जाति आधारित पार्टियों सपा बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की चुनौती
देश की राजनीति में मौजूदा समय एक अजीब सा माहौल बन चुका है। पहली बार देखा जा रहा है कि कोई एक व्यक्ति पार्टी से उपर उठकर चुनाव मैदान में उतरा हुआ है और यह माहौल सिर्फ एकतरफा ही नहीं वरन् हर तरफ से बना हुआ है। जो राजनीतिक सरगर्मिंया बढ़ी हुई हैं उसमें एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री प्रत्याषी नरेन्द्र दामोदर दास मोदी हैं तो दूसरी तरफ सारी राजनीतिक पार्टियां एकजुट होती दिखायी दे रही हैं। सर्वविदित है कि दिल्ली की कुर्सी पर वहीं विराजित होता है जिसके उपर उत्तर प्रदेष का हाथ होता है। वह हाथ चाहे बाहर से हो अन्दर से। हालांकि चुनावी सर्वे में यह बात उभर कर सामने आ रही है कि भजपा उत्तर प्रदेष में सबसे अधिक सीटे्र हासिल करने वाली पार्टी बनेगी, किन्तु सवाल यह भी उठता है कि यहां पर जातीय आधार पर ध्रुवीकरण हो चुके वोटों को भाजपा कैसे अपने पक्ष में कर पायेगी। क्या जाति के इस चक्रव्यूह को तोड़कर उत्तर प्रदेष में भजपा अपनी धमक जमा पायेगी।
गौरतलब है कि उत्तरप्रदेष कांग्रेस के हाथों से निकलने के बाद जाति आधारित पार्टियों ने अपनी जड़े जमा ली हैं। प्रदेष की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी पिछड़ी जाति विषेश कर यादव वोटों पर अपनी बपौती समझने के साथ मुस्लिम वोट पर भी अपना अधिकार समझती है। वहीं दलितों की मसीहा बनकर उभर चुकी बहुजन समाजवादी पार्टी पिछले दो दषक से दलित वोटों पर अपना कब्जा जमाये हुये है। देखा यह भी गया है कि जबसे जाति आधारित दल सपा बसपा ने प्रदेष में अपना अधिपत्य जमाया है। तभी से सवर्ण जाति के वोटर अनिष्चय के हालात में जी रहे हैं। व्यापारी वर्ग के साथ सवर्ण वोट पर भाजपा का कब्जा भले ही समझा जाता रहा है किन्तु सपा बसपा के अस्तित्व में आने के बाद यह वर्ग भी गेंद की तरह कभी एक पाले में जाता है तो कभी दूसरे की गोद में बैठने के लिये विवष होता है। पिछले विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो समाजवादी पार्टी के सरकार में बढ़ते अपराध और कानून व्यवस्था से उबकर तथा बसपा की सोषल इंजीनियरिंग के चलते ब्राह्णों के साथ अन्य जाति के वोटरों ने भी प्रदेष की कुर्सी मायावती को सौंप दी। हालांकि मायावती के षाशनकाल में कानून व्यवस्था सख्त दिखायी दी किन्तु सत्ता में आते ही दलित समाज पर अंकुष सरकार नहीं लगा पायी। जिसका परिणाम रहा कि सवर्णों की जमीन पर कब्जा और भारी तादात में फर्जी एससी एसटी के मुकदमें होने लगे। यहां तक कि दलितों को बिजली का नंगा तार कहा जाने लगा। सवर्ण समाज अपमान के घूंट पीकर चुप रहने के लिये विवष रहा। जिसका परिणाम 2012 के विधानसभा चुनाव में दिखायी दिया। पूर्व के षासनकाल में हुई समाजवादी सरकार की लचर व्यवस्था को भूलकर लोगों ने फिर उसे सत्ता सौंप दी।
हालांकि यह कहा जा सकता है कि यह लोकसभा चुनाव है और विधानसभा चुनाव की गणित यहां मायने नहीं रखती। फिर भी जातीय समीकरण को नजरअंदाज इस चुनाव में भी नहीं किया जा सकता। सर्वे पोल भले ही भाजपा की बढ़त बता रहें हो किन्तु ऐसे सर्वेक्षण अधिकतर षहरी क्षेत्रों में किये जाते हैं जहां वोटरों का षिक्षित तबका रहता है। इसके इतर जातीय समीकरण ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक प्रभावी होते हैं, जहां के वोटरों पर सपा बसपा जैसी जातीय पार्टियां प्रभावी हैं।
