हल ही में बिहार और उत्तर प्रदेश में संम्पन्न हुए एमएलसी (विधान पार्षद) चुनाव के परिणामों पर न तो हमारी मुख्य धारा की मीडिया और न ही समानान्तर मीडिया ने उचित तव्वजो दी। उससे पहले गुजरात में छात्र संघों के चुनाव में एनएसयूआई की धमाकेदार जीत को तो फिर भी हमारे मीडिया ने कुछ स्थान दिया था। उस समय सभी मीडिया ने एक स्वर में मोदी जी के घर में एन एस यू आई के प्रदर्शन पर आश्चर्य जाहिर किया था और मोदी लहर के खोखलेपन के साथ साथ बीजेपी के गुजरात में गिरते जनादेश तक की कल्पना कर डाली थी। लेकिन इस बार बिहार और यू पी में पिछले माह 23 तारीख को संपन्न एमएलसी के चुनाव में असीम मोदी लहर के कल्पना के बावजूद बीजेपी के पहले के मुकाबले ख़राब प्रदर्शन पर हमारी मीडिया ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं किया। ऐसा लगता था कि मोदी की इस ना रुकने वाले लहर के दौर में बीजेपी के उम्मीदवारों को जबरदस्त सफलता मिलेगी। पर हुआ कुछ उल्टा है।
हुआ कुछ यूँ कि 23 मार्च को यू पी और बिहार में एमएलसी के क्रमशः आठ और ग्यारह सीटों के लिए चुनाव हुये। 27 मार्च को जब मतगणना प्रारंभ हुई तो आशंका के विपरीत शुरू से ही गैर बीजेपी के उम्मीदवारों ने ज्यादातर सीटों पर बढ़त बना ली और परिणाम ने सब को विचलित कर दिया। बिहार में कुल आठ सीटों में से बीजेपी को मात्र दो सीटों में सफलता मिली। उन दो में से भी पटना के शिक्षक सीट पर विजयी नवल किशोर यादव कुछ दिनों पूर्व तक राजद में हुआ करते थे पर जब पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया और पारंपरिक रूप से बीजेपी के साथ मतदाताओं, के समर्थन से यादव दूसरी सीट जीतने में सफल रहे वरना बीजेपी को तो एक सीट से ही संतोष करना पड़ता। पटना स्नातक की सीट जद(यू) के नीरज कुमार ने दूसरी बार पहले से कहीं अधिक मतों से जीता। तिरहुत स्नातक सीट भी जद(यू) के ही एक समर्थक को मिली जिन्होंने पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी न मिलने के बाद स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था। उधर जद(यू) के साथ चुनाव लड़ रही सीपीआई को भी दो सीटों पर जीत मिली।
कुछ कुछ ऐसा ही नजारा दिखा उत्तर प्रदेश में जहाँ बीजेपी को पूर्व प्रधान मंत्री के गढ़ लखनऊ की दोनों सीटों से हाथ गवाना पड़ा। लखनऊ की स्नातक सीट पर तो उन्हें विजयी उम्मीदवार कान्ति सिंह का मात्र एक चौथाई वोट ही मिला। शायद लखनऊ की जनता अटल बिहारी की उदारवादी विचारधारा के बीजेपी में गिरते सम्मान से नाखुश है। बनारस में जीते भी तो पिछले चुनाव में मिले वोट के कम अन्तराल से।
यहाँ भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि एमएलसी के चुनावों में सिर्फ स्नातक और शिक्षकों को ही मतदान का अधिकार होता है। चूँकि भारत आज भी एक जातिवादी समाज है इसलिए ज्यादातर स्नातक हमें उच्च जातियों में ही मिलेंगे। और ये उच्च जाति ही है जिनमें बीजेपी का जनाधार सबसे अधिक है। और जब ऐसे चुनाव जिसमें उच्च जाति के मतदाताओं का अनुपात अधिक हो उसमें बीजेपी उम्मीद के अनुसार प्रदर्शन नहीं कर पा रही है तो मोदी लहर पर सवाल उठाना वाजिव हो जाता है। हमें यह भी याद रखना पड़ेगा कि यह चुनाव परिणाम उन दो घोर ब्राह्मणवादी और गौ-पट्टी वाले राज्यों का है जहाँ बीजेपी आने वाले लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक आस लगाये बैठी है और घोषणा करने को तो वो इन दोनों राज्यों में शत प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल करने का स्वप्न देख रही है।
