परंतु अब तो वह खुलेआम निजी क्षेत्रों के बड़े पूंजीपतियों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने हेतु मात्र बेहद सक्रिय ही नहीं बल्कि आक्रामक भूमिका निभा रही है। ऐसे लगता है जैसे विश्व पूंजीवाद को पनपाने के लिए बाक्साईट, लौह अयस्क व और भी न जाने कितने खनिजों या उत्पादों की आपूर्ति के लिए सरकारें बड़े पैमाने पर किसानों, आदिवासियों व अन्य गांवववासियों को उजाड़ने के लिए तैयार बैठी हैं। इस मामले में सभी मुख्य राजनीतिक दल जैसे एक हो गए हैं। कलिंगनगर से लेकर नंदीग्राम की बेहद त्रासद घटनाएं बताती हैं कि इस विस्थापन हेतु सरकारें क्रूर हिंसा करने के लिए भी तैयार है। लोकतंत्र व मानवाधिकारों के लिए, खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण संरक्षण के लिए, आम लोगों की रोजी-रोटी के लिए, ग्रामीण सभ्यता व टिकाऊ विकास के लिए भी यह गहरी चिंता का विषय है। यह ऐसा विषय है जिसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए। इस क्षेत्र में जितने बड़े पैमाने पर विस्थापन की तैयारी चल रही है यदि उतने बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ तो कलिंगनगर व नंदीग्राम जैसे भयानक उत्पीड़न दोहराए जाने की संभावना निश्चय ही बढ़ जाएगी। तब की स्थिति कितनी भयावह होगी इस बारे में पहले ही सोच लिया जाना चाहिए। यह कोई मैनेजमेंट का मुद्दा नहीं है बल्कि यह तो विकास की बुनियादी सोच का मुद्दा है। हालांकि प्रधानमंत्री ने संतोषजनक पुनर्वास नीति बनाने का वायदा किया है, पर पिछले अनुभव से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि यदि विस्थापन बहुत बड़े पैमाने पर होता है तो संतोषजनक पुनर्वास संभव ही नहीं है। मूल बात यह है कि बड़े पैमाने पर विस्थापन व कृषि भूमि का छीनना किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज बड़े पैमाने पर विस्थापन व कृषि भूमि छीनने की नीतियों को चुनौती देने की जरूरत है। वर्तमान कृषि भूमि छीनने के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि अब हम विकास के ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं जहां भूमि व श्रम का कृषि को छोड़कर बड़े उद्योगों में जाना ही उचित है। इस संबंध में कृषि योग्य भूमि को बाजारू बनाने और कृषि कार्यों को दोयम दर्जे का सिध्द करने की मानसिकता हावी होती चली जा रही है। इस सोच का विरोध करना जरूरी है। वास्तविकता यह है कि हमारी सबसे बुनियादी जरूरत खाद्य है। हम अभी भी सभी देशवासियों को भरपेट व पोषण की दृष्टि से संतुलित भोजन नहीं दे पा रहे हैं। देश के आधे से भी कम लोगों को पर्याप्त पौष्टिक भोजन उपलब्ध हैं। अत: खेती व खाद्य सुरक्षा को संतोषजनक हालत में लाना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। गरीबी, भूख व कुपोषण दूर करने के सबसे असरदार उपाय यही है कि खेती-किसानी को समृध्द व टिकाऊ किया जाए, पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते हुए उत्पादन बढ़ाया जाए, छोटे किसानों को विशेष तौर पर सशक्त किया जाए व भूमिहीनों को कृषि के लिए भूमि दी जाए। गांव की किसी भी अतिरिक्त भूमि पर पहला हक वहां के भूमिहीन किसानों या कृषि मजदूरों का है। यह आश्चर्य की बात है कि जब भूमिहीनों में कृषि भूमि बांटनी होती है तो सरकार कहती है कि भूमि नहीं है, पर जब बड़े उद्योगों के लिए जमीन चाहिए होती है तो उन्हीं गांवों में हजारों एकड़ उपलब्ध हो जाती है। वास्तव में सरकार भूमि सुधारों व विशेषकर भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध करवाने के कार्य को भूल चुकी है। कुछ सरकारी दस्तावेजों में इस स्थिति को स्वीकार भी किया गया है। अत: जोर देकर कहना चाहिए कि यह समय बड़े उद्योगों की खातिर किसानों को विस्थापित करने की नहीं है अपितु भूमिहीन किसानों या कृषि मजदूरों को भी भूमि उपलब्ध करवाने का है। सभी लोगों की खाद्य आवश्यकताओं को संतोषजनक ढंग से पूरा करने के साथ दस्तकारों व कुटीर उद्योगों को कच्चा माल विशेषकर देसी कपास उपलब्ध करवाने के लिए व गांवों को ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी खेती, वृक्ष-खेती व वानिकी, पशुपालन, जल-संरक्षण व संग्रहण को समृध्द करने की आवश्यकता है। गांवों की समृध्दि व आत्मनिर्भरता को बढ़ाना हमारी सबसे बड़ी जरूरत है। वहीं विस्थापन बढ़ाने वाली नीतियां गांवों को तबाह कर रही हैं। इस सोच को बुनियादी तौर पर चुनौती देने की जरूरत है कि आम लोगों की खुशहाली के लिए बड़े पैमाने का विस्थापन करने वाला औद्योगीकरण जरूरी है। विस्थापन तो आखिर विस्थापन ही होता है जिसमें कई घर और परिवार मुट्ठी भर लोगों के लाभ की खातिर तबाह होते हैं। पूंजीवादी व साम्यवादी दोनों तरह की अर्थव्यवस्थाओं में यह सोच बहुत तबाही मचा चुकी है। हमारे देश में महात्मा गांधी व अनेक अन्य विचारक विकास की ऐसी सोच सामने रख चुके हैं जिसमें बड़े पैमाने पर विस्थापन की कोई जगह नहीं है। हम गांवों व किसानों को सशक्त व समृध्द करना चाहते हैं अतएव उनके विनाश व विस्थापन को हम कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। गांवों व किसानों को उजाड़ने वाले उद्योगों को हम स्वीकार नहीं करते हैं। अपनी इस विकास की सोच के अनुरूप ही हम जीवन-शैली भी अपनाना चाहते हैं। पर्यावरण संरक्षण उसका मुख्य आधार है। परंतु पार्क या सैंक्चुअरी के नाम पर लोगों को उजाड़ना भी हमें स्वीकार नहीं है। |
मंगलवार, 3 जून 2014
विस्थापन बढ़ाता विकास
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