बुधवार, 14 मई 2014

देश नरेंद्र मोदी से क्या चाहता है


इस समय देश के हर न्यूज चैनल पर नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू आ रहा है. मोदी प्रधानमंत्री बनने वाले हैं, यह टीवी चैनलों ने मान लिया है. उसी अंदाज में इंटरव्यू लेने वाले सवाल कर रहे हैं, मानो वे नरेंद्र मोदी की कितनी कृपा के पात्र हैं, यह दर्शाना चाह रहे हैं. अख़बारों के इंटरव्यू ईमेल से हो रहे हैं और अख़बार यह लिख रहे हैं कि मोदी के जवाब बहुत बेबाक और साफ़ हैं.
अगर टीवी चैनल और अख़बार यह दावा करें, तो उससे असहमत कैसे हुआ जा सकता है, लेकिन इन सारे सवालों में देश के ग़रीब, वंचित, दलित और मुसलमान गायब हैं. इन वर्गों की हालत कैसे सुधारी जाए, इसके बारे में न कोई सवाल है और न प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का कोई बयान है. एक और वर्ग गायब है उच्च वर्ग, जिसमें ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ और व्यापारी आते हैं. उसमें जो ग़रीब तबका है, उसका जीवन किस तरीके से अच्छा बनेगा, इसका भी कोई उत्तर इन इंटरव्यूज में नहीं मिलता. अब तक एक बड़ा सवाल सवर्ण ग़रीबों का उठाया जाता रहा है और राजनीतिक दल, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी के लोग यह कहते रहे हैं कि ग़रीबों का मतलब स़िर्फ दलित, मुसलमान या आदिवासी नहीं हैं. सवर्णों में भी ग़रीब हैं और उनके लिए कोई सरकार क्या कर रही है? लेकिन अब, जब खुद भारतीय जनता पार्टी अप्रत्यक्ष रूप में और नरेंद्र मोदी प्रत्यक्ष रूप में सत्ता में आते दिख रहे हैं, तब भी इन सवालों का जवाब न दिया जाना कई तरह के संदेह पैदा करता है.
पहला संदेह तो यह कि देश को ग़रीबी के भंवरजाल से निकालने का कोई भी स्पष्ट नक्शा न भारतीय जनता पार्टी के पास है और न नरेंद्र मोदी के पास. मैं बहुत ध्यानपूर्वक पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों को देख रहा हूं. इनमें से कोई भी आर्थिक नीतियों पर सवाल नहीं उठा रहा है और जब हमने यह सवाल उठाया कि देश में चीन से बना माल
बाज़ारों में अटा पड़ा है. मोबाइल फोन या मोबाइल फोन के हेडफोन या हैंड्स-फ्री तार जैसी चीजें हम चीन से मंगाते हैं और उसे हिंदुस्तान में बनाने का कोई भी संकल्प नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ से न आए, तो फिर आर्थिक नक्शा क्या होगा या विकास का नक्शा क्या होगा, यह समझ में आ सकता है. जैसे ही हमने यह लिखा, वैसे ही भारतीय जनता पार्टी के लोग चिल्लाने लगे कि मोबाइल हम देश में ही बनाएंगे. इसका मतलब न किसी तरह की कल्पना है और न किसी तरह का रोडमैप सामने है.
नरेंद्र मोदी के इंटरव्यूज में भारत का किसान गायब है. किसान को फसल का दाम कैसे मिलेगा, फसल या खेती लाभकारी कैसे होगी, खेती की जमीन को छिनने से कैसे बचाया जाएगा और किसान की फसल कैसे बिचौलियों के जाल से मुक्त होकर सीधे उपभोक्ता तक पहुंचेगी, इसका भी नक्शा नरेंद्र मोदी जी के किसी भी इंटरव्यू में नहीं दिखाई दिया. आज भी देश का सबसे बड़ा उद्योग कृृषि है, जो 70 प्रतिशत से ज़्यादा देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करती है. इतना ही नहीं, स़िर्फ कृषि है, जिसकी वजह से हमारी अर्थव्यवस्था स्थिर है. बाकी देशों में जहां कृषि नहीं है, वहां की सरकारों एवं व्यापारियों ने मिलकर अपनी अर्थव्यवस्था बर्बाद की और हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भी बर्बाद करने की पूरी कोशिश हुई, पर स़िर्फ कृषि ने उसे बचाए रखा. वह कृषि नरेंद्र मोदी के आर्थिक विकास में कहीं दिखाई नहीं देती.
