सोमवार, 7 अप्रैल 2014

भटकते राहुल गांधी क्या खोज रहे हैं

Posted: 12 Mar 2014 08:36 AM PDT
देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। दिल्ली में कुलियों के बीच। झारखंड में आदिवासियों के बीच,बनारस में रिक्शा, खोमचे वालों के साथ तो गुजरात में नमक बनाने वालों के बीच। और संयोग देखिये कि 1930 में जिस नमक सत्याग्रह को महात्मा गांधी ने शुरु किया उसके 84 बरस बाद जब राहुल गांधी ने नमक से आजादी का सवाल टटोला तो नमक की गुलामी की त्रासदी ही गुजरात के सुरेन्द्रनगर में हर मजदूर ने जतला दी। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के दौर में नमक बनाने वालों का दर्द वहीं है जो महात्मा गांधी के दौर में था। अंतर सिर्फ इतना है कि महात्मा गांधी के वक्त संघर्ष अंग्रेजों की सत्ता से थी और राहुल गांधी के वक्त में हक की गुहार केन्द्र और राज्य सरकार से की जा रही है। तो हर किसी के जहन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या देश के सामाजिक आर्थिक हालातों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। तो जरा हालात को परखें और नरेन्द्र मोदी के राज्य में राहुल गांधी की राजनीतिक बिसात पर प्यादे बनते वोटरों के दर्द को समझें कि कैसे संसदीय राजनीति के लोकतंत्र तले नागरिकों को वोटर से आगे देखा नहीं जाता और आर्थिक नीतियां हर दौर में सिर्फ और सिर्फ देश के दो फीसदी के लिये बनती रही। 

इतना ही नहीं पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब कंपनियों की भरमार है और नागरिकों के पेट पीठ से सटे जा रहे हैं। तो पहले बात नमक के मजदूरो की ही। जहां नमक का दारोगा बनकर राहुल गांधी गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में एक किलोग्राम नमक बनाने पर मजदूरों को दस पैसा मिलता है। सीधे समझे तो बाजार में 15 से 20 रुपये प्रति किलो नमक हो तो मजदूरों को 10 पैसे मिलते हैं। इतना ही नहीं जब से आयोडिन नमक बाजार में आना शुरु हुआ है और नमक का धंधा निजी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है उसके बाद से नमक बनाने का समूचा काम ही ठेके पर होता है। चूंकि चंद कंपनियों का वरहस्त नमक बनाने पर है तो ठेके के नीचे सब-ठेके भी बन चुके है लेकिन बीते दस बरस में मजदूरो को कंपनियो के जरिए दिये जाने वाली रकम में दो पैसे की ही बढोतरी हुई है। यानी 8 पैसे प्रति किलो से 10 पैसे प्रति किलो। लेकिन काम ठेके और सब ठेके पर हो रहा है तो मजदूरो तक यह रकम 4 से 6 पैसे प्रति किलोग्राम नमक बनाने की ही मिल रही है। 

वैसे महात्मा गांधी ने जब नमक सत्याग्रह शुरु किया था तो साबरमती से दांडी तक की यात्रा के दौरान गांधी ने अक्सर नमक बनाने के दौरान मजदरो के शरीर पर पडते बुरे असर की तरफ सभी का ध्यान खींचा था। खासकर हाथ और पैर गलाने वाले हालात। इसके साथ ही नमक बनाने के काम से बच्चे ना जुडे इस पर महात्मा गांधी ने खासतौर से जोर दिया था। लेकिन किसे पता था कि महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के ठीक 84 बरस बाद जब राहुल गांधी नमक बनाने वालो के बीच पहुंचेंगे तो वहां बच्चे ही जानकारी देंगे कि उनकी पढ़ाई सीजन में होती है। यानी जिस वक्त बरसात होती है उसी दौर में नमक बनाने वालों के बच्चे स्कूल जाते हैं। यानी नमक बनाने में जिन्दगी बच्चे भी गला रहे हैं और राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी दोनों को यह सच अंदर से हिलाता नहीं है।

