मंगलवार, 3 जून 2014

कैसे न हो लोगों का विस्थापन

सितंबर 3, 2006 - 10:30

औद्योगिकीकरण के कारण लाखों लोगों को अपने मूल स्थान से विस्थापित होना पड़ा और विस्थापन की भीषण नाकामियों का भी उनको सामना करना पड़ा। ताजा मामला टाटा स्टील प्लांट की स्थापना के कारण विस्थापन का विरोध कर रहे कलिंगनगर, उड़ीसा के 13 आदिवासियों की मौत का है। औद्योगिकीकरण बढ़ने के साथ यह समस्या और अधिक गंभीर रूप ले लेगी। हाल ही में 150 विशेष आर्थिक क्षेत्रों (स्पेशल इकोनॉमिक झोन्स या सेज) को मंजूरी दी गई है और जल्द ही यह संख्या दोगुनी हो सकती है। शायद 10 लाख लोगों पर विस्थापन की नौबत आ जाए। हमें न्याय और निष्पक्षता वाली एक नई विस्थापन नीति की जरूरत है। आखिर इस मामले में महत्वपूर्ण मसले क्या हैं?
पहला, अगर बिक्री के आंकड़े देखें तो सरकारी अधिग्रहण बाजार की संभावित कीमतों पर आधारित होता है। लेकिन यह भी सब जानते हैं कि स्टांप ड्यूटी को बचाने के लिए कीमतों को हमेशा कम ही दर्शाया जाता है। इसलिए बाजार की कीमत का उल्लेख एक छलावा हो सकता है। साथ ही अगर एक निजी डवलपर को काफी जमीन की दरकार हो तो उसे दर्ज कीमत से भी ज्यादा का भुगतान करना होगा।
दूसरा, पुरानी कीमत पर किसी स्थान का जबर्दस्ती अधिग्रहण किसी संपत्ति को सरकारी मदद से जब्त करने की ही तरह है। साथ ही, हमारे यहां जमीन को लेकर रिकॉर्ड भी व्यवस्थित नहीं हैं और ऐसे लोगों का भी उसमें बतौर मालिक जिक्र नहीं होता जो दशकों से उस जमीन पर खेतीबाड़ी कर रहे हों। यही वजह है कि कई गांव वालों को तो रत्ती भर का भी मुआवजा नहीं मिलता।
तीसरा, बेदर्द और भ्रष्ट अधिकारी बिना रिश्वत के मुआवजे के भुगतान में नखरे दिखाते हैं। भुगतान पूरा भी नहीं होता और जो होता है बहुत देर से होता है।
चौथा, जब पूरा गांव ही विस्थापित होता है तो स्थानीय जंगल, नदी-नाले और चारे की जमीन भी गांव वालों की पहुंच से बाहर हो जाती है। इसके लिए उनको कोई मुआवजा नहीं मिलता। उन्हें जो अस्थायी पुनर्वास दिया जाता है वहां आमतौर पर मूलभूत सुख-सुविधाओं का अभाव होता है और रोजगार के अवसर भी आसपास नहीं होते।
पांचवां, जब मुआवजे का भुगतान कर भी दिया जाता है तो इतना पैसा एक साथ कभी नहीं देखने वाले कई परिवार इसे तुरत-फुरत खर्च भी कर देते हैं। उनके पास आय का कोई नियमित साधन नहीं होता और वो अपनी जीविका और अपना मानसम्मान भी गंवा देते हैं। वे मालिक से शरणार्थी बन जाते हैं।
छठा, सस्ते में हासिल की गई जमीन को सरकार फिर किसी उद्योगपति को भारीभरकम कीमत पर थमा देती है।
कलिंगनगर में आदिवासियों से जमीन 30 हजार रुपए प्रति एकड़ के भाव से खरीदी गई थी और उसे टाटा स्टील को 3.35 लाख रुपए प्रति एकड़ के भाव से बेच दिया गया था। अफसोसनाक। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि भूमि अधिग्रहण स्वेच्छा से होना चाहिए। अगर उद्योग जमीन बेचने के इच्छुक लोगों से जमीन खरीदना चाहते हैं विस्थापन की बड़ी मानवीय और आर्थिक त्रासदी पर लगाम लग जाएगी। हालांकि आवास, आधारभूत ढांचे या उद्योग के लिए बड़े पैमाने पर जमीन की दरकार होती है और इनके लिए जमीन नहीं मिल सकती अगर गांव वाले किसी भी कीमत पर जमीन बेचने को तैयार न हों। यही वजह है कि दुनिया भर में सरकारों ने जमीन के अधिग्रहण के लिए कानून बना रखे हैं। यह जायदाद के अधिकार का उल्लंघन है, लेकिन इसका उद्देश्य सार्वजनिक लाभ है।