इस एमएलसी चुनाव परिणाम ने कम से कम इस बात की ओर तो इंगित कर दिया है कि मोदी लहर ना तो युवाओं की बनायी है, न मध्य वर्ग की और ना ही सवर्ण जाति के लोगों की बल्कि ये लहर तो हमारे देश के पूंजीपति और कॉर्पोरेट जगत के द्वारा बनायीं हुई लहर है। और यही कारण है कि हाल ही में इकनोमिक टाइम्स द्वारा कराये गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 74 प्रतिशत पूंजीपति मोदी जी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। इन पूंजीपतियों की भारत की अर्थव्यवस्था पर बढ़ता एकाधिकार का प्रतिक शेयर बाजार का सांड पिछले कुछ दिनों से मीडिया द्वारा कराये गए हर एग्जिट पोल के परिणामो में मोदी जी और बीजेपी के बढ़त पर नई नई छलांगे लगा रहा है।
नरेन्द्र भाई मोदी जी अपने आप को हिन्दू और हिंदुत्व हिमायती लेकिन जागृति नाट्य मंच द्वारा हाल ही में जारी किये गए गुजरात के विकास के मॉडल गुजरात सरकार के सामाजिक-आर्थिक समीक्षा, योजना आयोग, एनएसएसओ, आरबीआई, सीएजी, वर्ल्ड बैंक, आदि अधिकारी दस्तावेजों पर आधारित एक रिपोर्ट में ये बात सिद्ध हो गई है की मोदी जी के कार्यकाल सबसे अधिक विकास ना तो हिन्दुओं का नहीं हुआ है बल्कि वाणिज्यक वर्ग में दबदबा रखने वाले पारसियों और ईसाईयों को हुआ है। एनएसएसओ के आंकड़ो के अनुसार मोदी के कार्यकाल के दौरन सरकार द्वारा स्वरोजगार के लिए चलाये गए विभिन्न योजनाओं का सबसे अधिक लाभ इसाई और पारसी समाज के लोगों का हुआ है जबकि ग्रामीण मजदूरी में उनकी भागीदारी लगातार कम हो रही है। 4 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वालो में ईसाईयों और पारसियों का उनकी जनसँख्या की तुलना में अनुपात हिन्दुओं और मुसलमानों के अनुपात का लगभग दोगुना है। प्रति व्यक्ति मासिक खर्च के मामले में भी गैर मुस्लिम और गैर हिन्दू, हिन्दुओं और मुसलमानों से 60% अधिक आगे है। हिन्दुओं और मुसलमानों में स्वरोजगार का अनुपात पिछले एक दशक में घटा है जबकि ईसाईयों और पारसियों में ये अविश्वसनीय ढंग से बढ़ा है। इसका ये मतलब नहीं है कि मोदी जी को इसाई धर्म या पारसी समाज से कोई लगाव है बल्कि इसाई और पारसी समाज का धनाढ्य होना मोदी जी को उनकी तरफ खींच रहा है। आखिर में चुनाव के समय उन्हें चुनाव लड़ने के लिए पैसे तो चाहिए ही और गुजरात की सबसे अधिक प्रभावशाली वाणिज्यिक वर्ग तो अब इसाई और पारसी ही बचे हैं। हालाँकि कुछ वर्षों पूर्व तक तो मुस्लिम भी थे लेकिन बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति ने तो गुजरात के मुसलमानों का प्रमुख सफल वाणिज्यिक वर्ग का ख़िताब उनसे छीन लिया।
इसलिए हमें यह मंजूर करना पड़ेगा कि ये मोदी लहर जिसमें मानो ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी जी का अब प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने मात्र की औपचारिकता रह गई है, ये लहर कृत्रिम रूप से हमारे देश के वाणिज्यक वर्ग द्वारा बनायीं गई लहर है। वो जानते हैं की मोदी ही एक मात्र शख्स है जो भारत के बेशकीमती जंगलों, खनिजों और जमीनों पर बैठे आदिवासियों और किसानों को खदेड़कर उन्हें उन पर एकाधिकार दे सकता है। उन्हें मालूम है कि ये मोदी का गुजरात मॉडल ही है जो उन्हें एक पैसे के मामूली ब्याज पर बेलगाम कर्ज दे सकता है। और यही कारण है कि वो मोदी के व्यक्तित्व को इक्कीसवीं सदी के महानायक के रूप पेश करने पर अरबों रूपये खर्च कर रहे हैं या यूँ कहें कि ये भी एक प्रकार का निवेश है जिसमें अगर वे मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सफल होते हैं तो उन्हें कुल निवेशित धन का सैकड़ों गुना लाभ होगा।
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