क्या उत्पादन का बुनियादी केंद्र औद्योगिक इकाई का प्राथमिक केंद्र नहीं बन सकता? एक ब्लॉक में पैदा होने वाला कच्चा माल उसी ब्लॉक में प्रॉसेस होकर बाज़ार में पहुंचे, क्या यह योजना नहीं बनाई जा सकती? अगर यह योजना बने, तो गांव से नौजवानों का शहरों की तरफ़ पलायन रुक जाएगा और गांवों को स्वावलंबी बनने में मदद मिलेगी. एक ब्लॉक के सभी गांवों में रा़ेजगार के अवसर भी पैदा होंगे और तकनीक का इस्तेमाल गांव के लिए शुरू होगा. ये सारी बातें श्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू में कहीं नज़र नहीं आतीं.
पिछले 10 सालों में देश के जल, जंगल और जमीन को बुरी तरह से मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथों में बेचा गया है, जिनमें बहुतों में चेहरा देशी पूंजीपतियों का है. जल, जंगल और जमीन राष्ट्रीय संपदा हैं और इन्हें न देशी पूंजीपति और न विदेशी पूंजीपति को बेचा जाएगा, इसका कोई संकल्प नरेंद्र मोदी के किसी इंटरव्यू में दिखाई नहीं देता. पिछले 10 सालों में जल, जंगल, जमीन अर्थात खनिज संपदा और प्राकृतिक संपदा की जमकर लूट हुई है. यहां तक कि नदियों को बड़े पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया गया है. आज भी गांव वालों या देश की बहुसंख्यक आबादी की समझ में नहीं आता कि नदियां कैसे बेची जा सकती हैं. नदियां तो प्रकृति की देन हैं या ईश्‍वरीय देन हैं, पर ये नदियां बेेची गई हैं. इन नदियों के बेचने में अरबों की दलाली चली है. उसी तरीके से खनिज संपदा को मनमाने ढंग से लूटा गया है और इन्हें लूटने में केंद्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें भी शामिल हैं, जिनमें भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के दल की भी सरकारें शामिल हैं.
कई प्रदेशों में, जिनमें मध्य प्रदेश का उदाहरण सबसे प्रमुख है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग खदानों की हेराफेरी में शामिल पाए गए. यह पैसा इतने कमाल की चीज है कि अच्छे-अच्छे को ईमानदार से बेईमान बना देता है. नरेंद्र मोदी पर सामान्य जनता अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था या अच्छे गवर्नेंस की आशा में विश्‍वास कर रही है. कांग्रेस के प्रधानमंत्री और कांग्रेस मंत्रिमंडल ने देश में यह भ्रम पैदा कर दिया है कि अब व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता और लूट एक सर्वव्यापी अवसर के रूप में सामने आई है. इसे रोकने के लिए लोग नरेंद्र मोदी की तरफ़ देख रहे हैं. नरेंद्र मोदी की तस्वीर उनके प्रचार तंत्र ने कुछ इस तरह की बना दी है कि नरेंद्र मोदी के आते ही व्यवस्था में सब कुछ सुचारू रूप में चलने लगेगा. लेकिन सुचारू रूप से कैसे चलेगा, इसका कोई संकेत नरेंद्र मोदी के किसी इंटरव्यू में नज़र नहीं आता.