आखिर अधिग्रहण की नीति को सहनीय और फायदेमंद कैसे बनाया जा सकता है? मैं दो सुझाव देना चाहूंगा। पहला, अगर संभव हो तो ईर्द-गिर्द की जमीन अधिग्रहित कर भी ली जाए तो गांव के आवासीय इलाके को नहीं छेड़ा जाना चाहिए। अगर मकानों को परियोजना के आस-पास सुरक्षित रहने दिया जाए तो इससे लोगों का विस्थापन नहीं होगा। अपने घर से वे परियोजना के लिए श्रम के अलावा वहां काम कर रहे लोगों के लिए सब्जियां, अंडे और अन्य सामग्री की आपूर्ति कर सकते हैं।
क्या विकास के इस समंदर में आवास के कुछ द्वीप बनाए रखे जा सकते हैं? बांध जैसे मामलों में तो नहीं, लेकिन अन्य अधिकांश मामलों में ऐसा संभव है। अनेक शहर इस बात को साबित कर चुके हैं। दिल्ली की बात कर लीजिए। इसने अपने क्षेत्र के फैलाव के साथ ही कई गांवों को अपने भीतर समेट लिया। हर मामले में कृषि भूमि को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया, लेकिन आवासीय इलाका जिसे लाल डोरा कहा जाता है गांव वालों के पास ही रहा। आम आवासीय नियम लाल डोरा इलाकों के लिए लागू नहीं होते, जिसके कारण इनको विशेष दर्जा हासिल हो गया है। हर लाल डोरा के आसपास सड़क, पार्क, पेयजल, बिजली, स्कूल और अन्य शहरी सुविधाओं का विकास हुआ है, जिसका ग्रामीणों को काफी फायदा मिला है। उनके घर छोटे हो सकते हैं, लेकिन वे दिल्ली के दिल यानी बीच में हैं, और उनकी कीमत भी करोड़ों में है। इसी तरह से गांवों को सेज या फिर इस्पात संयंत्रों के आसपास भी सुरक्षित जा सकता है। सुरक्षित इलाकों की सीमा रेखा को गांव के आवासीय परिसर को बचाने के लिहाज से बदला जा सकता है। किसी भी बड़े प्रोजेक्ट में गांव का यह आवासीय इलाका बहुत कम स्थान घेरेगा।
मेरा दूसरा सुझाव है कि विस्थापित गांव वालों को उनके यहां पर स्थापित होने जा रहे प्रोजेक्ट में बराबरी का भागीदार बनाया जाए। उदाहरण के लिए, गांव वालों से अनिवार्य तौर पर जमीन के अधिग्रहण की बजाय उद्योगों के लिए इस जमीन को लीज पर लेना अनिवार्य कर दिया जाए। ऐसे कदम से कलिंगनगर जैसी जगहों पर आदिवासी जमीन के मालिक बने रहेंगे और टाटा स्टील उनकी किरायेदार। गांव वालों को एक बड़ी मूल राशि के अलावा मासिक किराया मिलना चाहिए जो उनकी जीवन शैली में आते बदलाव के अनुरूप वक्त के साथ बदलती रहे। वार्षिक किराया शुरूआत में सरकार द्वारा टाटा स्टील से मांगी गई रकम का 8 फीसदी (सरकार की लघु बचत योजनाओं की ब्याज दर) तय किया जा सकता है।
लीज 50 वर्ष की हो सकती है और उसके बाद इसका नये सिरे से निर्धारण किया जाना चाहिए। इससे गांव वालों को एक हैसियत और सम्मान मिलेगा। शरणार्थी बनने की बजाय वे अपने मालिकाना हक के कारण नए प्रोजेक्ट में भागीदार हो जाएंगे। उनकी एक तय मासिक आय होगी और प्रोजेक्ट में काम करके अलग से कमाने का जरिया भी होगा।
क्या निजी कंपनियां इसका विरोध करेंगी? मुझे नहीं लगता। नवी मुंबई में अपने 35 हजार एकड़ की सेज में रिलायंस ने सारे ग्रामीण आवासीय इलाकों को अछूता छोड़ने का इरादा जताया है। सेज के विकास के बाद उसने हर मकान मालिक को अधिग्रहित जमीन का 12.5 फीसदी लौटाने का वायदा किया है। वापस की जाने वाली यह जमीन पूरी तरह से विकसित होगी और बेहद मूल्यवान होगी। गांव वाले प्रोजेक्ट की तरक्की के भागीदार होंगे और विस्थापित शरणार्थी नहीं। क्या रिलायंस अपने वायदे पर खरा उतरेगा? केवल वक्त ही बता सकेगा। लेकिन उन्होंने जो कदम उठाया है वो सही है।
- टाइम्स ऑफ इंडिया में 3 सितंबर 2006 को प्रकाशित

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