आज के चुनावी परिवेष में नजर डालें तो यह चुनाव दूसरे आम चुनावों से अलग दिखायी दे रहा है। भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्व वाली छवि को भुनाने में लगी है तो और पार्टियों मोदी के विरोध में कथित धर्मनिरपेक्षता का राग अलाप रही हैं। अन्य दलों के निषाने पर भाजपा नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी दिखायी दे रहे हैं। अन्य दलों के नेता मोदी के खिलाफ जो तीर तरकष में से निकाल कर चल रहे हैं उसका उसका लबोलुआब यह है कि मोदी मुसलमानों के दुष्मन हैं और वे यदि सत्ता में आये तो मुसलमानों का जीना दूभर हो जायेगा।
उत्तर प्रदेष में सपा बसपा दो प्रमुख दल अभी तक यहीं समझ रहे हैं कि एक विषेश जाति के वोट बैंक पर उनका कब्जा है ही यदि मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में कर लिया तो चुनावी नैया पार कर जायेंगे। सपा का घोशणा पत्र इस बात को खुद ही प्रमाणित कर रहा है। दूसरी तरफ बसपा की मंषा भी किसी से छुपी नहीं है, उसके पास वोट बैंक का एक बड़ा हथियार है जिसमें सेंध लगा पाना अन्य दलों के लिये टेढ़ी खीर ही है। प्रदेष में जातीय समीकरण के अनुसार ही उसने टिकटों का वितरण किया है। बसपा का अपना वोट बैंक और प्रत्याषी की जाति का वोट पाकर बसपा भी दिल्ली पहुंचने का सपना संजो चुकी है।
अब मुस्लिम समुदाय के मतों पर नजर डाली जाय तो वे अभी तक अनिष्चय की स्थिति में दिखायी दे रहे हैं। भले ही अपने भाशणों में मोदी विकास और सुषासन की बात कह रहे हैं किन्तु उनकी हिन्दूवादी छवि के कारण मुस्लिम वोट पर कुछ खास प्रभाव पड़ता दिखायी नहीं दे रहा है। मुस्लिम वोटरों की मंषा इस बार सपा या बसपा के पक्ष में नहीं बल्कि उसके पक्ष में दिख रहा है जो भाजपा के प्रत्याषी को परास्त करने की क्षमता रखता है।
लोकसभा चुनाव में मोदी के लहर की बात करें तो निष्चित रूप से मोदी की लहर चल रही है। विशेष कर युवा वोटरों पर मोदी का काफी असर दिख रहा है। मोदी की हिन्दुत्ववादी छवि इस बार काफी प्रभाव दिखा सकती है। इसका एक कारण यह है कि सपा का मुस्लिम प्रेम उसके वोट बैंक को रास नहीं आ रहा है। और दूसरा कारण यह भी है कि मंहगाई, भ्रश्टाचार के कारण कांग्रेस के षासनकाल से उब चुकी जनता अब उससे निजात भी पाना चाहती है। लोगों में यह चर्चा भी जोरों पर हो रही है कि दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस या भाजपा के अलावा दूसरा कब्जा करने में सक्षम नहीं है। सपा बसपा जैसे दल अंततागत्वा कांग्रेस को ही समर्थन देकर सत्ता सौंप देगी और उन्हें फिर वहीं त्रासदी झेलने के लिये विवष होना पड़ेगी। इसका असर यह है कि इस चुनाव में खुद अपनी सरकार चुनना चाहते हैं। भले ही भाजपा के लिये जातिगत चक्रव्यूह भेदना मुष्किल दिखायी दे रहा है किन्तु भाजपा के रणनीतिकार यदि ग्रामीण वोटरों पर अपनी पकड़ मजबूत कर लिये तो चुनावी हवा का रूख अप्रत्याषित रूप से बदल भी सकता है।
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