यह कहा जा सकता है कि हम नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी की आलोचना कर रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी भी इसे इसी रूप में देखेगी, लेकिन हमारी मजबूरी यह है कि हम पत्रकार हैं और चाहे भारतीय जनता पार्टी हो, कांग्रेस हो, जयललिता हों, ममता बनर्जी हों, वामपंथी हों या फिर समाजवादी हों, अगर वे सत्ता में आ रहे हैं, सत्ता में आने के दावेदार हैं, तो हमें उनके किए हुए कामों के कमजोर पहलू लोगों के सामने लाने ही होते हैं. यह आलोचना नहीं है, यह हमारा कर्तव्य है और इस कर्तव्य के तहत हम जब देखते हैं, तो हमें यह दिखाई देता है कि भावी प्रधानमंत्री का दावा करने वाला व्यक्ति देश को स्पष्ट संदेश नहीं दे रहा है. अब अगर यह कहें कि राहुल गांधी भी कोई संदेश या कोई स्पष्ट राह नहीं दिखा रहे हैं, तो आपको कोई चिंता नहीं होती. मैं इसे कुतर्क मानता हूं. राहुल गांधी की समझ के बारे में पिछले 6-7 सालों में राय बनी है कि उनमें न देश की समस्याओं की समझ है और न समझने की इच्छाशक्ति है. इसलिए राहुल गांधी अपने अधकचरे भाषण लिखने वाले सलाहकारों पर निर्भर हैं और वह देश को जो बोलते हैं, वही अधकचरापन बोलते हैं. पर नरेंद्र मोदी को लेकर चिंता इसलिए होती है, क्योंकि वह गंभीरतापूर्वक प्रधानमंत्री पद की तरफ़ बढ़ते दिख रहे हैं. हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करके उनके प्रचार तंत्र ने देश के लोगों में उनकी महाबली की तस्वीर बना दी है. अब यह महाबली साबित नहीं करेगा कि वह महाबली है, तो देश आंतरिक तनाव के दौर में पहुंच जाएगा. मैं जिसे आंतरिक तनाव कहता हूं, वह दरअसल, देश में छीना-झपटी के दौर का पहला हिस्सा है. जिस तरीके से ग़रीबी और अमीरी के बीच का अंतर बढ़ रहा है और जिस तरह ग़रीब को यह लग रहा है कि उसकी इस स्थिति के ज़िम्मेदार नौकरशाह और राजनेता हैं, उससे देश में छीना-झपटी का दौर जल्दी आने का डर पैदा हो रहा है.
महाबली नरेंद्र मोदी के राज्य का कोई भी आकलन देश के किसी भी अख़बार और टीवी चैनल ने नहीं किया. वहां की विषमता का अध्ययन किसी भी अख़बार या टीवी चैनल ने नहीं किया. शायद इसके लिए भी कोई न कोई पैकेज बना होगा. टीवी चैनलों और अख़बारों के प्रचार से अगर लोगों के पेट में रोटी पहुंच जाए, तो क्या बात है! लेकिन जिन पेटों में रोटी नहीं पहुंचेगी और जिन हाथों को काम नहीं मिलेगा, वे आशा की इतनी बड़ी ऊंचाई को बहुत जल्दी छोटा करने की सोचने लगेंगे. इसलिए नरेंद्र मोदी के सामने हर दिन चुनौतियों का पहाड़ खड़ा हो रहा है. शायद इन चुनौतियों के बारे में नरेंद्र मोदी खुद नहीं सोच पा रहे होंगे और यह ख़तरा नरेंद्र मोदी के सामने है कि वह जिन आशाओं को पैदा कर रहे हैं, अगर उन आशाओं को पूरा करने का कोई साफ़ नक्शा उनके पास नहीं है, तो उनके ख़िलाफ़ एक बड़ा जनांदोलन भविष्य के गर्भ में पनप रहा है.
अगर इन संभावनाओं को नकारने या कुचलने का काम नरेंद्र मोदी धार्मिक ध्रुवीकरण से करेंगे, तो वह इस देश में दंगों और नरसंहारों की तरफ़ मुड़ जाएगा. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि नरेंद्र मोदी हर हालत में देश की समस्याओं की प्राथमिकता तय करें और उन प्राथमिकताओं के आधार पर अपना संकल्प दोहराएं. संकल्प दोहराएं या न दोहराएं, पर उनके हल की तरफ़ क़दम बढ़ाएं. देश इस समय नरेंद्र मोदी से यही चाह रहा है, वर्ना विकास और विनाश का रास्ता एक ही बिंदु से मुड़ता है और अगर सावधान न रहे, तो विकास से गुजरने की जगह हम विनाश के दौर से गुजरने लगेंगे.प
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