दरअसल, संकट मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है। या फिर कांग्रेस या बीजेपी भर का भी नहीं है। संकट तो उन नीतियों का है, जिसे कांग्रेस ट्रैक वन मानती है सत्ता में आने के बाद बीजेपी ट्रैक-टू कहकर अपना लेती है। फिर भी डा मनमोहन सिंह के दौर की आर्थिक नीतियों तले राहुल गांधी की जन से जुड़ने की यात्रा को समझे तो देश की त्रासदी कही ज्यादा वीभत्स होकर उभरती है। जिन आर्थिक नीतियों के आसरे देश चल रहा है, असर उसी का कि बीते दशक में 40 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवारों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी। 2 करोड़ ग्रामीण परिवारों का पलायन मजदूरी के लिये किसानी छोड़कर शहर में हो गया। ऐसे में झरखंड के आदिवासी हो या बनारस के रिक्शा-खोमचे वाले। इनके बीच राहुल गांधी क्या समझने जाते हैं। इनका दर्द इनकी त्रासदी तो फिर मौजूदा वक्त में देश के शहरो में तीन करोड से ज्यादा रिक्शावाले और खोमचे वाले हैं। जिनकी जिन्दगी 1991 से पहले गांव से जुड़ी थी। खेती जीने का बड़ा आधार था। लेकिन बीते दो दशक में देश की नौ फीसदी खेती की जमीन को निर्माण या परियोजनाओं के हवाले कर दिया गया। जिसकी वजह से दो करोड़ से ज्यादा ग्रामीण झटके में शहरी मजदूर बन गये। ध्यान दें तो राहुल गांधी गुजरात जाकर या झारखंड जाकर किसान या आदिवासियों को रोजगार का विकल्प देने की बीत जिस तरह करते हैं, उसके सामानांतर मोदी भी गुजरात का विकास मॉडल खेती खत्म कर जमीन खोने वाले लोगों को रोजगार का लॉलीपाप थमा कर बता रहे हैं। कोई भी कह सकता है कि अगर रोजगार मिल रहा है तो फिर किसानी छोड़ने में घाटा क्या है। तो देश के आंकडों को समझें। जिन दो करोड़ किसानों को बीते दस बरस में किसानी छोड़कर रोजगार पाये हुये थे, मौजूदा वक्त में उनकी कमाई में डेढ सौ फीसदी तक की गिरावट आयी। रोजगार दिहाड़ी पर टिका। मुआवजे की रकम खत्म हो गयी। 

कमोवेश 80 फीसदी किसान, जिन्होंने किसानी छोड शहरों में रोजगार शुरु किया उनकी औसत आय 2004 में 22 हजार रुपये सालाना थी। वह 2014 में घटकर 18 हजार सालाना हो गयी। यानी प्रति दिन 50 रुपये। जबकि उसी दौर में मनरेगा के तहत बांटा जाने वाला काम सौ से 120 रुपये प्रतिदिन का हो गया। और इन्ही परिस्थितियों का दर्द जानने के लिये राहुल गांधी शहर दर शहर भटक रहे हैं। और देश के हर रंग को समझने के सियासी रंग में वही त्रासदी दरकिनार हो गयी है, जिसने देश के करीब बीस करोड लोगों को दिहाड़ी पर जिन्दगी चलाने को मजबूर कर दिया है। और दिहाडी की त्रासदी यही है कि ईस्ट इडिया कंपनी के तर्ज पर देसी कंपनियां काम करने लगी हैं। और नमक के टीलों के बीच नमक बनाने वाले मजदूर भी हाथ गला कर सिर्फ पेट भरने भर ही कमा पाते हैं। तो 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी साबरमती के आश्रम से नमक सत्याग्रह के लिये थे तो अंग्रेजों का कानून टूटा और 11 मार्च 2014 में जब राहुल गांधी गुजरात के सुरेन्द्रनगर पहुंचे तो कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में एक पैरा नमक के दारोगा के नाम पर जुड़ गया। तो सियासत के इस सच को जानना त्रासदी है या इस त्रासदी को विस्तार देना सियासत हो चला है। और संयोग यही है कि 2014 का चुनाव इसी दर्द और त्रासदी को समेटे हुये हैं। जिसमें हम आप दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का तमगा बरकरार रखने के लिये महज वोटर हैं।

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