भी इस पर यकीन करने वाला नहीं है कि यह किसी मशीन के यकायक काम न करने का दुष्परिणाम रहा।
अच्छा होता कि उन कारणों की तह तक जाया जाता जिनके चलते लोग अंधेरे में रहे। दुर्भाग्य से ऐसा न होने के ही आसार हैं। इस संदर्भ में इस तर्क की आड़ ली जा रही है कि व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। लोकतंत्र में ऐसे तकरें के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। लोकतंत्र में जिस किसी के आचरण को लेकर सवाल उठते हों उनके जवाब मिलने ही चाहिए। लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र है जब तक किसी को भी जायज सवालों के दायरे से बाहर रहने की सुविधा न मिले। जिस तरह इस सवाल का जवाब मिलने के आसार कम हैं कि लोकसभा का प्रसारण ठीक-ठीक किन कारणों से रुका वैसे ही अभी तक इस सवाल का जवाब भी आज तक नहीं मिल सका है कि दिसंबर 2011 में राच्यसभा रात 12 बजे तक लोकपाल विधेयक पर निरर्थक चर्चा क्यों करती रही? तब पूरा देश टकटकी लगाए राच्यसभा की कार्यवाही देख रहा था, क्योंकि लोकपाल विधेयक पारित होने की उम्मीद थी। किन्हीं अज्ञात कारणों से बहस थी कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। आखिर जब रात के 12 बज गए और इसी के साथ सदन की अवधि खत्म हो गई तो एक सांसद ने पूछ ही लिया-महोदय अब क्या होगा? जवाब मिला-होना क्या है, अब आप लोग घर जाइए। यह जवाब जनता के मुंह पर किसी तमाचे से कम नहीं था।
संसद से जुड़ा एक और प्रश्न भी अभी तक अनुत्तारित है। यह वोट-नोट अथवा नोट-वोट कांड से संबंधित है। मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में विश्वास मत प्रस्ताव के समय भरे सदन में नोटों के बंडल लहराए गए थे, लेकिन यह आज तक पता नहीं चल सका कि ये नोट किसके थे? ऐसा तब हुआ जब प्रधानमंत्री के साथ-साथ तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी इस मामले की तह तक जाने का भरोसा दिलाया था। क्या यह अजीब और अविश्वसनीय नहीं कि जिस मामले की गहन जांच का भरोसा खुद प्रधानमंत्री ने दिया हो वह अभी तक पहेली बना हुआ है? अगर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दखल नहीं दिया होता तो शायद आधी-अधूरी जांच करके ही कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई होती। लोकसभा का प्रसारण बाधित होने के मामले में सरकारी पक्ष के पास एक और तर्क यह है कि राजग सरकार के समय भी तब प्रसारण रोक दिया गया था जब गुजरात दंगों को लेकर सदन में निंदा प्रस्ताव आया था। यह तर्क नहीं कुतर्क है। राजनीतिक परंपराएं और मर्यादाएं ऐसे ही कुतकरें के कारण ध्वस्त होती जा रही हैं। अतीत में हुए किसी तरह के गलत कायरें को अन्य राजनीतिक दल न केवल नजीर की तरह लेते हैं, बल्कि उनके जरिये अपना बचाव भी करते हैं। पहले कांग्रेस ने कुछ गलत किया था तो उसके आधार पर भाजपा अपने गलत को सही बताती है। इसी तरह भाजपा के गलत कामों की आड़ लेकर कांग्रेस खुद को सही साबित करती है। अगर लोकसभा की कार्यवाही का प्रसारण रुकने का जवाब नहीं मिला तो आगे फिर ऐसा हो सकता है।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

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