Posted: 24 Mar 2014 03:58 AM PDT
भारतीय राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र। कुछ लोग कहेंगे कि भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है। पर वह सांस्कृतिक अवधारणा थी। लोकतंत्र एकदम नई अवधारणा है। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं।
हाल में आशुतोष वार्ष्णेय ने अपनी पुस्तक ‘बैटल्स हाफ वन’ में लिखा है कि स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन। इन लक्ष्यों को पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति में है। भारत की कोई राजनीति इन लक्ष्यों से मुँह नहीं फेर सकती। देश की संवैधानिक व्यवस्था पर विचार करते समय इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव नहीं होगा। इन मूल्यों को लेकर कभी दो राय नहीं रहीं। ये सर्वमान्य मूल्य हैं, भले ही इन्हें लागू करने के तौर-तरीकों को लेकर मतभेद रहे हों।
व्यावहारिक रूप से लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है। यह वस्तुतः औद्योगिक क्रांति के साथ विकसित हुआ है। पश्चिमी देशों में इस पद्धति के प्रवेश के लिए जनता के एक वर्ग को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना पड़ा। हमारा आर्थिक आधार दो सौ साल पहले के पश्चिम से बेहतर नहीं है। पर हमारी राज-व्यवस्था कई मानों में आज के पश्चिमी लोकतंत्र से टक्कर लेती है। विकासशील देशों में निर्विवाद रूप से हमारा लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ है। दुनिया के अनेक देशों में आज भी यह माना जाता है कि लोकतंत्र उनके आर्थिक विकास में बाधा बनता है। अपने आसपास के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यामार और नेपाल में लोकतांत्रिक पर खतरा बना रहता है। इन देशों में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम भी है तो इसका एक बड़ा कारण भारतीय लोकतंत्र का धुरी के रूप में बने रहना है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।
एक गरीब देश का इतनी मजबूती से लोकतंत्र की राह पर चलना विस्मयकारी है। लोकतंत्र की सफलता के लिए भी एक स्तर का आर्थिक विकास होना चाहिए। यह दुनिया के इतिहास की विलक्षण घटना है। हम कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक एकता और सामाजिक न्याय की आधुनिक अवधारणा का रोचक मिश्रण हम भारत में देख रहे हैं। इसमें प्राचीनता के साथ आधुनिक पश्चिमी अवधारणाएं भी हैं। पर राष्ट्र की अवधारणा यूरोपीय है। उसे हमने स्वीकार किया होता तो भारत के अनेक टुकड़े होते।
इतने बड़े देश के रूप में हमारे पास संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के उदाहरण हैं। अमेरिका को कई राष्ट्रीयताओं ने मिलकर बनाया। हमने कई राष्ट्रीयताओं को टूटकर अलग होने से बचाया। रूस का सोवियत अनुभव सफल नहीं रहा। सोवियत संघ टूटने के बाद भी विघटन अभी चल ही रहा है। पहले जॉर्जिया और अब यूक्रेन के रूप में यूरोप की स्थानीय मनोकामनाएं सामने आ रहीं है। मध्य एशिया की राष्ट्रीयताओं पर रूसी दबाव है। चीन के पश्चिमी इलाकों में राष्ट्रीय आंदोलन जोर मार रहे हैं। चूंकि वह लोकतंत्र की डोर से बँधा देश नहीं है, इसलिए वे खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं। हान और मंडारिन संस्कृति के बीच का भेद भी चीन में है। इस प्रकार के सांस्कृतिक भेद हमारे बीच भी हैं, पर हमारे लोकतंत्र ने उसे सुंदर तरीके से जोड़कर रखा है। हाल में दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ भेद-भाव की खबरें सुनाई पड़ीं तो स्थानीय मीडिया और जागरूक नागरिकों ने पूर्वोत्तर के निवासियों के पक्ष में आवाज उठाई। यह भी सच है कि हम पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति और क्रिया-कलापों को लेकर जागरूक नहीं हैं, पर शिक्षा और रोजगार ने नागरिकों को एक-दूसरे से परिचित होने का मौका दिया है।
गठबंधन की राजनीति ने इस लोकतांत्रिक एकीकरण को बेहतर शक्ल दी है। एक समय तक देश के शासन पर केवल कांग्रेस का वर्चस्व था। उस वक्त भी दक्षिण भारत से के कामराज जैसे ताकतवर नेता थे, पर हम दक्षिण के नेताओं और राजनीति पर ध्यान देने की कोशिश नहीं करते थे। पर गठबंधन की राजनीति दक्षिण के नेताओं को उत्तर से परिचित कराने में कामयाब रही। इसके कारण ही एचडी देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने या पूर्णो संगमा को लोकसभा अध्यक्ष के रूप में हमने देखा। देश के लोकतांत्रिक लक्ष्यों के कारण ही हम प्रादेशिक असंतुलन को दूर करने के बारे में सोचते हैं। इस राजनीति के कारण ही यह बात सामने आ रही है कि विकास का लाभ हर इलाके तक नहीं पहुँचाया जाएगा तो बागी ‘लाल गलियारे’ तैयार हो जाएंगे। यही राजनीति उन इलाकों की बात को देश की संसद तक लेकर आएगी। हमें तेज आर्थिक विकास के साथ-साथ तेज शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की जरूरत है। इसके लिए सांविधानिक और राजनीतिक संस्थाओं में सुधार की जरूरत भी है। इन बातों पर आम राय वोट की यही राजनीति कायम करेगी। वोट ने टकराव के आधार तैयार किए हैं। पर उसने समूचे भारत की उम्मीदों को पंख भी दिए हैं।
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित
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